प्रिय मित्रों,
सहारनपुर से इन्दौर, इन्दौर से सेजवाया, सेजवाया से धार होते हुए मांडू दर्शन, शाम को रानी रूपमती की नगरी से इन्दौर वापसी – इतनी कहानी आप पढ़ चुके हैं। अब किस्सा हम लिखेंगे होल्कर परिवार का! संभवतः सुबह छः बजे का वक्त रहा होगा जब मुझे अचानक यह अनुभूति हुई कि ये बिस्तर और रजाई सब मोह माया हैं, इनके चक्कर में इंसान को अपना जीवन बरबाद नहीं करना चाहिये।
सुबह सवेरे उठ कर पूजा, अर्चना, वन्दना, स्तुति आदि में ध्यान एकाग्र करना चाहिये ताकि जीवन में निर्मल आनन्द का समावेश हो सके। बस, जैसे ही ज्ञानचक्षु खुले, मैने अपने स्थूल चक्षु भी खोले और अंधेरा देख कर कमरे की लाइट जलाई। सात बजते – बजते मैं इन्दौर भटकन हेतु पूरी तरह सन्नद्ध हो चुका था। साढ़े सात बजे होटल से सड़क पर आया, और एक आटो से कहा – “छतरी बाग” कितने पैसे? उसने कहा, ३००० ।
मैने कहा, “ठीक है, चलो!” रास्ते में वह बोला, “आपको छतरियां देखने जाना है या छतरीबाग जाना है?” अब मैं हैरान, परेशान ! मैने कहा, “भाई, क्यूं कंफूज़ कर रहे हो? मुझे छतरियां देखने जाना है इसीलिये तो छतरीबाग जाने के लिये बोला है।” पर फिर वह मुझे जवाहर मार्ग से होते हुए सीधे खान नदी के तट पर ले गया जहां नदी के दूसरे तट पर यानि कृष्णपुरा में भव्य मंदिर जैसे कुछ भवन दिखाई दे रहे थे।
(आजकल जिसे खान नदी कहा जाता है वह वास्तव में कान्ह नदी का अपभ्रंश है।) नदी के ऊपर बने पुल पर से ऑटो उस पार पहुंचा और मुझे छतरियों के पास उतार दिया। मैं असमंजस में था कि इन छतरियों को देखूं या छतरीबाग चलने के लिये जिद करूं। फिर सोचा कि वहां छतरीबाग की छतरियां कैसी हैं, यह तो पता नहीं पर ये भी बहुत सुन्दर हैं अतः इनको देखने में कोई हर्ज़ तो है नहीं।
हमारे शहर में छतरी असली छतरी को ही कहते हैं जिसे हम बरसात में घर से लेकर निकलते हैं और छतरी के बावजूद भी भीग जाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो छतरी में अकेले होने के बावजूद भीगते हैं पर फिर भी इतने दरियादिल होते हैं कि दूसरों को भी अपनी छतरी में आमंत्रित करते दिखाई देते हैं – “मेरी छतरी के नीचे आजा, क्यों भीगै कमला खड़ी-खड़ी” ।
पर ये ठहरा इन्दौर! यहां, हिन्दी भाषी जनता रहती जरूर है पर उसके लिये छतरी का मतलब है – राजा महाराजाओं का भव्य समाधि स्थल। पर, बाइ गॉड, क्या छतरी बनाते थे ये इन्दौर के होल्कर राज्य के लोग भी! एकदम भव्य, सुन्दर, स्थापत्य कला का साक्षात् नमूना ! आज भी 1849-1856 के दौरान बनी हुई छतरियां देख लें तो मन कर उठता है, “वाह, भई वाह !
उड़ती – उड़ती खबर मेरी ही तरह आपने भी शायद सुन रखी हो कि कान्ह नदी के तट पर राजसी परिवार के सदस्यों का अंतिम संस्कार करने के बाद यहां उनकी समाधि बना दी जाती थीं जैसे दिल्ली में गांधी जी, इन्दिरा जी, राजीव जी, चरण सिंह जी के समाधि स्थल बने हुए हैं – राजघाट, शक्तिघाट, शांतिघाट वगैरा वगैरा।
इतना अवश्य है कि होल्कर परिवार के पास स्थापत्यकला में निपुण अनेकों कलाकार और मूर्तिकार थे जो इन छतरियों का निर्माण कर सकते थे जो शायद आजकल दुर्लभ हैं। राजवाड़ा कान्ह नदी से बमुश्किल २०० कदम पर स्थित है, ऐसे में राज परिवार के लोगों की मृत्योपरान्त अंतिम संस्कार के लिये इस नदी पर आना और फिर यहीं नदी तट पर समाधि स्थल का बनाया जाना नितान्त स्वाभाविक ही है।
छतरियां देखते हुए मुझे राजवाड़ा का सात मंजिला भवन दिखाई नहीं दिया था क्योंकि बीच में एक मार्किट है जो पता नहीं उन दिनों भी हुआ करता था या नहीं। पर छतरियों को देखने के बाद जब मैने एक रिक्शा से पूछा कि राजवाड़ा चलोगे क्या तो वह बोला, आप राजवाड़े पर ही तो हैं, दो कदम इस तरफ को जाइये, सामने ही दिखाई देगा।
कृष्णापुरा का नाम संभवतः राजमाता कृष्णाबाई होल्कर के नाम पर ही पड़ा होगा, ऐसी पूरी संभावना है। राजमाता कृष्णाबाई होल्कर महाराजा यशवंत राव होल्कर प्रथम की पत्नी व मल्हार राव होल्कर द्वितीय की माता थीं। यहां पहली छतरी राजमाता की ही है, जिसका निर्माण तुकोजी राव द्वितीय ने 1849 में राजमाता के गोलोकवास के तुरंत पश्चात् करवाया था।
लगभग 5-6 फिट ऊंचे प्लेटफार्म पर गर्भगृह का निर्माण किया गया है जिसमें राज परिवार के दिवंगत सदस्यों की आदमकद प्रतिमायें लगी हुई बताई जाती हैं। गर्भगृह का द्वार बन्द था, द्वार पर बनी हुई संगमरमर की जाली बहुत बारीक नक्काशी लिये हुई थी जिसमें से भीतर झांकना मुझे शिष्टाचार के विपरीत लगा।
इन छतरी में सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाला भाग इसके प्लेटफार्म पर बने हुए सुन्दर कलात्मक स्तंभ हैं। वाह्य दीवारों पर भी लगभग मानव आकार की ही मूर्तियां उकेरी गई हैं जिनको देखकर लगता है कि दो -चार महीने पहले की ही बनी हैं।
मैं इन छतरियों को देखने के लिये सुबह – सुबह पहुंच गया था तो सूर्य के प्रकाश में इन छतरियों का और इन पर बने गुम्बद का अलग आकर्षण था परन्तु यदि समय मिलता तो मैं रात को पुनः वहां जाता क्योंकि मैने सुना है कि रात को इन छतरियों की शोभा अलग ही है।
सुबह के समय इन खंभों की लंबी छाया प्लेटफार्म के फर्श पर पड़ती हुई बहुत अच्छी लग रही थीं। वाह्य दीवारों पर जो मूर्तियां थीं वह मुझे होल्कर सेना के विभिन्न सेनानायकों की अनुभव हुईं। यहां कृष्णापुरा में बनी हुई छतरियां राजमाता कृष्णाबाई, महाराज तुकोजीराव द्वितीय और उनके पुत्र शिवाजीराव की हैं। इसके अलावा यदि हम छतरीबाग नामक स्थान पर जायें जो वहां से तीन-चार किलोमीटर दूर होगा, वहां पर भी राजपरिवार के अन्य सदस्यों की कुछ छतरियां मौजूद हैं। मैं वहां तक नहीं जा पाया।
छतरियां देखने के बाद मैने राजवाड़ा की ओर रुख किया। इंदौर जाने से पहले से ही मैने कई बार विभिन्न प्रकाशनों में और वेबसाइट पर राजवाड़ा की सात मंजिला इमारत का चित्र देखा था अतः जब राजवाड़ा के सम्मुख पहुंचा तो न पहचान पाने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। प्रश्न यदि था तो सिर्फ ये कि राजवाड़ा देखने से पहले पोहा-जलेबी खा लूं या बाद में इनका भक्षण किया जाये?
बिना सिक्का उछाले ही मैने निर्णय लिया कि यहां मौजूद अनेक दुकानों में से जिसमें सबसे बढ़िया जलेबी बन रही हो, वहीं रुक कर पेट पूजा कर ली जाये। ऐसी ही एक हलवाई की दुकान मिली और उसकी सेवायें ग्रहण करके मैने राजवाड़ा की ओर कदम बढ़ाये।
राजवाड़ा
अब मेरे सम्मुख था विश्व का सबसे ऊंचा मराठा स्मारक जो अपने भीतर 220 वर्षों का इतिहास संजोये हुए था। कुल मिला कर सात मंजिलें जिनमें पहली तीन पत्थर की और बाकी चार लकड़ी की। राजवाड़े के बाहर चौक में एक खूबसूरत पार्क बना हुआ है, जिसमें देवी अहिल्याबाई होल्कर की प्रतिमा लगी है, इस प्रतिमा के स्तंभ पर क्या लिखा है, यहां पढ़िये –
प्रातः स्मरणीय देवी श्री अहिल्याबाई होल्कर
ईश्वर ने मुझ पर जो उत्तरदायित्व रखा है, मुझे उसे निभाना है। मेरा काम प्रजा को सुखी रखना है। मैं अपने प्रत्येक काम के लिये स्वयं जिम्मेदार हूं। सामर्थ्य और सत्ता के बल पर मैं जो कुछ भी यहां कर रही हूं उसका ईश्वर के यहां मुझे जवाब देना पड़ेगा। मेरा यहां कुछ नहीं है, जिसका है, उसी के पास भेजती हूं। जो कुछ लेती हूं, वह मेरे ऊपर ऋण है। न जाने उसे कैसे चुका पाऊंगी।
जन्मतिथि- ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, शक 1647 संवत 1782, 31 मई, 1725 ई.
पुण्यतिथि – भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी (शिवरात्रि), शक 1717, संवत 1852, 13 अगस्त, 1795 ई.
राजवाड़ा के मुख्य द्वार पर जाकर मैने जब पूछा कि द्वार कब खुलेगा तो पता चला कि सोमवार होने के नाते आज अवकाश है । मैने सोच लिया कि चलो, बाहर से ही जो कुछ उपलब्ध है, उसका ही चित्रांकन कर लिया जाये। मुझे इतना ज्ञान तो था कि राजवाड़ा के नाम पर आज जो भवन मौजूद है, वह भवन है ही नहीं, सिर्फ मुख्यद्वार है, जिसे अंग्रेज़ी में facade कहते हैं। चारदीवारी के अन्दर जो कुछ भी है, खंडहर के रूप में है।
इन्दौर के इस राजवाड़ा में तीन बार आग लगाई गई है। पहली बार आग लगाई गई 1801 में सिंधिया के सेनापति सरजेराव घाटगे द्वारा जिसने इन्दौर को नेस्तनाबूद करने का प्रण किया हुआ था। दूसरी आग लगी सन् 1834 ई. में। इसमें सबसे ऊपर की मंजिल राख हो गई थी। तीसरी बार, सन् 1984 में हुए दंगों में राजवाड़ा का पिछला भाग जला दिया गया था।
जब मुझे पता चला कि सोमवार के साप्ताहिक अवकाश के चलते मुझे अन्दर प्रवेश नहीं मिलेगा तो बहुत भारी भरकम निराशा अनुभव नहीं हुई। चमगादड़, उल्लू और मकड़ियों के जाले यदि देखने को न भी मिलें तो कौन सा आसमान टूटा जा रहा है? जो इस भवन की वर्तमान स्वामिनी हैं यानि हर हाईनेस महारानिधिराजा रानी राजेश्वर सवाई श्रीमंत अखंडसौभाग्यवती ऊषा देवी, वह तो सुना है कफ परेड, मुंबई में रहती हैं या फिर लालबाग स्थित नये राजवाड़े में। ऐसा तो था नहीं कि मुझे उन्होंने चाय पर आमंत्रित किया हुआ हो। तो फिर निराशा कैसी? (दिल बहलाने को ग़ालिब खयाल अच्छा है! है न? )
राजवाड़े के बाहर जो सूचना पट्ट लगा हुआ मिला उसके अनुसार…
इंदौर स्थित राजवाड़ा मालवा के मराठों के चरमोत्कर्ष काल की भव्य इमारत है। 1747 ई. के आसपास मल्हारराव होलकर ने अपने परिवार के निवास हेतु इस महल का प्रारंभिक निर्माण करवाया था। 1801 में सिंधिया के सेनापति सरजेराव घाटके ने राजवाड़ा जला दिया था। 1818 से 1826 के बीच आग के बचे प्रवेश द्वर की ऊपर की पांच मंजिल पुनः ठीक की गईं। इस कार्य में होलकरों के प्रधानमंत्री तात्याजोग ने अपना अथक योगदान दिया और इस प्रकार 1826 से 1833 के मध्य वर्तमान की पूर्ण इमारत का निर्माण हुआ। दुर्दैव से 1834 में आग लगने से लकड़ी की बनी एक मंजिल नष्ट हो गई। 1844 में तुकोजी राव द्वितीय को गोद लिया गया तब होलकर वंश का पहला राजतिलक 1852 में इसी भवन में हुआ। तभी इस भवन में जरूरी सुधार और परिवर्तन भी हुए। वर्ष 1984 के दंगों में इसका पृष्ठ भाग जला दिया गया था।
राजवाड़ा के निर्माण के तीन चरण दृष्टिगत होते हैं। पहली तीन मंजिल पत्थर की बनी हुई हैं और राजपूत शैली की परिचायक हैं। चौथी से लेकर सातवीं मंजिल मराठा शैली की जिसमें लकड़ी का कार्य अधिक है। प्रवेश द्वार की संरचना हिन्दू शैली के राजप्रासादों जैसी है। झरोखों का निर्माण दर्शनीय है। भवन का दक्षिणी भाग स्पष्टतः बार – बार हुए पुनर्निर्माण का साक्षी है। भवन के निर्माण में पत्त्थर और चूने का प्रयोग अधिक हुआ है। साथ ही, काष्ठशिल्प का भी कलात्मक उपयोग किया गया है। पत्थर के मेहराब और स्तंभों पर सुन्दर नक्काशी की गई है। देश का यह सबसे ऊंचा मराठा स्मारक है और युग पुरुष की भांति 250 वर्षों का मालवा का इतिहास अपने में संजोये हुए है।
होलकर राज्य का संक्षिप्त इतिहास
सन् 1728 से लेकर 1948 के 220 वर्ष के कालखंड में 14 राजा हुए हैं। इस पुराने राजवाड़े की कहानी मराठा सेना की ओर से मालवा क्षेत्र के सूबेदार मल्हार राव होल्कर से आरंभ होती है जिनको 1728 में पूना के पेशवा ने मालवा के 9 परगना सौंप दिये थे। उन्होंने स्वतंत्र राजा के रूप में सन् 1731 से 1766 में देहान्त होने तक इन्दौर राज्य पर शासन किया और इस प्रकार सन् 1694 में जन्में मल्हार राव होल्कर 72 वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हुए।
परन्तु उनके पुत्र खांडीराव होल्कर केवल तीस वर्ष की आयु में सन् 1754 में स्वर्गवासी हो गये और उनको शासन करने का कोई मौका नहीं मिला। उनकी पत्नी थीं अहिल्या बाई होल्कर जिनके नाम के पूरा मालवा ही नहीं, पूरा देश गुणगान करता है। वह यद्यपि सिंहासन पर कभी नहीं बैठीं पर 28 वर्ष तक उन्होंने इन्दौर पर बहुत गरिमापूर्ण ढंग से शासन किया। सच बात तो ये है कि वह अपने पति के साथ ही सती हो जाना चाहती थीं परन्तु उनके श्वसुर मल्हार राव होल्कर ने अनुमति नहीं दी और कहा कि मैने तुम्हें राज्य संचालन की समस्त शिक्षा दी है।
राज्य भार अब तुम्हें ही संभालना है। मैं सोच लूंगा कि मेरे पुत्र का नहीं, बल्कि पुत्रवधु का देहान्त हो गया है और अहिल्याबाई के रूप में मेरा पुत्र जिन्दा है। अहिल्या बाई होल्कर ने 28 वर्ष तक ऐसे शासन किया जैसे भरत ने राम की चरण – पादुका को सिंहासन पर रख कर राज्य की जिम्मेदारी संभाली थी।
वह भगवान शिव की परम भक्त थीं और इंदौर राज्य को भगवान शिव की ही अमानत मान कर राज्य संचालन करती थीं। सन् 1725 में जन्मी अहिल्या 70 वर्ष की आयु में 1795 में परलोकगामी हुईं और इस बीच उन्होंने राजमाता कम, मां बन कर इन्दौर की जनता की सेवा की। ऐसे में यह कोई आश्चर्य नहीं लगता कि इन्दौर की जनता भी 15 होल्कर राजाओं में मां साब को ही पूजती है।
देवी अहिल्याबाई होलकर के देहान्त के बाद दो यशवंत राव, तीन तुकोजीराव, तीन खांडेराव, एक शिवाजीराव इन्दौर पर शासन करते रहे। यह मुझे आश्चर्यजनक लगता है कि पुराने जमाने में राज परिवारों में बच्चे होते थे तो उनका नाम रखने में इतने अधिक आलस्य का परिचय क्यों दिया जाता था।
अक्सर पोते का नाम बाबा के नाम पर रख दिया जाता था। कोई नया नाम ढूंढने में भला इतना आलस्य किस लिये? इनमें से कुछ राजाओं के नाम पर सड़क का नामकरण हुआ (जैसे यशवंत राव मार्ग), कुछ के नाम पर मुहल्ले बसे – (जैसे मल्हारगंज, तुकोजी गंज) पर इंदौर की जनता के दिलों पर राज करने वाली रानी अहिल्या बाई ही रहीं! बाद के राजाओं में से कुछ ने क्रूरता, विलासिता और अंग्रेज़ भक्ति का भी भरपूर परिचय दिया।
यशवंतराव होल्कर की रक्त पिपासु प्रवृत्ति बहुत प्रसिद्ध है। 28 अक्तूबर, 1811 ई. को जब यशवंतराव होलकर की मृत्यु हुई तब वह केवल 30 वर्ष के थे और इन्दौर से 432 किमी दूर भानपुरा के बीहड़ों में सिंधिया के पिंडारियों का मुकाबला करने के लिये पीतल की तोपें ढलवा रहे थे और बताया जाता है कि वह उस समय लगभग विक्षिप्तावस्था में थे।
राजवाड़े में खेली जाने वाली होली बहुत प्रसिद्ध रही है जिसमें निमंत्रण पाने के लिये बड़े – बड़े लोग तरसते थे। एक राजा मल्हारराव होलकर ऐसे भी रहे हैं जिन्होंने मैसूर से १७ टन चंदन की लकड़ी मंगवा कर उसकी होली जलाई! वैसे, हिन्दुस्तान के सबसे बड़े शोमैन कहे जाने वाले राजकपूर के यहां की होली भी मुंबई में प्रसिद्ध रही है पर इन्दौर के राजवाड़े की होली अक्सर खूनी होली हो जाया करती थी।
राज परिवार में एक अप्रतिम सुन्दरी केसर कली थी जो राजवाड़े की ऊपर मंजिल के किसी झरोखे से नीचे हो रहा होली का हुड़दंग देख रही थीं। उन पर उड़ती सी एक नज़र सिंधिया के खासगी सरदार काशीराव ने डाली और रात होते होते होलिका की अग्नि में उस काशीराव की खोपड़ी भी स्वाहा कर दी गई।
एक अन्य अवसर पर इंदौर स्थित ब्रिटिश रेज़िडेंट हेनरी डेली अपनी मेमसाहिबा वेरोनिका को होली का मज़ा दिलाने के लिये इस राजवाड़े में होली के दिन पधारे जहां शीश महल में रहने वाली रानियों – पटरानियों ने उनके साथ जम कर होली खेली। पश्चिमी शीशमहल में केसर मिश्रित भांग खाकर वेरोनिका दो दिन तक बेहोश पड़ी रहीं और उनके पतिदेव की जान हलक में आ गई।
इन्दौर के एक अन्य महाराजा शिवाजीराव के किस्से भी इन्दौर में काफी प्रचलित हैं जिन्होंने 17 जून 1886 से 31 जनवरी 1903 तक शासन किया और 13 अक्तूबर 1908 को प्राण त्यागे। वह अंग्रेज़ों से बहुत अधिक चिढ़ते थे और उनका अपमान करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते थे। उनकी एक उपपत्नी भी थीं तुलसाबाई जिनकी बेपनाह खूबसूरती का हर कोई कायल था। बताया जाता है कि शिवाजीराव शारीरिक रूप से बहुत शक्तिशाली थे, कुश्ती के बहुत शौकीन थे और साथ ही, न्यायप्रिय भी थे।
उनकी न्यायप्रियता का एक किस्सा मैने भी सुना है । कहते हैं कि 1899 में मालवा में अकाल पड़ा था और जनता भूख से त्राहि-त्राहि करने लगी थी। अनाज के आढ़तियों से कहा गया कि वह इस अकाल के समय जनता की सहायता करें पर उन्होंने कह दिया कि हमारे पास तो अनाज है ही बहुत कम। शिवाजी राव ने अपने मुनीम से कहा कि सब व्यापारियों को बुलाकर उनके पास उपलब्ध अनाज का स्टॉक लिखो। व्यापारियों ने कपटपूर्ण ढंग से वास्तविक स्थिति छिपाते हुए स्टॉक की बहुत कम मात्रा लिखवाई ।
जैसे किसी के पास गेहूं के पांच सौ बोरे थे तो उसने सिर्फ तीस-चालीस बोरे लिखवा दिये। सारा स्टॉक नोट कराने के बाद व्यापारी अपने घर लौट गये। शाम को शिवाजीराव ने जनता को संकेत कर दिया कि मल्हारगंज की मंडी लूट लो। रोते कलपते व्यापारियों ने अगले दिन राजा के पास आकर अनाज लुटने की शिकायत की और मुआवज़ा मांगा। शिवाजीराव ने उनके भारी भरकम क्लेम को अस्वीकार करते हुए केवल उतने ही स्टॉक का मुआवज़ा दिया जितना स्टॉक पहले दिन वह सब लिखवा कर गये थे। जनता के मन में इस न्यायप्रियता और सदाशयता के लिये शिवाजीराव का बहुत सम्मान था। शिवाजीराव के द्वारा प्रचलित किये गये सिक्के पर भी नज़र डाल लीजिये। है ना बढ़िया? रख लीजिये, काम आयेगा।
रंगीन मिजाज़ तुकोजीराव तृतीय
इन्दौर राज्य में तीन-तीन तुकोजीराव हुए हैं, इनमें से किसके नाम पर तुकोजीगंज नामकरण हुआ है, यह तो मुझे नहीं मालूम पर हां, रंगीनमिजाज़ तुकोजीराव तृतीय के रंगीन किस्से इन्दौर वासियों की जुबान पर अब भी रहते हैं। उन्होंने तीन शादियां की थीं – सीनियर मोस्ट महारानी का नाम था – चन्द्रावती बाई। जूनियर महारानी थीं – इन्दिरा बाई । तीसरी वाली अमेरिकन युवती – नैंसी अन्ना मिलर थीं जिनके साथ 12 मार्च, 1928 को तुकोजीराव तृतीय ने विवाह रचाया।
विवाह के बाद वह पूरी तरह भारतीय रंग-ढंग में ढल गई थीं और उनका विवाह भी शर्मिष्ठादेवी के रूप में नामकरण के बाद शुद्ध हिन्दू रीति-रिवाज़ के मुताबिक हुआ था। 1907 में अमेरिका के सियेटल शहर में जन्मी नैंसी ने तुकोजीराव होलकर को पांच संतानें दीं, चार पुत्रियां और एक पुत्र। शर्मिष्ठाबाई का देहान्त अभी 1995 में हुआ है। कहा जाता है कि तीन पत्नियों के बावजूद तुकोजीराव अमृतसर के एक कार्यक्रम में मुमताज़ बेगम का डांस देखकर उस पर आशिक हो गये और उसे इंदौर ले आये।
वह तुकोजीराव के प्रेम को घास भी नहीं डालती थी और राजवाड़े से भागने के कई बार प्रयत्न किये और अन्ततः एक बार इन्दौर से मसूरी जाते हुए रास्ते में दिल्ली में निगाह बचा कर भागने में सफल भी होगई। बस, तुकोजी राव को बहुत बुरा लगा, एक तो प्रेम की दीवानगी और ऊपर से राजसी अहं को ठेस जो लग गई थी। उनके चेले-चपाटे अपने राजा को खुश करने के चक्कर में मुमताज़ बेगम की खोज खबर लेते रहे और अन्ततः पता लगा ही लिया कि वह मुंबई में किसी के साथ रहती है।
बस जी, तुकोजी राव के कर्मचारी मुंबई के हैंगिंग गार्डन में पहुंच गये और वहां जो मारकाट मची उसमें उस व्यक्ति की गोली लगने से मौत हो गई जिसके साथ मुमताज़ बेगम मुंबई में रहती थी और हैंगिंग गार्डन में घूम रही थी। अंग्रेज़ अधिकारियों ने इस कांड का पूरा फायदा उठाया और तुकोजीराव के दो कर्मचारियों को फांसी की सजा सुनाई गई और तुकोजीराव तृतीय को राज्य छोड़ना पड़ा। तुकोजीराव तृतीय की मृत्यु 1978 में पेरिस में हुई। उस समय वह 88 वर्ष के थे।
इन्दौर की वर्तमान महारानी
वर्ष 1948 में इन्दौर राज्य को भारत सरकार में विलीन कर दिया गया था पर उसके बावजूद इन्दौर की महारानी ऊषादेवी मल्होत्रा हैं जो १४ वें महाराजा यशवंतराव होलकर द्वितीय और उनकी प्रथम पत्नी संयोगिताराजे घाटगे की सुपुत्री हैं । आपका जन्म 1933 में पेरिस में हुआ और वहीं शिक्षा – दीक्षा हुई । परन्तु उन्होंने बहुत प्रयत्नपूर्वक व समय देकर हिन्दी व मराठी भी सीखी और हिन्दुस्तानी संस्कृति और तहज़ीब भी ! इनका विवाह श्री सतीश चन्द्र मल्होत्रा से हुआ जो एंपायर इंडस्ट्रीज़ के चेयरमैन हैं और खासगी ट्रस्ट के ट्रस्टी भी । वह मुंबई में रहती हैं और इन्दौर में लालबाग स्थित नये राजवाड़े में आती रहती हैं।
श्री मल्हारी मार्तण्ड देवस्थान मंदिर
यदि राजवाड़े का कुछ भाग आज भी दर्शनीय है तो वह है – राजवाड़े के पृष्ठ भाग में स्थित श्री मल्हारी मार्तण्ड देवस्थान मंदिर! यह भवन 1984 में जल कर खाक हो गया था, परन्तु उसके बाद लगभग दो करोड़ रुपये के व्यय पर इसका पुनर्निर्माण कराया गया। यहां लगा हुआ एक विशाल बोर्ड निम्न कहानी कहता है
इन्दौर के ऐतिहासिक राजवाड़ा प्रांगण में होलकर राजवंश के कुल देवता श्री मल्हारी मार्तण्ड देवस्थान मंदिर सन् 1984 के दंगों में भस्मीभूत हुआ था। होलकर राजवंश की प्रातःस्मरणीया एवं महान शिवभक्त महारानी लोकमाता देवी अहिल्याबाई के शुभाशीष और उन्हीं की विरासत की वर्तमान राजरानी श्रीमंत महारानी ऊषादेवी जी की प्रेरणा से कुलदेवता श्री मल्हारी मार्तण्ड देवस्थान मंदिर का २ करोड़ की लागत से पुनर्निर्माण किया। मंदिर का लोकार्पण 11 मार्च 2007 को धार्मिक विधि विधान में श्रीमंत महाराणी ऊषा देवी के शुभहस्ते सम्पन्न हुआ।
देवी अहिल्या खासकी ट्रस्ट के मुख्य ट्रस्टी माननीय श्रीमान सतीश मल्होत्रा सा. के कुशल मार्गदर्शन में व्यक्तिगत रुचि से ही यह कार्य खासगी ट्रस्ट द्वारा सम्पन्न हुआ। माननीय समस्त ट्रस्टियों का सहयोग एवं तत्कालीन सचिव स्व. कैलाश तिवारी जी की कर्मठता, परिश्रम सदैव स्मरणीय रहेगा। सहसचिव श्रीमती रीता कानूनगो एवं समस्त माननीय कला मनीषी, वास्तुविद, इंजीनियर्स, कर्मचारीगण, कामगार भी धन्यवाद के पात्र हैं। इन्दौर की माननीय सांसद श्रीमती सुमित्राताई महाजन एवं मध्यप्रदेश शासन का पुरातत्व विभाग के प्रोत्साहन हेतु भी धन्यवाद। इन्दौर का पुरातन होलकर राजवंश के कुलदेवता के रूप में पुनर्निर्मित श्री मल्हारी मार्तण्ड मंदिर एवं कई समाजों के कुल देवता के रूप में भी यह मंदिर, होलकर राजवंश के खासगी ट्रस्ट द्वारा आम जनता के लिये प्रदत्त एक अमूल्य धरोहर है। कुलदेवता के रूप में एक धार्मिक आस्था के केन्द्र के रूप में भी सदैव दर्शनीय रहेगा। (लेखक – डा. गणेश मतकर)।
श्री मल्हारी मार्तण्ड देवस्थान मंदिर के मुख्य द्वार पर होलकर राजवंश का प्रतीक चिह्न
श्री मल्हारी मार्तण्ड
मल्हारी मार्तण्ड की पूजा भगवान शिव के रूप में होती है और इनके विभिन्न परिचित नाम हैं – खंडोबा, मैलार, म्हाळसाकांत, रावलनाथ इत्यादि। पूरे भारतवर्ष के हिन्दू भगवान शिव को इसी रूप में पूजते हैं। श्री मल्हारी मार्तण्ड भक्तिभाव से लोकप्रिय लोकदेवता माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जो कोई भी श्री मल्हारी मार्तण्ड की पूजा-अर्चना उपयुक्त निष्ठा एवं भक्ति से करता है वह धन्य हो जाता है। उसे धन-संपत्ति, सौभाग्य और परमसुख मिलता है। ऐसे भक्त के समस्त पापों का विनाश होकर उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसे ही महात्म्य के कारण श्री मल्हारी मार्तण्ड आज भी जन-जन की आस्था के केन्द्र बने हुए हैं।
राजकीय मुद्रणालय और गोपाल जी मंदिर

मालवा समाचार – उन्नीसवीं शताब्दी में इन्दौर से प्रकाशित होलकर राज्य का मुखपत्र था जो म. प्र. का पहला हिन्दी समाचार पत्र था, यहीं छपता था।
राजवाड़े से एक समाचार पत्र प्रकाशित हुआ करता था – ’मालवा समाचार’ जिसका मुद्रण व प्रकाशन राजवाड़े के राजकीय मुद्रणालय (printing press) से ही हुआ करता था। अब यह मुद्रणालय राजवाड़े के निकट बेशकीमती धरती पर खड़ा हुआ खंडहर मात्र है। इस भवन का कुछ हिस्सा मौजूद है, कुछ गिर चुका है, कुछ गिराया जा रहा है।
इस मुद्रणालय की जस्ट बगल में गोपाल जी का मंदिर है जिसका निर्माण सन् 1832 में उन्हीं राजमाता कृष्णा बाई होल्कर ने कराया था जिनकी छतरी राजवाड़ा के सामने खान नदी के तट पर हम अभी कुछ देर पहले देख रहे थे। (बाय द वे, खान नदी का यह नाम वास्तव में कान्ह नदी का अपभ्रंश है।) मंदिर की ओर का हिस्सा अब मलबे के रूप में मौजूद है जैसा कि आप चित्र में देख रहे हैं। बाकी हिस्से को देख कर भी अनुभूति होती है कि कहीं पैर रखते ही फर्श नीचे दरक न जाये।
गोपाल मंदिर का परिचय देते हुए वहां एक बोर्ड लगा हुआ था, जिससे इस मंदिर के पुरातात्विक, धार्मिक व स्थापत्य कला के स्वरूप का विशद परिचय मिलता है।
यह मंदिर महाराजा यशवंत राव होलकर प्रथम की विधवा पत्नी और महाराजा मल्हारराव होलकर द्वितीय की मां राजमाता कृष्णाबाई होलकर (मृत्यु सन 1849 ई.) द्वारा वर्ष 1832 ई. में निर्माण कराया गया था। विशाल प्रांगण के मध्य उत्तराभिमुखी यह मंदिर ऊंची जगती पर काले प्रस्तर से बना हुआ है। भूविन्यास में गर्भगृह अंतराल एवं सभा मंडप है। गर्भगृह चौकोर है, इसमें एक ऊंचे देव कक्षासन पर राधा एवं कृष्ण की प्रतिमायें स्थापित हैं। प्रवेश द्वार आयताकार है, जिसमें कोई अलंकरण नहीं है। सिरदल के ललाट बिम्ब पर गणेश, उत्तरंग पट्ट पर रत्नजंध और इसके ऊपर एकादश कलश अंकित है। अंतराल चार स्तंभों पर आधारित और मेहराबदार है। प्रवेश द्वार के सामने गरुड़ एवं गणेश की प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं। द्वार शाखा में दोनों ओर विष्ण द्वारपाल हैं और चन्द्रशिखा अलंकृत है।
मंडप चौकोर तीस स्तंभों पर आधारित है, तीनों ओर गलियारा है, बितान समतल है। मंडप एवं गलियारे के स्तंभ पर एक महरान का रूप लेते हैं। वाह्य विन्यास में गर्भगृह पंचरथी योजना का नागर शैली के शिखर युक्त है। जगती पर खुला हुआ प्रदक्षिणा पथ है। अधिष्ठान से जंघा तक केवल एक पट्ट बंध है जिससे संपूर्ण मण्डोवा दो भागों में विभक्त होकर अलंकरण विहीन है। शिखर के भद्र – प्रतिभद्र एवं कोणक रथों पर लघु शिखराब कृतियों की नवभूमि है किन्तु भद्र रथ का लता भाग शिखर के मध्य तक ही है। मंदिर भव्य एवं कलात्मक है जो मालवी मराठा शैली का उदाहरण है। ऐतिहासिक एवं पुरातत्वीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
राजमाता कृष्णाबाई होलकर द्वारा बनवाए गये गोपालजी मंदिर हेतु प्रवेश[/caption]

अरे नहीं, ये राजमाता कृष्णाबाई होलकर नहीं हैं ! ये तो मंदिर के प्रांगण में बैठी धूप सेक रही पंडिताइन हैं !
गोपाल मंदिर से निकलते निकलते प्रातः 09.30 का समय हो गया था। मुझे बैंक जाना था, अतः बिना और समय गंवाये मैने एक आटो किया और पुनः होटल जा पहुंचा और फिर वहां से सीधे बैंक। शाम को बाज़ार से बैंक के लिये कुछ उपकरण खरीदे जाने थे। अपने शाखा प्रबन्धक को साथ में लेकर सभी उपकरणों के उपयुक्त मॉडल पसन्द करके, क्रय आदेश देकर प्रबन्धक ने अपने घर की राह पकड़ी और मैने सोचा कि तुकोजी गंज में स्थित Treasure Island Mall का बहुत नाम सुना है, चलो वहां भी हो आते हैं, कल तो सहारनपुर के लिये वापसी करनी ही है।
आर.एन.टी. मार्ग से महात्मा गांधी मार्ग और फिर पैदल चलते चलते मॉल पर आ पहुंचा। यह मॉल इन्दौर का संभवतः सबसे बड़ा मॉल है। सोचा कि कुछ न कुछ खरीद कर ले चलूं अपनी इकलौती महारानी के लिये। घूमते – घूमते एक दुकान लेडीज़ पर्स की दिखाई दी पर उसके यहां रेट सुनकर ही होश फाख्ता हो गये। पर्स खरीद लेने के बाद पैसे रखने की तो गुंजाइश ही नहीं बचती ! फिर एक छोटी सी दुकान पर देखा कि कॉफी मग पर एक व्यक्ति कुछ चित्र छपवा रहा है।
बस, मुझे लगा कि यह सिद्ध करने के लिये कि इन्दौर में रंग-बिरंगी तितलियों के बीच में घूमते फिरते हुए भी मैं अपनी धर्मपत्नी की ही याद में खोया हुआ था, इससे बढ़िया, सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ जुगाड़ कुछ नहीं हो सकता। अपने मोबाइल में से पत्नी व पुत्र की दो फोटो ब्लूटूथ के सहारे उस दुकानदार को दीं और एक मग पर वह दोनों फोटो प्रिंट कराईं। खाने के नाम पर वेज बर्गर खाया, कोल्ड ड्रिंक पिया और होटल की राह पकड़ी। मग के मामले में मेरा यह निशाना एकदम सटीक बैठा और उसका मुझे बहुत लाभ भी मिला। (क्या लाभ मिला, इससे आपको क्या लेना देना!)
मित्रों, मंगलवार को मेरी ट्रेन शाम को चार बजे के लगभग थी, इस दिन मैने क्या किया यह अंतिम कड़ी अब अगली पोस्ट में ही दे पाऊंगा। फिलहाल विदा दें, शीघ्र ही फिर मिलेंगे। नमस्कार !
typical sushant style. really superb.
thanks for sharing
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Praveen Wadhwa: These Chattries and Rajbara are my favorite place.
Thanks for taking me there – again –
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Hi Sushantji,
Great description of Indores and Holkar dynastys history. I will read it once again since you have used certain words that are certainly not Hindi!
Was the first photo shot from the other side of river Kanh? If yes, can we go to the other side?
So there were two Rajwadas Old and New. I was not aware of that.
I have recently seen such chattris in Bhuj. This was the cremation ground of the Kutch royal family. Though most of them are damaged due to the earthquake.
So the arson/looting/pillaging was not limited to certain rulers as we all believe. It has been prevalent throughout history among all kinds of rulers. This is also confirmed after recent reading of ancient Indian history.
Nice photos and a great read as always!
Dear Nirdesh Ji,
Thank you for visiting and approving the post. Your comments mean to me a lot. When I am writing about monuments, I am acutely aware that the post would go through your eyes too so I am extra alert. Still, I committed a blunder. One photograph of the chhatri which I had saved through google search was also in the folder when I gave the command to automatically create watermark on the pics. Watermark came on that picture also which was not taken by me and that happens to be the first picture of this post. I have changed the picture and also the caption.
However, Kanh river has got roads on both of its banks and there are bridges over the river to connect the roads on both sides. When my auto reached from hotel via Jawahar Marg, I was on the opposite side of the river and my auto used the bridge to cross the river and reach near chhataries. The first picture must have been taken by someone from the opposite side of the chhatari so that river was between the photographer and the chhataries. The second photo (and all other photos taken by me) was taken from chhatari side of the river. Old Rajwada is also on the chhatari side of the river but roughly 200 meters or so away from the river and these chhataries. I could not visit the Lalbagh Palace – the new Rajwada-cum-museum for want of time.
Many of Holkar rulers had died at early age and their children were designated as king in their childhood. One very strange story of Devi Ahilya Bai Holkar awarding capital punishment to her only son Male Rao Holkar was heard by me. He was punished because of his unruly behaviour and sadistic traits. Devi Ahilya was being approached almost everyday by her assistants who were badly treated by Male Rao. Completely fed up with her son, she awarded capital punishment – death by crushing under the feet of elephant publicly – to Male Rao Holkar !!!
Sushant Ji, Namaskar.
Nice post . Informative and “Sushantesque” style.
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Dear Friends,
Last 15 -17 days have been sometime thrilling and on other occasions tormenting. Receiving family guests for 4-5 days felt great but then the floods in Saharanpur and in Uttarakhand have been devastating. I even forgot about ghumakkar in the past few days. I had promises to keep for 22nd June Insight slot, so last night I started writing at 10.30 and finished uploading the post and pics somewhere around 1.30. Bas yu samajhiye ki baal-baal ijjat bach gayi.
@Mukesh : ???? ???? ??? ?? ?? ?????? ????? ??? ?? ???? ????? ???? ? ???? ????? ?? ?? ?? ??? ????? ???? ??? ?? ???? ?? ??? ?? ???? ?????? ?? ? ???? ???? ?????????? ?? ?????? ???? ??, ??? ???? ????? ??? ??? ?? ???? ???? ????? ?? ???? ?? ????-?????? ????? ??! ???? ??????? ?? ??? ???? ????? ?? ??? ??? ?? ??? ??? ! ????? ?? ?????? ??? ???? ???? ???????? ??? ??, ?? ?? ??? ???? ?? ??? ?? ???? ?? ???? ???? ?? CEO ?? ???, ??? ????? – ????? ?? ??????? ???? ???
@ Rastogi @Rakesh Bawa: @Vipin : ?? ????? ?? ???, ??? ????? ???? ?? ???? ????? ???? !
@ Lakshya Rajput : Thank you Lakshya.
@ Praveen Wadhwa : Indore has become one of my favourite cities besides Udaipur and Panaji.
@ Saurabh Gupta : ????? ????, ???? ??? ?? ?? ??? ????? ????? ?? ???? ????? ????? ???? ???? ??? ?? ?? ????? ?? ???? ????? ?? ??? ?? ?? ??? ?? ????, ?? ????? ??? ! ???? ??????? ?
@ Praveen Gupta : ?????? ?? ????? ?? ???? ??, ?????? ?? ! ???? ????? ?? ?? ??? ???
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thamks………….
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अद्भूत जानकारी
एक एक शब्द आपने रिसर्च करके बेबाक़ी और सच्चाई से लिखा।
220 साल के होल्कर वंश का इतिहास तो आपको मुंह जुबानी याद रहा लेकिन छत्री बाग जाने का किराया 3000 रुपए हजम नहीं हुआ।
300 रुपए में रिक्शा में सारा इंदौर घूम सकते है। 3000 रुपए में तो रिक्शा वाला मांडव घुमा लाए
अद्भूत जानकारी
एक एक शब्द आपने रिसर्च करके बेबाक़ी और सच्चाई से लिखा।
220 साल के होल्कर वंश का इतिहास तो आपको मुंह जुबानी याद रहा लेकिन छत्री बाग जाने का किराया 3000 रुपए हजम नहीं हुआ।
300 रुपए में रिक्शा में सारा इंदौर घूम सकते है। 3000 रुपए में तो रिक्शा वाला मांडव घुमा लाएl
मैने शर्मिष्ठा देवी को देखा था जब राजबाड़ा पर प्रदर्शनी लगी थी।