बात 12वी सदी की शà¥à¤°à¥à¤†à¤¤ की है, अरब़ से निकलकर इसà¥à¤²à¤¾à¤® हिनà¥à¤¦à¥à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤¨ में अपनी जड़े जमाने का पà¥à¤°à¤¯à¤¾à¤¸ कर रहा था, मà¥à¤—ल राजायों की सलà¥à¤¤à¤¨à¤¤ आगरा, दिलà¥à¤²à¥€ से लेकर राजपूताना होते हà¥à¤ पूरे उतà¥à¤¤à¤° à¤à¤¾à¤°à¤¤ में अपनी पैठबनाने के पà¥à¤°à¤¯à¤¾à¤¸ के साथ-साथ मधà¥à¤¯ और दकà¥à¤·à¤¿à¤£ à¤à¤¾à¤°à¤¤ की तरफ à¤à¥€ बढ़ना चाहती थी | इंसानी सà¤à¥à¤¯à¤¤à¤¾ का तकाजा रहा है कि जीते हà¥à¤¯à¥‡ हà¥à¤•à¥à¤®à¤°à¤¾à¤¨ का मज़हब ही पूरी रियाया1 का मज़हब2 हो जाता है, लेकिन यह à¤à¥€ सतà¥à¤¯ है कि अकà¥à¤¸à¤° à¤à¤¸à¥‡ परिवरà¥à¤¤à¤¨ इतनी आसानी से नही हो पाते, और यदि कोई देश हिनà¥à¤¦à¥à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤¨ जैसा पारमà¥à¤ªà¤°à¤¿à¤• और जड़ों से जà¥à¤¡à¤¼à¤¾ हà¥à¤¯à¤¾ हो, तो फिर सदियों से चली आ रही रवायतों3 और अकीदों4 को पल à¤à¤° में नही बदला जा सकता | अरब़ में तो इसà¥à¤²à¤¾à¤® तेज़ी से फैल गया कà¥à¤¯à¥‚ंकि वहाठउसका कोई पà¥à¤°à¤¤à¤¿à¤¦à¥à¤µà¤‚दी नही था, पर यहाठकी धरती तो पहले से ही अनेकों मतों, समà¥à¤ªà¥à¤°à¤¦à¤¾à¤¯à¥‹à¤‚, विà¤à¤¿à¤¨à¥à¤¨ पूजा-पदà¥à¤§à¤¤à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚, संसà¥à¤•ृतियों और विशà¥à¤µà¤¾à¤¸à¥‹à¤‚ को समेटे हà¥à¤ थी | हाà¤, इतना जà¥à¤°à¤°à¥‚र था कि जाति-गत बà¤à¤Ÿà¤µà¤¾à¤°à¤¾ समाज की पà¥à¤°à¤—ति में à¤à¤• बहà¥à¤¤ बड़ा रोड़ा था, पर फिर à¤à¥€ à¤à¤• निहायत ही विदेशी धरà¥à¤® को अपनाना इतना आसान à¤à¥€ नही था | ये काम तलवार के ज़ोर का नही था अपितॠधीरे-धीरे उनका विशà¥à¤µà¤¾à¤¸ जीतकर ही उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ अपनी तरफ़ मोढ़ना था | तलवार के दम पर राजà¥à¤¯ जीतना तो आसान है, पर विशà¥à¤µà¤¾à¤¸ और ईमान जीतना मà¥à¤¶à¥à¤•िल ! अत: अकारण नही कि उस दौर में à¤à¤¸à¥‡ अनेक सूफी संतों और कलंदरों का हिनà¥à¤¦à¥à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤¨ की धरती पर आगमन हà¥à¤¯à¤¾ जो इसà¥à¤²à¤¾à¤® के पैरोकार तो थे मगर उनके तौर-तरीकों में वो मजहबी कटà¥à¤Ÿà¤°à¤¤à¤¾ नही थी, उन सब ने अपने-अपने पà¥à¤°à¤•ार से धीरे-धीरे उस यà¥à¤— में पà¥à¤°à¤šà¤²à¤¿à¤¤ धरà¥à¤®à¥‹à¤‚ को साथ जोड़ते हà¥à¤ इसà¥à¤²à¤¾à¤® के पà¥à¤°à¤šà¤¾à¤° और पà¥à¤°à¤¸à¤¾à¤° में अपना योगदान दिया | ये सू़फी़ दरवेश अपने पूरà¥à¤µà¤µà¤°à¥à¤¤à¥€ मà¥à¤²à¥à¤²à¤¾-मौलवियो की तरह कटà¥à¤Ÿà¤°à¤ªà¤‚थी नही थे अत: उनका विरोध à¤à¥€ नही हà¥à¤† और सà¤à¥€ धरà¥à¤®à¥‹à¤‚ के मानने वालों के दिलों में वो जगह बनाते चले गये |
“धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कà¥à¤› होये
माली सींचे सौ घड़ा, रà¥à¤¤ आये फल देय ||â€

खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ गरीबनिवाज की दरगाह का बाहरी गेट
à¤à¤¸à¥‡ ही à¤à¤• सूफी दरवेश हà¥à¤ हज़रत मोईनà¥à¤¦à¥à¤¦à¥€à¤¨ चिशà¥à¤¤à¥€, जिनका जनà¥à¤® 12वीं सदी का माना जाता है. वो पूरà¥à¤µà¥€ ईरान से अजमेर में आकर बसे | अज़मेर, जयपà¥à¤° से करीब 135 किमी दूर, à¤à¤• पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥‡ इतिहास का शहर… à¤à¤¸à¤¾ माना जाता है कि राजा अजयमेरॠने 7वीं शताबà¥à¤¦à¥€ में इस शहर का निरà¥à¤®à¤¾à¤£ करवाया था, अरावली की परà¥à¤µà¤¤ माला में सà¥à¤¥à¤¿à¤¤ ये शहर सदियों से अपनी संसà¥à¤•ृति के लिठजाना जाता रहा, और 12वीं शताबà¥à¤¦à¥€ तक आते-आते इसका नाम अजमेरू से होता हà¥à¤¯à¤¾ अजमेर हो गया | इसà¥à¤²à¤¾à¤® की सूफी शाखा जिसका समà¥à¤¬à¤¨à¥à¤§ सूफी-à¤-कà¥à¤² अरà¥à¤¥à¤¾à¤¤ सब के लिये शांति से माना जाता है, हिनà¥à¤¦à¥à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤¨à¥€ दरà¥à¤¶à¤¨ के लिये कà¥à¤› à¤à¤¸à¤¾ अनà¥à¤œà¤¾à¤¨ सा à¤à¥€ नही था | à¤à¤• ईशà¥à¤µà¤°à¤µà¤¾à¤¦ का सिदà¥à¤§à¤¾à¤‚त तो यहाठकी परमà¥à¤ªà¤°à¤¾ में à¤à¥€ पहले से ही था | अà¤à¥€ आई à¤à¤• हालिया फ़िलà¥à¤® ‘रॉक सà¥à¤Ÿà¤¾à¤°â€™ में à¤à¤• गाने के जो बोल हैं ना, “ कà¥à¤¨ फाया कà¥à¤¨ “, यह à¤à¤• अरबी शबà¥à¤¦ है और इसका अरà¥à¤¥ है, अलà¥à¤²à¤¾à¤¹ ने हà¥à¤•à¥à¤® दिया बà¥à¤°à¤¹à¤®à¤¾à¤£à¥à¤¡ के निरà¥à¤®à¤¾à¤£ का (कà¥à¤¨) और हो गया (फाया कà¥à¤¨), Allaha commands the universe ‘to be’ and it is ! अब आपको à¤à¤¸à¤¾ महसूस होगा अरे यही या à¤à¤¸à¤¾ ही कà¥à¤› तो हमारे गà¥à¤°à¤à¤¥ à¤à¥€ कहते हैं | ऋग वेद के à¤à¤¾à¤— 10 का मनà¥à¤¤à¥à¤° 129 इस बà¥à¤°à¤¹à¤®à¤¾à¤‚ड की उतà¥à¤ªà¤¤à¥à¤¤à¤¿ की वà¥à¤¯à¤¾à¤–à¥à¤¯à¤¾ कà¥à¤› इस पà¥à¤°à¤•ार से करता है –
“नासदासींनॊसदासीतà¥à¤¤à¤¦à¤¾à¤¨à¥€à¤‚ नासीदà¥à¤°à¤œà¥Š नॊ वà¥à¤¯à¥Šà¤®à¤¾à¤ªà¤°à¥Š यतॠ।
किमावरीव: कà¥à¤¹à¤•सà¥à¤¯à¤¶à¤°à¥à¤®à¤¨à¥à¤¨à¤: किमासीदà¥à¤—हनं गà¤à¥€à¤°à¤®à¥ ॥१॥“5
तो बाबा नानक à¤à¥€ इस बà¥à¤°à¤¹à¤®à¤¾à¤£à¥à¤¡ की रचना शूनà¥à¤¯ में से हà¥à¤¯à¥€ पà¥à¤°à¤¤à¤¿à¤ªà¤¾à¤¦à¤¿à¤¤ करते हैं, à¥à¤•ार, कमà¥à¤ªà¤¨ से उपजी धà¥à¤µà¤¨à¤¿ है, और फिर इस से आगे के जगत का विसà¥à¤¤à¤¾à¤° हà¥à¤† | अब इसे कà¥à¤¨ कहा जाये या à¥à¤•ार, जो आरà¥à¤¯à¤¨ सà¤à¥à¤¯à¤¤à¤¾ के आने पर ॠबन गया, बताता है कि शबà¥à¤¦ इस बà¥à¤°à¤¹à¥à¤®à¤¾à¤£à¥à¤¡ की रचना का आधार है, और विजà¥à¤žà¤¾à¤¨ à¤à¥€ मानता है कि धà¥à¤µà¤¨à¤¿ ऊरà¥à¤œà¤¾ का à¤à¤• रूप है जो विà¤à¤¿à¤¨à¥à¤¨ आकार ले सकती है | हिदू और सिख धरà¥à¤®, दोनों इस बात पर à¤à¤•मत हैं कि इस बà¥à¤°à¤¹à¥à¤®à¤¾à¤£à¥à¤¡ की रचना शबà¥à¤¦ से हà¥à¤ˆ और साथ ही ये पूरी कायनात ही à¤à¤• माया है और ईशà¥à¤µà¤° इस माया से परे, इसलिठहम उसे ना देख सकते हैं और ना ही उसका अनà¥à¤à¤µ कर सकते हैं | हिरणà¥à¤¯à¤—रà¥à¤ सूकà¥à¤¤ है-
“हिरणà¥à¤¯à¤—रà¥à¤à¤ƒ समवरà¥à¤¤à¤¤à¤¾à¤—à¥à¤°à¥‡ à¤à¥‚तसà¥à¤¯ जातः पतिरेकासीत ।
स दाधार पृथà¥à¤µà¥€à¤‚ धà¥à¤¯à¤¾à¤®à¥à¤¤à¥‡à¤®à¤¾à¤‚ कसà¥à¤®à¥ˆ देवायहविषा विधेम ॥“6
यहाठये जानना à¤à¥€ दिलचसà¥à¤ª है कि विजà¥à¤žà¤¾à¤¨ जिस ‘बिग-बैंग’ थà¥à¤¯à¥‹à¤°à¥€ की बात करता है, हिनà¥à¤¦à¥à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤¨à¥€ दरà¥à¤¶à¤¨ उससे पूरे तौर पर सहमत नही | विजà¥à¤žà¤¾à¤¨ कहता है बà¥à¤°à¤¹à¤®à¤¾à¤£à¥à¤¡ का निरà¥à¤®à¤¾à¤£ à¤à¤• दà¥à¤°à¥à¤˜à¤Ÿà¤¨à¤¾ थी, और इसका निरà¥à¤®à¤¾à¤£ रिकà¥à¤¤à¤¤à¤¾ या निरà¥à¤µà¤¾à¤¤ यानी emptiness या nothingness(vacumme), अरà¥à¤¥à¤¾à¤¤ असतॠसे हà¥à¤¯à¤¾, मगर दरà¥à¤¶à¤¨ कहता है कि कà¥à¤› à¤à¥€ अकारण नही, और ना ही असतॠसबसे पà¥à¤°à¤¾à¤¤à¤¨, ईशà¥à¤µà¤° ने सà¥à¤µà¤¯à¤‚ सतॠसे अपना निरà¥à¤®à¤¾à¤£ करके, और फिर शूनà¥à¤¯ से इस बà¥à¤°à¤¹à¥à¤®à¤¾à¤£à¥à¤¡ की रचना की, धà¥à¤¯à¤¾à¤¨ रहे शूनà¥à¤¯, emptiness का परà¥à¤¯à¤¾à¤¯ नही, कà¥à¤¯à¥‚ंकि शूनà¥à¤¯ का अपना परिमाण है | दरà¥à¤¶à¤¨ के सिदà¥à¤§à¤¾à¤‚त को और बल मिलता है जब इस इकà¥à¤•ीसवीं सदी में विजà¥à¤žà¤¾à¤¨ God Particle अरà¥à¤¥à¤¾à¤¤ Higgs-Boson को ढूà¤à¤¢à¤¨à¥‡ का दावा करता है, जो पदारà¥à¤¥ की रचना का आधार माना जा रहा है | बाबा नानक कहते है –
“अरबद नरबद धà¥à¤‚धूकारा ॥“7 (अंग 1035)
इसी में और आगे वो कहते हैं-
“आपे आपि उपाइ विगसै आपे कीमति पाइदा ||â€8 (अंग 1035)
सृषà¥à¤Ÿà¤¿ के निरà¥à¤®à¤¾à¤£ के बाद जब बात उस करà¥à¤¤à¤¾ की बनà¥à¤¦à¤—ी की आती है, तो यहाठà¤à¥€ सूफीजà¥à¤® आपके निकट है, कà¥à¤¯à¥‚ंकि सूफी का à¤à¥€ अपने इषà¥à¤Ÿ से समà¥à¤¬à¤¨à¥à¤§ पà¥à¤°à¥‡à¤® का है, वो उसको अपना आराधà¥à¤¯ तो मानता है पर किसी डर से नही बलà¥à¤•ि वो उसका सखा, सहेली या पà¥à¤°à¤¿à¤¯ है | à¤à¤• सूफी की उसे पाने की चाह à¤à¤• à¤à¤•à¥à¤¤ की सी ना होकर à¤à¤• पà¥à¤°à¥‡à¤¯à¤¸à¥€ की है वो उस से नाराज़ à¤à¥€ हो सकता है और उस पर तंज़ à¤à¥€ कस लेता है, वो उस से मिलने की तड़प में इस शरीर से बाहर आकर आतà¥à¤®à¤¾-परमातà¥à¤®à¤¾ के मिलन की बाट जोहता है, ecstasy की जो अवसà¥à¤¥à¤¾ है ना, अपने शरीर से ही रिहा होकर बाहर आ जाना, यदि आप हिनà¥à¤¦à¥‚ दरà¥à¤¶à¤¨ की गहराई में जाà¤à¤ तो ऋषियों और मनीषियों ने इस अवसà¥à¤¥à¤¾ को ‘समाधि’ कहा है, और à¤à¤¸à¥€ अनेकों किवंदà¥à¤¤à¤¿à¤¯à¤¾à¤ हैं जब à¤à¤¸à¥‡ ऋषि जीवित होते हà¥à¤¯à¥‡ à¤à¥€ अपनी आतà¥à¤®à¤¾ को शरीर से बाहर ले जाते थे… कबीर यदि कहते हैं कि-
“नैनो की क़ारी कोठरी, पà¥à¤¤à¤²à¥€ पलंग बिछाय |
पलकों की चिक ढारिके, पिया लियो रिà¤à¤¾à¤¯ ||â€
तो बà¥à¤²à¥à¤²à¥‡ शाह कहते हैं –
“तेरे इशà¥à¤• नचाया करके थैया-थैयाâ€
और फिर कौन à¤à¤¸à¤¾ है जिसने ख़à¥à¤¸à¤°à¥‹ का कलाम छाप तिलक सब छीनी मोसे नैना लगाईके नही सà¥à¤¨à¤¾ !
यहाठये उलà¥à¤²à¥‡à¤–नीय है कि इसà¥à¤²à¤¾à¤® में संगीत और नृतà¥à¤¯ की कोई जगह नही, पर सूफी तो उसे पाने के लिये किसी à¤à¥€ हद तक चला जाता है, जोधा-अकबर का खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ मेरे खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ वाला सूफी कलाम और उसका नृतà¥à¤¯ तो इतना मशहूर हà¥à¤¯à¥‡ कि उसके बाद से ही फिलà¥à¤®à¥‹à¤‚ और टीवी पर सूफीज़à¥à¤® दिखाने के लिठउसे ही copy cat किया जा रहा है | सूफी पर तो पà¥à¤¯à¤¾à¤° का रंग कà¥à¤› à¤à¤¸à¤¾ खà¥à¤¸à¤°à¥‹ ने समà¤à¤¾à¤¯à¤¾ है-
“खà¥à¤¸à¤°à¥‹ दरिया पà¥à¤°à¥‡à¤® का, उलटी वा की धार |
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार ||â€
सो à¤à¤¸à¥‡ ही कà¥à¤› साà¤à¤à¥‡ विचारों को ले कर सूफ़ी दरवेश आम जनता में अपनी पहचान बनाते गये | खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾, अलà¥à¤²à¤¾à¤¹ वाले तो थे ही, जलà¥à¤¦ ही उनके नाम के साथ अनेकों चमतà¥à¤•ार à¤à¥€ जà¥à¤¡à¤¼à¤¤à¥‡ चले गये, लोग उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ बाबा से लेकर गरीब नवाज़ तक के नाम से जानने लगे और उनकी पहचान आस-पास के कà¥à¤·à¥‡à¤¤à¥à¤°à¥‹à¤‚ से लेकर दिलà¥à¤²à¥€ आगरा तक हो गयी, मà¥à¤°à¥€à¤¦à¥‹à¤‚ की संखà¥à¤¯à¤¾ में दिन-पà¥à¤°à¤¤à¤¿à¤¦à¤¿à¤¨ वृदà¥à¤§à¤¿ होने लगी | और जब अकबर अपने वारिस की चाह में आगरा से पैदल ही चलकर इस दरवेश के दर पर आया तो कà¥à¤¯à¤¾ हिनà¥à¤¦à¥‚ और कà¥à¤¯à¤¾ मà¥à¤¸à¤²à¤®à¤¾à¤¨ सबके मन में ये बात घर कर गयी कि बाबा के दर पे की गयी दà¥à¤† आगे à¤à¥€ कबूल है, जिसकी वजह से यहाठमूहठमाà¤à¤—ी मà¥à¤°à¤¾à¤¦à¥‡à¤‚ पूरी हो जाती है | गरीबनिवाज का जलवा तो कà¥à¤› à¤à¤¸à¤¾ रहा कि 15वीं सदी में खà¥à¤¦ बाबा नानक ने आकर उनके शागिरà¥à¤¦à¥‹à¤‚ के साथ गोषà¥à¤ ी की, और उनके ठहरने की जगह पर पà¥à¤·à¥à¤•र में à¤à¤• शानदार गà¥à¤°à¥à¤¦à¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ सà¥à¤¶à¥‹à¤à¤¿à¤¤ है |
यदि आप ने इतना पढ़ लिया है तो जरà¥à¤° ये सोच रहें होंगे कि à¤à¤• यातà¥à¤°à¤¾-वृतांत में ये सब कà¥à¤¯à¥‹à¤‚ और फिर इसकी आवशà¥à¤¯à¤•ता ही कà¥à¤¯à¤¾? पर कà¥à¤¯à¤¾ है ना कि रहसà¥à¤¯à¤µà¤¾à¤¦ में कबीर का मà¥à¤•ाबला नही और वो कहते हैं-
“लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल |
लाली देखण मैं गयी, मैं à¤à¥€ हो गयी लाल ||“
तो à¤à¤¸à¥€ ही जगहों पर आप कà¥à¤› à¤à¤¸à¤¾ महसूस कर जाते हो, जो आपको उन पà¥à¤°à¤¶à¥à¤¨à¥‹à¤‚ के उतà¥à¤¤à¤° ढूà¤à¤¢à¤¨à¥‡ में मदद करता है जो आपके खà¥à¤¦ के असà¥à¤¤à¤¿à¤¤à¥à¤µ से जà¥à¤¡à¤¼à¥€à¤‚ हैं और जिनकी तलाश में इंसान सदियों से à¤à¤Ÿà¤•ता आया है, यूठयायावरी à¤à¥€ तो उस à¤à¤Ÿà¤•न की तलाश का à¤à¤• पà¥à¤°à¤¤à¤¿à¤°à¥‚प ही तो है, बैठे-बिठाये, कई काम बीच में ही छोड़कर, घर पे ताला डाल चले जाना, इस सबमे कà¥à¤› तो à¤à¤¸à¤¾ होता है जो आपको अपने घर की सà¥à¤µà¤¿à¤§à¤¾à¤¯à¥‹à¤‚ को छोड़कर बाहर निकलने को पà¥à¤°à¥‡à¤°à¤¿à¤¤ करता है |
यहाठआसà¥à¤¥à¤¾ है, वहाठमà¥à¤°à¥€à¤¦ हैं और यहाठमà¥à¤°à¥€à¤¦ हैं वहाठमक़बूलियत ! तो बस फिर कà¥à¤¯à¤¾ है ना कि अपना देश जरा धारà¥à¤®à¤¿à¤• कà¥à¤› जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ ही है सो हम à¤à¥€ इसी ताब में खिंचे जयपà¥à¤° से अजमेर शरीफ में बाबा की दरगाह में अपना सज़दा करने चले आये | जयपà¥à¤° à¤à¤²à¥‡ ही परमà¥à¤ªà¤°à¤¾ और आधà¥à¤¨à¤¿à¤•ता के बीच à¤à¥‚लता सा शहर हो, मगर अजमेर आज à¤à¥€ पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥‡ दौर में ही है, बड़े-बड़े नेतायों से लेकर फ़िलà¥à¤®à¥€ सितारों तक अपनी किसà¥à¤®à¤¤ को चमकवाने के लिठयहाठजियारत करने के लिठआते हैं, पर आप सड़कों से लेकर अनà¥à¤¯ किसी तरह की सà¥à¤µà¤¿à¤§à¤¾ की अपेकà¥à¤·à¤¾ नही कर सकते | शायद हमारी सरकारों की सोच हो, यहाठआधà¥à¤¯à¤¾à¤¤à¥à¤®à¤¿à¤•ता है, वहाठà¤à¥Œà¤¤à¤¿à¤• सà¥à¤–-सà¥à¤µà¤¿à¤§à¤¾à¤¯à¥‹à¤‚ की कà¥à¤¯à¤¾ आवशà¥à¤¯à¤•ता ?, जैसे मथà¥à¤°à¤¾ कानà¥à¤¹à¤¾ के नाम से जाना जाता है ठीक वैसे ही अजमेर बाबा की दरगाह के लिये… यानी कि इस शहर के वाशिंदों के लिये रोज़ी-रोटी का मà¥à¤–à¥à¤¯ जरिया ये दरगाह ही है, जिसके लिठदेश-विदेश से हर साल लाखों लोग(ज़ायरीन) यहाठआते हैं, और जब इस दरगाह का मà¥à¤–à¥à¤¯ परà¥à¤µ ‘उरà¥à¤¸â€™ मनाया जाता है तो उस समय में ये संखà¥à¤¯à¤¾ कई गà¥à¤£à¤¾ और बढ़ जाती है | दरगाह तक पहà¥à¤‚चने के लिये, लगà¤à¤— à¤à¤• किमी पहले ही आपको अपनी कार किसी पारà¥à¤•िंग में छोढ़नी पडती है और आगे का रासà¥à¤¤à¤¾ पैदल ही पार करना पड़ता है | संकरी सड़क के दोनों तरफ हर तरह की दà¥à¤•ाने हैं, जिसमे छोटे-मोटे ढाबों से लेकर इतà¥à¤°-फà¥à¤²à¥‡à¤² और à¤à¤¿à¤¨à¥à¤¨-à¤à¤¿à¤¨à¥à¤¨ पà¥à¤°à¤•ार के सामान मिल जाते हैं, जैसा आप किसी à¤à¥€ अनà¥à¤¯ धारà¥à¤®à¤¿à¤• सà¥à¤¥à¤² के निकट पा सकते हैं | दरगाह के करीब पहà¥à¤‚चते ही गà¥à¤²à¤¾à¤¬ के फूलों और चादरों की दà¥à¤•ाने शà¥à¤°à¥‚ हो जाती हैं, खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ की दरगाह पर चादर के साथ गà¥à¤²à¤¾à¤¬ ही चढ़ाया जाता है और इसी की पतà¥à¤¤à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ का पà¥à¤°à¤¶à¤¾à¤¦ ही दिया जाता है जिसे आप अपने पास संà¤à¤¾à¤² कर à¤à¥€ रख लेते हो और खा à¤à¥€ लेते हो, इसी के साथ रंगीन धागा जिसे मौली के नाम से à¤à¥€ जाना जाता है वो दरगाह के पास किसी à¤à¥€ जाली पर या जनà¥à¤¨à¤¤à¥€ दरवाजे पर, आप अपनी किसी मनà¥à¤¨à¤¤ के तौर पर बाà¤à¤§ सकते हैं | à¤à¤¸à¥€ ही दà¥à¤•ाने, जिनसे आप चादर और गà¥à¤²à¤¾à¤¬ के फूलों की टोकरी लेते हैं, आपके सामान तथा जूतों को à¤à¥€ रख लेते हैं, हर दà¥à¤•ान के आगे जूते रखने का रैक और हाथ धोने का पानी आपको मिल जाता है | साथ ही कोई ना कोई à¤à¤¸à¤¾ à¤à¤²à¤¾ इंसान à¤à¥€ जो आपको पूरी दरगाह घà¥à¤®à¤¾ लाता है बिना किसी लालच के ! वाकई अज़मेर के लोग बाबा को à¤à¥€ मानते हैं और आप के आने के जजà¥à¤¬à¥‡ को à¤à¥€ पूरी इजà¥à¤œà¤¤ बकà¥à¤¶à¤¤à¥‡ हà¥à¤¯à¥‡ उसका à¤à¤¹à¤¤à¥‡à¤°à¤¾à¤® à¤à¥€ करते हैं, जो वाकई काबिले-तारीफ़ है |

मशà¥à¤• बीते जमाने को अपने में समेटे हà¥à¤¯à¥‡

वज़ू करने वालों के लिये बना पानी का तालाब
आंतक के इस दौर में ये दरगाह à¤à¥€ कà¥à¤› नापाक लोगों की कारसà¥à¤¤à¤¾à¤¨à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ से बच नही सकी और इसका खामियाजा आपको à¤à¥à¤—तना पड़ता है जब अंदर घà¥à¤¸à¤¤à¥‡ ही सबसे पहले आपकी अचà¥à¤›à¥€ तरह से जामा-तलाशी ली जाती है और फिर आपको साफ़ मना कर दिया जाता है कि कैमरे की इजाजत नही है | तब फिर आपको वापिस उसी दूकान पर अपना कैमरा à¤à¥€ छोढ़ना पड़ता है, जहाठसे आपने सामान लिया था | इतना शà¥à¤•à¥à¤° है कि मोबाइल पर रोक नही है, मगर दोनों से खींची गई फ़ोटो के सà¥à¤¤à¤° में तो अंतर होता ही है, खैर इसी दूकान पर हमे बाबा के à¤à¤• ख़ादिम à¤à¥€ मिल गये जिनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने हमे इस मà¥à¤•à¥à¤•दस जगह पर घà¥à¤®à¤¾à¤¨à¥‡ की जिमà¥à¤®à¥‡à¤¦à¤¾à¤°à¥€ ले ली दरगाह के मà¥à¤–à¥à¤¯ दरवाज़े से अंदर जाते ही कà¥à¤› दूर तक आपको पैदल चलना पड़ता है, यहाठआपको मशà¥à¤•़ से पानी पिलाने वाले à¤à¥€ मिल जायेंगे, यहीं जिनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने नमाज़ पढ़नी होती है, उनके मà¥à¤à¤¹-हाथ धोने यानी वजू करने के लिये पानी का à¤à¤• छोटा सा तालाब सा à¤à¥€ है, और मशà¥à¤•़ वाले à¤à¥€ यहाठसे पानी लेते हैं | सदियों से मशà¥à¤• वालों की परमà¥à¤ªà¤°à¤¾ रही है, जो अब तो लà¥à¤ªà¥à¤¤à¤ªà¥à¤°à¤¾à¤¯ है, पर यहाठइसके दीदार हो जाते हैं | दरगाह के करीब आते ही जायरीनों की à¤à¥€à¤¡à¤¼ शà¥à¤°à¥‚ हो जाती है और आपको à¤à¥€ इसका हिसà¥à¤¸à¤¾ बनना पड़ता है, à¤à¤¸à¥‡ में हिंदà¥à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤¨ के बाकी धारà¥à¤®à¤¿à¤• सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥‹à¤‚ की तरह आपको अपनी जेब तथा अनà¥à¤¯ सामान का खà¥à¤¦ ही खà¥à¤¯à¤¾à¤² रखना पड़ता है और à¤à¥€à¤¡à¤¼ के धकà¥à¤•ों को à¤à¥€ à¤à¥‡à¤²à¤¨à¤¾ पड़ता है à¤à¤¸à¥‡ ही कà¥à¤› देर के संघरà¥à¤· के बाद आप बाबा की दरगाह पर अपनी मनà¥à¤¨à¤¤à¥‹à¤‚ की अरà¥à¤œà¥€ लिये हाज़री à¤à¤°à¤¤à¥‡ हो | मज़ार के साथ-साथ à¤à¥€à¤¡à¤¼ में अपनी जगह बनाते-बनाते दरगाह का खादिम कà¥à¤› आपकी मदद कर देते हैं तो आप कà¥à¤› आराम से गरीबनिवाज की कबà¥à¤° तक पहà¥à¤‚च जाते हो, कई बार अपने पकà¥à¤· में हà¥à¤¯à¤¾ कोई काम अचà¥à¤›à¤¾ लगता है और फिर, यहाठकी रिवायत के अनà¥à¤¸à¤¾à¤° आपकी लाई चादर और फूलों की टोकरी खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ की मज़ार पर चड़ा दी जाती है |
इसके बाद के पल, गूंगे के मिठाई खाने वाले अनà¥à¤à¤µ की तरह है जब वो खादिम पल à¤à¤° के लिठआपको नीचे à¤à¥à¤•ा कर मज़ार पर पड़ी चादर के अंदर आपका सर कर देता है और मोरपंख के à¤à¤¾à¤¡à¤¼à¥‚ से मारते हà¥à¤¯à¥‡, आपके सर पर कà¥à¤› आयते सी पड़ता है, ये पल रूहानी है, पर इस कà¥à¤·à¤£ के अनà¥à¤à¤µ को मैं चाह कर à¤à¥€ आपसे सांà¤à¤¾ नही कर सकता | यदि मैं अपने आप से à¤à¥€ उस अनà¥à¤à¤µ को बाà¤à¤Ÿà¤¨à¤¾ चाहूठतो à¤à¥€ नही बाà¤à¤Ÿ सकता ! इसीलिठमैंने ऊपर गूंगे दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ खायी मिठाई का ज़िकà¥à¤° किया था वो चाह कर à¤à¥€ आपको उसका सà¥à¤µà¤¾à¤¦ नही समà¤à¤¾ सकता और मैं à¤à¥€ …
यही सूफीजà¥à¤® है जिसके पीछे दà¥à¤¨à¤¿à¤¯à¤¾ खिंची चली आती है उस à¤à¤• पल के अनà¥à¤à¤µ के लिये, और फिर जैसे ही आपके सर से चादर हटती है आप इसी दà¥à¤¨à¤¿à¤¯à¤¾ में वापिस आ जाते हैं | गà¥à¤²à¤¾à¤¬ की कà¥à¤› पतà¥à¤¤à¤¿à¤¯à¤¾à¤‚ आपको दी जाती हैं, जिनमे से कà¥à¤› आप खा लेते हो और कà¥à¤› समà¥à¤à¤¾à¤² कर अपने रà¥à¤®à¤¾à¤² में बांध लेते हो अपने घर के लिठ..
मज़ार से बाहर निकलते ही आपके साथ आया à¤à¤²à¤¾ इंसान आपको à¤à¤• और कबà¥à¤° दिखता है, जो बाबा की बेटी की है यहाठà¤à¥€ वैसा ही सब कà¥à¤› किया जाता है मगर इसमें वो रूहानियत नही, जिसका अनà¥à¤à¤µ चंद पल पहले ही आप कर चà¥à¤•े हो | बाहर बड़े से सेहन में सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ कवà¥à¤µà¤¾à¤² खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ के दरबार में अपनी-अपनी अरà¥à¤œà¤¿à¤¯à¤¾à¤‚ लगा रहे है, दरगाह के दीदार के बाद के ये पल बेहतरीन हैं और उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ सà¥à¤¨à¤¨à¤¾ अचà¥à¤›à¤¾ लगता है | आप चाहें तो कà¥à¤› देर वहाठबैठकर उन रूहानी कà¥à¤·à¤£à¥‹à¤‚ का आनà¥à¤¨à¤¦ उठा सकते हो, à¤à¤¸à¥‡ में अपने कैमरे की कमी कà¥à¤› और à¤à¥€ जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ खलती है, मोबाइल का कैमरा à¤à¤• विकलà¥à¤ª तो है पर उसकी काली सà¥à¤•à¥à¤°à¥€à¤¨ धूप में कà¥à¤› दिखा नही पाती और आपको अंदाज़ से ही कà¥à¤› फ़ोटो खींचने पड़ते है और इधर साथ आया खादिम आपको बाबा के किये कà¥à¤› चमतà¥à¤•ारों वगैरह के बारे में बताता जाता है जो कि खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ गरीब नवाज़ के नाम के साथ जà¥à¤¡à¤¼à¥‡ हà¥à¤¯à¥‡ हैं पर अकà¥à¤¸à¤° ही à¤à¤¸à¥‡ किसà¥à¤¸à¥‡ हर जगह पर जà¥à¤¡à¤¼ जाते हैं और इनमे कà¥à¤› खास नयापन नही होता | वैसे इस दरगाह में मज़ार के बाद कà¥à¤› पल कवà¥à¤µà¤¾à¤²à¥‹à¤‚ की संगत में बैठना à¤à¤• और यादगार अनà¥à¤à¤µ है |

महफ़िल-à¤-कवà¥à¤µà¤¾à¤²à¥€, खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ के सज़दे में

कवà¥à¤µà¤¾à¤²à¥€, सूफीवाद का दिया अनमोल नज़राना
सूफीजà¥à¤® इसà¥à¤²à¤¾à¤® की à¤à¤• उदार शाखा है जो बना है ‘सूफ़’ शबà¥à¤¦ से, जिसका अरà¥à¤¥ है ‘ऊन’, à¤à¥‡à¤¡à¤¼ की ऊंन से बना वो थोड़ा सा खà¥à¤°à¤¦à¤°à¤¾ कमà¥à¤¬à¤², या à¤à¤• मोटे कपड़े की तरह के बने दà¥à¤¶à¤¾à¤²à¥‡ को पैगैमà¥à¤¬à¤° मोहमà¥à¤®à¤¦ तथा उनके अनà¥à¤¯ साथी औढ़ते थे, सूफी इसà¥à¤²à¤¾à¤® की उस कटà¥à¤Ÿà¤° विचारधारा से अलग है जिसके साथ इसà¥à¤²à¤¾à¤® को अकà¥à¤¸à¤° ही जोड़ कर देखा जाता है, इसी लचीलेपन की वजह से खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ के साथ-साथ हजरत निजामà¥à¤¦à¥€à¤¨ औलिया, बाबा बà¥à¤²à¥à¤²à¥‡à¤¶à¤¾à¤¹, शेख फरीद आदि के कलाम हिनà¥à¤¦à¥à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤¨à¥€ जन-मानस में अपनी जगह बना गये | बाबा नानक और कबीर à¤à¥€ इसी परमà¥à¤ªà¤°à¤¾ के वाहक रहे है कà¥à¤¯à¥‚ंकि उनके कलामों में à¤à¥€ आप उस निराकार रब की कशिश पाते हैं जिसके लिये सूफीजà¥à¤® जाना जाता है | ओशो का रहसà¥à¤¯à¤µà¤¾à¤¦ à¤à¥€ बà¥à¤¦à¥à¤§ से लेकर सूफीवाद तक की बात करता है | नà¥à¤¸à¤°à¤¤ फतेह अली खान से लेकर कैलाश खैर हों या रबà¥à¤¬à¥€, इन सब की पहचान इनके गाये सूफी कलामों की वजह से ही है और सूफीजà¥à¤® को आम आदमी, और खास तौर पर आज की यà¥à¤µà¤¾ पीढ़ी तक पहà¥à¤à¤šà¤¾à¤¨à¥‡ में इन सबका योगदान सराहनीय है |
कवà¥à¤µà¤¾à¤²à¥‹à¤‚ की संगत से उठकर आप दरगाह के कà¥à¤› दूसरे हिसà¥à¤¸à¥‹à¤‚ को à¤à¥€ देख सकते हैं, जिनमे से à¤à¤• है जनà¥à¤¨à¤¤à¥€ दरवाज़ा, नाम से ही सà¥à¤ªà¤·à¥à¤Ÿ होता है कि इसकी जियारत करने वाले को जनà¥à¤¨à¤¤ नसीब होती है, मगर यह साल में कà¥à¤›à¥‡à¤• मौकों पर ही खोला जाता है | और, फिर आप देख सकते है चार यार, उन दोसà¥à¤¤à¥‹à¤‚ की कबà¥à¤°à¥‡ जो अफगानिसà¥à¤¤à¤¾à¤¨ से बाबा को मिलने आये थे | बाहर की खà¥à¤²à¥€ जगह में à¤à¤• विशाल चूलà¥à¤¹à¥‡ पर लगी हà¥à¤¯à¥€ है, बादशाह अकबर की दी गयी वह देग, जो अकबर ने चितà¥à¤¤à¥‹à¤¡à¤—ढ की विजय पशà¥à¤šà¤¾à¤¤ à¤à¥‡à¤‚ट की थी, ये à¤à¥€ जायरीनों के आकरà¥à¤·à¤£ का केंदà¥à¤° है जिसमे कहते है à¤à¤• बार में उरà¥à¤¸ पर 120 मन यानि 4800 किलो चावल पकता है और फिर गरीबों में उसे बांटा जाता है | देग वाकई विशाल है, और इसे बड़ी देग के नाम से जाना जाता है, इसी के साथ ही à¤à¤• दूसरी देग à¤à¥€ है जो जहांगीर की दी हà¥à¤ˆ है और इसमें 60 मन यानी 2400 किलो तक चावल पकता है, और जियारीन अपने-अपने अकीदे, जेब और किसी मनà¥à¤¨à¤¤ के हिसाब से इन देगों में अपना योगदान देते है |

दरगाह से बाहर, सबसे बायीं तरफ हमारे वो गाइड

अकबरी देग, खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ की तरह इसकी à¤à¥€ à¤à¤• कशिश है
दरगाह से बाहर निकल आप थोड़ा-बहà¥à¤¤ इधर-उधर घूम सकते हैं, मगर à¤à¤¸à¥€ कोई ख़ास दरà¥à¤¶à¤¨à¥€à¤¯ चीज़ नज़र नही आती, हाठबाज़ार पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥‡ मिज़ाज़ का है तो आप कà¥à¤› à¤à¤¸à¥€ वसà¥à¤¤à¥à¤¯à¥‹à¤‚ को ढूनà¥à¤¢ सकते है जो ‘माल-कलà¥à¤šà¤°â€™ और बड़े-बड़े बà¥à¤°à¤¾à¤‚डà¥à¤¸ की à¤à¥€à¤¡à¤¼ में दà¥à¤°à¥à¤²à¤ हो गयी हैं, सो तà¥à¤¯à¤¾à¤—ी जी के साथ घंटा दो घंटे का समय à¤à¤¸à¥€ कà¥à¤› नायाब चीज़ों को दूंदने में निकलता है, जिनमे हींग, लà¥à¤¬à¤¾à¤¨, और गà¥à¤—à¥à¤—à¥à¤² से लेकर कà¥à¤› बेहतरीन इतà¥à¤° तथा कà¥à¤µà¥à¤µà¤¾à¤²à¥à¤²à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ की कà¥à¤› à¤à¤¸à¥€ CDs इकटठा करने में, जो आज à¤à¥€ कार में सà¥à¤Ÿà¥€à¤°à¤¿à¤¯à¥‹ पर चलते ही दोबारा से गरीब नवाज़ के दर तक पहà¥à¤‚चा देती हैं |

à¤à¥€à¤¡à¤¼-à¤à¤¾à¤¡à¤¼ à¤à¤°à¤¾ नज़ारा होता है, दरगाह के बाहर
बस, à¤à¤¸à¥‡ ही कà¥à¤› पलों को अपनी यादों में समेट, इस बात का सकूं à¤à¥€ महसूस कर सकते हो कि à¤à¤²à¥‡ ही चिशà¥à¤¤à¥€ परमà¥à¤ªà¤°à¤¾ में इससे पहले और बाद में à¤à¥€ कई और नामचीन औलिया हà¥à¤¯à¥‡, पर सूफीजà¥à¤® की असल रूह तो आज à¤à¥€ खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ को ही माना जाता है, इनà¥à¤¹à¥€ कà¥à¤›à¥‡à¤• खà¥à¤¯à¤¾à¤²à¤¾à¤¤à¥‹à¤‚ के साथ आप खà¥à¤µà¤¾à¤œà¤¼à¤¾ से रà¥à¤–सत लेते हो और शà¥à¤•à¥à¤°à¤¿à¤¯à¤¾ अदा करते हो इस सूफी दरवेश गरीब निवाज का, जिसकी रहमत के सदके, आज à¤à¥€ अजमेर और इसके आसपास का इलाका अपने धरà¥à¤®-निरपेकà¥à¤· और सदà¥à¤§à¤¾à¤µà¥€ चरितà¥à¤° को बचा कर रखे हà¥à¤¯à¥‡ है | सूरज की तपिश धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन रà¥à¤•ने का समय नही, कà¥à¤¯à¥‹à¤‚कि सदियों पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¤¾ à¤à¤• मायावी शहर अपने à¤à¥€à¤¤à¤° मिथ और सतà¥à¤¯ का तिलिसà¥à¤® समेटे हà¥à¤¯à¥‡ हमे पà¥à¤•ार रहा है, और हम à¤à¥€à¤¡à¤¼-à¤à¤¾à¤¡à¤¼ à¤à¤°à¥€ संकरी सड़को से जगह बनाते हà¥à¤¯à¥‡, राजसà¥à¤¥à¤¾à¤¨ की इस सांसà¥à¤•ृतिक राजधानी को पीछे छोड़ते हà¥à¤¯à¥‡ पà¥à¤·à¥à¤•र के रासà¥à¤¤à¥‡ पर अपनी कार बढ़ा देते हैं…
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1. पà¥à¤°à¤œà¤¾, the common natives of the state
2. धरà¥à¤®, religion
3. विशà¥à¤µà¤¾à¤¸, faith
4. पà¥à¤°à¤¥à¤¾à¤¯à¥‡à¤‚, customs,traditiions
5. सृषà¥à¤Ÿà¤¿ की उतà¥à¤ªà¤¤à¥à¤¤à¤¿ से पहले पà¥à¤°à¤²à¤¯ दशा में असतॠअरà¥à¤¥à¤¾à¤¤à¥ अà¤à¤¾à¤µà¤¾à¤¤à¥à¤®à¤• ततà¥à¤µ नहीं था. सत à¤à¥€ नही था, सà¥à¤µà¤°à¥à¤—, नरà¥à¤• और पाताल à¤à¥€ नहीं थे, अनà¥à¤¤à¤°à¤¿à¤•à¥à¤· नहीं था, और उससे परे जो कà¥à¤› है वह à¤à¥€ नहीं था, वह आवरण करने वाला ततà¥à¤µ कहाठथा और किसके संरकà¥à¤·à¤£ में था। उस समय गहन कठिनाई से पà¥à¤°à¤µà¥‡à¤¶ करने योगà¥à¤¯ गहरा कà¥à¤¯à¤¾ था, अरà¥à¤¥à¤¾à¤¤ कà¥à¤› बी नही था |
6. वो था हिरणà¥à¤¯ गरà¥à¤ सृषà¥à¤Ÿà¤¿ से पहले विदà¥à¤¯à¤®à¤¾à¤¨
वही तो सारे à¤à¥‚त जाति का सà¥à¤µà¤¾à¤®à¥€ महान
जो है असà¥à¤¤à¤¿à¤¤à¥à¤µà¤®à¤¾à¤¨ धरती आसमान धारण कर
à¤à¤¸à¥‡ किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
7.कई यà¥à¤—ों तक केवल घना अनà¥à¤§à¤•ार ही सà¥à¤¥à¤¾à¤ªà¤¿à¤¤ रहा, dark age
8. उसने(ईशà¥à¤µà¤°) सà¥à¤µà¤¯à¤® ही जनà¥à¤® लिया, पà¥à¤°à¤¸à¤¨à¥à¤¨ हà¥à¤¯à¤¾ और सबसे पहले अपने आप को सà¥à¤¥à¤¾à¤ªà¤¿à¤¤ किया
Excellent …. something different to read.
Thanx Virag sharma ji for you comment.
I do hope you will like the other posts too.
“खैर इसी दूकान पर हमे बाबा के एक खाविंद भी मिल गये”
प्रिय अवतार आज मैं आपकी निंदा या प्रसंशा में कोई टिप्प्णी नहीं करूँगा बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ आगाह करूँगा कि जब ठंडीब्यार की बजाय गर्म हवा का दौर हो और मुज़्ज़फ़र नगर का धुआँ बाक़ी हो, ऐसे में कोई भी तथाकथित धरम का ठेकेदार आपकी पवित्र भावनाओं की कद्र व हिन्दी भाषा में उर्दू भाषा का समावेष न मानकर एक छोटी सी त्रुटि को तूल दे सकता है, कृपया अन्यथा न लें.
आदरणीय त्रिदेव जी
जब आप ने शुरू से इतना स्नेह दिया है तो आपका ये हक बनता है कि कोई भी त्रुटी सामने आने पर ना केवल आगाह करें अपितु यदि आवश्यक हो तो कान भी खींच सकें | आप ने जिस भूल की तरफ ध्यान दिलाया वो सर माथे पर…
मैंने नंदन और अर्चना दोनों को मेल कर दी है, इस शब्द को एडिट करने के लिये |
इस reply में भी मैं उनसे रिक्वेस्ट करता हूँ @admin, please do the needful at the earlierest.
सर, आपने गलती की तरफ जो ध्यान दिलाया, उसके लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया!
तो अंतत: आपके अंदर का आध्यात्मिक पुरुष बाहर आ ही गया । ये एक यात्रा विवरण नही एक आध्यात्मिक यात्रा थी, जिसका पूरा आनंद उठाया गया, शब्दों व चित्रों के माध्यम से. धन्य है वो जननी जिसने इस भौतिकवादी व भोगवादी संस्कृति के अंध युग में ऐसा पुत्र पैदा किया जो एक सहज दृष्टि में ही सत्य को यथार्थ ही जान लेता है…
सूफी हालांकि अधिकतर मुस्लिम थे (कई हिन्दू भी थे), पर इस्लाम से उनका कोई लेना देना नही था… परम्परा-वश ही वे अल्लाह, मुहम्मद का नाम लेते थे। सूफी वो अध्यात्मिक संत थे जिन्होने सनातन धर्म के मूल को पहचाना…वो सत्य जिससे अधिकतर हिन्दू भी अनजान थे व अनजान हैं. नृत्य, प्रेम, अनहद नाद, श्रंगार रस व वेदांत की परम्पराएं जो सूफियों के मुख्य प्रेरणा-स्रोत थे, सनातन धर्म के रहस्यों का खजाना था न कि इस्लाम का। बाबा बुल्ले शाह, बाबा फरीद, रुमी, वारिस शाह, गुरु नानक, कबीर, परमहंस… ये सूफी सभी धर्मों के रूढ़िवादियों की आंख की किरकिरी थे ।
साची कहूं सुन लेहू सभी… जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पायो ।… ये संदेश कोई धार्मिक व्यक्ति नही…कोई उच्च आध्यात्मिक संत ही दे सकता है…
बहुत -2 आशीर्वाद…इस लेख के लिये
Thanx SS जी
You are always generous for extending your knowledge and spirituality over me again and again. In this sense I definitely believe I am blessed, that is why I could become a part of such अ nice and wonderful community of people.
आप ने सही खा, वाकई हम लोग अन्जान हैं और ऐसी बातों को तूल दे देते हैं, जिनका कोई अर्थ नही | यदि कोई नास्तिक है तो बात अलग है अन्यथा मोटे तौर पर सभी धर्म एक ही तरफ ले जाते हैं भले ही उनके रास्ते अलग-अलग हों |
साची कहूं सुन लेहू सभी… जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पायो । गुरु गोबिंद सिंह जी के इस सवैया का आपने सही उद्धरण दिया |
जिन रास्तों से प्रभु को पाया जा सकता है, वाकई उनमे से प्रेम का मार्ग सर्वोत्तम है |
इसी लिये.. मां ने मेरे नाम ही प्रेम सागर रख दिया था…..LOL
क्या बात है, सर…???
पूत के पाँव पालने में ही देख लिये होंगे उन्होंने …. and I am serious on it!!!
Dear Avtar Singh Ji,
Akath ko kathneey banaa dena,
Sirf alfaaz ke boote mumkin nahi.
Rooh jo bheegee ho muhabbat me,
Ye uskaa karnama hai.
One correction is required
“खैर इसी दूकान पर हमे बाबा के एक खाविंद (it should be Khaadim) भी मिल गये”
Thank you very much for liking the post and at the same time mentioning towards a crucial mistake. I have already requested the admin to correct this mistake. I do hope, very soon they will correct it.
Thanx again.
Nice Post with beautiful pictures…
Thanx Abheeruchi ji for your comment.
Alas! pics could be more fascinating, but the security at the gate refused to allow for the camera, and these are just mobile pics.
nice post soaked in sufi ocean of love.very good pics.
i was astonished on this much discussion on that line “———baba ka—-khavind ——–.” as i was reading it khadim only perhaps on auto mode.
this is what we call “we see what we think” or “jaa ki rahi bhavna jaisi, hari murat dekhi tin taisi.”
your love and devotion is admirable.
Thank you very much ashok ji for your comment and support, although I am of the view that a mistake is a mistake and it should be corrected at the earliest when come to notice, I am sincerely thankful to Tridev ji and Vinod ji for correcting me and Mr. Nandan for fixing it.
I must say you are always a support right through the journey of my first post on ghumakkar. Thanx.
@Respected Ashok Sharmaji, : Sir, I am extreamly sorry to point out a minute clerical mistake which could be ignored easily “on auto mode”. this tiny clerical mistake itself had rectified many time further in the same travelogue. Neither was my intention to astonish any member of my ghumakkar.com family nor to mke it a matter of discussion on this platform. It is a matter of (by) chance that respected Sh. Vinod Sharmaji also pointed it out. I do appreciate your sentiments in the matter and apologised with best regards.
I am thankful to Dear Avtar who had not taken it otherwise.
Ashok ji, if it will not be replied, it is felt guilty on my part and understood that Your Excellency has not forgiven me.
@Dear Tridev Ji, @Dear Ashok ji
It is my sincere request to mention the mistake, whenever and where ever any esteem member of this site notice either in the content part or in the context part. Here, we do not have the facility of a professional proof reader, therefore it is quite possible that such kind of mistakes surface in any of the post, irrespective of the writer’s intention.
I admire the courage shown by Tridev ji and Vinod ji, which eventually helped for the correction. I also owe to ashok ji for their love and support.
Sincerely Thanx.
Really another excellent post written by you , specialy on Baba Garib Nawaz ….
You seems to be real Ghumakkar with real thoughts…..
Heartily thanks for such a nice Post as well as knowledge sharing about Ajmer Sharif.
Please keep continue sharing.
Again lot of Thanks …
Many thanx Parmender ji for your comment
You are a witness and insipiration of all the ghumakkri.
So please accept a thanx from my side too….
अवतार जी,
एक और उम्दा लेख आपकी कलम से, छाया चित्र भी लुभावने। लेख इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि आपकी पोस्ट्स कहीं से भी यात्रा वृत्तान्त (Travelogue) नहीं लगती है जिसकी टोह में इस वेबसाईट पर मुसाफिरी के शौकीन लोग आते हैं, इस आशा में की शायद जगह के बारे में कुछ जानकारी मिल जाए जैसे पहुँचने के साधन, ठहरने, खाने के ठिकाने, स्थानीय भ्रमण आदि आदि ………..लेकिन अंततः उन्हें निराशा ही हाथ लगाती है क्योंकि आप तो घुमक्कड़ पर अपनी कलम की धार पैनी करने आते हैं, अपने लेखन की क्षुधा को शांत करने, विभिन्न विषयों पर जैसे धार्मिक , राजनैतिक (घुमक्कड़ी को छोड़कर).
इस बात में कोई शक नहीं है की आप बहुत उम्दा लिखते हैं, आपकी भाषा शैली, आपकी हिंदी साहित्य पर पकड़ सब कुछ काबिले तारीफ़ है और व्यक्तिगत तौर पर मैं भी आपके लेखों का मुरीद हूँ, बल्कि घुमक्कड़ के हिंदी लेखकों में (सुशांत सिंघल जी के बाद) मैं सबसे ज्यादा आपको पसंद करता हूँ लेकिन …………….यहाँ घुमक्कड़ पर यात्रा से सम्बंधित कहानियां ही पढने में मजा आता है अतः आपसे गुज़ारिश है की आप यात्रा वृत्तान्त पर फोकस किया कीजिये।
आशा है आप मेरा मंतव्य समझ गए होंगे। मेरी इस टिप्पणी से अगर आपकी भावनाएं आहत हुईं हों तो मैं पूर्व में ही क्षमा मांग लेता हूँ।
Mukesh Bhalse जी,
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ‘लेख’ को पसंद करने के लिये|
सर, सबसे पहले आपकी कही अंतिम पंक्ति पर सबसे पहले कहूँगा- सर आप इतने वरिष्ठ लेखक है, इस साइट पर, इतनी आपकी पोस्ट्स हैं, अनेको जगहों के बारे में… अगर आप जैसा लेखक किसी विषय पर अपनी असहमति दर्ज़ करे तो उसे पूरा अधिकार है | और मैं आपके इस अधिकार के लिये स्वयम आपके साथ हूँ, इसलिये भविष्य में कभी भी यदि आप को मेरे किसी ‘लेख’ से कोई भी असहमति हो तो कृपया अपना अधिकार समझ कर टिप्पणी करें और क्षमा शब्द का इस्तेमाल ना करे |
सर, जहाँ तक बात आपके उठाये गये बाकी विषयों के बारे में है, ख़ास तौर पर कॉन्टेंट को लेकर, मेरी यह व्यक्तिगत सोच है कि एक यात्री और एक पर्यटक में एक मूलभूत अंतर होता है, और यही अंतर आप मेरी पोस्ट के विषय-सार में भी पाते हैं |
सर, साधन,ठहरना, खाना, स्थानीय भ्रमण…. आदि इन सबकी चिंता एक पर्यटक करता है और इन कामों के लिये तो गूगल पर क्लिक करते ही आपको सैंकड़ो साइट्स मिल जाएँगी , हजारो ट्रेवल एजेंसियां हैं जो आपको आपका मनपसन्द भ्रमण करवाने में सिदहस्त हैं, उनकी तो रोजी-रोटी ही वही है|
सर, घुमक्कड़ी पर्यटन नही है, ये तो यात्रा है, जिसे ‘अज्ञेय’ ने यायावरी नाम देकर कालजयी कर दिया |
मुझे आशा है, आप मेरी कही बातों को अन्यथा नही लेंगे और और एक पर्यटक और एक यायावर के बुनियादी मर्म को समझने की चेष्टा करेंगे |
बाकी final word, admin पर छोड़ देते हैं, जैसा वो कहें….. सादर
I dont think there is any fault in the article Mukeshji.. We can have thousands of blogs on Ajmer yatra… but such combination of travel and philosophy both is unique. Singh has given detailed information about the place about his Yatra, alongwith some insights into the philosophy.
Going by your yard-sticks my posts on Ghumakkari – Kuchh Khatti Kuchh meethi must be removed immediately (all the 5 posts)…because they are not actually travel details.
We should encourage such unique writers, in the crowd of boring travel details writers.
I have been to Ajmer many times but never visited any tourist places.
Pictures are too good. I heard that photography is not allowed in Dargah oris there any particular place photography is prohibited?
Many thanx Mahesh Ji for your comment.
Sir, Dargah is not just a tourist destination, its a place of worship, faith and soul of sufism.
Yes, photography is not allowed inside the dargah, but you can take pics outside of it, there are other spots available in the dargah campus for quenching the thirst of photography, although cameras are not allowed to carry.
A very refreshing post Avtar Ji. The photographs of Kawali singing inside Dargah are beautiful.
Thanx sharmistha Dan ji for your nice words.
रोचक यात्रा रही अवतार जी…बाहर से भीतर और भीतर से बाहर बस यही सब चलता रहा…सुबह सुबह आध्यात्म की ताज़ा डोज़ सीधे अध्यात्मिक नगरी से…यही तो घुमक्कड़ी का असली स्वाद है कि जो कहीं जाने पर सिर्फ ऐसा ना लगे के गए हैं…बल्कि ऐसा लगे की एक यात्रा की है, एक अनुभूतियों भरी यात्रा, कुछ ऐसी जो हमेशा याद रहे भीतर तक…बेहतरीन…साझा करने के लिए शुक्रिया!
Thanx Vipin ji
Great comment indeed.
वाकई ऐसी जगहें सिर्फ घूमने का मौका नही देतीं अपितु इस सफर को यात्रा बना देती हैं |
… यही तो घुमक्कड़ी का असली स्वाद है, सौ फीसदी सहमत हूँ आपसे !!!
Avtar Singh Ji, Namaskar.
Nice post though a bit philosophical though it was not required here sans introduction. Ajmer as seen through your eyer looked good.
Thanx Rakesh bawa ji for your well composed comment. Sir, Philosophy is in the air of such places and if one is a real passionate ghumakkar, can not ignore that aroma.
सिंह साहब , सत सीरी अकाल । फ़साने का आगाज़ पढ़ा तो निर्देश सिंह की याद आ गयी , वो भी अक्सर काफी पीछे से शुरू करतें हैं । दर्शन के मुआमले में आपकी पैठ अन्दर तक है , और जहाँ दर्शन ढीला पड़ता है वहां आप अपनी अंतर्दृष्टि से पटक देतें हैं । अब ऐसे में मुकेश और मेरे जैसे लोग ज्यादा व्यावहारिक जानकारी की दरकार कैसे न करें । आखिरकार कैसे जाना है, कहाँ रुकना है, कहाँ खाना है और क्या नहीं करना है, वो भी एक लौकिक तथ्य है ।
चलिए पहले एक रीडर की तरह बात करतें हैं, गूगलाते हुए पहुंचे घुमक्कड़ पर, आपका लेख हाथ आया और पढ़ते ही हाथो के तोते उड़ गए , इस दंगिक स्थति में न लेख को कोसते बनता है (यूँ समझिये की हिम्मत ही नहीं होती है) और न ही यह सूझता है की शायद दोहराने से कुछ होश वापस आये । एक बहादुर पाठक की मर्यादा निभाते हुए , आप एक लुप्त रूह की तरह इस लेख के सागर में गोते खाते हैं और आपको दुयाएँ देते हुआ फिर से गूगलातें हैं । अन्दर की बात ये है (अन्दर क्या, गूगल विश्लेषण के सौजन्य से ) ज़्यादातर पाठक अपना विकेट बहुत पहले ही गवां देतें हैं, रूह और गोते से बहुत पहले । ये सब मेरे मन की थ्योरी है , अक्सर मेरी थ्योरी अधपकी और काल्पनिक आयाम से परे नहीं होती है तो इसकी उपेक्षा पर किसी प्रकार का कोई रोष नहीं । न तो मुझे और न हि मुकेस भाई को (एक से दो भले) ।
पर एक संपादक गिरोह के सरगना की तरह जब आपका लेख पढ़ा तो इतना कुछ था कि लगा की इसको समेटना असंभव है । उस पर से तिवारी जी , त्रिदेव सर और सभी पाठको ने कुन फाया कुन कर दिया । वाह । बिलकुल आफरीन आफरीन । बोलचाल की भाषा में, फोड़ दिया , चक दिए फट्टे ते नप दी है किल्ली , ठोकों ताली । सलाम सिंह साहब ।
Dear Nandan
मैं तो इस पोस्ट पर आपके आने की कुछ जल्दी अपेक्षा कर रहा था, पर आये कुछ देर से, शायद सोचा हो, पहले सब अपनी कह लें फिर आखिर में आकर सीधे छक्का ही जड़ देंगे, और वही कर भी दिया, आखिर एक एडिटर को पॉलिटिकली करेक्ट भी होना ही पड़ता है |
सर, अपने देश में तो अभी कांसेप्ट कुछ नया सा है, पर विदेशों में back packing का concept बहुत लोकप्रिय हो रहा है |
यदि आपकी कहीं जाने की इच्छा हुयी, एक बैग में बस जरूरत भर कपडें, बहुत ही कम पैसों में किसी जगह को explore करने का जीवट, किसी तरह की कोई पूर्व जानकारी नही लेते, कोई बुकिंग नही, बस निकल पड़ते हैं एक अनजाने सफर पर… राह मे जो मिला, वो खाया, स्थानीय लोगों में घुल मिल जाना, रात बिताने को किसी होटल की दरकार नही, कोई हॉस्टल या गेस्ट हाउस मिल जाता है, किसी ट्रेवल एजेंसी की सलाह या रिव्यु की प्रवाह नही, जो अनुभव लेते हैं वो सिर्फ और सिर्फ अपना ही होता है |
सर, ऐसे घुमक्कड़ किसी जगह को देखते नही हैं , वो अन्वेषक होते हैं जो खोजते है और अपने यहाँ हम इन खोजियों को यात्री या यायावर कहते हैं | स्वयम अज्ञेय और राहुल सास्क्र्तायान इसी परंपरा के घुमक्कड़ रहे हैं , उन्हें किसी गूगल की दरकार नही रही और ना ये सोच कर परेशान होने कि कैसे जाना है, कहाँ रुकना है और कहाँ खाना है …
तो भन्ते हम तो इसी परंपरा के वाहक रहे हैं, बाज़ दफा ऐसा हो चूका है कि online करवायी गयी बुकिंग कैंसल करवा कर खुद ही जगह ढूंढी, खाने की चिंता तब होती होगी जब कच्चे और पक्के खाने के ऊपर लोगों के अपने पूर्वाग्रह होते थे, आज वो स्थिति नही , आप हर जगह सब कुछ पा जाते हो और फिर किसी एक का अनुभव किसी दुसरे के काम कैसे आ सकता है, यह मुझे समझ नही आता | इस दुनिया में हर इंसान को अपना अनुभव खुद कमाना पड़ता है, क्या आप किसी और की खींची गयी लकीर पर चलना चाहते हैं या अपनी खुद की एक लकीर खींचना चाहते हैं, ये आपके नजरिये पर निर्भर करता है |
सर अंत में केवल यही कहूँगा सत्य के पीछे ना तो भागने की जरूरत होती है और ना उसे ढूँढने की, वो तो सर्व व्यापी होता है… उसे आप पा नही सकते केवल अपना सकते हो, क्यूंकि ये कोई वस्तु ना होकर एक अवस्था है ….. सादर
And to comment on Ajmer, this made me remember my sojourn with the maula. It was in 1995. NH8 was probably being done and was not complete, because I remember long delays/jams and we spent a considerable amount of time at some dhaba, somewhere in the wild. I think it took ever to reach Ajmer from Delhi in DTC (Delhi Transport Corporation) bus. I was there in Ajmer for my interview for RRB (Railway Recruit Board, Ajmer) and decided to make use of time.
18 years back, for me, the long walk to Dargah was not pleasant. Infact all along, a constant fear and anxiety kept company and it looked as if this narrow alley of overlapping shops and their shamiyana would never end. A very unsure early twenties, lanky fellow in a strange world just walked on. But i made it, staying away from more-pankhi jhaddo folks and what not. Once inside, I looked around, went close to dargah, prayed and quickly returned back. I have no memories of Deg, but I remember the thick air of faith and devotion. My walk back was brisk and a little more sure-footed, almost running the last 100 yards.
I am sure a lot would have changed now, for better.
@ Mr. Singh – I was away and at a place where internet (esp sites like google) were running a bit slow so took me a while to collect my thoughts and publish. I use google transliterate. I was expecting some marks for sense of humour, anyway would try harder. :-)
अवतार सिंह जी…..
लेख पढ़कर जाना की आपका हिंदी भाषा शैली पर जबरदस्त पकड़ है…. बहुत बढ़िया लिखा आपने और फोटो भी अच्छे लगे…..|
एक बात और अध्यात्म में मेरी रूचि कम है और साधू सूफी संत आदि के बातो में मेरा मन नहीं लगता सो मेरे हिसाब से शुरुआत में आपका लेख अपने मूल उद्देश्य से भटक गया था…….. ऐसा लगा की कुछ पढ़ रहा हूँ पर मन से नहीं पर बाद में आपका लेख धीरे-धीरे अजमेर की घुमक्कड़ी पर आया तो कुछ अच्छा लगा……आप चाहते तो अजमेर के बारे में और भी बातो का समावेश कर सकते थे….
अजमेर शरीफ़ जाने वाले अधिकतर जायरीन आगरा होकर ही गुजरते है तो उस समय आगरा में जायरीनों का मेला सा लग जाता है….. मैं कभी अजमेर नहीं गया…पर आपके साथ घूमकर अच्छा लगा….
लेख के लिए धन्यवाद …..
Many Thanx Ritesh ji
आपकी बातें दिल से निकली हुयी हैं, मैं आप से पूरी तरह सहमत हूँ कि यदि आप की अध्यात्मिकता की तरफ रूची कम है तो आप को इसमें इतना मज़ा नही मज़ा नही आयेगा…. Quite agree.
रितेश जी, अजमेर और यह दरगाह, जैसे एक दुसरे के पूरक बन चुके हैं, इसके अलावा अजमेर में कुछ और भी है, मुझे नही पता, शहर कैसा है, इसका अनुभव भी नही है बस हम कार से ही दरगाह गये और फिर वहीं से पुष्कर निकल गये, इसलिये शहर के बारे में जानकारी शून्य ही रही |
वैसे तो पुष्कर में भी ऐसा ही रहा, मगर मुझे उम्मीद है, वो पोस्ट आपको पसंद आएगी !
धन्यवाद!
Hi Avtarji,
First of all – it is a brilliant post. Though I feel writing on religion is kind of tricky and therefore I steer clear of it. And when writing history I use words like ‘reportedly’ or ‘it is said’! But would agree with Rakesh Bawaji about the first para – it could have been avoided or ‘softened’.
But then when you are visiting Ajmer or a sufi dargah, you tend to get overwhelmed with the ‘presence’. Something similar happens at Nizamuddin when the qawaalis pick up tempo and on the day I visited this girl suddenly started dancing as if possessed. So of course you will write about the special something you felt there.
Of course, in such a scenario I would not write about what time my alarm went off in the morning, what I had for breakfast and how I haggled with the auto driver on my way to the dargah. I think it all depends on the place we are writing about. I especially do not write about what to eat and where to stay. Yes it could make sense in a post like going to Lansdowne – there all these details will be appreciated by the readers especially when you are headed into the woods and would like to prebook and make sure the hotel bathroom has hot water in the winters!
Everybody knows where Ajmer is and people go there for only one purpose. I liked the long series of discussions and I still feel taking a ghumakkari as an adventure is the best. It could change if you are travelling with family then you would like to be a little prepared. I book my hotels after getting off at the airport/station/bus stand. Sometimes, just going unprepared is the best!
Nandan – LOL – about me starting from way behind – difference in writing posts about Bidar and Kutch – Bidar took me almost a month to write and Kutch just a single day!
Mukesh – why would anyone really care if Avtarji really liked the gol gappas at the Ajmer dargah parking lot?! During my travels, I don’t eat out – just few biscuit packets and nimboos bottle! Now I am seriously thinking of changing my writing style – no more history lessons!!
I feel blessed that I have been to Ajmer, his successor Qutub Bakhtiyar Kaki’s dargah in Mehrauli, his disciple Baba Farid’s khanqah in Mehrauli’s jungles, his successor Nizamuddin Auliyas dargah, his successor Chiragh Dehalvi (yet to see in Chiragh Delhi), his successor Bande Nawaz (missed seeing his dargah in Gulbarga)!
Thanks for sharing the experience!
Many Thanx Nirdesh ji for your insightful comment. Although, the comment itself resembles a nice post. What you wrote, in this, I really appreciate and echo every word of yours.
I do agree, and perhaps this is the main reason, the places, till now i mentioned in my posts are not the isolated once and nowadays, when net is in your kitty, it seems foolish of my part to give that unnecessary details.
Sir, undoubtedly you are a blessed soul and this truly reflects in your writing. I really feel myself lucky to get the chance of reading some great post of yours.
I is my humble request to you, please do not think for changing your writing style. Everybody has its own style to describe the narration and we must respect this individuality otherwise all the posts will look terribly replica of one another.
Sir, you took enough time and pain to write this wonderful piece of advice, please accept my sincere thanks for this.
आपने तो वाकई मे सभी को सूफी कर दिया। आपके लिखे हुए दोहे और श्लोक पढ़कर अपनी पढाई के दिन याद आ गए जब कबीर और सूरदास के दोहे याद करने पड़ते थे लेकिन उस वक़्त वो बिलकुल अच्छे नहीं लगते थे लेकिन आज पढ़ कर अच्छे लगे।
मश्क का फोटो देखकर याद आया कि ऐसा भी कुछ होता था जो कि कम से कम बीस साल पहले मैंने देखी थी। अपनी पिछली जयपुर यात्रा मे हमने भी सोचा था कि अजमेर चला जाए लेकिन वो मौज मस्ती की यात्रा थी इसलिए धार्मिक जगह जाने का विचार आगे के लिए स्थगित कर दिया।
आपकी लेखनी का चमत्कार है कि यही से लाइव दर्शन हो गए।
धन्यवाद सौरभ जी,
चलिये अच्छा है, इन दोहों के माध्यम से ही सही, आपने कुछ पुराने दिनों को याद कर लिया, अब अच्छे इसलिये लगे होंगे, क्यूंकि उस वक्त, हमें इन्हें रटना पड़ता था, पर उनके अर्थ और उनमे छिपी गहराई अब समझ में आते हैं |
जयपुर तो खैर, जाना मुश्किल नही, अत: कभी भी आपका प्रोग्राम बन ही सकता है, हाँ आप इसमें पुष्कर और अजमेर को भी जोड़ लेना, मेरा अगला आलेख इसी पर है, आशा है आप उसे भी पसंद करेंगे…
प्रिय अवतार जी, आपकी यह पोस्ट एक तरफ और सारे के सारे कमेण्ट्स एक तरफ ! किसकी पहले तारीफ करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा है। जब आप आध्यात्मिक माहौल का वर्णन करते हैं तो उस समय आपका कोई सानी नहीं होता। ऐसा लगता है कि सचिन तेंदुलकर अपनी फेवरिट वानखेड़े पिच पर या गांगुली अपनी ईडन गार्डन पिच पर धुआंधार बैटिंग कर रहा हो ! मुझे इस पोस्ट से बहुत कुछ मिला – मन में एक आह्लाद, सुकून (’शांति’ का लोग गलत मतलब लगा बैठते हैं इसलिये सुकून लिख रहा हूं । वैसे भी अभी – अभी आपकी गाढ़ी मज़र लज़्ज़तदार उर्दू में डुबकियां लगा रहा था, उसके असर में भी हूं। :-) )
इस पोस्ट के लिये आपको सादर प्रणाम, आभार, थैंक यू, मेहरबानी, शुक्रिया, उपकारम् ! ऊपर से इतनी गज़ब के कमेंट्स आये हैं यहां पर कि बस ! उन सभी टिप्पणीकर्त्ताओं को भी सादर नमन !
गाढ़ी, मगर लज़्ज़तदार …..