मुंबई में रहते-रहते मुझे ज्ञात हुआ कि अहमदनगर में प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों में प्रयुक्त टैंकों का एक संग्रहालय है. इसे एशिया का एकमात्र टैंक म्यूजियम माना जाता है. प्रथम विश्वयुद्ध १९१४-१९१९ के दौरान और द्वितीय विश्वयुद्ध १९४१-१९४५ के दौरान हुआ था. उस समय कैसे-कैसे टैंक होते होंगे, इसे जानने की जिज्ञासा मेरे मन में भर गयी. कहते हैं कि सच्चे मन से की गई इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए संभावनाएं भी बन जातीं हैं. अहमदनगर टैंक म्यूजियम की Yatra.
यकीन मानिए कि ऐसा ही कुछ हुआ और मैं ०१ अगस्त २०१६ को अहमदनगर पहुँच गया. नासिक से लगभग १६० किलोमीटर पर अहमदनगर नामक शहर पड़ता है. सड़क मार्ग से जाने के लिए नासिक-संगमनेर-अहमदनगर का रास्ता बढ़िया है. उसी रास्ते पर दौड़ती हुई हमारी गाड़ी हमें लगभग ११.३० बजे अहमदनगर ले आई. उसी दिन हमें रात्रि गहराने के पहले वापस भी लौटना था. ऐसी व्यस्तता के मध्य में समय निकाल कर हमलोग जा पहुंचे अहमदनगर का “कैवलरी टैंक संग्रहालय”, जहाँ टैंकों की एक मनोरंजक दुनिया विद्यमान थी.

कैवलरी टैंक संग्रहालय का प्रवेश स्थल
वह संग्रहालय भारतीय सेना के अधीन था. मेजर-जेनेरल आई. एन. लूथरा द्वारा फरवरी १९९३ में इस संग्रहालय की रूपरेखा बनाई गई थी. बाद में जेनेरल बी. सी. जोशी ने फरवरी १९९४ में इसका उद्घाटन किया था. यहाँ तक पहुँचने वाला समतल और सुन्दर रास्ता भी ख़ुशनुमा प्रकृति की सुन्दरता को अपने में समाये हुए था. उस रास्ते के प्रत्येक मोड़ पर दो-दो टैंक सलामी-मुद्रा में रखे हुए थे.
जैसे १९४२ का यूरोप में प्रयोग होने वाला चर्चिल टैंक तथा १९६४ का पोलैंड में प्रयुक्त टोपास टैंक. रास्ते में रखे उन टैंकों को देख कर असली म्यूजियम देखने की उत्सुकता और भी बढती जाती थी. म्यूजियम के प्रवेश द्वार के सामने एक खूबसूरत पार्क था और साथ ही एक बड़ा-सा पार्किंग स्थल, जहाँ हमारी गाड़ी पार्क हो गई.
म्यूजियम में प्रवेश करते ही, मार्ग के दोनों तरफ टैंकों के उपरी हिस्से को दर्शाते टीले को पार करने के बाद, दोनों तरफ ताड़ के ऊँचे-ऊँचे वृक्षों से सजे मार्ग से चलने के पश्चात मेरे सामने एक खुबसूरत पार्क आया, जिसमें क्यारियां कटी हुईं और हरे-भरे घास लगे हुए थे. वहीँ पर टैंकों के विकास के इतिहास को दर्शाता हुआ एक सूचना-बोर्ड भी लगा हुआ था.

कैवलरी टैंक संग्रहालय का इतिहास
वहीँ मुझे थोड़ा समझ आया कि घुड़सवार दस्ता और टैंकों का आपस में क्या सम्बन्ध है? प्रथम विश्वयुद्ध से पहले तोपों को रस्से से बाँध कर खींचा जाता था. इस कार्य में घोड़े बहुत महत्वपूर्ण साबित होते थे. यह एक जटिल प्रक्रिया भी थी, साथ ही घोड़ों के मारे जाने की स्थिति में तोपें निष्क्रिय हो जातीं थीं. तब ब्रिटेनवासियों ने सबसे पहले यह सोचा की कैसे तोपों को एक लोहे की बनी यांत्रिकीय गाड़ी में फिट किया जाय.
और तब से टैंकों का आविर्भाव हुआ. तोपों का नाम टैंक क्यों पड़ा? इस नामकरण का आधार इनके आविष्कार में रखी जाने वाली गुप्तता से था. आविष्कार को गुप्त रखने के लिए “टैंक” का नाम दिया गया, जो बाद में सार्वजनिक रूप से मान्यता प्राप्त कर गया. तत्पश्चात मेरी नज़र पड़ी “Rolls-Royes Armoured Car” पर, जिसका निर्माण प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हुआ था. इसे बनाने के लिए रोल्स-रोयेस कंपनी की सिल्वर घोस्ट नामक कार की चेसिस पर लोहे के चदरे से बनी बॉडी का इस्तेमाल हुआ था, जिसमें एक छोटी मशीनगन भी लगी हुई थी.
यह ४५ मील प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ सकती थी. विश्वयुद्ध में यूरोप के कई देशों में इस्तेमाल आने के बाद १९४५ में यह तत्कालीन ब्रिटिश भारत में आंतरिक सुरक्षा कार्यों में लगाई गई. जरा सोचिये कि इस आर्मर्ड कार का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने में कितना डरावना इतिहास रहा होगा?

रोल्स रोयेस आर्मर्ड कार
१९४० के आते-आते जल-थल दोनों में चल सकने वाले टैंक भी बनने लगे. ऐसा ही “Landed vehicle Tracked A-4” नामक एक उभयचर टैंक वहाँ पर रखा था, जो स्थल पर १७ मील प्रति घंटे और पानी में ६ मील प्रति घंटे के रफ़्तार से चलता था. सर्वप्रथम इसे बाढ़ में सहायता प्रदान करने के लिए बनाया गया था. पर बाद में १९४२-१९४३ में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इसका सामरिक उपयोग भी किया गया.
पास ही में एक टैंक रखा था, जिसका नाम “Valentine Infantry Tank Mark-III” था. द्वितीय विश्वयुद्ध में इसका पूर्ण इस्तेमाल हुआ था, जिसमें इस टैंक ने मरुस्थली ज़मीनों पर अत्यधिक सफलता हासिल की थी. इसका नाम वैलेंटाइन क्यों पड़ा? इसकी भी एक कहानी है. १९३८ की बात है, जब इस टैंक के डिजाईन को १४ फरवरी के दिन ही जंगी-कार्यालय को सौंपा गया था. इसी वजह से १५ मील प्रति घंटे की रफ़्तार से चलने वाले इस मारक टैंक का नाम वैलेंटाइन टैंक पड़ा. वाह क्या बात है? किसी ने नहीं सोचा होगा कि वैलेंटाइन डे और टैंकों का भी आपसी कोई नाता होगा.

वैलेंटाइन इन्फेंट्री टैंक

शर्मन टैंक
इसी प्रकार टैंकों की दुनिया में कुछ और विख्यात नाम हैं, जिसमें एक है “Sherman Tank”. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान विकसित हुआ यह टैंक बनाने में सस्ता और आसान था. इसीलिए लगभग ५०००० ऐसे टैंक बने थे और जगह जगह इस्तेमाल में लाये गए. पर १९४४ में “Sherman Duplex Drive” नामक टैंक बनाया गया जो, उभयाचारी था. इसका डिजाईन १९४२-१९४३ में बना था. इसके अनुसार पानी में उतरने पर टैंक के चारों और एक कोलप्सीबल नाव बन जाती थी और ३० टन भारी टैंक पानी में तैर कर नदी पर कर जाता था. सिर्फ एक-ही कमी थी कि तैरते समय यह टैंक गोले नहीं बरसा सकता था. फिर भी शर्मन टैंकों को देख कर ही भय उत्पन्न होता था.

शेर्मन डुप्लेक्स ड्राइव टैंक

चर्चिल इन्फेंट्री टैंक
पर एक “A-22 Churchil Infantry mark-8 Tank” के नाम से प्रसिद्ध एक और भारी-भरकम टैंक वहाँ रखा था. यह अगस्त १९४२ में पहली बार यूरोप में प्रयोग में लाया गया था. यह धरती पर १५ मील प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ सकता था और अपनी दो तोपों से गोले बरसा सकता था. पर इसकी एक और खासियत थी.
यह पहला ब्रिटिश टैंक था, जिसमें टैंक-कमांडर टैंक के भीतर छुप कर बैठ कर भी युद्ध की गतिविधियों पर निगरानी रख सकता था. युद्धशैली में यह तकनीक काफी कारगर साबित हुई और बाद के सभी टैंकों में इसे शामिल किया गया. भीमकाय टैंकों में एक और प्रसिद्ध नाम था “Centurion MK VII Main Battle Tank”. इसे ब्रिटेन में १९४९ में बनाया गया था. इसमें रोल्स-रोयेस कंपनी के वे इंजन लगे थे, जिसे कम्पनी ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भाग लेने वाले स्पिटफायर और हरिकेन लड़ाकू हवाई जहाजों में लगाया था.
यह २१ मील प्रति-घंटे की गति से दौड़ सकता था और इसके गोले भी १२ पाउंड के थे, जिसने १९६५ के हिन्दुस्तान-पकिस्तान युद्ध में पाकिस्तानी पैटन टैंकों को निर्ममता से विध्वंश किया था. मेरे साथ एक भूतपूर्व कर्नल भी थे, जो सेंचुरियन टैंक के कमांडर रह चुके थे. अब इससे बड़ी बात क्या हो सकती थी, कि मैं ऐसे बहादुर अधिकारी के साथ, उसी के टैंक से सामने खड़ा हो कर उनसे टैंकों के बारे में समझ रहा था.

सेंचुरियन टैंक
१९६५ की उस लड़ाई में पकिस्तान के जहाँ कई पेटन टैंक नष्ट हुए थे, वहीँ कई पेटन टैंक को लड़ाई के बाद भारत ले आया जा चुका था. लड़ाई में पकड़े जाने वाले पेटन टैंकों में से एक टैंक इस म्यूजियम में भी रखा हुआ था, जिसके सामने के हिस्से में भारतीय गोले से लग कर बना हुआ एक निशान भी चिन्हित किया गया था. पेटन टैंक को देख कर पकिस्तान द्वारा रचे युद्ध की विभीषिका का अनुमान लगता है, तो साथ ही भारतीय गोले से लगे उस चिन्ह को देख कर भारतीय सेना के प्रति सम्मान.
वहाँ रखे उस पेटन टैंक का नाम था “M 48 Patton”. यह १९५३ में सयुंक्त राष्ट्र के सेवा में लगा था और इसका निर्माण लगभग १९६० तक चला. पचास के दशक का यह सबसे शक्तिशाली टैंक माना जाता है. इसमें टैंक चालक के पास इन्फ्रा-रेड लाइट भी लगी थी, जिससे वह रात्रि में भी देख सकता था.
मुख्य शस्त्र के ऊपर एक सर्चलाईट भी लगी हुई थी. आवश्यकता होने पर इसके अगले हिस्से में एक बुल-डोज़र भी लगाया जा सकता था, जिससे १० फुट का घड्दा खोद कर यह टैंक छिप भी सकता था. ऐसे कारगर टैंकों की सेना को हमारी सेना के धुरंधरों ने हरा दिया, ये तो वीरता की बानगी ही हो सकती है.

पाकिस्तानी पेटन टैंक
१९६५ की लड़ाई के बाद एक और लड़ाई १९७१ में हुई. इन दोनों लड़ाइयों में भारतीय सेना द्वारा एक और टैंक का इस्तेमाल किया गया, जो “A. M. X. 13 Light Tank” अथवा भारतीय नाम “बख्तावर टैंक” से प्रसिद्ध था. इसे १९६५ में खेमकरण और छम्ब सेक्टर में पाकिस्तानी टैंकों के विरुद्ध प्रयोग किया गया था.
बाद में १९७१ में छम्ब-जोरिया सेक्टर में भी उपयोगी साबित हुआ. लड़ाई के दौरान इसे “कूदने वाला टैंक” की संज्ञा दी गई थी. यह एक फ़्रांसिसी टैंक था, जिसे १९५० के दशक में विकसित किया गया था. हवाई परिवहन के लिए भी आसान इस टैंक में पहली बार टरेट-प्रणाली का इस्तेमाल हुआ था. इसी के बाद टैंकों में स्वचालित लोडर के माध्यम से गोले भरने की तकनीक का विकास शुरू हुआ. मुझे ऐसा बताया गया कि इस टैंक से युद्ध में सभी खौफ़ खाते थे क्योंकि यह कहीं भी छिप कर बैठा रहता था और दुश्मन के आने पर कूद कर अचानक सामने आ कर गोलों की बरसात कर देता था.

बख्तावर टैंक
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द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिकन और मित्र-राष्ट्रों ने पहाड़ों के ऊँचे दर्रों पर एक और टैंक तैनात किये थे, जिसका नाम “M3A3 Stuart Little”. ३६ मील प्रति-घंटे की रफ़्तार से चलने वाला यह टैंक अमेरिकन था. भारत में इसे जोजिला दर्रा, श्रीनगर और नागालैंड इत्यादि मोर्चों पर तैनात किया गया था. द्वितीय विश्वयुद्ध में एक और अमेरिकन टैंक कार्य में लाया गया था, जिसे “M22 Locust” कहते थे. यह एक हल्का टैंक था.
इसे हवाई परिवहन के द्वारा शत्रु-भूमि में उतारा जा सकता था, जहाँ यह २६ मील प्रति-घंटे की रफ़्तार से जमीन पर चल सकता था. छोटे टैंकों के क्षेत्र में एक और नाम था “M24 Chaffe Light tank”, जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध में अन्य सभी छोटे टैंकों को हटा दिया था. यह भी मालूम हुआ कि १९६२ के भारत-चीन युद्ध में भी इसका प्रयोग हुआ था.

चाफ़ी लाइट टैंक
इन सबके अलावा कुछ टैंक ऐसे थे, जो लड़ाई में कोई अन्य महत्वपूर्ण कार्य का निर्वाह करते थे. जैसे की नदी-नाले के ऊपर पुल बाँधना. इस कार्य में प्रयुक्त होने वाला एक टैंक का नाम था “Churchill Bridge layer”, जो ब्रिटेन में बना था और लगभग १९६० तक सेवा में बना रहा. यह ३० फ़ीट लम्बा भारवाही पुल बना सकता था. एक और पुल-बनाने वाला टैंक भी वहां मौजूद था, जिसका नाम था “Valentine Bridge Layer”. शुरू में इसे प्रशिक्षण के लिए काम में लाया जाता था, परन्तु विश्वयुद्ध के दौरान इसका सामरिक उपयोग भी हुआ. यह भी ३० फ़ीट का पुल बना सकता था, जो ३० टन तक का भार वहन कर सकता था.

चर्चिल ब्रिज लेयर

र्मन क्रैब टैंक
पुल बनाने वाले टैंकों के बाद मैंने एक विशेष टैंक देखा, जो स्थलीय माइन को विन्ध्वंश करने के काम में आता था. इसका नाम “Sherman Crab Tank” था. इसे १९४४ में ब्रिटिश आर्मी ने बनाया था. इसके अगले हिस्से में एक ड्रम लगा रहता था, जिसमें लोहे की जंजीरें लगीं रहतीं थी. जब ड्रम घूमता तो जंजीरें जमीन पर चोट करतीं थीं. इस प्रक्रिया से ज़मीन पर बिछे हुए माइन उखड जाते थे और निष्क्रिय कर दिए जाते थे.
इसमें एक तोपखाना भी था, जिससे चलते समय आगे फायर भी किया जा सकता था. यह टैंक मेरे लिए एकदम अजूबा था, क्योंकि मैंने इससे पहले ऐसा कोई भी यंत्र नहीं देखा था. मैं ऐसा मानता हूँ कि आज से वर्षों पूर्व तोपों और टैंकों को वेधने के लिए मारक क्षमता इतनी विकसित नहीं थी. द्वितीय विश्वयुध्के दौरान जिस एंटी-टैंक प्रणाली का विकास और प्रयोग किया गया, उसका नाम “8.8 Cm Flak 18” था. शुरू में इसे स्वीडन में एंटी-एयरक्राफ्ट गन के रूप में बनाया गया. बाद में तीव्र गति से फायर करने वाले इस टैंक को एंटी-टैंक गन के रूप में प्रयोग किया गया.

८.८ फ्लैक एंटी-टैंक

विजयंत टैंक
सारा परिसर कई प्रकार के टैंकों से भरा था. मगर मेरी नज़र किसी भारतीय टैंक को ढूँढने में लगी हुई थी. अंत में उसी परिसर में एक भारतीय टैंक सुशोभित दिखाई दिया, जिसका नाम “Vijayanta” था. यह टैंक सेंचुरियन टैंकों की श्रेणी का था, जिसे सम्पूर्ण रूप से भारत में बनाया गया था. यह १९६६ में सेना में शामिल हुआ और २००४ में इसे सेवानिवृत किया गया. १९७१ के युद्ध में इसने अहम् भूमिका निभाई. पर उससे भी ज्यादा गौरव की बात यह है कि इसी टैंक ने भारत को टैंकों की दुनिया में निर्माणकर्ता राष्ट्रों की श्रेणी में शामिल कर दिया.
भारतीय टैंक को देख लेने के बाद मेरा मन ख़ुशी से झूम उठा. अब मैं निश्चिंत मन से उस म्यूजियम से बाहर आ गया. म्यूजियम देखने के पश्चात हमलोग अहमदनगर का किला देखने चले. यह वही क़िला था, जिसमें कैद होने के पश्चात जवाहर लाल नेहरु ने “डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया” नामक किताब लिखी थी. साथ ही एक फ़रिया बाग़ महल के अवशेष भी थे, जो १५८३ में बना था और जिसमें तत्कालीन निज़ामी शाह आराम फरमाते और मित्रों के साथ शतरंज की चालें चलते थे. तत्पश्चात शाम ढलने को थी और हमारे अहमदनगर से निकलने का समय भी हो चुका था.
Highly informative and well researched post. Thanks for sharing.
Thank you Sir. It was really good to know that you liked the post. As far as the technical details of the tanks were concerned, the same were taken from the information provided by the Army. So, the real credit of research goes to them. Also the credit for creating and maintaining such splendid museum also goes to the Indian Army.
Regards
Dear Udai Baxi, It gave me a different feeling to read your post regarding the unique museum of army tanks in Ahamadnagar. Very glad to see the different types of old Giants used in many wars. feel proud to see the captured Pakistani Patton Tanks. Post some other similar type of descriptions, if you have any.
Dear Sir, It was really good to know that the post was to your liking. The sight of victory in the form of a captured Patton Tank always brings some happiness mixed pride. I will definitely post the details of my visits to such places. Meanwhile, I also request you to find time to read my previous posts on the “Battlefields of Panipat”, Battlefield of Kurukshetra” and “Battlefields of Delhi”. These posts were written an year back. I would love to read your views on these posts also.
Regards
Thats quite an exhaustive description of all kinds of tanks. I long for a day when there is no need for these machines :-), or if at all, then only during disaster-recovery operations. Thank you Uday for sharing this.
Thanks for your nice comments. Though “the no-tank-world” does not seem possible in near future, lot many people do desire the same which you have mentioned.
Regards
nice blog.
my native place is Ahmednagar.
during schooling i was regularly going to this tank museum on bicycle.
Good to find that you could remember your childhood through this article. I really than you for going through it and also for your nice comments.
Regards