मेरी महाकाली गुफा देखने की तमन्ना पूरी हो चुकी थी. अपनी अगली जिज्ञासा को साथ लिए मैं वह से वापस घर चला आया.
कुछ ही दिनों से पश्चात् मार्च २०१६ शुरू हो गया. इसके पहले मैं मंडपेश्वर गुफा और महाकाली गुफा तो देख ही चुका था. अतः इस बार मैंने “जोगेश्वरी गुफा” देखने चला. यदि आप लोकल ट्रेन से जाना चाहें तो आपको जोगेश्वरी (पूर्व) स्टेशन पर उतर कर ऑटो-रिक्शा करना ठीक रहेगा. पर उस दिन मैं एक सहयोगी की गाड़ी पर बैठ का जोगेश्वरी चला गया. शायद मेरा निर्णय ठीक था, क्योंकि उस गुफा के सामने पार्किंग की व्यवस्था बिलकुल भी नहीं है. बाज़ार के भीड़-भाड़ से भरी हुई सड़क से जुड़ी एक पतली से गली जोगेश्वरी गुफा के द्वार तक ले जाती है. गली के शुरू में ही एक सीमेंट से बना दीप-स्तम्भ है और वहीँ दूसरी तरफ़ जोगेश्वरी गुफा के बारे में सूचना प्रदान करने-वाला एक शिला-लेख. शिलालेख की सूचना बतलाती है कि गुफा छठवीं शताब्दी में मौर्य (कोंकण प्रदेश वाले) और काल्चुरी राजवंश के द्वारा तराशी गयी थी. इस गुफा की समानता अजंता की गुफा संख्या १ और एल्लोरा की गुफा संख्या ९ से की जाती है. स्थापत्य-शैली में इस गुफा को ब्राह्मणीय शैलोत्किर्ण स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है. इसे राष्ट्रीय महत्त्व का स्मारक घोषित किया जा चुका है.

जोगेश्वरी गुफा का प्रवेश मार्ग
वहां से मैं धीरे-धीरे चलते हुए मैं एक सीढ़ी से नीचे उतर कर गुफा के प्रथम चरण में प्रवेश कर गया. ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वह एक बड़ा बरामदा रहा हो, जिसके दोनों तरफ बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं लगीं हों. पर वर्तमान में प्रतिमाएं नष्ट हो चुकीं थीं, सिर्फ उनके कुछ अवशेष बचे हुए थे, जिनसे उनके आकार का अंदाज़ लगाया जा सकता था. प्रथम चरण को पार करके मैं मुख्य चरण में गया. वहाँ पहुँचते ही मेरी आँखे आश्चर्य से विस्फरित हो गयीं. मैंने देखा कि पहाड़ को अन्दर से बिलकुल काट कर वहाँ २० खभों वाला एक बहुत बड़ा हौल तराशा गया है. मैंने अभी तक गुफा में बने इतने बड़े हौल का कभी दर्शन नहीं किया था. अतः मैं कई क्षणों तक तो खड़ा देखता-ही रह गया.

जोगेश्वरी गुफा के अन्दर खम्भेदार वृहत हौल
फर मैंने उस हौल की परिक्रमा शुरू की. उस हौल के अन्दर परिक्रमा के लिए भी रास्ता कटा हुआ था. हौल के बीच में एक चौकोर प्लेटफार्म भी काट कर बनाया गया था, जिसके बीच में एक नक्काशी-दार मंदिर भी बना हुआ था. इस मंदिर में जोगेश्वरी देवी की पूजा हो रही थी. इन्हीं देवी के नाम पर इस ईलाके के नाम जोगेश्वरी पड़ा था. मैं देवी-मंदिर में प्रणाम कर ही रहा था, तब एक स्थानीय पुरोहित ने मेरे से वहाँ आने का कारण पूछा. कारण बताने के बाद वह पुरोहित मुझे पूरी गुफा का दर्शन कराने के लिए तैयार हो गया. अतः मैं उसी के साथ हो लिया.

जोगेश्वरी देवी
उस बड़े हौल में बने एक दूसरे दरवाजे से हम बाहर निकले, जहाँ करीबन १० खभों वाला एक कॉरिडोर था. वह बहुत लम्बा और विशाल था. अपने आकार और बनावट के कारण बहुत भव्य लगता था. कई परिवार वहाँ विविध प्रकार के पूजन कर रहे थे. पुरोहित ने मुझे बताया कि वर्तमान जोगेश्वरी गुफा में हिन्दू-पूजन विधि से पूजन करने की पूरी व्यवस्था है. पुरोहितों के कई परिवार यहीं आस-पास रहते हैं और यहाँ पूजन के लिए उपलब्ध रहते हैं. उस कॉरिडोर से लगे हुए एक शिव-मंदिर था, जो उस वक़्त बंद था. मैंने शिला-लेख में पढ़ा था कि यहाँ द्यूत-क्रीड़ारत शिव-पारवती की मूर्तियाँ हैं. मैंने उन्हें देखना चाहता था, पर उस दिन मैं नहीं देख पाया. इतने में मेरे साथ-वाले पुरोहित पर एक वृद्ध पुरोहित की नजर पड़ गयी. उन्होंने तुरंत-ही कुछ निर्देश दिए, जिन्हें पूरा करने हेतु, मेरा पुरोहित चला गया. जाते समय उसने मुझे वहां स्थित हनुमान मंदिर का रास्ता ईशारे से बताया. वैसे तो उसने कहा था कि वह वापसी में मुझे मिलेगा, पर शायद कार्य-व्यस्त होने के कारण मिल नहीं पाया और मैं पुनः अकेला हो गया.

लम्बा कॉरिडोर
इतने में कुछ विदेशी पर्यटक आ गए. बड़े-बड़े कैमरों के साथ. वे भी हनुमान मंदिर की तरफ जा रहे थे. मैं भी उनके पीछे चल पड़ा. वो रास्ता एक बड़े-से आँगन से हो कर जाता था, जिसके दोनों तरफ गुफ़ाएँ बनीं हुईं थीं. मेरे पुरोहित ने बताया था कि वर्तमान का वो आँगन पूर्व-काल में गुफ़ा ही था, जिसकी छत कालांतर में गिर चुकी थी. अगर वह गुफा का हिस्सा था, तब तो एक जमाने में वह गुफा बहुत-ही विशाल रही होगी. खैर आँगन से गुजर कर हम हनुमान-मंदिर पहुँचे और वहां दर्शन किया. मंदिर एक गुफा में बना हुआ था. कोई ज्यादा लोग नहीं थे. वहां से तुरंत ही सभी निकल पड़े और फिर गणेश मंदिर तक आये. वह नजदीक ही था. वह भी एक गुफा में बना हुआ था.

गणेश मंदिर
उसका दर्शन करने के बाद मैं “दत्ता-मंदिर” की तलाश करने लगा, पर वह मुझे कहीं नहीं मिल रहा था. तब मैंने एक पुरोहित से उसका मार्ग पूछा. उसने बताया कि कई गुफाओं की छत गिर जाने के कारण, वर्तमान में दत्ता मंदिर जाने के लिए जोगेश्वरी गुफा के बाहर निकल कर पहाड़ी के ऊपर से जाना पड़ता है. ऐसा सुनने के पश्चात् मैं गुफा से बाहर की ओर चला. बहार निकलते समय मैंने गुफा की चट्टानों पर उकृत कुछ मूर्तियों की तस्वीरें खीचीं, जिनसे ऐसा लगता था कि पश्चात्-काल में भी यहाँ हिन्दू-पूजन विधियों का ही प्रचालन होता होगा.

जोगेश्वरी गुफा की प्रतिमाएं
एक बार गुफा के बाहर निकल कर मैं उसी गली में आ गया, जिससे मैं अन्दर आया था. कहीं कोई सूचना नहीं थी कि दत्ता मंदिर कैसे जाया जाए. तब सड़क के कोने पर स्थित फूल-विक्रेता ने मार्ग बताया. उसी मार्ग से चल कर मैं गुफा के पहाड़ी के बिलकुल ऊपर आ गया. वहां जाने से दो अनुभूति होती है. सबसे पहले यह पता चलता है कि पश्चात् काल में कैसे एक-ही विशाल पहाड़ी को काट कर उसके अन्दर वह गुफा बनाई गई होगी. दूसरी की वर्तमान काल में कैसे उस गुफा के चारों ओर लोगों ने निवास बना लिए हैं.

पहाड़ी के ऊपर
खैर पहाड़ी के ऊपर जो बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे, उनसे-ही पूछ कर मैं दत्ता मंदिर की सीढ़ियों पर पहुँच गया, वहां लोहे की रेलिंग्स भी लगीं हुईं थीं, क्योंकि बहुत पतली सीढ़ी थी. सीढ़ी से नीचे उतर कर मैं दत्ता मंदिर पंहुचा, वह भी एक गुफा में था. पर जितनी ऊँचाई पर वह मंदिर बना था, उससे लगता था कि वह एक दोमंजिली गुफा रही होगी. वहां ज्यादा देर तक बैठना संभव नहीं था, क्योंकि गर्मी बहुत थी. अतः मैं तुरंत निकल पड़ा. वापस उस स्थान पर आया जहाँ से पहाड़ी के टूटे हिस्से से गुफा के अन्दर का विन्यास देख सकते थे.

दत्त मंदिर
नीचे झाँकने से ऐसा लगता था कि पूरी जोगेश्वरी गुफा एक पहाड़ को अन्दर से बिलकुल काल कर बनाई गई होगी, जिसके एक किनारे पर जोगेश्वरी मंदिर, बीच में आँगन-नुमा गुफा और दूसरी किनारे पर दोमंजिला गुफाएं. बीच का भाग भग्न हो जाने से अब वहां एक आँगन जैसा दिखाई देता है.

पहाड़ी के ऊपर से जोगेश्वरी गुफा का दृश्य
मैं कुछ देर तक वहाँ खड़ा हो कर उन मूक चट्टानों को निहारता रहा. काश उन पत्थरों में जुबान होती, जिनसे मैं उनकी कहानी उन्हीं की जुबानी सुन पाता. पर वहाँ तो एक तरफ गुफाओं की शांति थी और दूसरी तरफ वर्त्तमान दुनिया और जनसँख्या का कोलाहल. पता नहीं कालांतर में इस गुफा की नियति क्या लिखी है. पर वहाँ से लौटने के पश्चात् मेरी कविता कुछ यूँ समाप्त हुई:
“पता नहीं क्या ढूंढता रहता हूँ मैं
चट्टानों से घिरी इन गुफाओं में,
क्या ढूंढता हूँ बियाबानों की वीरानगी जो
कोलाहल से भी तीव्र असर रखती हैं
या ढूंढता हूँ शांति का वह समुद्र जो
सन्नाटों के बीच बसर करती हैं।
पता नहीं क्या ढूंढता रहता हूँ मैं
चट्टानों से घिरी इन गुफाओं में”
Dear Uday Ji, I have always been intrigued by caves and such mysterious structures however, never got a chance to see these marvels till now.
As I read about these structures through your posts, it makes me wonder as how in the ancient times those great people managed to carve such beautiful and unbelievable architecture without having a kind of Technology that we have in present time. And, it still stands so strong and proudly. Its baffling in every sense.
The main entry looks small and I assume that makes anyone think that the caves are not as big as they actually are when you enter the premises.
A hidden gem!
Thanks for sharing your experience!
Warm Regards!
Dear Pooja Ji
Yes, caves are always mysterious and attractive. Recently, I got to visit a few of them. They may be found in desolate areas and sometimes amidst crowd. But, they always have the certainty of a past which is a part of our common heritage.
Thanks for comments. I am really glad to know that you liked the post on Mumbai’s caves.
Regards
And comes another one, though this one seems to be more contained. But to imagine that this structure has survived the test of time, 100s of years, is indeed baffling (to borrow from Pooja).
Should we put all these in one series ?
Thanks for your nice comments. Yes we can string both articles on Mumbai caves together.
Regards
मी केळवे माहिमकर दीक्षित घराण्यातील मुळपुरुष (माझ्या वडिलांकडून समजल्या प्रमाणे गबाजी दीक्षित)च्या रघुनाथ शिवाजी दीक्षित नांवाच्या व्यक्तीच्या वंशातील मोरेश्वर सीताराम दीक्षितचा तीन नंबरचा मुलगा नरेंद्र. केळवे माहिमकर दीक्षित घराण्याची कुलदेवता जोगश्वरी देवी आहे व आमच्या(माझ्या) आजोबा पणजोबा ह्ांच म्हणण्याप्रमाणे ही जोगेश्वरी पांडव जेव्हां वनवासात होते तेव्हां ते ह्या डोंगरात गुंफा(गुहा) करून राहिले होते तेव्हां हि देवी त्यांना प्रसन्न होऊन प्रत्यक्ष दर्शन देऊन वर दिला होता. आमचे पूर्वज काश्मिर खोर्यातून स्थलांतरीत होऊन काय(आयोध्य) प्रदेशातून नंतर गुजराथ मार्गे केळवेमाहिमला स्थायिक झाले.आम्ही चांद्रसेन राजाच्या वंशातले म्हणून चांद्सेनीय व काय प्रेदाशातील म्हणून कायस्थ व आयोध्येच्या राम राजाला प्रभु म्हणायचे म्हणून प्रभु. असे आम्ही चांद्रसेनीय कायस्थ प्रभु(सी.के.पी.), क्षत्रिय !
रघुनाथ शिवाजी दीक्षितना एकूण ८ मुलगे होते.त्यतील इतर मुलांचे वंशजंचे म्हणणे आहे की दीक्षितांची कुलदेवता अंबेजोगाई जवळची योगेश्वरी देवी आहे पण माझे वडील आजोबा नवरात्रीला नऊ माळा फुलोरा घेऊन जोगेश्वरी गुंफेतल्या जोगेशंवरी देवीला प्रथम जायचे व आज तागायत मीसुध्दा हा्याच देवीस प्रथम जातो. म्हणून ह्या देवीचा इतिहास मी शोधत होतो.
डॅा. नरेंद्र मोरेश्वर दीक्षित.गोत्र
कृपाचार्य, केळवेमाहिमकर,
तालुका पालघर(जुने) जिल्हा ठाणे.
Good information and explanation