सभी घुमक्कड़ साथियों को प्यार भरा नमस्कार और ॐ नमः शिवाय. जैसा की आपलोग जानते हैं की मेरी यात्रायें अमूमन मेरे परिवार के साथ तथा भोले बाबा के दर्शनों के लिए होती हैं. इस पोस्ट के द्वारा मैं आपसे अपनी एक पुरानी यात्रा को साझा करने जा रहा हूँ. यह यात्रा हमने करीब तीन वर्ष पहले सन २००९ में की थी, तथा अपनी स्मृति और अनुभवों के आधार पर मैं कोशिश कर रहा हूँ आपलोगों को रूबरू करने की, एक दर्शनीय शहर औरंगाबाद तथा भगवान शिव के एक अन्य महत्वपूर्ण ज्योतिर्लिंग घृष्णेश्वर से.
अपनी ज्योतिर्लिंगों की यात्रा के सिलसिले में त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन हमने अपने कुछ पारिवारिक मित्रों के परिवार के साथ कुछ महीनों पहले ही किये थे, और अब हमारे दिमाग में उधेड़बुन चल रही थी की कहाँ जाया जाये अतः काफी सोच विचार करने के बाद हमने निर्णय लिया की घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए जाएँ तथा साथ में औरंगाबाद शहर से लगे एतिहासिक स्मारकों तथा अजंता एवं एलोरा की गुफाएं भी देखी जाएँ.
शुरूआती यात्राओं में हमारी प्राथमिकता हुआ करती थी की भगवान भोलेनाथ के दर्शन हमें सोमवार को ही हों, अतः हम अपनी यात्रा की योजना भी इसी बात को ध्यान में रखकर बनाया करते थे, अतः हमने अपनी यात्रा शनिवार को शुरू की. यात्रा के कुछ दो चार दिन पहले हमने इंदौर से औरंगाबाद के लिए स्लीपर कोच बस में अपना आरक्षण करवा लिया. हमारी यह यात्रा तीन दिन की एक संक्षिप्त यात्रा थी जो की २१ जनवरी २००९ को शुरू होकर २४ जनवरी २००९ को समाप्त होनी थी.
हमारी बस का समय रात ८.३० बजे का था अतः हम ट्रेवेल्स के ऑफिस पर करीब आठ बजे पहुँच गए, उस समय संस्कृति १० वर्ष की तथा वेदांत (शिवम्) २ साल का. शिवम् स्लीपर कोच बस में बैठने का आदि नहीं था और हमारा टिकिट भी अपर बर्थ का था. जैसे ही बस आई और हम अपनी बर्थ पर चढ़ने की कोशिश करने लगे वैसे ही शिवम् ने रोना शुरू कर दिया, एक तो रात का समय, ऊपर की बर्थ और बस का तंग तंग सा माहौल देख कर उसे कुछ असहज सा महसूस हुआ और उसने तेज आवाज़ में रोना शुरू कर दिया, वह ऊपर चढ़ना ही नहीं चाह रहा था.
सारी बस के लोग हमारी ओर नाराज़गी के अंदाज़ में देखने लगे, स्थिति इतनी विकट हो गई की एक बार तो हमें लगा की अब हमें अपना टूर केंसल करना पड़ेगा क्योंकि शिवम् की रोने की आवाज़ से बाकी यात्री परेशान हो रहे थे और हम अपनी सीट पर पहुँच ही नहीं पा रहे थे, जैसे ही हम उसे ऊपर सीट पर बैठाते वह वापस निचे उतरने के लिए झाँकने लगता, अंततः करीब आधे घंटे में भी स्थिति सामान्य नहीं हुई तो कविता ने उसे दो तीन चांटे जड़ दिए तथा डरा दिया, अब वह सुबकते हुए सिट पर बैठ गया और हम तीनों भी सिट पर चढ़ गए, कुछ देर में शिवम् रोते रोते सो गया और ईश्वर की कृपा से सुबह तभी जागा जब हम औरंगाबाद पहुँच चुके थे.
यह रविवार की सुबह के आठ बजे का समय था, बस से उतरने के बाद हमने ऑटो किया और बस स्टॉप के आस पास ही एक सुविधाजनक होटल / लॉज की तलाश में निकल पड़े, कुछ ही देर में हमें अपने बजट के हिसाब से एक अच्छा सा कमरा मिल गया जहाँ डबल बेड, टीवी, तथा गर्म पानी व्यवस्था थी तथा होटल के बेसमेंट में ही एक साउथ इंडियन रेस्टारेंट भी था और आस पास में ही कुछ अच्छे शाकाहारी भोजनालय भी थे.
हमारा यह होटल औरंगाबाद के सुप्रसिद्ध सिद्धार्थ गार्डेन के ठीक सामने था. होटल में चेक इन करने तथा नहाने धोने के बाद हमने सबसे पहले सिद्धार्थ गार्डेन देखने का मन बनाया क्योंकि यह हमारे होटल के एकदम करीब था. उस साउथ इंडियन रेस्टारेंट में इडली संभार तथा मसाला डोसा खाने के बाद हम सिद्धार्थ गार्डेन की ओर चल दिए.
सिद्धार्थ गार्डेन चिड़ियाघर:
म्युनिसिपल कारपोरेशन औरंगाबाद ने सन १९८४ में छोटे पैमाने पर एक उद्यान सह चिड़ियाघर की स्थापना की तथा उसे सिद्धार्थ गार्डेन नाम दिया गया. विभिन्न प्रकार के पेड़ पौधों तथा मनभावन पुष्पों से सुसज्जित इस सुन्दर उद्यान में भिन्न भिन्न प्रजाति के पशु पक्षी संरक्षित किये गए हैं तथा यहाँ एक स्नेक पार्क भी हैं जहाँ लगभग १५ प्रजाति के सर्प तथा अजगर हैं.
सिद्धार्थ गार्डेन में कुछ घंटे बिताने के बाद अब हम ऑटो करके औरंगाबाद के सबसे प्रसिद्द दर्शनीय स्थल बीबी का मकबरा को देखने के लिए चल पड़े.
बीबी का मकबरा:
बीबी का मकबरा औरंगाबाद शहर का प्रतीक चिन्ह है, इस ख़ूबसूरत मकबरे (समाधी) को मुग़ल शहजादे आज़म शाह ने 17 वीं शताब्दी में अपनी माँ राबिया दुर्रानी उर्फ़ दिलरास बानू बेगम जो की मुग़ल शासक औरंगजेब की पहली पत्नी थी की याद में उन्हें श्रद्धांजलि देने के उद्देश्य से बनवाया था. इस मकबरे की तुलना आगरा में स्थित ताज महल से की जाती रही है और ताजमहल से कमतर आंके जाने की वजह से ही यह ख़ूबसूरत ईमारत हमेशा से ही उपेक्षा का शिकार रही है.
इस मकबरे को दक्षिण का ताज तथा गरीबों का ताज भी कहा जाता है क्योंकि इसके निर्माण के पीछे असल उद्देश्य था ताजमहल को मात देना लेकिन धन की कमी की वजह से यह ताजमहल की टक्कर का नहीं बन पाया. औरंगजेब ने इस मकबरे के निर्माण के लिए आज़म शाह को सिर्फ ७ लाख रुपये दिए थे जबकि ताजमहल की लागत थी लगभग ३ करोड़ बीस लाख रुपये.
इस मनमोहक स्मारक को जी भरकर निहारने के बाद हम औरंगाबाद स्थित एक और ऐतिहासिक महत्व के स्थल पनचक्की को देखने के लिए पहुंचे.
पनचक्की:
पनचक्की का अर्थ है पानी से चलने वाली चक्की (फ्लोर मिल). यह १६९५ में निर्मित एक ऐसी अनाज पिसने की चक्की है जो पानी के दबाव से उत्पन्न उर्जा की सहायता से चलती है, यह चक्की सूफी संत बाबा शाह मुसाफिर की दरगाह के परिसर में स्थित है तथा इसका उपयोग दरगाह पर आये तीर्थ यात्रियों के लिए अनाज पिसने के लिए किया जाता था .
यह पनचक्की प्राचीन भारतीय वास्तुकला के सशक्त वैज्ञानिक तथा तकनिकी पक्ष का प्रतिनिधित्व करती है तथा प्राचीन भारतीय वास्तुकला की वैज्ञानिक सोच का एक नायब नमूना है. इसका डिजाइन कुछ इस तरह से किया गया था की इस स्थान से आठ दस किलोमीटर दूर स्थित एक स्त्रोत से जल को पाइप की सहायता से यहाँ तक लाकर इसकी शक्ति का उपयोग अनाज पिसने के लिए किया जाये. इस परिसर में एक मदरसा, एक कचेहरी, एक सराय तथा कई जनानखाने हैं.
हमारे औरंगाबाद दर्शन के दुसरे दिन हमने एक ऑटो रिक्शा तय किया जिसने हमें घ्रश्नेश्वर तथा एलोरा की गुफाएं (जिनका वर्णन मैं अपनी अगली पोस्ट में करूँगा) घुमाकर लौटते समय रास्ते में खुलताबाद ( जो औरंगजेब का मकबरा तथा भद्र मारुती मंदिर के लिए प्रसिद्द है), दौलताबाद का किला, पैठन (जो की पैठनी साड़ी के लिए प्रसिद्द है) आदि के भी दर्शन कराये.
औरंगजेब का मकबरा (खुलताबाद):
खुलताबाद की तंग गलियों से गुजरते हुए हम अपने अगले गंतव्य बादशाह औरंगजेब (अबुल मुज़फ्फर मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब आलमगीर) के मकबरे पर पहुंचे. यहाँ आलमगीर दरगाह के शांतिपूर्ण परिसर में उस व्यक्ति के अवशेष दफ़न हैं जिसने रत्नजडित सिंहासन पर बैठकर पुरे हिन्दुस्तान पर शासन किया था.
हम वहां के अत्यंत शांतिपूर्ण माहौल में पहुंचकर तथा औरंगजेब की कब्र के सामने खड़े होकर स्तब्ध तथा आश्चर्यचकित होकर आँखे फाड़ फाड़ कर देख रहे थे और सोच रहे थे……एक समय हिन्दुस्तान पर राज़ करने वाले बादशाह की कब्र…….इतनी साधारण…….इतनी सादगी लिए……….ऊपर छत भी नही……….हमारी इस जिज्ञासा को शांत किया वहीँ पर खड़े एक मौलाना रूपी गाइड ने.
उसने हमें बताया की इस मुग़ल शासक, जो की अपने पूर्वजों की अकूत संपत्ति का मालिक था, ने अपनी अंतिम इच्छा में जाहिर किया था (लिखा था) की मेरी कब्र, जहाँ मुझे दफनाया जाए वह खुले आकाश में हो तथा उसे किसी भी प्रकार से ढंका न जाए, और मेरी कब्र तथा मकबरे को बनाने के लिए शाही खजाने से एक रूपया भी खर्च न किया जाए. मेरी कब्र मेरी मेहनत से कमाए गए रुपयों से ही बने.
अतः उसकी अंतिम इच्छा के मद्देनज़र उसकी कब्र, उसके जीवन के अंतिम वर्षों में उसके द्वारा टोपियाँ सिलकर तथा उन्हें बाज़ार में बेचकर, कुरान की आयातों को कागज़ पर लिखकर उन्हें बेचकर कमाए गए कुछ रुपयों से बड़ी ही सादगीपूर्ण बनाई गई है. उसकी कब्र को खुले आकाश में बनाकर छोड़ दिया गया था. पहले यह कब्र एक साधारण मिट्टी के टीले के रूप में बनाई गई थी बाद में १९११ में उस समय के भारत के वायसराय लोर्ड कर्ज़न ने कब्र के आसपास एक साधारण सा मकबरा बनाने के आदेश दिए. औरंगजेब ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में हमेश अत्यंत सादगीपूर्ण जीवन बिताने का प्रण लिया था जो उसने अपनी मृत्यु तक निभाया भी.
कब्र के आसपास बड़ी साधारण सी सफ़ेद चुने से पुती मिट्टी की दीवारे हैं, और छत नहीं है. कब्र के ऊपर कुछ तुलसी के पौधे उगे हुए हैं.
औरंगजेब की मृत्यु अहमदनगर में २० फरवरी, १७०७ को हुई थी, मृत्यु के समय वह ८८ वर्ष का था. उसकी इच्छा के अनुरूप उसे मृत्यु के बाद खुलताबाद लाया गया तथा यहीं उसके गुरु संत सैयद जैनुद्दीन की दरगाह के परिसर में दफनाया गया.
इसी परिसर में औरंगजेब की कब्र के करीब ही उसके बेटे शहजादा आज़म शाह, आज़म शाह की बीवी तथा उसकी बेटी की कब्रें भी हैं.
उस क्रूर, धर्मांध और दम्भी बादशाह औरंगजेब जिसने सोमनाथ सहित कई महत्वपूर्ण हिन्दू मंदिरों तथा धर्मस्थलों को तबाह किया, लुटा और मिट्टी में मिलाया, की कब्र के सामने एक शिव भक्त परिवार खड़ा था और सोच रहा था की बुराई का अंत किस तरह से होता है, किस तरह से एक आत्याचारी और दुराचारी मिट्टी में मिल जाता है.
सोमनाथ मंदिर और काशी विश्वनाथ मंदिर जैसे अन्य कई महत्वपूर्ण हिन्दू मंदिरों को तहस नहस करने और लुटने वाले एक बेरहम कट्टरवादी शासक की करतूतों का अंत कैसे हुआ………………………………………….सोचिये.
सोमनाथ का मंदिर आज भी अपने उसी वैभव और प्रतिष्ठा के साथ सीना ताने खड़ा है, और इस पर लहराती विशाल ध्वजा आज भी सनातन धर्म की विजय का जयघोष करती प्रतीत होती है, उसी तरह काशी विश्वनाथ मंदिर भी आज भी अपनी पुरी आन बान और शान के साथ विराजमान है. रोजाना सैकड़ों, हज़ारों दर्शनार्थी यहाँ दर्शनों को आते हैं और अपनी श्रद्धा लुटाते हैं. और उस अधर्मी औरंगजेब की कब्र एक गुमनाम सी जगह पर अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही है…………………………
उस उपरवाले के न्याय को सलाम करते हुए हम सब कुछ देर वहां रुक कर अपनी अगली मंजिल की और चल दिए.
भद्र मारुती मंदिर खुलताबाद:
खुलताबाद में ही एलोरा की गुफाओं से करीब ४ किलोमीटर दूर स्थित है भद्र मारुती मंदिर. इस सुन्दर मंदिर में भगवान हनुमान की लेटी अवस्था में दुर्लभ मूर्ति है जो की बहुत कम मंदिरों में होती है. यहाँ पर हनुमान जयंती पर तथा प्रति शनिवार को हजारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं. इस मंदिर के दर्शनों के बाद मंदिर के सामने स्थित शॉप से दोस्तों तथा परिजनों के लिए कुछ हनुमान चालीसा के सेट खरीदने के बाद हम यहाँ से बाहर निकल गए.
दौलताबाद का किला:
दौलताबाद, औरंगाबाद एलोरा रोड (नेशनल हाईवे – 211) पर स्थित एक टाउन है जिसका पुराना नाम देवगिरी था. दौलताबादमें एक प्राचीन किला है जो की देखने लायक है. यह किला अपने तरह का एकमात्र किला है जो ग्राउंड फोर्ट और हिल फोर्ट का एक अनोखा काम्बिनेशन है. यह किला एक पिरामिड के आकर पर्वत के शिखर पर बना हैइसका निर्माण राष्ट्रकूट राजाओं ने करवाया था.
इस किले को देखने के बाद हम अपने ऑटो रिक्शा से वापस औरंगाबाद में अपने होटल में शाम तक पहुँच गए.
अब अपनी इस पोस्ट को मैं यहीं समाप्त करता हूँ और जल्द ही आपको इस श्रंखला की अगली कड़ी यानि अगली पोस्ट के द्वारा घ्रश्नेश्वर ज्योतिर्लिंग एवेम एलोरा की गुफाओं से रूबरू करवाऊंगा.
Hi Silentsoul jee
This time I have posted comments first………………..
Just joking I have woke up and I am going to Take Mukesh jee from Railway station to my home.
No way i am going to have competition with you Sir…………………..
Anyway very well written post and very good pics . Keep it up Mukesh……………………
Biwi Ka Maqbara looks good.
Waiting for Grishneshwar………………………..
Vishal,
Thanks for your lovely comments. Yes Bibi Ka Maqbara is a monument worth seeing.
Thanks.
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Wowwww, simply awesome
Regards
Anupam Mazumdar
Thanks Anupam for this appreciation.
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Mukesh ji tks. I liked the story. Te temple of Bhadra Maruti is awesome !
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SS ji,
Thanks for your sweet comments.Yes Bhadra Maruti temple and idol both are beautiful.
Thanks.
SS ji,
Thanks for your comments and liking the post. Yes Bhadramaruti temple is very beautiful.
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Mukesh bhai, Aurangabad ki sair karane ke liye shukriya. Bibi ka maqbara, Taj Mahal to takkar to nahi deta, par pehli baar mein dekhne par bilkul Taj Mahal jaisa hi lagta hai, koi bhi dhoka kha sakta hai. Lete huye Hanuman ji ke pehli baar darshan kiye. Daulatabad Quile ke upar se sahar ke najare dikhlate to maja doguna ho jata…..
Vipin ji,
Post ko pasand karne tatha itne sundar shabdon men kament karne ke liye dhanyawaad.
Thanks.
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Sochney par majboor kardeta hai, Bahut hi khoobsoorat lekh Mukhesh ji.
Thank you for writing this for us.
Stone,
Thanks for your beautiful comment.
Dear Mukesh ji,
Saw your post and loved it. I have been to Aurangabad many a times while my enroute to Hyderabad.
I believe that you have not given enough weightage to the Daulatabad Fort. It is i believe one of the finest forts to be ever built. With its steep climb, nummerous hidden passageways and extraordinary history, it does make for a very interesting read and visit. I have often climbed it but have never been able to go to the top part. Always a few stairs short of the temple at the top.
@Neeraj ji, aapka comment bahut strong tha. Aurangzeb ki aatma hil gai hogi uski kabr mein. But as like today i believe the ghumakkars of those times are considered the best and authentic and accurate story / history writers. Someday , far from today some one will read these beautiful travels and i am sure all of you above would be remembered as the people who re-discovered India.
@ Silent Soul.. Please do write more. the stories . the comments. we luv it all.
Hungry for More !
Bhavesh
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Bhavesh,
Thanks for appreciation. Actually this post was a flashback. Actual trip was carried out 3 years back, so the memories were fed and couldn’t recollect them effectively and efficiently.
Thanks.
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Mukeshbhai,
Thank you for the darshan of the sleeping Lord Hanuman and the Bhadra Maruti temple. I wonder what the reason is for the unusual posture of this diety.
Nearly two decades ago, while on a pilgrimage to Grishneshwar, I had visited Bibi ka Maqbara but was not able to visit the Daulatabad fort. Thanks to you, I have been able to see that place too. I think that it is worth mentioning that Daulatabad was the capital for India for two years in the 14th century, during the reign of Muhammad bin Tughlak, who forcibly shifted the entire population of Delhi here, because he wanted his capital to be located closer to the centre of the subcontinent.
DL ji,
Thanks for liking the post. Even I don’t know the reason of sleeping posture of lord Hanumaan. And thanks DL ji for providing information on Daulatabad.
Thanks.
Wonderful Trip I like this. Bhalse ji i knowu only as offical but your persnal life interstaing spec. Historical.