मित्रों, अभी तक आप पढ़ चुके हैं कि कैसे मध्य प्रदेश में स्थित अपने बैंक की दो शाखाओं का ’निरीक्षण-परीक्षण’ करने के निमित्त मैं अपने प्यारे से, दुलारे से सहारनपुर से अमृतसर इन्दौर एक्सप्रेस पकड़ कर अगले दिन सुबह 7 बजे इन्दौर पहुंचा। वहां से धार जाने हेतु बस नहीं मिली तो टैक्सी से जाने का भरसक प्रयत्न किया पर बसंत पंचमी यानि 15 फरवरी के दिन वहां कर्फ्यू और धारा 144 लगा दिये जाने के कारण धार में प्रवेश हेतु अनुमति नहीं मिली। तीन घंटे में इन्दौर के विभिन्न राजमार्गों की खाक छान कर वापिस इन्दौर ही आना पड़ा, आर एन टी मार्ग पर होटल में सामान टिका कर बैंक पहुंचा। दिन में खाने का मैन्यू था – खस्ता कचौरी जिसके इन्दौरिये दीवाने हैं। शाम को सैंट्रल मॉल देखा जो आर एन टी मार्ग और महात्मा गांधी मार्ग के संगम पर स्थित है। अगले दिन सुबह इन्दौर की सड़कों से प्यार की पींगें बढ़ाईं। शनिवार यानि 16 फरवरी को दिन में बैंक से दो बजे सेजवाया के लिये प्रस्थान किया जो इन्दौर – धार राजमार्ग क्रं० 59 पर घाटाबिल्लोद से कुछ आगे अवस्थित है। घाटाबिल्लोद में मुकेश भालसे मिले और मुझे अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा कर सेजवाया के लिये चल पड़े। अब आगे…. ।
सेजवाया धार जनपद का एक पिछड़ा हुआ गांव रहा है जिसमें रुचि सोया ग्रुप ने रुचि स्ट्रिप्स एंड अलॉय लि. (RSAL) की स्थापना यह सोच कर की थी कि पिछड़े क्षेत्र में उद्योग स्थापित करने से सरकार की ओर से टैक्स आदि में विशेष प्रोत्साहन मिलता है। इस बहाने इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, फैक्ट्री में काम करने के लिये इतने सारे लोग यहां रहेंगे तो मकान – दुकान आदि सभी चीज़ों की आवश्यकता होगी । आज इस फैक्ट्री के उत्पाद देश विदेश में बहुत सम्मान जनक स्थान रखते हैं। यह कंपनी आई एस ओ 9001:2008 तथा 14001:2009 प्रमाणित औद्योगिक इकाई है जो Cold Rolled Steel Coils & Sheets बनाती है जिनका इस्तेमान अनेकानेक उद्योग अपने कच्चे माल के रूप में करते हैं। शेड बनाने हेतु प्रयोग में आने वाली स्टील की नालीदार चादरें भी यहां उत्पादित स्टील से ही बनाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त आटोमोबाइल इंडस्ट्री के लिये coil आदि बनाने हेतु कच्चा माल यही उद्योग उपलब्ध कराता है। यहां के उत्पाद का बहुत बड़ा हिस्सा कई देशों को निर्यात किया जाता है। खैर !
कितनी विचित्र बात है न? मैं मुकेश की मोटर साइकिल पर पीछे बैठा था, मेरे कंधे पर मेरा पिठ्ठू बैग लटका हुआ था। चार-चार फीट गहरे गढ्ढे वाली उस सड़क पर हमारी बाइक डूबती – उतराती चली जा रही थी और हम सड़क की दुर्दशा देख कर भी हंसते चले जा रहे थे। हम दोनों का कितना परिचय था? सिर्फ यही कि घुमक्कड़ डॉट कॉम के लिये हम दोनों अपने – अपने यात्रा संस्मरण लिखते हैं और एक दूसरे का लेखन पसन्द करते हैं। इस अपरिचय के बावजूद हम दोनों ही एक दूसरे को देखकर आह्लादित थे और आपसी परिचय को और गहन करने की लालसा लिये कुछ समय साथ बिताने के उद्देश्य से साथ-साथ जा रहे थे। व्यक्तिगत रूप से मुकेश के बारे में मेरी जानकारी इतनी ही थी कि वह रुचि स्ट्रिप्स एंड एलॉय लि. नामक विख्यात स्टील निर्माता कंपनी में गुणवत्ता नियंत्रण अधिकारी हैं। उनकी पत्नी कविता हैं, दो छोटे बच्चे हैं – संस्कृति एवं शिवम्! कविता भी घुमक्कड़ साइट पर यदाकदा लिखती हैं। क्या इतनी संक्षिप्त जानकारी दो व्यक्तियों को स्नेहसूत्र में जोड़ने के लिये पर्याप्त होती है? जी हां, बिल्कुल ! शर्त एक ही है और वह ये कि दोनों व्यक्ति घुमक्कड़ डॉट कॉम से जुड़े हुए लेखक हों ! सच कहूं तो घुमक्कड़ डॉट कॉम स्वयं में एक अनूठी दुनिया है जिसके लेखक, संपादक व टिप्पणीकार सब एक परिवार के सदस्य जैसे अनुभव होने लगे हैं। किसी व्यक्ति के लेखन से यदि उसके व्यक्तित्व को समझा जा सकता है तो मुकेश और मैं एक दूसरे से कतई अपरिचित नहीं थे। अस्तु !
लगभग 4 किमी चलने के बाद कुछ बस्ती सी महसूस होने लगी । हाई वे पर दस-बीस दुकानें आईं तो बाइक धीमे करते हुए (धीमे करने की बात सिर्फ आलंकारिक ही है, उस सड़क पर 10 किमी प्रति घंटा की गति भी बहुत अधिक अनुभव हो रही थी।) मुकेश ने रुचि स्ट्रिप्स परिसर में प्रवेश किया। लंबे – लंबे अशोक वृक्षों की श्रॄंखला के साथ – साथ स्टाफ फ्लैट्स बने हुए थे जो सारे के सारे पीले रंग से पुते हुए थे। ऐसे ही एक तीन मंजिला (या शायद चार मंजिला) भवन के आगे बाइक रोकी गई – यद्यपि उस भवन की सीढ़ियों पर चिपकाये गये नोटिस पर गौर करें तो निर्धारित पार्किंग स्थल के अतिरिक्त सड़क पर कहीं भी वाहन खड़ा न करने हेतु कंपनी की ओर से सख्त ताकीद की गई थी। पर कंपनी के बड़े अधिकारी भी अपने बनाये कानूनों का पालन करने लगे तो फिर तो चल लिया हिन्दुस्तान !
ढेर सारी उत्सुकता मन में लिये मैं मुकेश के पीछे – पीछे सीढ़ियां चढ़ता चला गया और एक ऐसे फ्लैट के प्रवेश द्वार पर घंटी बजाई गई जिसमें से अगरबत्ती की पवित्र सुगन्ध बाहर तक आ रही थी। कविता ने द्वार खोल कर हमारा स्वागत किया। जूते फ्लैट के बाहर ही उतार कर मैने घर में कुछ ऐसे प्रवेश किया मानों मंदिर में प्रवेश कर रहा होऊं ! सच कहूं तो अपने घर में मैं जूते पहने पहने अपने शयनकक्ष तक पहुंच जाता हूं पर मुकेश-कविता के घर का वातावरण इतना सात्विक और पावन लगा कि जूते पहने हुए घर में प्रवेश करने की बात संस्कार – विहीनता लग रही थी। बैठक यानि ड्राइंग – कम – डायनिंग हॉल में हर कोना और हर दीवार कविता की सुरुचि – संपन्नता के साक्षी थे। उन्होंने अपने घर को महंगे उपकरणों से नहीं, कल्पनाशीलता और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ था।
किसी अपरिचित से आप मिलते हैं तो कुशल-क्षेम पूछने के बाद कई बार सोचना पड़ जाता है कि अब क्या बात की जाये पर यहां तो मामला बिल्कुल उलटा ही रहा। पांच-सात मिनट में ही हम तीनों बातचीत में ऐसे तल्लीन हो गये जैसे बातचीत अधूरी छोड़ कर सुबह अपने-अपने ऑफिस गये हों और अब आकर बातें पूरी की जा रही हों। आधा – पौने घंटे में ही यह विचार मन से पूरी तरह से निकल गया कि शाम को इन्दौर वापिस जाना भी एक विकल्प था। शिवम् और संस्कृति कुछ घंटे तक तो शायद अपरिचित मेहमान के सामने आने से बचते रहे पर जब उनको लगा कि ये तो बंदा टल ही नहीं रहा है और रात को भी यहीं रुकने वाला है तो उन्होंने भी अपनी सत्संगति से हम तीनों को लाभान्वित किया।
अंधेरा होने लगा तो मुकेश बोले, मैं अभी मंदिर होकर आता हूं, आप बैठिये। मुझे लगा कि अगर मैं भी साथ साथ मंदिर में चला जाऊं तो भगवान से यह तो कहना नहीं पड़ेगा, “आज खुश तो बहुत होगा तू !” सो फ्लैट से नीचे उतर कर फिर बाइक पर लपक कर बैठ गया और मुकेश को पीछे की सीट पर बैठने का इशारा किया! हंसते हुए वह पीछे बैठ गये और हम दोनों मंदिर की ओर चल पड़े। बाहर हाई वे पर आये तो धार की दिशा में मुड़ने की आज्ञा हुई। बमुश्किल आधा किमी चल कर बाईं ओर एक छोटे से मंदिर के बाहर पुनः रुकने की आज्ञा हुई। यह दस गुणा दस फीट वर्गाकार भूमि पर बना हुआ एक छोटा सा मंदिर था जिसमें शनि देव और हनुमान जी स्थापित थे। कविता ने जो गीले आटे के दिये बना कर मुकेश को दिये थे, उनमें तेल व बत्ती रख कर मुकेश ने भगवान जी के घर में उजाला किया, हाथ जोड़े और हम कुछ सब्ज़ी खरीदते हुए पुनः घर की ओर चल पड़े।
रात्रि भोज में कविता ने घर आये मेहमान के आतिथ्य के लिये दाल-बाटी की विशेष व्यवस्था कर रखी थी। दाल-बाटी तो हाथ से ही, उंगलियों से मसल – मसल कर खाने वाली चीज़ है अतः उंगलियां चाट-चाट कर भोजन ग्रहण किया गया। इसके बाद शुरु हुआ गीत – संगीत का दौर। मुकेश को घूमने के अलावा जो दूसरा शौक है वह है – गायन का ! वह किशोर कुमार के गीतों के दीवाने हैं। थोड़ा सा इसरार करने पर वह शुरु हो गये। “तू इस तरहा से मेरी ज़िन्दगी में शामिल है… रिमझिम गिरे सावन, मचल – मचल जाये मन… गीत सुने और सराहे गये। फिर उन्होंने भी फरमाइश की कि मैं कुछ सुनाऊं ! येल्लो जी, कर लो बात! मैने कहा कि बिना हेल्मेट पहने मैं कभी कोई गीत गाने के लिये मुंह नहीं खोलता क्योंकि इसमें मेरे जीवन को खतरा है। पर फिर भी जब मांग जारी रही तो मैने गर्दभ राग सुनाया। ‘जलते हैं जिसके लिये, तेरी आंखों के दिये ! ” जब मुझे लगा कि तलत महमूद साहब की रूह बहुत बेचैन होने लगी है तो बाद में, अपने एक कवि मित्र की एक रचना सुनाई –
“कंठ लगा पी ने कहा, प्यारी कुछ तो मांग !
रहो सदा इस मांग में, यही हमारी मांग !”
रविवार यानि 17 फरवरी को हम सब कार से मांडू चलेंगे, जब यह प्रस्ताव पारित हो गया तो कविता तो विश्राम करने के लिये शयन कक्ष की ओर चली गईं क्योंकि उनको सुबह की इस पिकनिक के लिये तैयारियां करनी थीं। वैसे भी वह सुबह को पांच बजे उठ कर स्नान-ध्यान में लगभग २ घंटे का समय लेती हैं। पहले सबके लिये नाश्ते का प्रबन्ध करना था फिर सब के लिये दोपहर का भोजन भी बना कर ले जाना था। मुकेश और मैं रात को न जाने कितने बजे तक जागते रहे, बार-बार विशाल राठौड़ का ज़िक्र आता रहा जिनके साथ उन्होंने कई दिन का समय बिताया था, मुंबई में उनके घर पर रहे थे, साथ-साथ घुमक्कड़ी की थी।
सुबह शंख ध्वनि, घंटे – घड़ियाल की मंगल ध्वनि से आंख खुली तो देखा कि 7 बज रहे हैं। कविता घर में बने हुए अपने मंदिर से बाहर आ चुकी थीं और बच्चों को हिला-हिला कर जगा रही थीं कि घूमने चलना है अतः अलस त्यागो और फटाफट तैयार हो जाओ ! बच्चे पहले तो उठने के मूड में नहीं थे क्योंकि रविवार का छुट्टी का दिन था पर जब ध्यान दिलाया गया कि पिकनिक पर जाना है तो फटाफट बिस्तर में से निकल आये। शिवम् को यह भी लालच दिया गया कि नीचे चल कर कार की सफाई में भी उसकी सहायता ली जायेगी। लड़कों को पता नहीं क्यों ऐसे अजीबो-गरीब कामों में बहुत मज़ा आता है। मेरे बेटे भी जब छोटे थे तो खेल – खिलौनों के बजाय प्लास, पेचकस, संडासी जैसे सामान में अधिक रुचि लेते थे।
मुकेश ने गैराज़ में से अपनी शेवरले स्पार्क निकाली और फिर शिवम् के साथ एक बाल्टी पानी, कुछ अखबार और डस्टर आदि लेकर नीचे पहुंचे। मैं भी अपना कैमरा उठाने लगा तो बोले, अभी इसका क्या काम ! जाने में तो अभी दो घंटे हैं। मैने कहा कि पिकनिक तो उसी समय से शुरु हो जाती है जब हम यह निश्चय कर लेते हैं कि पिकनिक पर जाना है। उसके बाद में की जाने वाली सभी तैयारियां भी पिकनिक का अभिन्न हिस्सा हैं। कार की धुलाई – पुछाई – सुखाई सब इस अविस्मरणीय पिकनिक का अविभाज्य भाग है। इसलिये इन सब की फोटो भी जरूरी है! सब कुछ पिकनिक की भावना से करो तो हर काम में मज़ा आने लगता है। आधा घंटे तक MP 11 CC 0470 कार की मस्का पालिश की गई। फिर ऊपर आकर नहाये – धोये ! कविता तब तक धांसू वाली स्टफ्ड पूरियां और सब्ज़ी बना चुकी थीं जिनका हमने जी भर के भोग लगाया। बच्चों ने कार में सारा सामान बूट में रखा। भोले बाबा को बारंबार प्रणाम करके हम सब फ्लैट से नीचे उतर आये और मुकेश ने कार की चाबी मेरे हाथों में सौंप दी।
यूं के, अब आयेगा मज़ा ज़िन्दगी का!
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Well finally two stars met and I have a very happy feeling.
I also visit Indore often but in recent years I was unable to make it there.
Eager to read about Bajbahadur and Roopmati’s story again.
Dear Praveen Wadhwa,
Thank you for coming to the post and leaving a pleasant comment here. I am trying to write about Roopmati and Baj Bahadur and should be able to present it in near future. Thanks again. You not only write at tremendous speed but devote time to read other’s posts and comment thereon. That is pretty nice of you. :)
Loved this post for many reasons.
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Dear Amitava,
Whatever could be the reasons of your liking the post, I must say thanks to you. Yester night I writing a detailed comment on your Nainital post but before I could submit it, my PC hung and I had to forcibly shut it down.
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Sushant Ji, It was very kind of you to dedicate this post to Mukesh Ji and his family. True demonstration of atithi devo bhava by Mukesh Ji and Kavita Ji. I love the names Sanskriti and Shivam
Dear Bhatt Saheb,
Thanks a ton for your kind comment. It is only in our culture perhaps that we equate a guest with God.
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:)
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Singhal Ji,
thanks for sharing the hospitality you received from Mukesh Ji and Kavita ji at their home. First Vishal wrote about their goodness and now its from your end. I would also like to thanks Mukesh Ji and Kavita ji for their warm welcome to Sh. Sushant Ji.
Thank you Naresh Ji for the sweet words.
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he he he. Thank you Sir Ji ! jab 3 ghumakkar (Mukesh – Kavita and yours truly) mil kar itna hungama kar sakte hain to 72 mil kar kitnaa hungaama karenge !!! Socho, socho !! and then please decide in favour of a ghumakkar meet.
Nice blog and photos.
Happy Birthday to you.
Thank you Surinder Sharma Ji.
Actually, “??? ?? ???? ??? ?? ?? ” :-)
I think you are enjoying as much while writing as we do while reading. Mukesh probably has met a lot of writers from here. This is indeed humbling.
Yeah, truly enjoying while reliving those golden moments. I just wanted my wife also to be there with us…. but ?? ?? ? ???, ?? ?? ?? ??? ?? ?? ?? ????, ???? ??????? ?? ???? ! :D
I agree with ALL the comments written before mine! About time you should write a book, Sushant ji! I read most of your stories but can never find enough words to express in comments. Superbly written, and lovely to see the Bhalse home through your eyes.
Best regards.
Welcome aboard Smita Dhall ! So, you have always been enjoying the show silently? :D Penalty lagegi !
Thank you very much for your superbly expressed sentiments which made me quite ‘senti’ and thus served their purpose well ! :D I have always wanted to write books on two topics – The woodcraft of Saharanpur and “Before you click the shutter…” on photography. But I not a disciplined man so didn’t give time to these projects on regular basis. ?? ?? ?? ???? ??? ?? ??? ?? ????? ?? ??? ??? ?? ??? ??, ???? ??? ??? ????? ???? ?? ??????? ?????? ! But the million dollar question, “Who is going to publish / buy my books?”
Ghumakkar.com ke resources ka istemaal kijiye book chhapney ke liye. Am sure, their machinery will work :-)
Hi Sushantji,
Mazaa aa gaya. That is all I got to say. I was thinking of ordering a tea to overcome the post lunch symptoms of a hot Delhi summer afternoon. But then reading your post woke me up and has suddenly put me in a good mood.
I can see Mukesh and Kavita were perfect hosts and took good care of you.
Hi Nirdesh Ji,
It is really a blessing from the Almighty if my post helped to relieve your post-lunch symptoms! Nothing could be more gratifying than this for me.
Yes, Mukesh, Kavita, and the shy kids Sanskriti and Shivam played perfect hosts and friends to me and I am sure all other ghumakkar authors would be no different from them. We are connected to each other through our writings which is a spiritual faculty. So, if spirits are the same in all of us, differences in outward forms, individual vocations, age mean nothing. Our souls transcend across such petty differences.
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