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गढ़वाल घुमक्कडी: दिल्ली – रुद्रप्रयाग – कोटेश्वर महादेव

देवभूमि गढ़वाल जो कि अपने आप मे कुदरत के कुछ बेमिसाल आश्चर्यों को समेटे है, मेरी जन्मभूमि होने के अलावा मेरी पसंदीदा विचरणस्थलियों मे से एक भी है. पिछले बरस कुछ दोस्तों ने यहाँ घूमने की इच्छा जताई तो इस बेहतरीन यात्रा की रूपरेखा बनाई गई. चूँकि यात्रा का सारा दारोमदार मेरे कंधों पर था, सोचा क्यों ना इसे एक रोमांचक रूप दिया जाए और अपने तरीके से योजित किया जाए (जिसमे आमतौर पर कुछ भी पूर्वनियोजित नही होता और यही यात्रा का असली रोमांच होता है). कुछ एक मुख्य दर्शनीय स्थलों को आधार बनाकर, यात्रा का खाका मित्रों के साथ साझा किया और निकल पड़े इस सपने को सच करने 3 ईडियट दीपक, पुनीत और मैं. गढ़वाल मे यात्रा सीज़न शुरू हो चुका था, इस सीज़न मे आमतौर पर दिल्ली बस अड्डे से सभी बसें खचाखच भरकर चलती हैं. इसका सबसे पहला कारण तो शहरों मे बसे वो पहाड़ी लोग हैं जिन्हे गर्मियाँ शुरू होते ही इन ठंडी हसीन वादियों की याद सताने लगती है और वो अपने परिवार समेत दौड़े चले आते हैं अपने अपने गावों की ओर. दूसरे मैदानी उत्तर भारत मे भीषण गर्मी और उस पर बच्चों की छुट्टियाँ दोनो मिलकर लोगों को पहाड़ों की और भागने पर मजबूर कर देती हैं. और सबसे बढ़कर, गढ़वाल के चारधामों (बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमञोत्री) की पावन यात्रा जो वैसे तो लगभग मई से अक्टूबर / नवंबर तक चलती है, पर इस यात्रा का सबसे व्यस्त समय मई से जुलाई तक होता है जिसमे श्रद्धालु ना सिर्फ़ पूरे भारतवर्ष से बल्कि विदेशों से भी ईश्वर और उसकी बनाई इस खूबसूरत धरती का लुत्फ़ उठाने खींचे चले आते हैं.

हमे हमेशा की तरह बस सिर्फ़ ऋषिकेश तक ही मिली, दिल्ली से ऋषिकेश तक के सफ़र मे हमेशा एक आरामदायक सीट की खोज रहती है ऐसा इसलिए नही कि सारा सफ़र अंधेरे मे और बड़ा बोरिंग सा होता है, पर मुख्यतया इसलिए कि अंधेरे मे भरपूर नींद ले सकें और सुबह के उजाले मे हसीन वादियों का आनंद लिया जा सके. सीट मिलते ही कुछ शुरुआती गपशप के बाद थोड़ी देर मे सभी लोट पड़े अपनी अपनी सीट पर और फिर सुबह ऋषिकेश पहुँचने से कुछ पहले ही नींद खुली. ऋषिकेश बस अड्डे पर पहुँचते ही आँखों मे जैसे चमक सी आ जाती है, सभी बसों पर जा जाकर देखता हूँ कि कौन सी बस कहाँ जा रही है. किसी बढ़िया जगह का नाम लिखा दिखता है तो मन ललचा जाता है लेकिन फिर इसे यह कहकर मनाना पड़ता है के ‘भाई अभी छोड़ फिर कभी जाएँगे’और ईडियट मान भी जाता है. खैर आज की यात्रा मे हमारा पड़ाव रुद्रप्रयाग के नज़दीक कहीं होना था. जैसे ही ऋषिकेश से बस ने चलना शुरू किया, रोमांच बढ़ता गया ख़ासतौर पर मेरे दोस्तों का जिनके लिए गढ़वाल की यह पहली यात्रा थी. ऋषिकेश से उपर जाते समय एक भी ऐसा छण नही होता जहाँ बोरियत महसूस होती हो. ऋषिकेश बस अड्डे से आगे पुल पार करते ही अनेकों मंदिर, दुकानें और आश्रम आपका स्वागत करते हैं. पर मुझे विशेष इंतेज़ार रहता है गंगा और उस पर बने खूबसूरत पुलों को देखने का. जैसे जैसे उँचाई पर चड़ते हैं, नीचे गंगा जी की लहरों से अटखेलियाँ करती हुई छोटी छोटी नावें स्वतः ही अपनी और ध्यान आकर्षित करती है, ऐसा रोमांचक मंज़र कोडियाला होते हुए लगभग देवप्रयाग तक जारी रहता है.

ऋषिकेश से आगे एक घुमावदार मोड़ (बस से लिया गया फोटो)

देवप्रयाग तक के रास्ते मे बस आमतौर पर या तो ब्यासी मे या तीन धारा मे रुकती है जहाँ आप कुदरती बहती हुई धारा के निर्मल जल से आत्मा को तृप्त कर सकते हैं, इन जगहों पर मैं स्वादिष्ट और ठंडक प्रदान करने वाले खीरे लेना कभी नही भूलता. इसके बाद बेसब्री से इंतेज़ार रहता है, देवप्रयाग के विहंगम संगम दृश्य का जहाँ पावन गौमुख से निकलकर भागीरथी और बद्रिधाम से बहती हुई अलकनंदा दोनो मिलकर इसे एकरूप मा गंगा का नाम देते हैं जो यहाँ से देवभूमि का प्रताप पूरे मैदानी भागों मे फैलाने और लोगों का कल्याण करने निकल पड़ती है.

भागीरथी और अलकनंदा का संगम स्थल – देवप्रयाग (बस से लिया गया फोटो)

देवप्रयाग से थोड़ा आगे निकलकर एक सड़क आती है, जो हमेशा से ही मेरा ध्यान आकर्षित करती रही है. यह सड़क जाती है मा चंद्रबदनी के पावन शक्तिपीठ के निकट जो की पर्वत पर बैठी इस इलाक़े की एक प्रमुख आराध्य देवी हैं. मा चंद्रबदनी के दर्शन यात्रा के अंत मे करने का कार्यक्रम था, इसलिए अगले पड़ाव की ओर ध्यान केंद्रित करते हैं जो है खूबसूरत श्रीनगर. यहाँ पहुँचने से पहले ही अलकनंदा के पूरे सफ़र का सबसे व्यापक और विस्तृत परंतु कम गहरा स्वरूप देखने को मिलता. यहाँ पर काफ़ी समय से एक महत्वपूर्ण जल विद्युत परियोजना का काम चल रहा है जिसका स्थानीय लोग काफ़ी विरोध कर रहें हैं. इसका मुख्य कारण है अलकनंदा के तट पर बसा लोगों की आस्था से जुड़ा प्राचीन धारी देवी मंदिर जिसकी ना सिर्फ़ इस क्षेत्र मे बल्कि पूरे गढ़वाल मे काफ़ी मान्यता है.

श्रीनगर से कुछ पहले अलकनंदा का एक स्वरूप (बस से लिया गया फोटो)

आगे चलने पर हमारा स्वागत करता है अलकनंदा और मंदाकिनी का अद्भुत संगम स्थल रुद्रप्रयाग जो आज के लिए हमारा पड़ाव होना था. यहीं से एक रास्ता अलकनंदा के साथ साथ जाते हुए बद्रीधाम को पहुँचता है जबकि दूसरा रास्ता मंदाकिनी के किनारे किनारे केदारधाम को, पर हमे तो किसी तीसरे रास्ते पर निकलना था किसी नई दुनिया की खोज मे. यहाँ पहुँचते ही अपने गाँव की याद सताने लगती है जो यहाँ से नज़दीक ही है केदारनाथ मार्ग पर. रुद्रप्रयाग पहुँचकर पहले तो सोचा क्यों ना रात को मौसी के घर रुका जाए इसी बहाने मुलाकात भी हो जाएगी, पर उपरवाले ने अपना बंदोबस्त कहीं और ही कर रखा था. बस से उतरते ही चहलकदमी शुरू हो गयी, यूँ तो रुद्रप्रयाग मे देखने को बहुत कुछ है, पर हमारे पास समय का अभाव था और रात को रुकने का ठिकाना भी ढूँढना था इसलिए हमने रुद्रप्रयाग से लगभग 3 किमी आगे अलकनंदा के तट पर बने एक प्राचीन दर्शनीय स्थल को चुना जिसे कोटेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है. इस गुफा वाले मंदिर को चुनने की मुख्य वजह थी इसका शान्तिमय और सम्मोहित कर देने वाला माहौल. सुबह से यात्रा करते करते बहुत भूख लग पड़ी थी इसलिए मंदिर मे पूजा करने से पहले रास्ते मे पेट पूजा की गई, वो कहते हैं ना ‘पहले पेट पूजा फिर काम दूजा’. खाने के बाद हमे लगभग 2 किमी की पैदल यात्रा और करनी थी जो की हमारे लिए अच्छा ही था क्योंकि जिस जगह हम जाने वाले थे वहाँ कुदरत ने मस्ती के कुछ अच्छे ख़ासे प्रबंध किए हुए थे.

कोटेश्वर की ओर कदम बढ़ाते दो दीवाने दीपक और पुनीत

गुफा तक पहुँचने के लिए मुख्य सड़क से लगभग आधा किमी की उतराई पार करनी पड़ती है जहाँ रास्ते मे विभ्भिन किस्म के पशु पक्षी आपके स्वागत को आतुर बैठे मिलते हैं. जैसे जैसे नीचे उतरते गये, कभी कोई गिरगिट तो कभी कोई बंदर कोई ना कोई रास्ते भर डराता ही मिला. इनके अलावा हम भाग्यशालियों को यहाँ एक अजीब जानवर के दर्शन हुए जो आकार मे नेवले की तरह दिखता है पर साइज़ मे लगभग उससे 5 गुना बड़ा होता है. इसका मुख्य हथियार होती है इसकी नुकीली धारदार तलवार जैसी पूंछ, पहाड़ी लोग इस जीव को ‘ग्वॅग्ला’  कहते हैं. हालाँकि ये किसी को बेवजह हानि नही पहुँचाता पर कोई भी व्यक्ति जिसने इसे पहले कभी ना देखा हो इसे देखने पर एक बार के लिए भयंकर रूप से डर ज़रूर सकता है, ऐसा ही कुछ हुआ मेरे साथियों के साथ भी. उस पर गुफा से पहले एक भैरव मंदिर जहाँ पर श्रधालुओं ने कई काले वस्त्र पेड़ों पर चढ़ा रखे थे जो कि किसी भूतिया फिल्म की याद दिलाते और डरने पर मजबूर कर देते.

अलकनंदा के पावन तट की ओर ले जाती सीढ़ियाँ

सीढ़ियों के समीप एक छोटा सा मंदिर

पर हम लोग जैसे ही नीचे अलकनंदा के पावन तट पर पहुँचे सारा डर जैसे छूमंतर हो गया और अब सबके मन मे सिर्फ़ एक ही शब्द गूँज रहा था और वो था ‘मस्ती’.  इससे पहले मस्ती शुरू हो आपको इस स्थान का पौराणिक महत्व बता दे, ऐसी मान्यता है की भगवान शिव जब पांडवों से स्वयं को बचाकर यहाँ वहाँ छुप रहे थे (ताकि पांडव उनसे कौरवों की मृत्यु के बाद मुक्ति का वरदान ना माँग लें) तो केदारनाथ प्रस्थान से पहले कुछ समय भगवान शिव ने इसी गुफा मे ध्यानावस्था मे रहकर बिताया.

एक और दीवाना कुदरत की कारीगरी का आनंद लेता हुआ

लो जी आ पहुँचे अलकनंदा के तट पर…

अपनी लगभग सभी यात्राओं मे मेने ये बात महसूस की है की जैसे जैसे उँचाई पर चढ़ते हैं, कुदरत की खूबसूरती से परदा उठता जाता है. लेकिन इस जगह मे उल्टा था, जैसे जैसे नीचे उतर रहे थे कुदरत के एक अनछुए विस्मयकारी रूप से साक्षात्कार हुए जा रहा था. बेहद विशाल सीधी खड़ी चट्टानो के बीच मे से निकलते पेड़ और उन पर खेलते कूदते बंदरों की सेना, चट्टानो पर लगी विशेष किस्म की वनस्पतियाँ और उनसे रिसकर आता कुदरती मीठा जल, दो विशाल चट्टानों के बीच से बहकर आती निर्मल और शांत अलकनंदा और उसका रेतीला चमकदार तट सब मिलकर मानो एक सम्मोहन सा कर रहे हो. गुफा मे प्रवेश करने से पहले चट्टानी जड़ी बूटियों से रिसकर आता निर्मल जल स्वत ही आपके उपर गिरने लगता है मानो शिव दर्शन से पूर्व आपको शुद्धी प्रदान कर रहा हो और इस छोटी से गुफा के अंदर घुसते ही एक अलौकिक अनुभूति होने लगती है जहाँ प्राकृतिक रूप से बनी मूर्तियाँ और शिवलिंग प्राचीन काल से स्थापित हैं.

विशाल चट्टानी दर्रों के बीच से बहकर आती शांत अलकनंदा…

कोटेश्वर महादेव गुफा का प्रवेश द्वार…

गुफा के समीप प्रसन्नचित्त मुद्रा मे दीपक…

गुफा के बाहर मिनरल वॉटर भरता पुनीत…

इस आलौकिक अनुभव के बाद, अलकनंदा के रेतीले तट पर मस्ती करने को आतुर तीनो निकल पड़े. अलकनंदा का तट किसी रेतीले बीच की सी अनुभूति दे रहा था, ऐसे मे सबका मन नहाने को किया. लेकिन दूर से शांत दिखती अलकनंदा के जल का स्पर्श पाते ही सबकी साँसे अटक गयी और नहाने का कार्यक्रम रद्द हो गया. लेकिन इस पर मज़ाक मैं एक शर्त लगी की जो कोई जितने मिनट पानी के अंदर पैर डुबोकर रखेगा उसे उतने रुपये मिलेंगे, पर पानी वास्तव मे इतना ठंडा था की 1 मिनट भी भारी पड़ रहा था.

तट से गुफा की विशाल दीवारों का एक फोटो…

 

अलकनंदा अपने उग्र स्वरूप मे…

तट की रेत पर मस्ती करते हुए…

 


अलकनंदा का रेतीला तट…

ड्रामेबाज पुनीत तट पर मस्ती के मूड मे…

खैर यहाँ लगभग 2 घंटे मस्ती करने के बाद, 5 बज चुके थे इसलिए अन्य मंदिरों के जल्दी से दर्शन करके चढाई शुरू कर दी वापसी के लिए. यहाँ से हमारा अगला पड़ाव होना था, उमरा नारायण मंदिर जो की यहाँ से लगभग 4 किमी आगे था. मंदिर तक पहुँचते पहुँचते अंधेरा सा होने लगा था, इसलिए सोचा की रात यहीं बिताई जाए. यह मंदिर यहाँ से कुछ दूर बसे सन्न नामक गाँव के ईष्ट देवता उमरा नारायण को समर्पित है. चूँकि सन्न मेरी मौसी का गाँव है इस कारण मे इस मंदिर मे पहले भी एक बार अपने भाई के साथ आ चुका था. मंदिर मे प्रवेश करते ही मंदिर के स्वामीजी के दर्शन हुए, पहले तो हमने बताया कि हम यात्री हैं और दर्शन करने आए थे, लेकिन थोड़ी देर में जब मैंने सन्न गाँव से अपने रिश्ते के बारे मे बताया तो उनके चेहरे पर एक चमक सी आ गयी और उन्होने तुरंत मेरे भाई (मौसी के लड़के मनीष) को फोन मिलाया सूचना देने के लिए, परंतु उस समय किसी तकनीकी कारण से फोन नही लग पाया. रात को देखते हुए स्वामीजी ने स्वयं ही मंदिर मे रूकने का सुझाव दिया क्योंकि गाँव यहाँ से काफ़ी दूर था और सारा रास्ता घने जंगलों के बीच से जाता था जहाँ जंगली जानवरों के मिलने की भी काफ़ी संभावना थी. दिन भर मस्ती करके थकान और भूख से परेशान तीनो बंदे स्वामीजी से अलग अलग काम लेकर रात्रि भोजन की तैय्यारी मे जुट गये, कोई सब्जी काटने मे व्यस्त तो कोई चावल धोने मे तो कोई चूल्हा जलाने मे. पहाड़ी गाँवों मे अक्सर मिट्टी के घरों मे ख़ासतौर पर रसोई मे कॉकरोच, कीट, पतंगे बहुतायत मे होते हैं जिनसे बचकर खाना खाना किसी युद्ध से कम नही था. चलो जैसे तैसे स्वादिष्ट भोजन का लुत्फ़ उठाकर बाहर निकले ही थे की बाहर के माहौल ने मानो जादू सा कर दिया था. आसमान मे टिमटिमाते अनगिनत तारों की अद्भुत चमक, दूसरी पहाड़ियों पर बसे छोटे छोटे गाँवों के मकानो से निकलती रोशनी और इनके प्रकाश का अलकनंदा मे पड़ता प्रतिबिंब सब मिलकर रात्रि बाहर ही गुजारने को मजबूर कर रहे थे. पर चूँकि मंदिर जंगल मे था और जानवरों का भय था इसलिए स्वामीजी के आदेशानुसार हम लोग थोड़ी देर बाद कमरे मे जाकर सो गये. रात हो चुकी थी इसलिए हम लोग मंदिर मे दर्शन भी नही कर पाए. मंदिर के दर्शन, इसके पौराणिक महत्व की जानकारी और एक स्वर्ग का आभास देती बेहद खूबसूरत जगह की रोमांचक सैर अगले लेख मे…

गढ़वाल घुमक्कडी: दिल्ली – रुद्रप्रयाग – कोटेश्वर महादेव was last modified: November 16th, 2024 by Vipin
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