जो लोग लखनऊ से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं और ऐतिहासिक धरोहरों में रूचि रखते हैं उन्होंने इमामबाड़ा, भूलभूलैया तथा रूमी दरवाजे की खूबसूरती को जरूर देखा होगा और वह इमारतें, उनकी वास्तुकला, विशालता तथा बेहतरीन कलाकारी दिलो-दिमाग पर ताजा रही होगी.
हालांकि इमामबाड़ा को देखने के लिए जो एकीकृत टिकट पचास रुपये में लेना पड़ता है उसके पैकेज में बड़ा इमामबाड़ा, भूलभूलैया, छोटा इमामबाड़ा, शाही बावली, पिक्चर गैलरी तथा शाही हमाम का टूर शामिल है पर पर्यटक बड़ा इमामबाड़ा तथा भूलभूलैया को ही देखकर वापिस लौट जाते हैं. इस ऐतिहासिक परिसर में स्थित शाही बावली की यदि बात करें तो उसका महत्व किसी भी रूप में स्वयं इस बेहतरीन इमामबाड़े से काम नहीं है और इसे अगर अपने समय का वास्तुकला का बेजोड़ उदाहरण कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी.
अपनी सेवा की एक लम्बी अवधि लखनऊ में बिताने के बावजूद मैं स्वयं कभी इस परिसर तथा बावली में पर्याप्त रूचि नहीं ले पाया इसका स्वयं मुझे भी आश्चर्य है. पिछले दिनों लखनऊ प्रवास के दौरान मैंने कौतूहलवश बड़ा इमामबाड़ा को भ्रमण करने का कार्यक्रम बनाया. शनिवार की सवेरे मैं अकेला ही अपने कैमरे के साथ इमामबाड़ा पहुँच गया, जहाँ पार्किंग के बाद सबसे पहले कैमरे का टिकट कटवाना पड़ता है. वीडियो कैमरे के लिए निर्धारित शुल्क रू. २५ है लेकिन DSLR कैमरे से चूँकि फिल्म भी शूट की जा सकती है अतः उसे वीडियो कैमरा मानते हुए रु. २५ का ही शुल्क मुझसे चार्ज कर स्लिप दी गयी. मुख्य परिसर में प्रवेश करते ही इमामबाड़े की भव्यता किसी का भी मन मोहने के लिए पर्याप्त है. विभिन्न कोणों से फोटोग्राफी करते हुए मैंने जब आगे टिकट कक्ष से टिकट लिया तब तक काफी फोटोग्राफी हो चुकी थी.
इमामबाड़े की दूर तक फैली सीढ़ियां तथा बाईं ओर शाही बावली और दाईं और नायाब मस्जिद के चित्र तत्कालीन वास्तुकला की भव्यता का सजीव चित्रण कर रहे थे. मैंने जूते उतारकर इमामबाड़े का विचरण किया और पाया कि वास्तुविद ने उसके भव्य निर्माण में किसी भी तरह की कोई कमी नहीं छोड़ी है. इतनी भव्यता तो आजकल के भवनों में भी आसानी से देखने को नही मिलती है.
चूँकि मेरा उद्देश्य शाही बावली का भ्रमण था इसलिए मैंने परिसर के बाईं और स्थित इस स्थल का मुआइना शुरू किया. बाहर से इसका डिजाइन राजस्थानी वास्तुकला से प्रभावित दीखता है, जहाँ जगह-जगह झरोखों का बहुतायत से इस्तेमाल किया जाता है. अपेक्षाकृत रूप से बाहर से सामान्य मुख्य द्वार की यह संरचना दोनों और झरोखोँनुमा आकृति के वरांडे से सज्जित है. इसके मुख्य द्वार पर आपको या तो रू. २० का अलग से प्रवेश टिकट लेना होगा या रु. ५० का एकीकृत टिकट दिखाना होगा . मैंने अपना टिकट दिखाया तो मुझे भीतर जाने की स्वीकृति मिल गई पर मेरे साथ ही एक अधेड़ आयु के व्यक्ति ने सुझाव दिया कि क्यूँ न एक गाइड के रूप में उसकी सेवाएँ ले ली जाएँ ताकि मैं बेहतर रूप से जानकारी प्राप्त कर सकूं. उसका रेट भी मात्र रु. २० था जो नाम मात्र का था. मुझे इसमें सहमति देने में कुछ भी असहजता नहीं लगी और वे महाशय मुझे बावली की सैर पर ले चले. आरम्भ से ही उन्होंने मुझे फोटोग्राफी के एंगल्स बताने शुरू किये और वो वास्तव में बेहतर एंगल्स थे.
मोहम्मद असमत जी ने मुझे बेहतरीन ढंग से बावली दिखने और उसका इतिहास बताने में पूरी लगन दिखाई. उन्होंने मुझे प्रवेश द्वार के पास स्टेप वेल की वो सीढियां दिखाई जो नीचे उतरती हैं और उनकी विपरीत घुमावदार आकृतियों और कॉरिडोर के प्राकृतिक एयर कंडीशनिंग के सिद्धांत को भी समझाया. यह दो मंजिला कॉरिडोर जगह-जगह से दरक रहा था और चूना उससे रिस रहा था. उन्होंने बताया की पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा इसके संरक्षण का कार्य किया जा रहा है जिसमे इस हिस्से सहित लगभग पूरी बावली के पुनरोधार का प्रस्ताव है, और यह कि अगली बार जब मैं यहाँ आऊँगा तो शायद यह बावली मुझे बेहतर स्थिति में दिखे.
कुछ लोग अभी भी इसे पञ्च महल कहते हैं. उनका कहना है कि शाही मेहमानों के ठहरने के लिए इस पञ्च मंजिले विशाल भवन का उपयोग किया जाता था. मेहमानों के लिए गर्म और ठन्डे पानी में स्नान करने की भी व्यवस्था थी. इसमें एक मुख्य हॉल तथा कई रेस्ट रूम निर्मित किये गए थे. इसकी दो मंजिलें ही अभी दिखाई देती हैं जबकि तीन मंजिलें पानी में डूब चुकी हैं. जो भाग अभी इसका इमामबाड़े की ओर से प्रवेश करने पर दीखता है, वह मुख्य भाग नहीं है.
अपने भारी शरीर तथा आयु के कारण अस्मत जी को ऊपरी मंजिल पर चढ़ना दुष्कर प्रतीत हो रहा था, तो उन्होंने मुझे निचली मंजिल से ही गाइड करते हुए ऊपर की मंजिल पर जाने को कहा. वहां उन्होंने मुझे मुख्य द्वार के ठीक विपरीत दूसरी मंजिल के उस स्थान पर खड़े होने को कहा जहाँ से मुख्य द्वार के निकट पानी में वह आकृति उभरती थी जो द्वार पर प्रवेश करने वाले व्यक्ति की थी. यद्पि पानी में सामान्यतः लगातार रहने वाली हल्की सी लहर के कारण व्यक्ति का चेहरा पहचानना तो आसान नहीं होगा लेकिन वेश भूषा तथा वस्त्रों के रंग से दोस्त और दुश्मन में अंतर किया जाता था, ऐसा बताया गया है. इस पर्सपेक्टिव की एक अन्य विशेष बात यह थी कि मुख्य द्वार के निकट खड़ा व्यक्ति यह देखने में समर्थ नहीं था कि क्या अन्दर से कोई व्यक्ति उसे देख रहा है (बाद में मैंने बाहर जाकर इस बात की पुष्टि भी की). कहते हैं कि यह शक होने पर कि प्रविष्ट करने वाला व्यक्ति कोई दुश्मन है, उक्त स्थान पर खड़ा तीरंदाज सैनिक उसे अपने सटीक निशाने से बेध डालता था.
दूसरी मंजिल से नीचे गहरे की ओर झाँकने से गहरा कुआँ दिखाई देता है जो अब मिट्टी से भरा है. बताते हैं कि यह मिट्टी विगत कुछ वर्षों में पुरातत्व विभाग द्वारा की गई मरम्मत के दौरान जमा हुई थी जिसे बाहर फेंकने के स्थान पर लापरवाही के कारण कुएं में फेंकते रहे और अंततः इसमें कई फीट मिट्टी व् मलबा जमा होने से यह केवल मलबे का ढेर बन गया. कहा जाता है कि यदि अभी भी इस कुऐं को साफ़ किया जाय तो लगभग 6-7 मीटर नीचे ही पानी का स्रोत निकल आएगा. ऐसा इसलिए भी है की उस समय इस बावली के निर्माण में यह ध्यान रखा गया था कि इसके कुँए का स्तर निकट ही बह रही गोमती नदी के स्तर पर रहे ताकि कभी पानी की किल्लत न हो.
बाद में मुझे हुसैनाबाद ट्रस्ट, जो परिसर की सम्पतियों की देखभाल करता है, के एक कर्मचारी, जो बावली की देखभाल के लिए तैनात हैं, ने इन तथ्यों की पुष्टि करते हुए बताया कि इस शाही बावली के पुन्रोध्हार की कार्यवाही जल्दी ही अपना मूर्त रूप ले लेगी और तब इसकी असली सूरत निकल के सामने आएगी. श्री रिज़वी ने मुझे बताया कि यह बावली नवाब आसिफ-उद-दौला ने इमामबाडा के निर्माण से भी पहले निर्मित कराई थी. उन्होंने बताया कि वास्तविकता यह है कि इमामबाड़े तथा परिसर स्थित मस्जिद की विशाल संरचना बनाए में भरपूर पानी का इस्तेमाल होना था. इसी को ध्यान में रखते हुए संबंधित आर्किटेक्ट के सुझाव पर यह बावली बनायी गई. बाद में मस्जिद बनी और अंत में इमामबाडा. इन भवनों के निर्माण में इस बावली के पानी के स्रोत का भरपूर उपयोग हुआ. नवाब साहब ने पहले पानी के स्रोत का इंतज़ाम किया, फिर खुदा के घर का और फिर इमामबाडा. शाही बावली का आर्किटेक्चर ईरानी आर्किटेक्ट की देखरेख में किया गया लेकिन इसके खूबसूरत फर्श की डिजाइनिंग एक ब्रिटिश वास्तुविद ने की थी.
हुस्सैनाबाद ट्रस्ट के श्री रिजवी ने यह भी बताया कि ब्रिटिश अधिकारी इस विस्मयकारी बावली के आर्किटेक्चर की बारीकियों तथा वहां मौजूद खजाने को हासिल करना चाहते थे परन्तु जब नवाब साहब के खजांची मेवालाल रस्तोगी को लगा कि अब वह इसकी रक्षा करने में असमर्थ है तो वह बावली के नक़्शे तथा खजाने की चाभी लेकर बावली के कुऐं में कूद गए और प्रयास करने के बाद भी न तो अंग्रेज अधिकारियों के हाथ कोई नक्शा, चाभी या मेवालाल की लाश भी नहीं मिल पाई.
दरअसल एक तो वह बावली की संरंचना के निर्माण के विभिन्न पहलुओं का भी विस्तृत अध्ययन करना कहते थे, दूसरे ब्रिटिश हुकूमत को संदेह था कि इस बावली का उपयोग एक सेना के अड्डे के रूप में हो रहा है जहाँ से विद्रोह किया जा सकता था. वास्तविकता यह थी कि जल स्रोत पर निगाह रखने के लिए वहां मात्र सतर्कतावश सैनिकों को तैनात किया गया था.
हुसैनाबाद ट्रस्ट की वेबसाइट पर इस बावली के सम्बन्ध में मात्र यह विवरण दर्ज है, जो अधिकृत माना गया है:
लखनऊ में नवाब आसफुद्दौला के इमामबाड़ा के बायी ओर बनी बावली बनी हुई है। कहा जाता है कि सन् 1784 के अकाल में अवध के चौथे नवाब आसफुद्दौला ने मच्छी भवन के निकट ये आलीशान इमामबाड़ा, भूलभुलइया, रूमी गेट, आसफी मस्जिद और शाही बावली बनवायी थी। साथ में यह भी कहा जाता है कि बावली इस स्थान पर बहुत पहले से मौजूद थी और इसका जीर्णाेद्वार कराके इसे इमामबाड़े में शामिल कर लिया गया। बावली के इर्द-गिर्द इसी भवन निर्माण शैली में बनी इमारतों का लम्बा सिलसिला आज भी भूमिगत है।
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I have visited LKO at least once every year for last 10 years. I have been visiting here to meet (and select) the bright students of IET, Lucknow. For every trip, like a opportunistic traveler (Ghumakkar), I would steal some time to visit one place or the other. Your log has refreshed my visit and yes indeed, Imambada (and Baoli and other big monuments) is one must-visit place.
You have done quite an elaborate description of the architecture of the Baoli as well interesting anecdotes of the era gone by.
One thing which I remember from my visit was the presence of homeless beggars right throughout the passage, as you enter the main building. That didn’t seem right and on enquiry we were told by our Guide that since it is a privately managed place, there is lesser control on these things. May be it has changed for better now.
Thank you Mr. Verma for the illustrated tour.
Thanks Nandan that you have liked the post. The place has gone quite a change, of late and no begger or squatter was seen on my two visits. The place was clean and looks refreshing as the maintenance was looking good. Yes, it is being maintained by the Hussainabad Trust.