यमुनोत्री यात्रा- दिल्ली से हनुमानचट्टी

अप्रैल 2010 की 18 तारीख को रात को दस बजे से अगले दिन छह बजे तक मेरी नाइट शिफ्ट की ड्यूटी थी। इस नाइट का मतलब था कि 19 को फ्री, 20 का मेरा साप्ताहिक अवकाश था और 21 तथा 22 की मैने ले ली छुट्टी; देखा जाये तो कितने दिन हो गये? चार दिन। ये चार दिन घुमक्कडी में बिताने थे। हमेशा की तरह वही दिक्कत, कहां जाऊं, किसे ले जाऊं? कोई भी मित्र तैयार नहीं हुआ। अब अकेले ही जाना था। कहां? पता नहीं। खोपोली वाले नीरज गोस्वामी जी को फोन मिलाया। वैसे तो वे हमेशा और सभी से कहते हैं कि खोपोली आओ, लेकिन आज उन्होनें सिरे से पत्ता साफ कर दिया। बोले कि यहां मत आओ, बहुत गर्मी पड रही है। मैने कहा कि साहब, गरमी-सरदी देखने लगे तो हो ली घुमक्कडी। बोले कि बरसात के मौसम में आ जाओ या फिर बरसात के बाद। ठीक है जी, बरसात के बाद आ जायेंगे।इस बार पक्का सोच रखा था कि हिमालय की ठण्डी वादियों में नहीं जाऊंगा। बहुत बार हो आया हूं। इस बार कहीं और चलूंगा। तय किया कि माउण्ट आबू चलो। फिर सोचा कि जबलपुर की तरफ चलो। चाहे जाना कहीं भी हो, मुझे 19 अप्रैल की सुबह-सुबह निकल पडना था। 18 की शाम हो गयी, अगले का हिसाब ही नहीं बना कि जायेगा कहां। रात को ड्यूटी पर पहुंचा। खूब सोच-विचार किया। हालांकि इतना सोचने के बावजूद भी कहीं का रिजर्वेशन नहीं कराया। इसलिये राजस्थान या मध्य प्रदेश का काम खत्म। इस बार फिर हिमालय की तरफ ही जाना पडेगा। दो विकल्प थे – पहला हिमाचल और दूसरा उत्तराखण्ड। उत्तराखण्ड में रात को बसें नहीं चलतीं इसलिये मैं वहां जाने से हिचकिचाता हूं। लेकिन कब तक? इस तरह तो उत्तराखण्ड अधूरा ही रह जायेगा। उत्तराखण्ड जाऊंगा। लेकिन फिर वहीं बात। कहां? गढवाल या कुमाऊं?

अगर गढवाल में जाना हो तो सुबह छह बजे शाहदरा आने वाली हरिद्वार मेल पकडूंगा, और कुमाऊं के लिये साढे छह बजे आने वाली बरेली मेल पकडनी पडेगी। तभी ध्यान आया कि अक्षय तृतीया वाले दिन गंगोत्री – यमुनोत्री के कपाट खुलते हैं। उसके एक-दो दिन बाद केदारनाथ-बद्रीनाथ के कपाट भी खुल जाते हैं। मैने हिसाब लगाया। मेरे हिसाब से 16 अप्रैल को अक्षय तृतीया थी। यहीं गडबड हो गयी। असल में 16 मई को है। मैने सोचा कि 16 तारीख को गंगोत्री-यमुनोत्री के कपाट खुल गये होंगे, अब आजकल में केदारनाथ-बद्रीनाथ के भी खुल जायेंगे। केदारनाथ चलते हैं।

सुबह साढे पांच बजे ही ऑफिस से निकल पडा। कल रात को ही अपना बैग तैयार कर लिया था। जरुरत का कम से कम सामान रख लिया था। शाहदरा से छह बजे अहमदाबाद से आने वाली 19105 हरिद्वार मेल पकडी और नौ बजे तक मुज़फ़्फ़रनगर पहुंच गया। हरिद्वार पहुंचने के लिये मुझे बस पकडनी थी। इस ट्रेन का हरिद्वार का समय था साढे बारह बजे, लेकिन बस दो घण्टे में यानी ग्यारह बजे तक ही हरिद्वार पहुंचा देती है। मुज़फ़्फ़रनगर से एक अखबार लिया और रेलवे स्टेशन के सामने से ही हरिद्वार की बस मिल गयी। अखबार पढने लगा। एक जगह लिखा था कि केदारनाथ के इलाके में कल भयंकर मूसलाधार बारिश और ओले पडे थे। कई घर तबाह हो गये। कई लोग मर गये। अब छठी इन्द्री ने दिमाग में घण्टी बजायी। श्रद्धालु क्यों नहीं मरे, गांव वाले क्यों मरे? तो क्या अभी तक कपाट नहीं खुले?

अब मुझे केदारनाथ पर शक होने लगा। पता नहीं मेरे जाने तक खुलेंगे या नहीं। इरादा बदल गया। यमुनोत्री चलो। यमुनोत्री जाने के लिये सबसे बेहतर है कि देहरादून से बडकोट जाया जाये, ना कि ऋषिकेश से। इस बस में मैने रुडकी तक का टिकट लिया। रुडकी से तुरन्त ही देहरादून की बस मिल गयी। कुल मिलाकर मैं दो बजे तक देहरादून पहुंच गया। देहरादून में पहाड पर जाने वाली बसें रेलवे स्टेशन के पास वाले पर्वतीय बस अड्डे से मिलती हैं। वहां से बडकोट जाने वाली आखिरी बस दो घण्टे पहले यानी बारह बजे निकल चुकी थी। तभी मुझे याद आया कि जब मैं हरिद्वार में रहता था तो वहां मेरा एक दोस्त बडकोट का रहने वाला था। मैने उससे सम्पर्क किया। उसने बताया कि बन्धु, गंगोत्री-यमुनोत्री के कपाट तो अगले महीने की 16 तारीख को खुलेंगे। लेकिन कोई बात नहीं, तू चला जा। मैने पूछा कि भाई, कोई ऐसा तरीका बता कि मैं जल्दी से जल्दी बडकोट पहुंच जाऊं। बोला कि पटेल नगर में दैनिक जागरण के पास से एक प्रेस वाली जीप जाती है। रात को बारह बजे चलती है और सुबह पांच बजे तक बडकोट पहुंच जाती है।

अब मुझे कम से कम नौ घण्टे तक देहरादून में ही रहना था। समय बिताने के लिये मैं सहस्त्रधारा चला गया। चूंकि रात का सफर था, यह सोचकर मैं सहस्त्रधारा से वापस आकर देहरादून रेलवे स्टेशन पर खाली पडी बेंच पर ही सो गया। शाम को सात बजे सोया था, आंख खुली साढे दस बजे। वो भी पता नहीं कैसे खुल गयी। मन्द मन्द हवा चल रही थी, मुझे कुछ थकान भी थी और सबसे बडी बात कि मच्छर नहीं थे। हां, याद आया, सफाई वाले ने उठाया था। खाज होती है ना कुछ लोगों को। भई, तुझे झाडू मारनी थी, चुपचाप बेंच के नीचे मार लेता, मैने तो वहां जूते भी नहीं निकाल रखे हैं। एक रेलवे पुलिस वाले भी ऐसे ही होते हैं। खैर, जैसे जैसे रात होने लगी, मौसम खराब होने लगा। ग्यारह बजने तक बूंदाबांदी भी होने लगी। पटेल नगर पहुंचा। वहां बडकोट, उत्तरकाशी, पुरोला, श्रीनगर कई जगहों की प्रेस की गाडियां खडी थीं। ये गाडियां यहां से वहां तक अखबार की आपूर्ति करती हैं। मुझे चूंकि बडकोट जाना था इसलिये अपन बडकोट वाली में विराजमान हो गये। साढे बारह बजे जीप चल पडी।

मसूरी होते हुए फिर डामटा, नौगांव होते हुए बडकोट पहुंचे। मैं ड्राइवर के पीछे बैठा था। ज्यादातर समय सोता रहा। ड्राइवर ने खिडकी का शीशा खोल रखा था, ठण्डी हवा आ रही थी, मैने टीशर्ट पहन रखी थी, ठण्ड लगने लगी। टीशर्ट निकाल दी, गर्म इनर पहना, ऊपर एक शर्ट पहन ली, फिर एक चादर ओढ ली। तब जाकर तसल्ली मिली। वैसे चादर में एक छेद भी था।

बडकोट – सुबह के साढे चार बजे। समुद्र तल से 1828 मीटर की ऊंचाई पर। ठेठ हिमालयी कस्बा – गढवाली। यमुना तट पर बसा हुआ। यहां का मौसम सालभर खासकर गर्मियों में मस्त रहता है। यह उत्तरकाशी जिले में पडता है। यहां हर सुविधा उपलब्ध है – खाने की, पीने की, रहने की, आने-जाने की। मेरे साथ उसी जीप में तीन-चार सवारियां और थीं। जाते ही मोटे-मोटे झबरे पहाडी कुत्तों ने स्वागत किया। भौंके भांके नहीं, बल्कि हमारी तरफ देखा तलक नहीं, वे तो अपनी मैडम को पटाने में लगे थे। जीप वाले ने एक दुकान के चबूतरे पर अखबार पटके और चला गया वापस देहरादून। बाकी लोग भी यहीं के थे। उन्होने एक दुकान के शटर को दो तीन बार पीटा, शटर खुल गया। यह एक हलवाई की दुकान थी। चाय बनने लगी। कम से कम बैठने को जगह तो मिली। नहीं तो इंसान कैसा होता है, पता ही नहीं चल रहा था। इंसान की जात हमारे अलावा दूर दूर तक दिख ही नहीं रही थी।

पांच बज गये, उजाला होने लगा। हलचल होने लगी। बडकोट इतना बडा कस्बा है लेकिन बस अड्डा नाम की कोई जगह नहीं। हालांकि यह विकासनगर, देहरादून, जानकीचट्टी, पुरोला, उत्तरकाशी से आने वाली ज्यादातर बसों का टर्मिनल है। बसें मुख्य बाजार में सडक पर ही खडी होती हैं। एक तो मुख्य बाजार, फिर पहाडी सडक, दो लेन वाली। जहां एक दुकान के सामने उत्तरकाशी जाने वाली बस खडी है, वहीं उस बस के पीछे दूसरी तरफ मुंह करके देहरादून वाली बस भी खडी है। सभी बसों के पहिये सात बजे के बाद ही घूमते हैं। मुझे जानकीचट्टी जाना था। वहां जाने वाली पहली बस थी साढे नौ बजे यानी तीन घण्टे बाद। यहां से थोडी ही दूरी पर जीप स्टैण्ड भी है। मालूम पडा कि चूंकि अभी यात्रा सीजन शुरू नहीं हुआ है, इसलिये जानकीचट्टी वाली जीप मुश्किल से ही मिलेगी। काफी देर बाद एक जीपवाला अन्य सवारियों के अनुरोध पर हनुमानचट्टी तक जाने को राजी हुआ। वे सवारियां हनुमानचट्टी और रास्ते में पडने वाले गांवों के निवासी थे, कुछ मास्टरजी थे, स्कूल में पढाने जा रहे थे। जानकीचट्टी की कोई सवारी नहीं थी।

बडकोट से करीब 40-45 किलोमीटर दूर हनुमानचट्टी है। साढे सात बजे चलकर जीप नौ बजे वहां पहुंची। रास्ते की हालत उस समय बहुत खराब थी। लोगों का कहना है कि उत्तर प्रदेश शासन में तो ऐसी सडक भी नहीं थी। कम से कम अब सडक बन गयी है, गाडियां भी चल रही हैं, राजधानी देहरादून से सीधी बस सेवा चल रही है। असल में अब पहाड को और काटकर ज्यादा चौडी सडक बनायी जा रही है। जगह-जगह मलबा पडा है। जगह-जगह गड्ढे है।

हनुमानचट्टी – समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 2134 मीटर। रास्ते में कई चट्टी और भी पडती हैं जैसे स्यानाचट्टी, रानाचट्टी। हनुमानचट्टी में यमुना और हनुमान गंगा का मिलन होता है। यहां से हिमालय की बरफ भी दिखने लगती है।

हनुमानचट्टी में हनुमानजी ने तपस्या की थी।

हनुमान गंगा

हनुमान गंगा जो यमुना में मिल जाती है।

हनुमान गंगा पर बना पुल। यह सडक आगे जानकी चट्टी तक जाती है।

अभी मैं हनुमानचट्टी तक ही पहुंचा हूं। कैमरे ने अब अपना काम शुरू किया है। इसलिये कम फोटो हैं। अगले भागों में तसल्ली से फोटो दिखाये जायेंगे।

29 Comments

  • Very good description Neeraj ………………………

    Waiting for next one ………………………

  • कई बार जाना हुआ है यहाँ पर, लेकिन बाइक से।

    • Neeraj Jat says:

      हां, भईया, बाइक के अपने मजे हैं लेकिन अखबार वाली गाडी से रात को जाने के अपने मजे हैं। देहरादून से बारह साढे बारह बजे के करीब बडकोट, उत्तरकाशी, श्रीनगर आदि जगहों के लिये अखबार की गाडियां चलती हैं जो सुबह सवेरे तय स्थान पर पहुंच जाती हैं। ये गाडियां इसलिये भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उत्तराखण्ड के पहाडों में रात को कोई वाहन नहीं चलता।

  • बढिया जानकारी नीरज जी , स्वागत है दोबारा से ……………फोटो कम ही सही पर आपकी तो लेखनी ही इतनी मस्त है कि फोटो की ज्यादा जरूरत नही पडती……………अगले भाग के इ्ंतजार में

    • Neeraj Jat says:

      यह यात्रा दो साल पहले की है। तब मैं ऐसे ही निकल जाया करता था। आजकल इस तरह निकलना नहीं हो पा रहा। लेकिन इस तरीके में मजे बहुत हैं।

  • vinaymusafir says:

    कुच्छ लोगो को सच में खाज होती है! घुमक्कड़ी की खाज! हा हा हा हा
    इतना अच्छा लिखा अपने की फोटो की जरुरत ख़ास महसूस नहीं हुई!
    ये कपाट खुलने का क्या कांसेप्ट है? यमनोत्री, गंगोत्री, केदार और बद्री के कपाट कब खुलते हैं और इन जगहों पर जाने का सही समय कब है?
    कृपया बताये!

    • Neeraj Jat says:

      विनय जी,
      आपको पता ही होगा कि उत्तराखण्ड के चारों धाम- यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ सर्दियों के दौरान बन्द रहते हैं। अक्टूबर-नवम्बर में दीवाली के आसपास इन चारों के कपाट बन्द हो जाते हैं और मई में अक्षय तृतीया पर खुलने शुरू होते हैं। अक्षय तृतीया के दो तीन दिन बाद इन सभी के कपाट खुल जाते हैं।
      कपाट बन्द होने का कारण यह है कि ये चारों स्थान हिमालय में दस हजार फीट से ऊंचाई पर हैं। सर्दियों में यहां जबरदस्त बर्फ गिरती है। कपाट बन्द करते समय इनकी मूर्तियों को निचले तय स्थानों पर ले जाया जाता है- यमुनोत्री को जानकीचट्टी के पास खरसाली, गंगोत्री को मुखबा, केदारनाथ को ऊखीमठ और बद्रीनाथ को जोशीमठ ले जाया जाता है और सर्दियों भर उनकी पूजा निचले स्थानों पर ही की जाती है। जब कपाट खुल जाते हैं तो यह कह दिया जाता है कि गढवाल में यात्रा सीजन शुरू हो गया है। यानी मई से नवम्बर तक का सीजन यात्रा सीजन और नवम्बर से मई तक का सीजन ऑफ सीजन होता है। ऑफ सीजन में यहां अक्सर कोई नहीं जाता और होटल काफी सस्ते हो जाते हैं। बसों का टाइम टेबल भी दोनों सीजनों में अलग अलग रहता है। ऑफ सीजन में आप बिना परमिट के केदारनाथ और बद्रीनाथ नहीं जा सकते।
      मैं यमुनोत्री गया था तो अप्रैल के शुरू में गया था यानी ऑफ सीजन में। आगे आप पढेंगे कि मैं उस दिन यमुनोत्री में किस तरह रुका था और अकेला ‘पर्यटक’ था।

  • Ritesh Gupta says:

    नीरज जी ….
    घुमक्कड़ पर वापसी पर आपका स्वागत हैं |
    बिना किसी योजना के घूमने की तैयारी वो तो आप ही कर सकते हैं ….
    जब मन किया, जहा मन किया चल दिए, जो मन आया खा लिया…..आपकी घुमक्कड़ी भी लाजबाब हैं |
    बहुत अच्छा लेख …..फोटो कम हैं पर बहुत अच्छे हैं …..अगले लेख की प्रतीक्षा में………..
    आपका दोस्त रीतेश …..

    • Neeraj Jat says:

      बहुत बहुत धन्यवाद रीतेश जी।
      यही घुमक्कडी है, बाकी सब तो पर्यटन है। मैं असल में निकला तो केदारनाथ के लिये था लेकिन पहुंच गया यमुनोत्री। मजा आता है इस तरह।

  • Nandan Jha says:

    You are blessed Neeraj to be able to do as you wish. Wishing you this streak for all times. Look fwd to next one. May be just like Sandeep and Manu, you can pick a day of the week to have a regular update for this series.

    • Neeraj Jat says:

      नन्दज जी, बहुत बहुत धन्यवाद।
      मैं अपने लिये वैसे तो दिन नहीं चुनना चाहता लेकिन फिर भी… मैं सप्ताह में एक नहीं बल्कि दो दिन चुनना चाहूंगा। पोस्ट लिखने और फोटो अपलोड करने की मेरी सारी तैयारी है। और वो तैयारी इतनी है कि मैं रोजाना पोस्ट लिखूं तो एक साल से ज्यादा चल जायेगी। इसमें मुझे नगण्य समय लगाना पडता है।
      आप ही देख लो कि मुझे कौन कौन से दो दिन दोगे। फिर भी मैं मंगल और शुक्र को पसन्द करूंगा

      • Nandan Jha says:

        ठीक है | मैं संपादकीय विभाग से मंत्रणा करके आपको मेल करता हूँ |

  • SilentSoul says:

    इसे कहते हैं असली यायावरी… जहां स्थान नही, यात्रा ही मंजिल होती है. पोस्ट बहुत छोटी थी संख्या मत बढाओ, विवरण बढ़ाओ ताकि कुछ देर पढ़ तो सकें.

    • Neeraj Jat says:

      साइलेण्ट साहब, कोशिश करूंगा। हालांकि ऐसा करना अब सम्भव नहीं है क्योंकि यह पहले से ही लिखी रखी है मेरे पास। हां, दो चार लाइनें बढ सकती हैं। फिर भी कोशिश करूंगा और ज्यादा विवरण देने की।

  • vinaymusafir says:

    विस्तृत विवरण के लिए धन्यवाद!
    आपका ब्लॉग देखा मैंने आज, अच्छा बनाया है! जैसे जैसे समय मिलेगा, पढ़ा करूँगा!
    तो आपकी यह यात्रा ऑफ सीज़न के कारण कुछ हटके रहेगी! पढने के लिए और भी उत्सुक हो गया हूँ! जल्दी ही अगला भाग लिखयेगा!

    • Neeraj Jat says:

      लगे रहिये विनय भाई। घुमक्कडी जिन्दाबाद।
      ऑफ सीजन में यात्रा करने के अपने मजे हैं। जो कमरा सीजन में 600 तक का मिलता है वही ऑफ सीजन में 100-150 का हो जाता है।

  • sarvesh n vashistha says:

    नीरज जी , आपकी यह घुमक्कड़ी बहुत ही सुंदर तथा साहसिक थी यह मैंने पहले भी पड़ी हे कृपया इस यात्रा के पुरे फोटो देना.
    आपके एक मास पश्चात् मैंने भी यह यात्रा की थी तथा सारे फोटो में बरफ गायब थी

    • Neeraj Jat says:

      काश! मेरे समय में भी गायब होती तो मैं सप्त ऋषि कुण्ड चला गया होता।

  • नीरज भाई, आप जैसा जिंदादिल इंसान मिलना मुश्किल है. घुमक्कड़ी एक धर्म है और आप इसे धर्म कि तरह मानते है. आपके इस जज्बे को मैं सलाम करता हू. काफी शानदार यात्रा चल रही है, और अच्छी जानकारी भी मिली. सुन्दर यात्रा वृतांत के लिए धन्यवाद.

    मैं भी ७ मई को चार धाम कि यात्रा पर जा रहा हू. कुछ बातों को आपसे जानना चाहता हूँ-
    १. ९ मई को सुबह मैं ऋषिकेश से या देहरादून से बस बस द्वारा यमुनोत्री के लिए जाऊ. और बस मुझे कितने बजे मिलेगी या बसों का टाइम टेबुल क्या है? देहरादून के और ऋषिकेश के बस स्टैंड का फोन नंबर क्या है?
    २. गोमुख जाने के लिए परमिसन कहाँ से मिलती है? क्या इंटरनेट से भी गोमुख जाने कि परमिसन (बुकिंग)मिल सकती है?

  • नीरज भाई, आप जैसा जिंदादिल इंसान मिलना मुश्किल है. घुमक्कड़ी एक धर्म है और आप इसे धर्म कि तरह मानते है. आपके इस जज्बे को मैं सलाम करता हू. काफी शानदार यात्रा चल रही है, और अच्छी जानकारी भी मिली. सुन्दर यात्रा वृतांत के लिए धन्यवाद.

    मैं भी ७ मई को चार धाम कि यात्रा पर जा रहा हू. कुछ बातों को आपसे जानना चाहता हूँ-
    १. ९ मई को सुबह मैं ऋषिकेश से या देहरादून से बस बस द्वारा यमुनोत्री के लिए जाऊ. और बस मुझे कितने बजे मिलेगी या बसों का टाइम टेबुल क्या है? देहरादून के और ऋषिकेश के बस स्टैंड का फोन नंबर क्या है?
    २. गोमुख जाने के लिए परमिसन कहाँ से मिलती है? क्या इंटरनेट से भी गोमुख जाने कि परमिसन (बुकिंग)मिल सकती है??

    • Neeraj Jat says:

      चन्द्रेश जी, बहुत बहुत धन्यवाद कि आपको मेरी यात्रा पसन्द आई।
      और असली बात यह है कि आपकी दोनों बातों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है। मैं यमुनोत्री मात्र एक बार गया हूं और वो भी अखबार वाली में अखबारों के ऊपर बैठकर। और गंगोत्री तो मैं आजतक नहीं गया।
      फिर भी, देहरादून और ऋषिकेश दोनों जगहों से सुबह सवेरे खूब बसें मिलेंगीं बडकोट या फिर जानकीचट्टी के लिये। आप अगर ऋषिकेश से बस पकडोगे तो यह ध्यान रखना कि सरकारी बस अड्डे से मत पकडना। अगर वहां जाते ही आपको बस खडी दिख जाये तो पकड लेना नहीं तो तुरन्त टिहरी बस अड्डे चले जाना। वह प्राइवेट बस अड्डा है और पहाड पर जाने वाली प्राइवेट बसें वहीं से संचालित होती हैं। उत्तराखण्ड में सरकारी बसों के मुकाबले प्राइवेट बसें ज्यादा चलती हैं।

  • Mahesh Semwal says:

    Thanks for refreshing the old memories, I also have been to Yamnotri & Gangotri.

    https://www.ghumakkar.com/2010/07/02/scenic-spots-on-the-way-to-divine-yatra-yamnotri/

  • Harish Bhatt says:

    Beautiful narration Neeraj Bhai… I have the same problem as yours. It becomes very difficult for me to chose a place in advance. It really is the journey that matters not the destination. I have also have had experience of traveling by Press Jeeps a when i went to Vally of flowers. They charge a bit extra but save a lot of waiting time. Aap ke agle post ka intezaar rahega…

    • Neeraj Jat says:

      धन्यवाद हरीश जी,
      देहरादून के साथ साथ हल्द्वानी से भी प्रेस की गाडियां चलती हैं, जो कुमाऊं के अंदरूनी हिस्सों तक सुबह सवेरे तक पहुंचा देती हैं। लेकिन मुझे यह नहीं पता कि वे मिलती कहां से हैं।

  • Giriraj Shekhawat says:

    नीरह भाई ………. मज़ा आ गया

    आपका यात्रा करने का और प्लानिंग करने का तरीका बहुत लाजवाब है …….. और लोगों की खाज का तो क्या कहना !!!!!! हा हा हा
    आपकी अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा ……… और हाँ अगली बार आप हमें कहीं और की सेर कराओ ……. जैसे मध्य प्रदेश या महाराष्ट्र

    धन्यवाद

    • Neeraj Jat says:

      गिरिराज की,
      मेरा इरादा है कि घुमक्कड डॉट कॉम पर मैं केवल ट्रेकिंग और रेल यात्रा ही लिखा करूंगा। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की यात्रा पढने के लिये आपको मेरे ब्लॉग पर जाना पडेगा।

  • Mukesh Bhalse says:

    नीरज भाई,
    हमारी विनती स्वीकार करने तथा थोड़े समय की नाराज़गी के बाद घुमक्कड़ पर दोबारा अवतरित होने के लिए के लिए ह्रदय से आभार. आपकी पोस्ट के बिना घुमक्कड़ पर कुछ मज़ा नहीं आ रहा था. आशा है अब आप हमेश अपनी पोस्टों के माध्यम से हमसे जुड़े रहेंगे.

  • Neeraj Jat says:

    धन्यवाद मुकेश जी,
    आप लोगों से नाराज होकर मैं कहां जाऊंगा? कोशिश करूंगा कि अब लगातार लिखता रहूं।

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