शहर का मेला – सूरजकुंड

मन की बात से लेकर टाइगर की लात और प्रिया प्रकाश की आँख से लेकर पद्मावत की लगी जाती सम्बन्धी आग, जहाँ देखो बस यही सब कुछ पाँव पसारे बैठा हुआ है। कभी कभार किसी समाचार चैनल पर नजर ठिठक जाये तो कोरियाई किंग जोंग की ‘अति भयानक’ शक्ल देखकर भूख प्यास भी ख़त्म हो जाती है, क्या करे हंसी ही इतनी आती है। इन सब फालतू के झमेलों से बचने का एकमात्र उपाय केवल एक सुखद यात्रा से ही हो सकता है किन्तु समय के आभाव में एक लम्बे अंतराल से कोई यात्रा तो प्लान हो नहीं पा रही थी अतः सोचा की क्यों न फरीदाबाद में लगने वाले सूरजकुंड के मेले में ही थोड़ी चहलकदमी कर ली जाए,  बेचारी गाडी भी खड़े खड़े कबसे मुंह बनाकर कहीं घूमने का इंतज़ार कर रही है।

हालाँकि मेरे सभी घुमक्कड़ मित्रों और वरिष्ठ जनो ने कभी न कभी तो इस मेले का दीदार किया ही होगा, फिर भी सोचा क्यों न कुछ लिख कर आप सब के सामने पेश कर दिया जाये।

तो मेले में जाने के लिए शुक्रवार 16 फरवरी का दिन तय किया गया ताकि सप्ताहांत में होने वाली भीड़ भाड़ से बचा जा सके और फिर वैसे भी मेले में तो लोग चाट-जलेबी खाने जाते हैं धक्के खाने थोड़े ही।  सूरजकुंड मेले की पार्किंग अति विशाल है जो की दो भागो में बाटी गयी है।  पार्किंग शुल्क रुपये 100 है जिसमे आप जितनी मर्जी देर तक चाहे गाड़ी खड़ी कर सकते हो।  शुल्क जाते ही आपसे ले लिया जाता है।  अब रही मेले में एंट्री टिकट लेने की बारी तो आपकी जानकारी के लिए बता दूँ की वहां टिकट काउंटर बना हुआ है जिसपर कभी कभी लम्बी लाइन से आपका सामना हो सकता है इसलिए समझदारी से काम लेते हुए हमने तो बुक माय शो की वेबसाइट से ही टिकट बुक कर ली थी, हालाँकि 360 (120/per ticket) की जगह 368  रुपये देने पड़े।

याद रहे यह मेला हर वर्ष दो फरवरी से लेकर अठ्ठारह फरवरी तक चलता है।

मेले में एंट्री करते ही आपको अनायास ही दिल्ली हाट का ध्यान आता है, इस तरह का अधिकतर साजो सामान वहीँ मिलता है। वैसे एक बात और बताना चाहूंगा की इस मेले में यदि आप शुरूआती दिनों में आएंगे तो सामान कुछ अधिक कीमत पर मिलता है लेकिन अगर आप अंतिम शेष 2-3 दिनों में आएंगे तो सामान की कीमत में अच्छा खासा फर्क देखने को मिलेगा क्यूंकि विभिन्न राज्यों से आये हुए विक्रेता अपना सामान वापिस ले जाने के बदले स्टॉक क्लियर करने में ज्यादा रूचि रखते हैं। घर के लिए यदि आप फर्नीचर, चादर, वूडेन डेकोरेटिव आइटम्स आदि लेने के मूड में हैं तो सावधानी पूर्वक मोलभाव करने के बाद आगे की सोच सकते हैं अन्यथा जेब की सलामती के लिए मेरे जैसे अनारी तो कृपया दूर ही रहे। वैसे हमारा शॉपिंग वगैरह का विचार नहीं था, फिर भी एक बेडशीट, वेस्टकोट, लेडीज सूट और टॉय स्टेचू जो की हम मध्यमवर्गीय लोगों की जेब के अनुकूल थे, ले ही लिया।

बाहर खाने पीने में स्वास्थ्य की दृष्टि से थोड़ा असहज लगता हैं अतः राजस्थानी मूंग दाल कचौरी, लाल हरी चटनी के साथ, और गोहाना का जलेबा खा कर ही संतोष कर लिया।  जलेबा शब्द इसलिए प्रयोग किया क्यूंकि उसका साइज दोनों हाथों की हथेलियों के बराबर था जिसका मूल्य 90 रुपये प्रत्येक पीस रखा गया था। कचौरी का मूल्य 50 रूपए प्रत्येक पीस था।

हालाँकि यहाँ विभिन्न राज्यों के फ़ूड स्टॉल्स भी लगे हुए थे जिसमे प्रमुख रूप से राजस्थान, हरियाणा, गुजरात आदि राज्यों के तरह तरह के भोजन का लुत्फ़ आप उठा सकते हैं।  इसके अतिरिक्त कश्मीरी कारपेट और वूलन की खरीददारी भी की जा सकती है। यहाँ हर राज्य अपने हस्तशिल्प कला का बेहतरीन प्रदर्शन करता है।  जो स्थानीय वस्तुएं आसानी से बाजार में नहीं मिलती वो यहाँ आसानी से उपलब्ध होती है।  किन्तु पॉकेट का ध्यान भी रखें और फालतू बातों में न आएं।

मेले में घुमते हुए जो एक विशेष बात का आभास हुआ वो यह था की जितने भी नवयुवक और नवयुवती वहां आये हुए थे उनके अंदर एक गजब का उत्साह दिखाई दे रहा था।  लोक गीतों की धुन पर जीन्स टॉप पहने युवतियों के ठुमके अत्यंतत ही नयनाभिराम लग रहे थे…कृपया अन्यथा न ले।  विभिन्न प्रांतो से आये हुए कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन बड़े ही उत्कृष्ट रूप से कर रहे थे फिर चाहे वो कोई गीत हो या फिर संगीत।  रिकार्डेड सांग्स पर नाचना एक अलग बात है किन्तु सामने बज रहे ढोल-ताशो के थाप पर थिरकते जनसमूह को देखकर अलग ही आनंद मिल रहा था और उस पर मचते जोशीले नौजवानो के हुड़दंग ने तो मानो  समा ही बाँध दिया था।

ऐसे माहौल में मन में विचार आ रहा था की गाँव-खेड़ो में लगने वाले मेले भी शायद इतने ही खुशनुमा हुआ करते होंगे, जिसमे जाने की जिद्द अक्सर बच्चे अपने माँ-बापू से करते होंगे, थोड़ा रोते होंगे, थोड़ा लाड दिखाते होंगे फिर तब तक घर में उत्पात मचाते होंगे जब तक उनकी उंगली पकड़कर मेले में लेजाकर, घुमाकर, जलेबी खिलाकर और खिलोने दिलाकर माँ-बापू उन्हें संतुष्ट नहीं कर देते होंगे।  इन मेलो में ही मुलाक़ातें होती होंगी, फिर प्यार की पींगे बढ़ती होंगी, जोड़ियां बनती होंगी वगैरह वगैरह, आहा सोचकर ही मन प्रफुल्लित हो जाता है।

सूरजकुंड मेले में आने के लिए सरकार ने काफी अच्छी व्यवस्था कर रखी है।  आप अपनी कार से, कैब से या फिर मेट्रो से जा सकते हैं।  सबसे पास का मेट्रो स्टेशन ‘बदरपुर’ है जहाँ से आप ऑटो वगैरह भी कर सकते हैं।  यहां पहुँचने के लिए किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं होती किन्तु यदि सुबह और दोपहर का वक्त ले कर चलेंगे तो बेहतर होगा।  थोड़ा खुले मैदान और जंगली हरियाली अधिक है इसलिए रात तक रुकना जरूरी नहीं है विशेषतः यदि आप परिवार और बच्चो के साथ हैं तो।  मेले में माहौल पूर्णतः सुरक्षित है, सिक्योरिटी की कोई कमी नहीं है, वालंटियर्स आपको सटीक दिशा निर्देश देते है, फिर भी आप संयमित वयवहार रखेंगे तो अन्य पर्यटकों के लिए सुविधाजनक रहेगा खासकर विदेशी पर्यटकों के लिए जो की हमारी संस्कृति के एक झलक पाने के लिए आतुर रहते है।

खैर शहर के इस मेले में घूम फिर लेने के बाद जब थकान होने लगी तो मन से आवाज आयी की अब वापिस घर चलने का समय हो गया है।  रोजमर्रा के कामकाज और ऑफिस की चिकचिक से थोड़ा विराम मिल गया और फिर अगले दो दिन भी छुट्टी होने के कारण थोड़ी स्फूर्ति भी मिल गयी। समय अच्छा व्यतीत हुआ और मनोरंजन भी।  देखते ही देखते कब समय सूर्यास्त तक पहुँच गया पता ही नहीं चला। शहर का मेला है तो क्या हुआ, शायद गाँव-खेड़ो के मेलो में भी ऐसा ही आनंद आता होगा, यह बात अलग है की अब न तो वो माहौल है न ही वो आनंद क्यूंकि हम तो व्यस्त हो चले हैं अपनी मोबाइल लाइफ में जो सिवाय नोटिफिकेशन के और कुछ नहीं देती और बदले में हमारा सारा समय ले लेती जिसका सदुपयोग करना अब हमारे बस की बात नहीं।

चलते चलते उधार की दो पंक्तियाँ अर्ज करना चाहूंगा की  –

लगा है आजकल मेला मेरे शहर में,
उम्मीद उनके भी नज़र आने की है।

पोस्ट पढ़ने के लिए धन्यवाद।

6 Comments

  • Gourav Verma says:

    Nice post, reminded me all those memories from golden old days

  • Nandan Jha says:

    सही पकड़े हैं अरुण भाई | टीवी के उत्पात से बचने के लिए सूरजकुंड मेला एक व्यवहारात्मक विकल्प है, जनरल मौज़ मस्ती, वाक शाक , ज़मीन के सुगंध, चाट पकोड़ी, थोड़ी शॉपिंग और हो गयी एक पैसा वसूल सैर |

    धन्यवाद साथ ले जाने और रंगीन दृश्यों के लिए |

  • Arun Singh says:

    Bahut bahut shukriya Nandan Sir…aage bhi aapse isi tarah mukhatib hote rahenge!

  • Pooja Kataria says:

    Being a resident of Gurgaon I used to visit Surajkund almost every year sometimes as a part of school trip or with family.
    One of the best experience that I used to look forward to and still do in a hope that I will get to visit Surajkund very soon.
    The Dhol and folk songs and the dancing is what we used to enjoy the most and avoided the food there as much as we could.
    You said it right, the prices are very high for the items in the mela and we must plan to go in the last days of the Mela to get the bet price.

  • Arun Singh says:

    Good to know that you are a frequent visitor of Surajkund Mela, its a good place to spend some quality time with family, yes standard of food is not upto the mark in view of hygiene.
    Thanks for reading the post Ms. Kataria.

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