औरंगाबाद में बिताये पहले दिन का यात्रा-संस्मरण आप इस कड़ी के पहले भाग में पढ़ चुके हैं. एल्लोरा की विश्वप्रसिद्ध गुफाएँ तथा कई अन्य पर्यटन स्थल हम देख चुके थे. अब दूसरे दिन की यात्रा “अजंता की गुफ़ाओं” को समर्पित थी. औरंगाबाद शहर से अजंता की गुफाएँ लगभग १०० किलोमीटर दूर हैं. यदि गाड़ी संतुलित और उसका ड्राईवर कुशल हो, यह दूरी लगभग २ घंटे में पूरी की जा सकती है. चूँकि गुफाएँ प्रातः ९ बजे खुलतीं हैं, इसीलिए औरंगाबाद से हमलोग, सुबह का नाश्ता करने के बाद, ०८.३० बजे रवाना हो लिए. पक्के-चिकने रास्ते पर गाड़ी जैसे-जैसे तेज़ी से दौड़ती हुई गंतव्य की ओर चल रही थी, वैसे-वैसे ही ग्रामीण मराठवाड़ा का वातावरण हमारे आँखों के सामने खुलता जा रहा था. रास्ते की किनारे-किनारे दोनों तरफ़ जगह-जगह नाश्ते-भोजन की दुकानें थीं. गन्ने की रसों की रसवंती दुकानें भी अनेकों थीं, जिनके सामने की तरफ गन्ने के गट्ठे खड़े किये गए थे ताकि लोगों को उनका पता चलते रहे. काली मिट्टी वाली पठारी धरती थी, जिनमें रस्ते के दोनों तरफ़ खेत थे. फ़सल कट चुकी थी. जगह-जगह खेतों में पुआल के गट्ठे लगे हुए थे. इन गाठों को ऐसे सजाया गया था जिससे की बारिश का पानी पुआल के बाहरी आवरण को ही भीगा कर बह जाये और गाठों के अन्दर के पुआल सूखे ही रहें. पर रास्ते के किनारे कटे-हुए वृक्षों का दृश्य आँखों में खटक रहा था. पता चला कि मार्ग चौड़ीकरण प्रोज़ेक्ट का कार्य शुरू होने के कारण वृक्ष काट दिए गए हैं. शुभकामना है कि भविष्य में एक बार फिर चौड़े मार्ग के दोनों किनारे पुनः घने वृक्षों से भर जाएँ. पैठनी और हिमरू साड़ियों की दुकाने, जो एल्लोरा के रास्ते में अधिक संख्या में थीं, वो दुकानें इस रास्ते पर कम संख्या में दिखीं.
रास्तों के किनारे पड़ने वाले गांवों और शहरों से आगे बढ़ने पर, सह्याद्री के पठार और घाटियाँ दृष्टिगोचर होने लगे. वनस्पतियाँ सूखी हुई थीं और धरती भूरे पड़ चुके सूखे घास से पटी हुई थी. बस एक बार जरा बारिश हो जाने दो, फिर देखना कि यहाँ हरियाली कैसी होती है. ऐसा लगता है कि औरंगाबाद की ओर से आने वाले यात्रिओं के लिए अजंता की गुफाएँ स्थानीय घाटी के दूसरी तरफ़ पड़तीं हैं. पठार की तीव्र ढलावं पार करने के बाद फ़र्दापुर/अजंता टी-जंक्शन आ गया और ठीक १०.५५ पूर्वान्ह को हमारी गाड़ी एक पहाड़ की तलहटी पर निर्मित अजंता गुफ़ा पार्किंग स्थल में जा लगी. पार्किंग के पास ही अजंता के इतिहास को दर्शाता हुआ एक मॉडर्न “अजंता अभ्यागत केंद्र” था, जिसके बारे में बताया गया कि वह जापानी सहयोग से निर्मित था. संभवतः वह एक दर्शनीय स्थल था, पर हमलोग उसे नहीं देख पाए. आज जब लिखने बैठा हूँ, तो उसे नहीं देख पाने का अफ़सोस भी हो रहा है और नहीं देख पाने का कोई विशेष कारण भी नहीं समझ में आ रहा है. खैर, पार्किंग से गुफ़ा के तरफ़ आगे बढ़ने पर एक व्यावसायिक केंद्र (शॉपिंग प्लाजा) मिलता है, जिसमें भांति-भांति के मनमोहक वस्तुएँ मिल रहीं थीं. विक्रेता-गण कई तरीकों से ग्राहकों को प्रेरित करते हैं, जैसे कि काफ़ी दूर तक आपके साथ चलते हुए आपको अपने दूकान में आने का निमंत्रण तब तक देते रहना, जब तक आप “हाँ” ना बोल दें. साथ ही यह भी बता दूँ कि आपको सौदेबाज़ी का पूरा व्यवहारिक ज्ञान होना चाहिए अन्यथा वस्तुओं का मूल्य भारी पड़ सकता है. ऐसे ही एक अज्ञात विक्रेता के साथ-साथ चलते-चलते हमलोग शटल-बस सर्विस तक आ गए. वातानुकूलित तथा साधारण, दोनों तरह की शटल बसें, पर्यटकों को पार्किंग स्थल से अजंता गुफ़ा के प्रवेश द्वार तक ले जातीं हैं, जिसके लिए बस में ही टिकट कटता है.
एक वातानुकूलित शटल बस से, लगभग ४ किलोमीटर का सफ़र तय कर, हमलोग अजंता गुफ़ाओं के प्रवेश स्थल पर आ गए. यहाँ टिकट बुकिंग कार्यालय है. साथ ही महाराष्ट्र पर्यटन द्वारा संचालित एक “अजंता रेस्तरां” भी है, जहाँ दक्षिणी भारतीय, गुजराती, पंजाबी तथा चाईनीज़ नाश्ता-खाना मिलता है. गुफ़ाओं में जाने से पहले और वहाँ से लौटने पर इस रेस्तरां में कुछ जलपान कर पर्यटक अपनी थकन कम कर सकते हैं. प्रवेश-स्थल के हरे-भरे दालान में, हैदराबाद के निज़ाम के एक तत्कालीन अधिकारी, सर अकबर हैदरी ने, सन १९३७ में एक पीपल का पेड़ लगाया था ताकि लोगों को उसकी छाया में विश्राम करने की सहूलियत हो. साथ ही वह पीपल का पेड़ लोगो को भगवन बुद्ध के ज्ञान प्राप्त करने के इतिहास की याद दिलाता रहे. कुल मिला कर प्रवेश-स्थल पर उपलब्ध व्यवस्थाएँ काफ़ी सुविधाजनक हैं. पर्यटकों को सलाह दी जाती है कि गुफ़ाओ की तरफ़ जाने के पहले प्रवेश-स्थल पर स्थित प्रसाधन-कक्ष का इस्तेमाल कर लें, क्योंकि अजन्ता गुफ़ाओं के भ्रमण में लगभग २-३ घंटे लगते हैं. साथ ही अपने साथ जल की बोतलें रख लें, खास कर गर्मियों में इनकी उपयोगिता बहुत पड़ती है.
वर्तमान काल में प्रवेश-स्थल पर सुरक्षा प्रहरी-गण तैनात रहते हैं, जो पर्यटकों की चेकिंग के पश्चात उन्हें प्रवेश करने की अनुमति देते हैं. शुरू में ऊँची-ऊँची सीढियाँ मिलतीं हैं. घुटने कमज़ोर होने, अतिवृद्ध और अशक्त अथवा किसी और शारीरिक परेशानी से व्याकुल पर्यटक, वहाँ उपलब्ध कुर्सी-पालकी की सहायता ले सकते हैं. हमलोगों ने भी अपनी तैयारियां पूरी कीं और प्रवेश स्थल से अजंता की गुफ़ाओं की ओर परन्तु पैदल ही चल पड़े. ऊँची सीढ़ियों को पार कर जैसे ही आगे बढ़े, अजंता गुफ़ाओं का विहंगम दृश्य दृष्टिगोचर हुआ. उस समय दिन से ११.३० बजे थे. गर्मी थी. पहाड़ी वनस्पतियों के सूख जाने से हरियाली-विहीन हुए पर्वत और घाटियाँ तापमान को और बढ़ा रहे थे. घाटियों के बीच बहने वाली वाघोरा नदी बिलकुल सूखी पड़ी थी और उसके सूखे तल पर पर वर्तमान गर्म चट्टानों और सूखे झाड़ों ने उस प्राचीन स्थल पर एक अजीब सी कांति बना रखी थी, जो उनकी ऐतिहासिकता को और बढ़ा था. दिन के मध्यकाल के सूरज की असीम रौशनी में अजंता गुफ़ा-संकुल एक महती भव्य दृश्य प्रस्तुत कर रहा था, जिससे पर्यटक विस्मित हो कर क्षण-भर ठिठके हुए बिना नहीं रह सकते.
भावी पर्यटकों को बताते चलें कि शिलाखंडों को काट कर बनाई गई अजंता की ३० गुफ़ाएँ वाघोरा नदी के सुन्दर अश्व-नाल के आकार के दर्रे में स्थित हैं. यह बौद्ध संप्रदाय के दो भिन्न चरणों से सम्बद्ध हैं. पूर्ववर्ती हीनयान चरण का समयकाल दूसरी शताब्दी ई. पू. से ले कर पहली ईस्वी शताब्दी तक का है. फिर लगभग ४०० वर्षों तक उत्खनन और उत्कीर्णन का कार्य बंद रहा होगा. तत्पश्चात उत्तरवर्ती महायान चरण का समय काल पाँचवी ईस्वी शताब्दी से छठवीं ईस्वी शताब्दी का है. तत्कालीन बौद्ध मुनियों के एकांत-स्थल में रह कर ध्यान, पूजन और पठन-पाठन के लिए इन गुफ़ाओं का निर्माण हुआ था. एतिहासिक काल में प्रत्येक गुफ़ा से सीढियाँ बनीं रहीं होंगी ,जिससे कि बौद्ध भिक्षु-गण वाघोरा नदी से जल ले सकें. परन्तु कालान्तर में वो सीढियाँ नदी के कटाव से नष्ट हो चुकीं हैं. वर्तमान में तो प्रत्येक गुफ़ा के सामने से गुजरता हुआ सीमेंट से निर्मित पक्का मार्ग है, जिसकी सहायता से देश-विदेश से आये पर्यटक और बौद्ध सम्प्रदाय के अनुयायी गुफ़ाओं की शिल्पकारी और भित्ति-चित्रकारियों का अवलोकन कर विष्मय-जन्य प्रशंसा करते हुए नहीं थकते हैं.
आरम्भ में स्थित दूसरे सुरक्षा-कुटी से निकल कर आगे बढ़ते ही प्रथम गुफ़ा (क्रम संख्या १) आती है. महायान सम्प्रदाय से सम्बंधित यह गुफ़ा (विहार) अजंता के श्रेष्ठतम विहारों में से एक है. द्वार पर बना चौखट और बरामदे में बने स्तंभ शिला-शिल्प के दृष्टि से अनुपम हैं. जूते उतार कर गुफ़ा के अन्दर प्रवेश करता हूँ. गर्भ-गृह में भगवान् बुद्ध की उपदेशक प्रतिमा है, जिससे सारनाथ में दिया गया प्रथम उपदेश के दृश्य का आभास होता है. गुफ़ा के दीवारों पर भगवान बुद्ध के जीवन से तथा जातक कहानियों से सम्बंधित भित्ति चित्र हैं. छतों पर ज्यामितिक आकारों, फूलों तथा प्राणियों के चित्र इस प्रकार बनें हैं, जिससे खूबसूरत शामियाने का आभास होता है. परन्तु “पद्म-पाणी” एवं “वज्र-पाणी” नामक भित्ति चित्र तो विश्वप्रसिद्ध हैं., जिन्हें देखते ही बचपन के इतिहास की पुस्तक की याद आ गई. देर तक निहारता रह गया. शताब्दियाँ बीत गईं हैं, पर इन चित्रों में कितनी सजीवता हैं. हर चित्रों में वर्णित तरह-तरह की कहानियाँ वातावरण में और भी आश्चर्य भर डालतीं हैं. जी चाहता है कि इन कहानियों के रस में डूब जाऊं, पर वक़्त का तकाज़ा आगे बढ़ने को मज़बूर कर देता है.
पहली गुफ़ा से निकलने का बाद अगली गुफ़ा (क्रम संख्या २) में फ़िर से जूते उतार कर प्रवेश किया. महायान सम्प्रदाय की यह गुफा संभवतः छठी-सातवीं शताब्दी में बनी थी. अत्यधिक अलंकृत इस गुफ़ा में भी एक सभामंडप और एक बरामदा था. गर्भगृह में भगवान् बुद्ध की सिंहासनस्थ प्रतिमा तथा कक्ष की दीवारों पर बुद्ध की अनंत अनुकृतियां और उनके जीवन से सम्बंधित अनेकों चित्र वहाँ उकृत थीं. वस्तुतः वह गुफ़ा स्तम्भयुक्त कक्ष के छत चित्रण के लिए प्रसिद्द थी. छत चित्रण में मुख्यतः विरुद्ध रंग-संगति से चित्रित चित्रों का समावेश था, जिनमें वर्तमान काल में भी चमक बरक़रार थी. चित्रों में उत्कीर्ण सौंदर्य की पराकाष्ठा तभी है जब दर्शकवृन्द भी चित्रलिखित रूप से उन्हें देखता रह जाये. मैं भी शायद ऐसा ही कर रहा था, जैसा कि वहाँ खड़े सभी पर्यटक कर रहे थे. सभी की आँखे छत के चित्रों पर थीं, मुख खुले हुए थे और शायद मन में उन चित्रकारों के प्रति गर्व और उनकी असीम कला के प्रति आश्चर्य थे.
इसके बाद मैं नवमी (क्रम संख्या ९) गुफ़ा का वर्णन करता हूँ. हीनयान सम्प्रदाय से सम्बन्धित इस गुफ़ा का निर्माण संभवतः प्रथम शताब्दी ई. पू. में हुआ था. यह एक प्राचीनतम चैत्य गृह था. आयताकार भूविन्यास में २३ स्तंभों के द्वारा चाप, प्रदक्षिनापथ और नाभि का निर्माण किया गया था. गज पृष्ठ केआकार की छत पर मूलतः लकड़ी की कड़ियाँ और शाह्तीरें मौजूद थे. चाप के मध्य में ऊँचे ढोलकनुमा अधिष्ठान पर अंडाकार स्तूप स्थित था. कुछ भित्तिचित्र भी वहाँ उपलब्ध थे. परन्तु उन दिनों, इस गुफ़ा में वैज्ञानिक संरक्षण का कार्य चल रहा था, जिसके संयंत्र लगे हुए थे. अतएव हम सभी इस गुफा से बाहर शीघ्र निकल आये. इस गुफ़ा का ऐतिहासिक महत्त्व के अलावा अर्ध-गोलाकार छज्जे से सुशोभित इसका बाहरी तोरण द्वार भी दर्शनीय था और तत्कालीन बौद्ध शिल्पकला के उच्चतम कोटि को परिलक्षित करता था. ०९वीं गुफ़ा से भी ज्यादा प्राचीन उससे अगली गुफ़ा (क्रम संख्या १०) थी. हीनयान सम्प्रदाय से सम्बंधित उस गुफा का निर्माण कार्य ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुआ था. वह अजंता की सबसे प्राचीन चैत्य गुफा थी. इसके कक्ष में ३९ अष्टकोणीय स्तम्भ थे. इस गुफ़ा के प्रदक्षिनापथ की दीवारों पर, स्तंभों पर सहस्त्रों वर्षों पूर्व बने रंगीन चित्र ही इसकी मुख्य विशेषता है. महत्वपूर्ण गुफ़ाओं के क्रम में अगली गुफाएँ क्रम संख्या १६ और १७ थीं. यह दोनों गुफाएँ महायान सम्प्रदाय से सम्बंधित थीं. गुफ़ा संख्या १६ के भित्ति-चित्रों में “मरणासन्न राजकुमारी”, “असित की भविष्यवाणी”, “नन्द का मनपरिवर्तन”, ‘माया का स्वप्न”, “श्रावस्ती का चमत्कार” एवं “सुजाता का खीर प्रदान करना” प्रसिद्द हैं. १७ वीं गुफ़ा में “मैत्रेय बुद्ध”, “सप्तमानुशी बुद्ध”, “जातक कथाएं” तथा “बुद्ध के जीवन की घटनाएँ” भित्ति-चित्रों में अंकित हैं. अगर अच्छा गाइड हो, तो इन दोनों गुफ़ाओं में चित्रों की कहानियाँ मनमोहक लगतीं हैं. ऐसा लगता है कि चोथी-पांचवीं शताब्दी में बने चित्र बोल-बोल कर अपनी गाथा सुना रहे हों.
१९, २१, २४ और २५ क्रमसंख्या की गुफ़ाओं को लाँघ कर, मैं भावी पर्यटकों को सीधे क्रम संख्या २६ लिए चलता हूँ. महायान सम्प्रदाय की उस गुफा का अलंकरण भव्य है. उस चैत्य गृह में भी चाप, प्रदक्षिनापथ और नाभि का निर्माण हुआ है. गज पृष्ठ आकार के छत में शिलाओं से निर्मित कड़ियाँ थी. स्तंभों में उत्कृष्ट शिला-शिल्प था, जिसमें भगवन बुद्ध की हस्त-मुद्राओं का वर्णन थे. हीनयान चरण में बने साधारण-सपाट स्तूपों की तुलना में महायान चरण में बने स्तूप अलंकृत थे. भगवान बुद्ध की प्रतिमा भी स्तूप के अधिष्ठान में काढ़ी गई थी. चैत्य गृह के दीवारों पर, शिलाओं को तराश कर, बुद्ध के जीवन काल की घटनाएँ अंकित थीं. कक्ष के छत पर चित्रित एक चित्र को देख कर दंग होना पड़ा कि जिसका चेहरा और शरीर आपकी तरफ ही दिखाई देता था चाहे आप जिधर से भी देखें. अपितु, उस गुफ़ा की सर्वश्रेठ कलाकृति भगवन बुद्ध की “महापरिनिर्वाण मुद्रा” थी. दीवार के मध्य में भगवान बुद्ध लेटे हुए थे. उनके पैरों की तरफ़ से उनकी आत्मा निकल कर स्वर्गारोही हो रही है. उस मूर्ति के नीचे धरती पर मौजूद लोग उदास और खिन्न हैं, क्योंकि उन्होंने एक महामानव खो दिया है. वहीँ मूर्ति के ऊपर देवतागण प्रसन्न हैं क्योकि उनके साथ एक महामानव जुड़ने जा रहा है. लगभग १५०० वर्ष पूर्व तराशे हुए इस दृश्य को देख कर सच में हर मनुष्य भावनात्मक रूप से थोडा उदास हो जाता है. ऐसा लगता है कि महापरिनिर्वाण तो जीवन का अंत ही है और उसके आगे कुछ भी तो नहीं. तात्क्षणिक भावुकता मुझमें भी समा गई और मैं निश्चल खड़ा रह कर उस कलाकृति को निहारता रह गया. फ़िर अचानक सुरक्षा-प्रहरी की आवाज़ से तन्द्रा भंग हुई और मैं अन्य सभी के साथ फोटोग्राफी प्रक्रिया में सम्मिलित हो गया. वैसे भी अजंता गुफ़ाओं का सफ़र इसी गुफ़ा में समाप्त भी तो हो गया था. इसीलिए फोटोग्राफ्स लेने के पश्चात हमलोग सभी गुफ़ा-संकुल से बाहर आ गए. वापसी की शटल बस लिया, शॉपिंग प्लाजा के बाद पार्किंग में आये, जहाँ हमें वापस औरंगाबाद ले जाने के लिए गाड़ी खड़ी थी. उस वक़्त दोपहर के ३.३० बज चुके थे और लगभग २ घंटे की वापसी यात्रा शेष थी.
हार्दिक वर्णन। मैंने मानसिक यात्रा की।
धन्यवाद.
आपको पसंद आया, यह जान कर अच्छा लगा.
अत्यंत मनभावन पोस्ट है बक्शी जी पढ़कर बेहद अच्छा लगा…घूमते रहिये घुमाते रहिये!
धन्यवाद
संक्षिप्त में आपने लिखा है. परन्तु जान कर अच्छा लगा.