कफनी ग्लेशियर यात्रा- पांचवां दिन (द्वाली-कफनी-द्वाली-खाती)

5 अक्टूबर 2011 का दिन था वो। मैं और अतुल द्वाली में थे जबकि हमारे एक और साथी नीरज सिंह यानी हल्दीराम हमसे बारह किलोमीटर दूर पिण्डारी ग्लेशियर के पास थे। समुद्र तल से 3700 मीटर की ऊंचाई पर बिना स्लीपिंग बैग के उन्होंने पता नहीं कैसे रात काटी होगी। दिल्ली से चलते समय हमने जो कार्यक्रम बनाया था, उसके अनुसार आज हमें कफनी ग्लेशियर देखना था जबकि हकीकत यह है कि पिछले तीन दिनों से हम लगातार पैदल चल रहे थे, वापस जाने के लिये एक दिन पूरा पैदल और चलना पडेगा तो अपनी हिम्मत कुछ खत्म सी होने लगी थी। जाट महाराज और अतुल महाराज दोनों एक से ही थे।
इस हफ्ते भर की यात्रा में एक खास बात यह रही कि मैं हमेशा सबसे पहले उठा तो आज भी जब उठा तो सब सोये पडे थे। मेरे बाद ‘होटल’ वाला उठा, फिर अतुल। रात सोते समय तय हुआ था कि कफनी कैंसिल कर देते हैं और वापस चलते हैं। लेकिन उठते ही घुमक्कडी जिन्दाबाद हो गई। घोषणा हुई कि कफनी चलेंगे। हालांकि अतुल को इस घोषणा से कुछ निराशा भी हुई। खाने के लिये बिस्कुट-नमकीन के कई पैकेट भी साथ ले लिये। अगर कफनी ना जाते तो जिन्दगी भर मलाल रहता कि कफनी से बारह किलोमीटर दूर से निकल गये। पता नहीं अब कभी इधर आना हो या ना हो।

 

कफनी के रास्ते में अतुल



यह है द्वाली। द्वाली से एक रास्ता पिण्डारी ग्लेशियर जाता है और एक कफनी ग्लेशियर।

कफनी ग्लेशियर से निकलकर आने वाली कफनी नदी।

जल्दी से जल्दी करते करते भी सवा सात बज गये जब हमने प्रस्थान किया। पिण्डारी ग्लेशियर के मुकाबले कफनी ग्लेशियर कम लोकप्रिय है। इसलिये रास्ता भी उतना अच्छा नहीं है। अतुल आदत से लाचार होकर आगे आगे चला गया और तुरन्त ही पीछे हो गया। कारण था जाले। मकडी के जालों के ‘झुण्ड के झुण्ड’ रास्ते में थे और चलने में बडी दिक्कत कर रहे थे।
पांच किलोमीटर चलने के बाद खटिया पहुंचे। द्वाली से खटिया तक सीधी चढाई है और पूरा रास्ता भरपूर जंगल से होकर जाता है। सुबह का टाइम और कोई हलचल ना होने के कारण पक्की उम्मीद थी कि कोई ना कोई जंगली जानवर जरूर मिलेगा। लेकिन कोई नहीं मिला। हां, खटिया से कुछ पहले एक बंगाली बुजुर्ग एक गाइड के साथ वापस लौट रहे थे। उन्होंने कहा कि आज खटिया में ही रुक जाना। आज कफनी ग्लेशियर तक पहुंचते पहुंचते अन्धेरा हो जायेगा, वहां रुकने का कोई इंतजाम नहीं है। मैंने पूछा कि आप आज रात्रि विश्राम कहां करोगे तो बताया कि खाती। तब मैंने कहा कि हम आपको आज शाम को खाती में ही मिलेंगे और कफनी के फोटो भी दिखायेंगे। वो ‘अरे रहने दो’ वाले स्टाइल में हाथ और दांत दिखाकर चला गया।
खटिया में कुमाऊं मण्डल विकास निगम का रेस्ट हाउस है और दो तीन दुकानें और भी हैं। एक दुकान खुली थी। रेस्ट हाउस का चौकीदार ही इस दुकान को चलाता है और खाना खिला देता है। एक बात और थी कि आज सुबह से ही धुंध थी और धूप के दर्शन नहीं हुए थे। इसलिये ठण्ड बरकरार थी। भूख भी लगने लगी थी। चाय का आदेश दे दिया गया। पूछा कि खाना बनने में कितना टाइम लगेगा तो बताया कि आप कफनी से होकर वापस आ जाइये, खाना तैयार मिलेगा। हमने कहा कि भाई, भूख तो अब लगी है, जरूरत तो अब है, वापस आकर जरूरत पडेगी ही नहीं क्योंकि हम भागमभाग में रहेंगे। ये बता कि आमलेट तो बन जायेगा। बोला कि हां। एक आमलेट का ऑर्डर दे दिया। अतुल आमलेट नहीं खाता है।
हां, आमलेट से याद आया कि हम तीनों में केवल मैं ही खाता हूं। घुमक्कडी के दौरान खाना खाते समय अगर आमलेट भी मिल जाये तो सलाद के तौर पर मैं इसे रोटी सब्जी के साथ ही खाना पसन्द करता हूं। अगर सब्जी बढिया स्वादिष्ट नहीं बनी है, तो आमलेट पूर्ति कर देता है। अतुल और हल्दीराम मेरी इस आदत से परेशान थे। इसलिये जब तक ये दोनों खाना खाकर हट नहीं जाते थे तो मुझे खाना खाने की अनुमति नहीं थी। आज जबकि मेरे पेट में चूहे कूद रहे थे तो अतुल के पेट में चूहे भी भूखे मर गये थे। और खाना मिलेगा शाम को। तब तक चाय और बिस्कुट पर ही काम चलाना मुश्किल था। अतुल ने मुझसे पूछा कि ये बता अण्डा शाक होता है या मांस। मैंने कहा कि भाई सुन, मैं अण्डे को दूध के साथ एक ही श्रेणी में रखता हूं। मेरे लिये दूध और अण्डा बराबर हैं। बोला कि अगर मैं खा लूंगा तो बाद में मुकरेगा तो नहीं। मैंने ना कर दी। एक और आमलेट का ऑर्डर दे दिया गया।
जैसे ही अतुल ने आमलेट का पहला टुकडा मुंह में डाला तो लग रहा था कि कोई सडी जली चीज खा रहा है लेकिन जैसे ही मुंह में स्वाद बनना शुरू हुआ तो मुझ पर ताने उलाहने बरसने शुरू हो गये कि तूने पहले क्यों नहीं बताया कि आमलेट इतना स्वादिष्ट होता है। खैर इसके बाद अतुल नियमित अण्डा भक्षी बन गया।
खटिया की समुद्र तल से ऊंचाई 3200 मीटर है। इसके बाद वातावरण ही बदल जाता है। घने जंगल का स्थान खुले बुग्याल ले लेते हैं। कहीं कहीं बडे बडे पत्थर और चट्टानें भी मिलती हैं जो श्रीखण्ड यात्रा की याद दिला देती हैं। इतना बदलने के बाद भी एक चीज नहीं बदली- मौसम। धुंध और ज्यादा बढने लगी थी। यहां धुंध को बादल कहा जाता है तो कह सकते हैं कि बादलों का घनत्व भी बढता ही जा रहा था। कफनी नदी हालांकि सीधी जाती है लेकिन करीब सौ मीटर के बाद कुछ नहीं दिखता। अगर बादल ना होते तो हम धरती की सुन्दरतम जगह पर खडे थे। यह नन्दा देवी का इलाका है। इसकी बाहरी सीमा में कई ग्लेशियर हैं- सुन्दरढूंगा, पिण्डारी, कफनी, नामिक, रालम, मिलम आदि। बादल ना होते तो हरे-भरे बुग्यालों के उस पार बर्फीले विराट पर्वत दिखते।

सफर का हमसफर- पानी।

जैसे जैसे आगे बढते गये, बादल होने के कारण निराशा सी होने लगी। अतुल ने साफ कह दिया कि वो जो बडी सी चट्टान दिख रही है, बस वही तक जाऊंगा। तू ग्लेशियर तक चला जा और वापसी में मैं यही बैठा मिलूंगा। अब चलने में मजा नहीं आ रहा है। खैर वो चट्टान आई और घेर-घोटकर मैं अतुल को और आगे ले गया। कुछ देर बाद हल्की बूंदाबांदी होने लगी। रेनकोट तो पहले से ही पहन रखा था लेकिन चलते रहे।

 

जहां पिण्डारी का रास्ता बढिया बना हुआ है, वही कफनी का रास्ता कुछ कम बढिया है। लेकिन फिर भी इतना तो है कि भटकते नहीं हैं।

बादलों ने धीरे धीरे सारी सुन्दरता को ढक लिया।

तभी सामने कुछ दूर सफेद सी आकृति दिखीं। सोचा गया कि वे तम्बू हैं। चलो, वहां तक चलते हैं। जाकर देखा तो तम्बू वम्बू कुछ नहीं था, बल्कि कुछ प्लास्टिक का मलबा सा पडा था। गौर से देखने पर पता चला कि यह फाइबर है यानी एक तरह का मजबूत प्लास्टिक। कम से कम सौ मीटर के घेरे में यहां वहां बिखरा पडा था यह मलबा। इसमें लकडी के दरवाजे भी थे जो आदमकद थे। दिमाग खूब चलाकर देख लिया कि यह बला क्या है। आखिरकार नतीजा निकला कि यहां कभी कोई हेलीकॉप्टर गिरा होगा, यह उसका मलबा है। अब महाराज हेलीकॉप्टर में तो कभी बैठे नहीं हैं, ना ही यह पता कि इसकी दीवारें और दरवाजे कैसी होती हैं। लेकिन इसके अलावा हमारे पास कोई तर्क भी तो नहीं था। अगर हेलीकॉप्टर नहीं है तो कौन इसे यहां इतनी दूर से लाया और लावारिस छोडकर चला गया। मलबे के टुकडे इतने बडे बडे और भारी थे कि हम उन्हें हिला तक नहीं सके। बाद में पता चला कि यह कुमाऊं मण्डल विकास निगम की करामात है। वे यहां फाइबर हट बनायेंगे। सारा सामान खच्चरों पर ही लादकर लाया गया है।

 

यह है आलस। जब बादलों ने सारा नजारा ढक लिया तो आगे बढने का मन भी नहीं किया।

चलना तो पडेगा ही

ऐसे पत्थर श्रीखण्ड यात्रा की याद दिला देते हैं।

बडा मजा आता है ऐसे रास्तों पर चलने में

नजारे कुदरत के

यहां वहां बिखरा फाइबर हट को बनाने के लिये लाया गया सामान। पता नहीं कुमाऊं मण्डल वाले इन हट्स को कब तक बनायेंगे।

इस मलबे की दीवारों का आसरा ले लिया था हमने जब तेज बारिश होने लगी। भूख फिर लगने लगी तो बिस्कुट नमकीन के पैकेट खत्म कर दिये गये। यही आखिरी निर्णय ले लिया गया कि अब कफनी ग्लेशियर तक जाने का कोई औचित्य नहीं है, वापस चलो। हालांकि मेरा मन ग्लेशियर तक जाने को कर रहा था लेकिन फिर भी अतुल की इच्छा थी तो वापस चल पडे बिना ग्लेशियर तक पहुंचे ही। और हमें इस बात का कोई मलाल भी नहीं है। यह हमारी असफलता भी नहीं है। घुमक्कडी कोई दौड नहीं है कि हमें भागमभाग मचानी है और हर हाल में लक्ष्य तक पहुंचना ही है। घुमक्कडी तो उस चीज का नाम है जिसमें कहा जाता है कि जिधर भी मुंह उठ जाये, चल पडो। बस हमारा वापसी की तरफ मुंह उठ गया और हम वापस चल पडे।
हम 3500 मीटर की ऊंचाई तक पहुंच गये थे। अन्दाजा था कि अभी ग्लेशियर दो किलोमीटर दूर ही होगा। और वापस दिल्ली आकर जब गूगल अर्थ और जीपीएस डाटा की सहायता से दूरी देखी गई तो यह डेढ किलोमीटर मिली। यानी हम ग्लेशियर से डेढ किलोमीटर दूर रह गये थे। लेकिन बारिश में वहां तक जाने का कोई फायदा नहीं था जबकि ठण्ड हाथों को काटे जा रही थी, कैमरा ऐसे में किसी काम का नहीं था।
चार बजे से पहले ही वापस द्वाली पहुंच गये। दुकान वाला देखते ही अचम्भित रह गया कि इतनी जल्दी ये लोग चौबीस किलोमीटर की पैदल चढाई उतराई तय करके वापस कैसे आ गये। हमने उनसे बताया कि हम ग्लेशियर देखकर लौटे हैं। बडा खराब मौसम है। यकीन नहीं हुआ तो हमने कहा कि यार ये बताओ कि ग्लेशियर से कुछ पहले वो मलबा बिखरा पडा है, वो क्या मामला है। इतना सुनते ही उन्हें भरोसा हो गया कि छोरे वाकई ग्लेशियर देखकर ही वापस आये हैं। और हमें भी पता चल गया कि वो मलबा क्या है।
दुकान वाले ने बताया कि तुम्हारा तीसरा साथी, बंगाली और दो गाइड-पॉर्टर अभी घण्टे भर पहले ही यहां से निकले हैं। तुम तेज चलते हो, खाती तक उन्हें आसानी से पकड लोगे। मैंने कफनी जाने से पहले ही सुबह अपना स्लीपिंग बैग यही रख दिया था, बैग उठाया और खाती की तरफ दौड लगा दी। हां, भरपेट खाना भी खा लिया था।
अब हमारी स्पीड देखने लायक थी। मैंने पहले भी बताया है कि अतुल चलने में मुझे हमेशा पीछे छोड देता था, तो अब भी मैं पीछे ही था। रास्ता कुल मिलाकर नीचे उतरने का ही था। घण्टे भर में पांच बजे तक रास्ते में पडने वाली एक गुमनाम सी जगह पर जा पहुंचे। यहां खाने-पीने और अति जरूरत की हालत में ठहरने की सुविधा मिल जाती है। यहां पिण्डर नदी पर एक पुल है और रास्ता पिण्डर के बायें हो जाता है। यहां पता चला कि हमारे बाकी साथी बीस मिनट पहले ही यहां से निकले हैं।
पांच मिनट यहां रुककर फिर चल पडे। अब हुआ यह कि अतुल बेहद तेज चला गया और मैंने अपनी औकात से ज्यादा चलना बन्द कर दिया। थोडी ही देर में हममें इतना फासला हो गया कि हम एक-दूसरे की निगाहों से दूर हो गये। अभी भी छह किलोमीटर दूर और चलना था। और उन्हीं छह में से चार किलोमीटर मेरे लिये बडे डरावने साबित हुए।
साढे पांच बजे दिन छिप गया। घनघोर जंगल होने के कारण यह अन्धेरा और भी घना और भयानक लग रहा था। हालांकि रास्ता इतना चौडा था कि चलने में कोई दिक्कत नहीं हुई। कुछ देर पहले ही बूंदाबांदी बन्द हुई थी, इसलिये माहौल और भी रहस्यमय हो गया था। पेडों से गिरती टप-टप बूंदें भी दिल की धडकन को बढा देती थीं। देखा जाये तो दिक्कत कुछ भी नहीं थी। लेकिन फिर भी, डर लग रहा था तो लग रहा था। क्या कर सकता था। किसी जंगली जानवर खासकर भालू से और भी ज्यादा आशंकित था। पीछे दिख जाये तो कोई दिक्कत नहीं, बराबर में कहीं ऊपर या नीचे दिख जाये तो भी दिक्कत नहीं थी। दिक्कत थी भालू के सामने आ जाने की आशंका। हिमालय में बर्फीले पहाडों से नीचे जंगल हैं। इन्हीं जंगलों में ये जानवर बहुतायत में रहते हैं। जंगलों से नीचे मानव आबादी रहती है तो ये वहां जाने से कतराते हैं।
एक मोड पार करते ही कुछ बडे से जानवर दिखे। बस देखते ही जान सूख गई, ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे। खैर, वे भैंसे थीं। जब लगने लगा कि बस दस मिनट का रास्ता और रह गया है तभी चढाई शुरू हो गई। छह बज चुके थे। मैं इस चढाई को भूल गया था। सोच रहा था कि पूरे रास्ते भर खाती तक उतरना ही है। डर के मारे जितना तेज नीचे उतर रहा था, उतना ही तेज चढाई पर चढने लगा। उन्नीस बीस का ही फरक आया होगा। अगर दिन होता तो कम से कम दस जगह रुकता और सांस लेता। अब सांस लेने की फुरसत किसे थी। जैसे जैसे चढता गया, सांस भी चढती गई और पसीना भी आता गया।
आखिरकार चढाई के उच्चतम बिन्दु पर पहुंचा। असल में रास्ता तो नीचे से ही था लेकिन यहां काफी बडे क्षेत्र में कभी भू-स्खलन हुआ था तो रास्ता नीचे से हटाकर भूस्खलन के ऊपर से बना दिया गया इसलिये यह चढाई चढनी पडी। मैंने अभी बताया था कि कुछ ही देर पहले बारिश थमी थी इसलिये पत्थरों का बना रास्ता रपटीला हो गया था इसलिये चलने की स्पीड और भी कम हो गई। खैर, ले देकर डरता घबराता खाती पहुंच गया।

 

यह वहां पर आम है।

जंगल का डरावना रास्ता

यहां नेकी होटल में अतुल और हल्दीराम चूल्हे के सामने बैठे थे। दो आदमी लठ लिये खडे थे। मेरे पहुंचते ही अतुल ने कहा कि तेरी वजह से हम सब कितने परेशान हो रहे थे। ये देख लठ वालों को, अभी तुझे ढूंढकर लाने की तैयारी थी। और देख तेरा भाई जीत गया है। इनसे पहले यहां पहुंच गया था। हालांकि अतुल की यह जीतने हारने की बात सुनकर मुझे गुस्सा तो आया लेकिन हम सभी नियम में बंधे थे कि हर बन्दा अपनी मर्जी का मालिक होगा। अतुल ने वही किया जो उसके जी में था। इस बात से मुझे कोई शिकायत नहीं है।
पता चला कि भूस्खलन वाले इलाके में एक शक्तिशाली भूत रहता है। वो अंधेरे में आने जाने वालों को नुकसान पहुंचाता है, यहां तक कि मार भी डालता है। लठ वाले मुझे उस भूत से रक्षा प्रदान करने के लिये ही जाने वाले थे। खाती वाले स्थानीय लोग भी अंधेरा होने के बाद उधर नहीं जाते। मैंने उनका समर्थन करते हुए बताया कि हां, भाईयों, ठीक कह रहे हो। वो भूत मेरे पीछे पीछे रेस्ट हाउस तक आया था। सभी के कान खडे हो गये। मतलब? मतलब कि मुझे वो दिखाई तो नहीं दिया लेकिन उसके पैरों की आवाज मुझे स्पष्ट सुनाई दे रही थी। बार-बार रुककर पीछे देखता तो कुछ नहीं दिखता था और वो आवाज भी बन्द हो जाती थी, जब मैं चल पडता तो आवाज फिर से आने लगती।
खुसर-पुसर होने लगी कि जाट महाराज तो बडे दिलवाला इंसान है। पीछे पीछे भूत आ रहा था और अगला डरा नहीं। एकाध ने कहा कि इन्हें इस भूत के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, अगर जानकारी पहले से होती तो पक्का डर जाते। उधर मैं सोच रहा था कि तुम्हें क्या पता, भूतलैण्ड शुरू होने से एक घण्टे पहले ही मेरा डर के मारे क्या हाल हो रहा था।

अगले भाग में जारी

21 Comments

  • Stone says:

    As usual brilliant write up Neeraj.
    Anxiously waiting for next part now :-)

    Keep traveling!!!

  • Mukesh Bhalse says:

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  • Nandan says:

    @ SS – Haha. I liked the new names :-)

    @ Neeraj – I have exactly the same feelings about Anda Omleet. I use it as a ‘taste maker’ all the time. Also when you are eating out, it is much safer to have Anda then a lot of other things.

    The stretch was really fast paced. I do not know about bhoot, but definitely God was with you while you were going through the last stretch.

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    And yes, Ghumakkar is not a race. Insightful.

    • Neeraj Jat says:

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  • Mukesh Bhalse says:

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  • sarvesh n. vashistha says:

    neeraj ji bhai bhoot bhoot suna kar daraya mat karo, ya phir unki photo bhi khinch liya karo.
    bhainso ki photo nahin lagai.
    bhalu waloo se kab samna hoga.

    • Neeraj Jat says:

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  • Neeraj Jat says:

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  • Atyant hi rochak vratant hai…. aanand aa gaya… please tell me how can I write in hindi..???

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    • Neeraj Jat says:

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      • Silentsoul says:

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  • Silentsoul says:

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    • Manish Khamesra says:

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    • Neeraj Jat says:

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  • Chandra81 says:

    Amazing pics :-)
    I wish I could be here soon.
    Thanks Neeraj for this amazing narrative….I look forward to more :-)
    Keep traveling…keep writing.
    Cheers!
    Nikhil

  • Chandra81 says:

    A tip for those looking forward to write in Hindi.
    Go to Google translate. Select language as Hindi (in detect language). Start typing Hindi words using English letters and magic!
    That’s the fastest way to write in Hindi :-)
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    • Neeraj Jat says:

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  • Ritesh Gupta says:

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