२४ मार्च २०१६ की बात है. रात का समय था. नाशिक-त्रैम्बकेश्वर मार्ग पर स्थित “संस्कृति होटल” में महाराष्ट्रियन खाने का स्वाद ले रहा था. जमीन पर बैठ कर खाना था. ठीक उसी तरह जैसे की आप चोखी-धानी (जयपुर) में खाते है. परन्तु यात्रा का आनंद भी अजीब मनोहारी होता है. खाने के दौरान महाराष्ट्रियन खाने के तौर तरीकों के साथ-साथ यात्रा-प्रसंग ही छिड़ा हुआ था. अब आगे कहाँ जाना है इसी बात पर चर्चा हो रही थी. बातों ही बातों में सप्त्श्रींगी देवी की बात शुरू हुई. यकीन मानिये की उस चर्चा के पहले मैंने ऐसी नाम की देवी के बारे में कुछ भी नहीं सुना था. बस उत्सुकता हो गयी. अठारह भुजाओं वाली वह देवी कौन-सी हैं? कैसा उनका स्वरुप है? उनके मंदिर की भव्यता कैसी है? और, उसकी मान्यताएं क्या-क्या है? उन देवी का नाम “सप्त्श्रींगी” कैसे पड़ा? इतनी उत्सुकता देख कर सभी वहां चलने के लिए तैयार हो गए और अगले दिन के अन्य कार्यक्रमों में फेर-बदल कर सप्त्श्रींगी देवी की यात्रा करने का कार्यक्रम सुनिश्चित कर लिया गया. लगता है कि ऐसे ही बुलावा आता है.

वाणी गाँव की वादियाँ
२५ मार्च २०१६ को सुबह-सुबह ७ बजे नाशिक स्थित अपने गेस्ट हाउस से निकलना था. २४ मार्च २०१६ का पूरा दिन नाशिक में घूमते हुए बिताने के बाद हम लोग थके हुए भी थे. अतः राते के खाने के बाद हम सब जल्दी ही सो गए ताकि सुबह उठने में कोई विलम्ब नहीं हो. और वैसा ही हुआ. न तो कोई विलम्ब हुआ और न ही कोई परेशानी आई. ठीक ७ बजे हम सब एक कार में बैठ कर “वाणी” गाँव की तरफ निकल पड़े. तकरीबन पचासेक किलोमीटर की यात्रा थी. सड़क कहीं चिकनी और कहीं उबड़-खाबड़. छोटे-छोटे ग्रामीण इलाकों के बीच से गुजराती हुई तथा अंगूर के खेतों के किनारों को छूती हुई सड़क पर सुबह का वक़्त होने से यातायात कम था. इस प्रकार हम मजे से वाणी गाँव पहुंचे. यह गाँव सह्याद्री पर्वत-माला के तलहटी पर बसा एक सुन्दर सा गाँव था. ऐसा गाँव जो अगले २५ वर्षों में निस्संदेह ही एक बड़ा शहर बन जाये. वाणी गाँव तक हम समतल जमीन पर बने रास्तों पर चल रहे थे. वहां से पहाड़ी घुमावदार रास्ता शुरू हो गया.

झरनों के निशान
रास्ता घुमावदार था, परन्तु चढ़ाई कठिन नहीं थी. वीरान वादियाँ, हसीन सबेरा, सूरज की प्रातःकालीन किरणों से लिप्त प्राकृतिक सौंदर्य और एक अच्छी सड़क पर दौड़ती कार. सबकुछ अच्छा लग रहा था. जब थोड़ी उचांई पर आये तो नजारा और भी अच्छा हो गया. चारों ओर से सह्याद्री पर्वतों से घिरा नीचे समतल वादी में बसा वाणी गाँव सुबह की खिली धुप में मंत्र-मुग्ध कर रहा था. उन पर्वतों को देख कर ऐसा लग रहा था मानों शताब्दियों पहले वे समुद्र की लहरों से घिरे हों. ऊपर से बिलकुल समतल हो चुके उन पहाड़ों को दिखा कर हमारे साथ चलने वाले सहयोगी ने बताया कि यह सात (७) पर्वतों की श्रंखला है. और इसीलिए यहाँ की धात्री देवी का नाम “सप्त्श्रींगी” पड़ा है.
देवी के नाम का रहस्य आखों के सामने था. उन्हीं पर्वतों पर कटे हुए रास्ते पर कार दौड़ रही थी. एक पर्वत से दुसरे पर्वत के बीच कई बार खुली जगह भी आ जाती थी. वैसे ही एक खुली जगह पर फोटोग्राफी पॉइंट भी था. इस पॉइंट पर मानसून में बढ़िया नज़ारा होता होगा जब बारिश के झरने कल-कल कर चारों दिशाओं पर स्थित पर्वतों की उचाईयों से बहते होंगे. पर मार्च के महीने में ये झरने सूखे हुए थे. इस समय उन पर्वतों पर उकृत झरनों के निशानों के देख कर ही मानसून की भव्यता का अंदाज़ लगाना पड़ा. इस प्रकार जगह-जगह रुकते रुकते और प्रकृति प्रदत्त पर्वतों-वादियों को निहारते हुए हम कार से एक पहाड़ की चोटी पर देवी के मंदिर के निकट आ गए. वहां भी एक छोटा गाँव बसा हुआ था, जिसमें पक्के मकान भी थे. कार वहीँ तक जाती थी. जगह की कमी के कारण कार की पार्किंग वहां एक समस्या हो सकती है, खास कर नवरात्रों में, जब भारी भीड़ उमड़ती है. पर २५ मार्च २०१६ को पार्किंग की कोई समस्या नहीं हुई.

सप्त्श्रींगी निवासिनी देवी ट्रस्ट
उसी गाँव में “सप्त्श्रींगी निवासिनी देवी ट्रस्ट” का कार्यालय भी है, जो महाराष्ट्र सरकार द्वारा संचालित है. सबसे पहले हम लोग उसी कार्यालय में आये. यहीं से हमें दर्शन तथा पूजा के लिए पास लेना था. वहीँ पता चला कि यह ट्रस्ट यात्रियों की सुख-सुविधा के लिए कितना कार्यशील था. ट्रस्ट द्वारा वहां ठहरने की भी माकूल व्यवस्था थी, क्योंकि कुछ यात्री सावधिक पूजा हेतु वहां ठहरते है. सभी कर्मचारी गुमान-रहित हो कर अपने कार्य को देवी-सेवा से जोड़ कर कर रहे थे, जो बात मुझे मन को भा गयी. उसी कार्यालय में अष्ट-धातु की बनी सप्त्श्रींगीदेवी की एक भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित थी, जिसे देख कर उनके अठारह-भुजा वाले स्वरुप का प्रथम अनुभव हुआ.

देवी मंदिर – एक विहंगम दृश्य
कार्य समाप्त कर, वहां से थोड़ी-ही दूर चल कर हमलोग देवी-मंदिर मार्ग पर आये जो बाज़ारों के बीच से जाता था. वहीँ से मंदिर का प्रथम दिग-दर्शन हुआ. ऊँचे पहाड़ पर स्थित भव्य मंदिर पर प्रथम दृष्टिपात बड़ा ही मनोहारी था. मंदिर एक विशाल पर्वत के परकोटे में था. संपूर्ण पर्वत को लोहे के जाल से ढक दिया गया था ताकि मानसून में गिरने वाले पत्थरों से भवन अथवा यात्रियों को कोई हानि नहीं पहुंचे. पर्वत बिलकुल सपाट खड़ा था. जाल लगाते समय जरूर भरी उपकरणों की आवश्यकता पड़ी होगी. परन्तु एक किम्वदंती है कि वर्ष में एक बार पर्वत की सर्वोच्च चोटी पर कोई अज्ञात रूप से झंडा फहरा देता है. किसी को नहीं मालूम की वो कौन है और कैसे इस सपाट पर्वत पर चदता है, जिसमें किसी भी दिशा से चढ़ने का कोई ज्ञात मार्ग नहीं है.

एस्कैलाटर प्रोजेक्ट
परन्तु ऊँचाई बहुत थी. लगभग ५०० सीढियाँ चढ़ कर ही मंदिर तक पहुंचा जा सकता था. ट्रस्ट के कर्मचारियों ने हमें बताया था कि एक एस्कैलाटर बनाया जा रहा है, जो यात्रियों को सीधे मंदिर तक ले जायेगा. परन्तु उसे बनने में कुछ समय लगेगा, शायद २०१६ के अंत तक वह कार्यशील हो जाये. उस दिन सीढ़ियों के अलावा कोई और मार्ग नहीं था. ऊपर चढ़ने के पहले चप्पल-जूते-इत्यादि नीचे ही किसी दुकान में रखने पड़ते हैं, क्योंकि ऊपर इनके लिए कोई स्थान नहीं. सीढ़ियों के शुरू होते ही बायीं तरफ “महिषासुर मंदिर” नामक एक छोटा मंदिर दिखा, जिसमें महिष के पीतल से बने कटे हुए शीष की पूजा की जाती थी. ऐसी मान्यता है कि देवी ने इसी स्थान पर महिषासुर का मर्दन कर महिषासुरमर्दिनी का उद्घोष पाया था. स्थान का विशेष महत्त्व देख कर हमें और भी अच्छा लगने लगा.

महिषासुर मंदिर
आश्चर्यचकित हो कर महिशासुर मर्दन का स्थान देखने के पश्चात पीले रंग से रंगे खम्बों वाली छत से ढकी हुईं सीढियां चढ़ने लगे. सीढियां काफ़ी सहज थीं. जगह-जगह पर लोग रुक कर विश्राम कर रहे थे, क्योंकि ५०० सीढियां एक बार में चढ़ना सभी के लिए संभव भी नहीं था. सभी सीढ़ियों के बायीं तरफ सिन्दूर-चन्दन इत्यादि के तिलक लगे हुए थे. ये तिलक उन यात्रियों ने लगाये थे जिनकी दुआएं कबूल हो गयीं थीं. कार्यसिद्धि के पश्चात आने वाले यात्रियों ने प्रत्येक सीढ़ी पर मत्था टेका था और पूजा की थी. इस प्रकार हर थोड़ी दूर पर एक नया आनंद लेते हुए हम सीढियां चढ़ते जा रहे थे. बीच में एक गणेश-मंदिर और एक राम-मंदिर भी बना हुआ था, जिसमें लोग रुक कर पूजा करते थे. हमलोग भी कुछ क्षण वहां रुके, प्रणाम किया और आगे बढ़ गए.

सीढ़ियों पर लगाये तिलक चिन्ह
तभी हमारा ध्यान बगल वाले एक पहाड़ पर गया, जो देखने से शिवलिंग जैसा प्रतीत होता था. वहीँ पर पूछने से पता चला कि उस पर्वत को “मार्कंडेय पर्वत” कहते है. वह एक निर्गम्य पर्वत है. उसका नाम मार्कंडेय ऋषि के ऊपर रखा गया है क्योंकि मान्यता है कि अमरत्व को प्राप्त मार्कंडेय ऋषि उसी पर्वत पर आज भी निवास करते हैं और देवी की स्तुति करते हैं. मार्कंडेय पर्वत को देखना हमारे लिए एक नया विषय था. अब तो हमारी उत्सुकता क्षण-प्रतिक्षण बढती जा रही थी. हम ऐसे-ऐसे विषयों से जुड़ते जा रहे थे जो हमने कभी नहीं देखा-सुना था. मार्कंडेय ऋषि को मानसिक रूप से प्रणाम कर हम देवी-मंदिर की तरफ बढ़ चले, जो अब नजदीक ही था.

मार्कंडेय पर्वत
देवी-मंदिर के सामने एक सभा मंडप था, जिसमें श्रद्धालुओं की लाइनें लगी थी. उस दिन भीड़ थोड़ी कम थी, तो लाइन भी छोटी थी. परन्तु वहां बंदरों का प्रकोप था. बन्दर बड़े ढीठ थे. वे अचानक छत पर से कूद कर श्रधालुओं को डराते थे और असावधान यात्रियों से खाद्य-प्रसाद अथवा पूजन सामग्री छीन लेने का प्रयास करते थे. बच्चों में तो खलबली मच गयी थी. कोई डर के रो रहा था तो कोई बंदरों के निराले खेल के अनुभव से खुश था. माताओं में अपने-अपने बच्चों को सँभालने की चिंता थी. कोई तो खुद डरीं हुएँ थीं तो कोई अपने बच्चों को उनके पिताओं को सौंप रही थी. कुल मिला कर अनोखा दृश्य था.
हमारे पास ट्रस्ट द्वारा जारी पास होने की वजह से जल्दी ही प्रवेश मिल गया. तत्काल हमने अष्टादश भुजाओं वाली सप्त्श्रींगी देवी-माता के विराट स्वरुप का दर्शन किया. महाराष्ट्र के मशहूर पैठनी साड़ी से सुस्सजित देवी अपने रूद्र रूप में थीं. प्रत्येक हाथों में अश्त्र-शःस्त्र धारण करने वाली माता स्वयंभू रूप से प्रतिष्ठित थीं. त्रिशूल, शंख, चक्र, परशु, धनुष और वज्र धारण करने वाली देवी आपको नमस्कार है, यह कहते हुए मैंने अपनी मानसिक आराधना पूरी की. किम्वदंती है की इस स्थल पर विष्णु के सुदर्शन चक्र से कट कर आदि-शक्ति देवी की दायीं हाथ गिरी थी. जिसके फलस्वरूप इसे अर्ध-शक्तिपीठ का दर्जा प्राप्त है. इस प्रकार वर्तमान महाराष्ट्र राज्य में इनको मिला कर साढ़े-तीन शक्ति-पीठ हैं.
< अष्टादश भुजाओं वाली सप्त्श्रींगी देवी[/caption]
इसके बाद विशेष पूजा हेतु हम लोग एक कमरे में गए, जहाँ पुरुषों को एक-वस्त्र धारण करना था. परन्तु कालांतर में एक-वस्त्र के स्थान पर धोती तथा अंगवस्त्र को रोजमर्रा के कपड़ों के ऊपर –ही लपेट कर पूजन करने की व्यवस्था थी. धोती इत्यादि की व्यवस्था वहीँ मंदिर की तरफ से थी. परन्तु चमड़े की सारी वस्तुएं, मोबाइल इत्यादि बाहेर ही रख लिया गया. इस प्रकार तैयार हो कर हम दोनों पति-पत्नी देवी के समीप गए और पूजा-अर्चना-दान-धर्म इत्यादि किया. साड़ी-कुमकुम-सिन्दूर इत्यादि यहाँ चढ़ाये जाने की प्रथा है. नारियल भी चढ़ाया जाता है.
पूजनोपरांत प्रसन्नचित हो कर वापस आये और पुनः मोबाइल इत्यादि से लैस हो कर वापसी की यात्रा प्रारंभ की. मन की कई जिज्ञासा तो शांत हो चुकी थी. निर्मल मन से गर्भ-गृह से बाहर निकलते समय मैंने देखा की कुछ लोग दीवालों पर सिक्के चिपका रहें हैं. शायद ऐसी मान्यता है कि जिस मनुष्य का सिक्का दीवाल से चिपक जाए तो उसकी मान्यता पूरी हो जाती है. पर मुझे इसमें विश्वास नहीं होता है. अतएव मैंने ऐसी कोई कोशिश नहीं की और सीढ़ियों से उतरने लगा.

स्थानीय पूजा का दृश्य
जैसे ही मैं अंतिम सीढ़ी से उतरा, मेरे ध्यान स्थानीय लोगों की एक टोली पर गया, जो निचली सीढ़ी पर अजीबो-गरीब हरकतें कर रहे थे. मेरी पत्नी तो आगे बढ़ गयीं, पर मैं अपनी जिज्ञासा शांत करने हेतु उस टोली की ताराग चला गया. वहां एक स्त्री, जिसके बाल बिखरे हुए थे, बड़े जोरों से चिल्ला रही थी. वह हांफ भी रही थी और बड़ी बेचैन लग रही थी. वहीँ खड़े लोगों ने मुझे बताया कि उस स्त्री पर देवी आ गयीं हैं और वह तब-तक ठीक नहीं होगी, जब तक इस मंदिर के सामने उसकी पूजा न की जाये. उसके घरवाले भी वहीँ मौजूद थे. कोई ओझा उसकी तथाकथित पूजा कर रहा था. इस पूजा की पूजन सामग्री कोई भिन्न नहीं थी. वही अगरबत्ती, नारियल, फूल, मिठाई इत्यादि. पर एक बकरा भी वहीँ खड़ा था, शायद बाद में उसकी बलि दी जाये. कुछ देर तक मैं इस पूजा को देखता रहा. धीरे धीरे वह स्त्री सामान्य हो गयी. अचानक सारे लोग उठे और वहां से मय साजो-सामान चले गए.उनके जाने के बाद, मैं भी वहां के बाज़ारों की सजावट और शान को देखता हुआ अपने लोगों से जा मिला.

त्रिशूल से बना छिद्र
देवी के दर्शन तो हो चुके थे. परन्तु यात्रा में अभी एक आश्चर्य देखना बाकि था, जिस पर हमारी निगाह लौटती यात्रा में पड़ी. सह्याद्री पर्वतों की एक श्रृंखला के एक पर्वत में एक छिद्र दिखा था. साधारण से दिखने वाले इस भौगोलिक दृश्य की कोई कहानी भी होगी, ऐसा मैंने नहीं सोचा था. किम्वदंती है की जब देवी ने महिषासुर को वेधने के लिए त्रिशूल चलाया था, तो उस त्रिशूल की शक्ति से उस पर्वत में छिद्र बना, जो आज भी विद्यमान है. सच में आज का दिन मेरे लिए आश्चर्यों से भरा हुआ था. खैर सप्त्श्रींगी देवी का पर्वत और त्रिशूल से बने छिद्र वाले पर्वत की दूरी को देख कर और मन-ही-मन देवी के त्रिशूल का विशाल आकार और विशेष मारक क्षमता को मन-ह-मन प्रणाम कर हम आगे बढे.
इस प्रकार हमारी “सप्त्श्रींगी देवी” की यात्रा समाप्ति हुई और हमलोग नाशिक वापस आ गए.
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