4 अक्टूबर 2011 की सुबह करीब छह बजे मेरी आंख खुल गई। देखा कि ‘होटल’ मालिक समेत सब सोये पडे हैं। होटल में अतुल और हल्दीराम भी थे। तय कार्यक्रम के अनुसार आज हमें 29 किलोमीटर चलना था- द्वाली से पिण्डारी 12 किलोमीटर, पिण्डारी से द्वाली वापस 12 किलोमीटर और द्वाली से खटिया 5 किलोमीटर। खटिया कफनी ग्लेशियर के रास्ते में पडता है। दिन भर में 29 किलोमीटर चलना आसान तो नहीं है लेकिन सोचा गया कि हम इतना चल सकते हैं। मुझे अपनी स्पीड पर तो भरोसा है, अतुल चलने में मेरा भी गुरू साबित हो रहा था, और रही बात हल्दीराम की तो उसके साथ एक पॉर्टर प्रताप सिंह था जिसकी वजह से हल्दीराम बिना किसी बोझ के चल रहा था और स्पीड भी ठीकठाक थी। कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि हम आज खटिया नहीं जा पायेंगे।
मेरे उठने की आहट सुनकर होटल वाला भी उठ गया। उठते ही चूल्हा सुलगा दिया और चाय बनाने लगा। वैसे तो हमारे साथ बंगाली घुमक्कड भी था लेकिन आज उन्हें मात्र बारह किलोमीटर चलकर पिण्डारी ग्लेशियर के पास टेण्ट लगाना था। इसलिये आज उन्हें चलने की कोई जल्दी नहीं थी। वे दोनों यानी बंगाली घुमक्कड और उसका गाइड देवा सोते रह गये और हम पिण्डारी के लिये चल दिये।
जितनी चर्चा मैंने द्वाली से पांच किलोमीटर आगे फुरकिया तक के रास्ते के बारे में सुनी थीं, वे सब एक तरह से अफवाह सी साबित हुईं। स्थानीय निवासी कहते हैं कि पिण्डारी यात्रा का सबसे कठिन भाग द्वाली-फुरकिया खण्ड ही है। लेकिन चलते समय एक बार भी महसूस नहीं हुआ कि हम अपनी यात्रा के कठिनतम भाग पर चल रहे हैं। हां, एक मुश्किल यह थी कि इस रास्ते पर आज जाने वाले हम पहले इंसान थे, इसलिये घनघोर जंगल में पतली सी पगडण्डी पर चलते समय जगह-जगह जाले मिल जाते थे। जालों से परेशान होकर कुछ देर तक अतुल मुझसे पीछे पीछे चला लेकिन मेरी धीमी चाल की वजह से आगे निकल गया। हल्दीराम मुझसे पीछे ही रहा।
बात चल रही थी कठिन भाग की तो मैं इस यात्रा के शुरूआती 11 किलोमीटर को कठिनतम मानता हूं जब हमें धाकुडी धार पार करके सरयू घाटी को छोडकर पिण्डर घाटी में पहुंचना था। धाकुडी धार पार करने के बाद 8 किलोमीटर दूर खाती तक नीचे उतरना होता है, फिर 11 किलोमीटर आगे द्वाली तक मामूली चढाई है। एक तरह से धाकुडी धार की चढाई शरीर को आबोहवा के अनुकूल बनाती है, तो जिसने यह चढाई सही सलामत पूरी कर ली, उसे मैं गारण्टी दे सकता हूं कि ग्लेशियर तक कोई दिक्कत नहीं आयेगी।
द्वाली से पिण्डारी का रास्ते में बहुत भू-स्खलन मिलता है।
ढाई घण्टे बाद साढे नौ बजे फुरकिया पहुंचे। अतुल आधे घण्टे पहले ही यहां पहुंच गया था। यहां पहुंचते ही अतुल ने झल्लाकर कहा कि यार, तू कितना धीमा चलता है। मुझे आधा घण्टा हो गया है यहां आये हुए। मैंने कहा कि हमने चलने से पहले ही नियम बना दिया था। उस नियम के तहत तू अगर किसी दूसरे की वजह से लेट हो रहा है तो उसे छोडकर आगे निकल सकता है। लेकिन इस तरह दूसरे पर आरोप नहीं लगा सकता। अतुल को गलती का एहसास हुआ और उसने फिर यह बात नहीं कही।
फुरकिया समुद्र तल से 3210 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से पिण्डारी ग्लेशियर सात किलोमीटर दूर है। नन्दा देवी समूह की कई चोटियां खासकर पंवालीद्वार चोटी यहां से बडी शानदार दिखती है। अब जंगल भी खत्म हो गया और आगे का रास्ता बुग्यालों से होकर जाता है। द्वाली की ही तरह फुरकिया भी कोई गांव नहीं है बल्कि रुकने-खाने की एक जगह है। यहां कुमाऊं मण्डल विकास निगम का रेस्ट हाउस भी है और प्राइवेट होटल भी। इन होटलों को झौंपडियां कहना ज्यादा ठीक लगता है। ऐसे ही एक होटल में चाय बनवाई गई और बिस्कुट का एक पैकेट खाली किया गया।
फुरकिया
हल्दीराम के पॉर्टर प्रताप ने पूछा कि ऊपर ही रुकना है या वापस आना है। हल्दीराम ने इशारा मेरी तरफ कर दिया क्योंकि पूरी यात्रा में दिमाग खर्च करने की जिम्मेदारी जाट महाराज की ही थी। इधर तो वापस आकर द्वाली से भी आगे कफनी ग्लेशियर मार्ग पर जाने की सोचे बैठे थे। हमारी वापसी की खबर सुनकर प्रताप ने हल्दीराम से कहा कि जब वापस ही आना है तो आपका सामान यही रख देते हैं, वापसी में उठाते चलेंगे। यह आइडिया मुझे पसन्द आया और अपना स्लीपिंग बैग यही रख दिया जबकि हल्दीराम को यह बात बिल्कुल भी पसन्द नहीं थी कि ढाई सौ रुपये प्रतिदिन लेने पर भी प्रताप सामान उठाकर ना चले। और प्रताप की बात ठीक ही थी, जब ऊपर रुकना ही नहीं है तो फालतू में सामान उठाकर क्यों चलें?
हल्दीराम ने बहाना बनाया कि मुझे ऊपर ही रुकना है। पता चला कि अगर ऊपर रुकना है तो अपने साथ कम से कम स्लीपिंग बैग तो होना ही चाहिये। मैं अपना स्लीपिंग बैग देने से तो रहा। फुरकिया में भी वैसे तो स्लीपिंग बैग मिल जाते हैं लेकिन उस दिन नहीं मिला। एकमात्र चारा यही था कि वापस पांच किलोमीटर नीचे द्वाली जाओ और दो स्लीपिंग बैग (हल्दीराम और प्रताप दोनों के लिये) लेकर आओ। इसके लिये प्रताप राजी नहीं था। मैं समझ गया कि हल्दीराम जिद कर रहा है। खूब समझाया कि अगर आपको ऊपर ही रुकना था तो यह डिसीजन पहले क्यों नहीं लिया।
जब स्लीपिंग बैग का इंतजाम नहीं हुआ और हल्दीराम को लगने लगा कि अब सामान यही छोडने से बचाने के लिये कोई तर्क नहीं है तो उसने सीधे सीधे कह दिया कि मैं तुम्हे ढाई सौ रुपये दे रहा हूं, सामान साथ ले जाना पडेगा।
नन्दाखाट और पंवालीद्वार चोटियां
फुरकिया के बाद ऐसा रास्ता हो जाता है।
खैर, आगे चल पडे। अतुल चलने में हवा से बातें कर रहा था इसलिये तुरन्त ही आंखों से ओझल हो गया। फुरकिया से करीब आधा किलोमीटर बाद एक तेज नाला मिलता है। हमने वैसे तो अब तक कई नाले पार किये थे, लेकिन इतना बडा नहीं। जहां पगडण्डी इसमें जाकर समाती है वहां इसे पार करने का कोई तरीका नहीं है। ना ही कोई ऐसा पत्थर दिखा जिसपर पैर रख-रखकर इसे पार कर सकें। मैं अन्दाजे से कुछ ऊपर चढा तो पानी में पडे कुछ पत्थर दिख गये। पार कर लिया। पार करने के बाद कुछ आगे निकलकर पीछे देखा तो उसी जगह पर हल्दीराम और प्रताप खडे थे, जहां पगडण्डी नाले में समाती है। सीधी सी बात है कि प्रताप भी रास्ता ढूंढने के लिये ऊपर चढने लगा। हल्दीराम उसके पीछे-पीछे। तभी अचानक हल्दीराम का पत्थर से पैर फिसला और वो सीधा नाले में जा पडा। हल्दी का नसीब अच्छा था कि वो नाले के किनारे की तरफ गिरा, नहीं तो अगर दूसरी तरफ गिरता तो पानी का बहाव इतना तेज था कि बचना नामुमकिन था।
हिमालय की ऊंचाईयों पर एक खास बात है कि दोपहर बाद बादल आने लगते हैं। ये बादल कहीं बंगाल की खाडी या अरब सागर से नहीं आते बल्कि यही बनते हैं। होता यह है कि जैसे ही सुबह होती है तो मौसम बिल्कुल साफ-सुथरा होता है। जैसे जैसे दिन चढता है, वातावरण में गर्मी बढती है तो हवा भी चलने लगती है। बस यही गडबड हो जाती है। हवा चलती है तो पर्वत इसे मनचाही दिशा में नहीं चलने देते बल्कि नदी घाटियों में धकेल देते हैं जहां से हवा नदियों के साथ धीरे धीरे ऊपर चढती जाती है। जितनी ऊपर चढेगी, उतनी ही ठण्डी होगी और आखिरकार संघनित होकर धुंध का रूप ले लेती है और बादल बन जाती है। बादल बनते बनते दोपहर हो जाती है।
यहां भी ऐसा ही हुआ। बादल आने लगे और ग्लेशियर की ओर बढने लगे। पता था ही कि जब तक हम ग्लेशियर तक पहुंचेंगे तब तक बादल उसे अच्छी तरह ढक लेंगे। लेकिन अपने हाथ में होता क्या है?
मैंने पहले ही बता दिया था कि फुरकिया के बाद कोई पेड नहीं है। बस है तो सिर्फ दूर तक फैला हरा-भरा मैदान यानी बुग्याल। हम बिना कुछ खाये-पीये चले थे। दो गिलास चाय से होता क्या है? भूख लगने लगी। अतुल ‘मीलों’ आगे जा चुका था, हल्दीराम ‘मीलों’ पीछे था। महाराज बैठ गये एक चट्टान पर और बैग से निकालकर नमकीन खाने लगे। मेरे पास नमकीन के दो पैकेट और बिस्कुट के भी इतने ही पैकेट थे। तभी ग्लेशियर की तरफ से कुछ घुमक्कड आते दिखे। उनसे मैंने अतुल के बारे में पूछा तो बताया कि वो बहुत आगे चला गया है।
जब देखा कि हल्दीराम और प्रताप पास ही आने वाले हैं तो बची-खुची नमकीन बैग में रखी और चल पडा। हल्दी ने देखते ही आवाज लगाई कि भाई, रुक जरा। बोला कि जबरदस्त भूख लगी है, कुछ दे दे। मैंने वही बची-खुची नमकीन दे दी।
पिण्डर नदी
करीब एक बजे मैं बाबाजी के आश्रम पर पहुंचा। अतुल पहले से ही बैठा था। यहां से पिण्डारी जीरो पॉइण्ट एक किलोमीटर आगे है। यहां एक बाबाजी रहते हैं- बारहों महीने। लेकिन मुझे नहीं लगता कि वे बारहों महीने यहां रहते होंगे। खैर, उनकी तारीफ करनी पडेगी क्योंकि वे आने-जाने वालों को खाना मुहैया कराते हैं- फ्री में। जरुरत पडने पर ओढने-बिछाने के कपडे भी दे देते हैं। समुद्र तल से 3650 मीटर की ऊंचाई पर ग्लेशियर की नाक के तले घण्टे भर तक रुकना ही महान हौंसले का काम होता है, फिर बाबाजी की जितनी भी तारीफ हो, कम है। जिस टाइम हम वहां पहुंचे, बाबाजी मेन गेट पर ताला लगाकर अन्दर पूजा-ध्यान में व्यस्त थे इसलिये उनसे मिलना नहीं हो सका।
कुछ देर बाद प्रताप और हल्दीराम भी आ पहुंचे। तब तक मैंने और अतुल ने बची-खुची नमकीन और बिस्कुट खत्म कर दिये थे। जब प्रताप को पता चला कि बाबाजी ध्यान में बैठे हैं, तो उसने आगे ग्लेशियर तक जाने से सीधे मना कर दिया क्योंकि उसे जबरदस्त भूख लगी थी। वो बाबाजी के भरोसे ही आया था कि वहां तो खाना मिल ही जायेगा।
नीचे मैदान में कई झौंपडियां दिखाई दे रही हैं जिनमें लाल छत वाला बाबाजी का आश्रम है।
मनोरम रास्ता
खतरनाक रास्ते की शुरूआत
आधे घण्टे और चलने के बाद हम उस जगह पहुंचे जहां जीरो पॉइण्ट का बॉर्ड लगा हुआ है। अब तक बादलों ने सारे दृश्य को कैद कर लिया था। पहले मैं सोचा करता था कि जीरो पॉइण्ट का मतलब है कि अब बस। आगे ठोस बर्फ का इलाका यानी ग्लेशियर शुरू होता है। लेकिन यहां तो करीब एक किलोमीटर तक निगाह जा रही है, बरफ-वरफ कुछ भी नहीं दिख रही है। घास-फूस और पत्थर ही दिख रहे हैं। जीरो पॉइण्ट के बॉर्ड से आगे भी पगडण्डी जा रही थी। हम दस मीटर भी आगे नहीं गये, तभी समझ में आ गया कि इसे जीरो पॉइण्ट क्यों कहते हैं और इसपर चेतावनी क्यों लिखी है कि आगे खतरा है।
असल में यह महान भूस्खलन क्षेत्र है। हम एक धार पर खडे थे और हमारे बराबर में जहां तक निगाह जाती है, भूस्खलन ही दिखता है। एक बार अगर कोई पत्थर भी गिर गया तो समझो कि वो कम से कम 1500 फीट नीचे बह रही पिण्डर नदी में ही जाकर रुकेगा। जानलेवा और महा खतरनाक जगह। पगडण्डी पर भी जगह जगह दरारें पडी थीं जिनका मतलब था कि कभी भी यह जगह नीचे गिर सकती है। और ऊपर से नीचे देखने पर 25000 वोल्ट का करंट सा लगता था। यह वो जगह है जहां से आगे जा ही नहीं सकते।
अगर जाना ही है तो किसी तरह नीचे उतरकर पिण्डारी नदी तक पहुंचो और नदी के साथ साथ आगे बढो। और हां, इससे आगे बढने वालों को पर्वतारोही कहते हैं। हम जैसे पदयात्री यानी ट्रेकर इससे आगे जा ही नहीं सकते। पर्वतारोहण और ट्रेकिंग में यही फरक है कि जहां ट्रेकर के कदम रुक जाते हैं, वही से पर्वतारोही के कदम शुरू होते हैं।
अतुल भूस्खलन देख रहा है। यहां हर साल कुछ ना कुछ भूस्खलन होता रहता है।
साहस की पराकाष्ठा। इतनी ऊंचाई, मौसम खराब, ग्लेशियर नजदीक और मात्र एक हाफ बाजू की शर्ट।
वापस बाबाजी के आश्रम पर पहुंचे। तब तक बंगाली घुमक्कड और देवा भी आ गये थे और उन्होंने कुटिया से कुछ दूरी पर तम्बू लगा लिया था। साढे तीन बज चुके थे। दो घण्टे में अन्धेरा हो जायेगा और अभी हमें 12 किलोमीटर वापस जाकर द्वाली तक पहुंचना भी है। इसलिये मैंने चेतावनी दी कि जल्दी निकलो, नहीं तो द्वाली नहीं पहुंच पायेंगे। मेरी चेतावनी का कोई असर नहीं होता अगर मैं अतुल और हल्दीराम को छोडकर ना चल पडता। मेरे चलते ही अतुल भी चल पडा और हल्दीराम बैठा रहा। मैं हल्दीराम की तरफ से बिल्कुल भी चिन्तित नहीं था क्योंकि उसके साथ एक स्थानीय लडका प्रताप भी था। आ जायेंगे धीरे-धीरे।
अतुल तो गोली की स्पीड से निकल गया। मैंने भी अपनी औकात से ज्यादा तेज चलना शुरू कर दिया। अब ऊपर तो चढना था नहीं, नीचे ही उतरना था। सवा घण्टा लगा मुझे सात किलोमीटर दूर फुरकिया तक जाने में। यहां मेरा स्लीपिंग बैग रखा था। चाय बनवा ली और हल्दीराम की प्रतीक्षा करने लगा। चाय वाले ने बताया कि अतुल तो भागमभाग में था और यहां रुका भी नहीं।
दस मिनट बाद प्रताप आ गया- हल्दीराम का गाइड। उसने बताया कि हल्दीराम ऊपर ही रुक गया है। वो आज बंगाली घुमक्कड के तम्बू में सोयेगा। और उसके पास तो स्लीपिंग बैग भी नहीं है। रात को पारा माइनस ना भी पहुंचेगा तो जीरो तक जरूर पहुंच जायेगा। यही सब ख्याल जाट के मन में चल रहे थे। मगर हमारे हाथ में कुछ ज़्यादा नहीं था। वो तो बंगाली घुमक्कड के गाइड देवा से भी वापस जाने को कह रहा था लेकिन देवा ने अपने ग्राहक को इस तरह छोडना ठीक नहीं समझा।
मैंने प्रताप को बताया कि कल उससे कह देना कि जाट महाराज कफनी ग्लेशियर नहीं जायेगा, बल्कि वापस जायेगा। अब तुम्हें जाट कहीं नहीं मिलेगा। और जंगल का आधा रास्ता अन्धेरे में तय करता हुआ मैं द्वाली पहुंच गया। अतुल आधे घण्टे पहले आ चुका था। मैंने अतुल को बताया कि हल्दीराम ऊपर ही रुक गया है तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ। जब घण्टाभर और बीत गया तो उसे विश्वास होने लगा। मैंने कहा कि योजना के अनुसार कल हमें कफनी ग्लेशियर जाना है। लेकिन अब हल्दीराम के बिना हम कफनी नहीं जायेंगे, बल्कि वापस हो लेंगे।
निर्णय हो गया कि कल सुबह वापस खाती और अल्मोडा के लिये निकल लेना है। हिसाब लगाया तो पता चला कि अभी हल्दीराम पर मेरे ढाई सौ रुपये बाकी हैं। लेकिन संतोष कर लिया कि ढाई सौ से ज्यादा तो हमने उसके बिस्कुट, नमकीन, मिठाईयां खा लीं और अतुल के पास उसका विण्डचीटर भी था, एक चादर भी थी। कुल मिलाकर ढाई सौ रुपये वसूल हो रहे थे। वापस जाने की सोचकर हम लम्बी तानकर सो गये।
यह है आज का सफर। द्वाली में दो नदियां मिलती हुई दिख रही हैं। जिस पर लाल लाइन बनी है, वो है पिण्डर नदी और नीचे कफनी नदी। पिण्डर और कफनी दोनों के बीच में 15000 से लेकर 18000 फीट तक के बर्फीले पर्वत हैं।
शेष अगले भाग में
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thanks neeraj bhai `bugyal` kya hota hei, pata chal gaya.
paharon mein dophar baad barish ka karan bhi samjhane ke liye dhanyawad.
kya dhi baju wali shirt mein pen ki ink nahin jamin. yah kis kam aata hei.
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Excellent