सिकन्दरा से ताज़महल की दूरी 16 किमी की है, मगर रास्ता बहुत भीड़-भाड़ वाला है | आम हिन्दुस्तानी सडकों की ही तरह, पैदल चलने वालों से लेकर ट्रक तक, सब एक ही सड़क पर हैं | रेड-लाइट आते ही अचानक आपको अपनी गाड़ी के शीशों के आस-पास मांगने वाले नजर आने लगते हैं, इनमे छोटे बच्चों से लेकर गर्भवती महिलाएं या किसी बीमार नवजात बच्चे की माँ, कोई भी हो सकता है | कहीं-कहीं खिलोनों से लेकर ताज़महल के प्रतिरूप बेचते हुए भी हैं, जिनकी आँखें रेंगती हुई गाड़ियों के आगे-पीछे से जगह बनाकर अपने सम्भावित ग्राहकों को ढूँढ रही हैं, मगर इन सबसे ज्यादा खतरनाक हैं, वो हिज्जड़े (किन्नर} जो पूरी तरह सजे-धजे, अपने खास अंदाज में ताली बजा-बजा कर आपसे पैसे मांगते हैं, इनका अंदाज़ ऐसा है मानो आपको धमका रहे हों, और ऐसे में यदि आप की खिड़की का कोई शीशा खुला रह गया तो फिर आप समझो गये काम से ! भले ही बत्ती लाल से हरी हो जाये, मगर आप इनकी मांग पूरी किये बिना आगे नही बढ़ सकते | किसी गाड़ी में यदि इन्हें कोई विदेशी दिख जाये तो जैसे गुड को देखकर मक्खियाँ भिनभिनाती हैं ना, ठीक उसी प्रकार सब उनकी गाडी को घेर लेते हैं, सडकों पर पुलिस के जवान नजर तो आते हैं पर शायद वो भी इनसे उलझना नही चाहते, या शायद कोई और कारण हो… ऐसे दृश्य चाहे आप दिल्ली में देखें या आगरा में , देख कर मन में एक ही भाव उपजता है कि भले ही हम अपने देश की प्रगति के लाख दावे करें पर ये नजारे, विदेशियों के आगे हमारी पोल खोल कर रख ही देते हैं |
कुछ ऐसे ही और नज़ारों से गुजरकर आप मुख्य सड़क छोडकर ताज़महल की तरफ जाने वाली सड़क पकड़ लेते हैं | सड़क का ये भाग अपेक्षाकृत अच्छा है और भीड़ भी कम है | आपको अपने आस-पास अब सिर्फ मोटर गाड़ियाँ ही नजर आती हैं, काफी संख्या में विदेशी भी आपको दिख जाते हैं, देशी पर्यटक तो खैर हैं ही ! ताज़महल, अभी आपसे दूर है, मगर सड़क के घुमावों के बीच कभी-कभी आपको इसकी एक झलक दिख जाती है….. दूर यमुना के किनारे, बगल से बहता पानी, और सर उठा कर खड़ी एक बुलंद ईमारत ! आप इसको देख कर कुछ और कल्पना करें, बहुत जल्दी वो फिर से आपकी आँखों के आगे से ओझल हो जाता है, और आपकी नजरें उसे ढूंढती ही रह जाती हैं | ताज़महल का ये खूबसूरत दीदार कर मन अतीत के कुछ पुराने पन्ने पलटने लगता है… मूल रूप से आगरा शहर के ही निवासी और मेरे एक पुराने मित्र, नासि़र खान के साथ जब भी ताज़महल का जिक्र चलता था वो एकदम शायराना अंदाज में कहते थे, “ अरे सर, आप जब भी ताज़ देखने आना, बारिशों के मौसम में ही आना और वो भी तब, जब पूनम का चाँद निकला हो ! पूनम के चाँद की चाँदनीं में नहाये इसके सफेद संगमरमरी बदन से जब पानी की बूंदे फिसल कर नीचे गिरती हैं, तो देखने वालों के लिये वक्त की सुईयां जैसे थम सी जाती है, उन लम्हों की खूबसूरती आप लफ्जों में बयाँ नही कर सकते, बस एक खामोश गवाह बन कर उन पलों को जी लेते हैं, और बस फिर वो आपकी यादों का एक हिस्सा बन जाती हैं ! दिल और दिमाग में इक कशमकश सी चलती रहती है कि आँखों को दिखने वाला ये मँज़र कोई ख्वाब है या हक़ीकत !
मगर दिल और दिमाग से रूमानी तबियत के मालिक, नासिर की ये हसरत हम पूरी नही कर पाये, और आज जब ताज़ के दीदार का मौका मिला भी है तो, वो भी जेठ की भरी दोपहरी में ! आप अपने आप को खुद ही दिलासा देते हैं कि अफसानों की दुनिया और असल जिन्दगी की मशरूफीयतें अलग-अलग होती हैं, असल हकीकत में तो हम मध्यम वर्ग के लोगों को अपने साथ-साथ बच्चों की छुट्टियों का भी ध्यान रखना पड़ता है |
आप की अपने ख्यालों और ताज़ के साथ ये दिलकश लुक्का-छिप्पी जल्द ही खत्म हो जाती है, जब आप ताज़महल की पार्किंग में पहुंच जाते हैं | वहीं हमे, हमारा गाईड भी इंतजार करता हुआ मिल जाता है | पार्किंग से ताज़ के प्रवेश द्वार की दूरी लगभग एक किमी है और वहाँ तक पहुँचने कर लिए बैट्री-कार से लेकर ऊंट गाड़ी तक के कई विकल्प हैं, मगर जो सवारी हम सब की पसंद बनती है, वो है तांगा !
मेट्रो शहरों में बढ़ते ट्रेफिक के दबाव, सडकों की बदतरीन हालत, महंगाई, सरकारी नियमों और बेतरतीब फैलते शहरों ने इसे हम से छीन कर अतीत के गर्त में पहुंचा दिया है, मगर यहाँ इसे फिर से जीने का एक मौका मिला है, एक-एक कर सारे उस पर सवार हो जाते हैं और फिर बच्चों द्वारा समवेत स्वर से “ चल मेरी धन्नो !” के कालजयी उद्गोश के साथ तांगे वाला चल पड़ता है और मै मसूद रांणा के उस गीत को याद कर रहा हूँ
“तांगे वाला नित खैर मंगदा, तांगा लहौर दा होवे पांवे चंग्ग दा”
(वैसे लाहौर और झंग वर्तमान में पाकिस्तान में हैं) और इस गाने में तांगे वालों की मेहनत, जानवर और सवारी के लिए उनका प्यार, और उनकी मुफलिसी (तंगहाली) को बहुत अच्छी जुबान दी गयी है | जीवन का कोई भी क्षण क्यूँ ना हो, हमारे फिल्म संगीत ने हर अवसर के लिए बेहतरीन गीत दिए हैं और अब इंटरनेट ने ऐसे दुर्लभ गीतों को एक बार फिर से सुनने का मौका ! खैर, तांगे की सवारी में सब इतना मग्न हो गये हैं कि जब तांगे वाला आवाज लगता है, “लो जी पहुंच गये…” तो एक निराशा सी होती है अरे इतनी जल्दी, कोई और लम्बा रास्ता नही था…? एक पल को तो जैसे भूल ही गये कि हम तांगे की सवारी करने नही, ताज़महल देखने आये हैं !
ताज़महल के प्रवेश द्वार के आगे लोगों की लम्बी कतारें लगी हुई हैं, जिन्हें देख कर लगता है कि अंदर प्रवेश पाने में ही कम से कम एक घंटा लग जायेगा, पर हमारा गाईड हमारा तारनहार बन कर सामने आता है, “मेरे पीछे आइये, जल्दी से …” और ना जाने किन-किन गलियों और रिहाईशी इलाकों से हमे गुजारता हुआ पांच- सात मिनट में ही एक ऐसे गेट के आगे ले जाता है, जहाँ अपेक्षाकृत बहुत ही कम लोग हैं, पास ही कई ऐसी छोटी-छोटी सी दुकानें हैं, जो रंग-बिरंगी टोपियों से लेकर ताज़ के प्रतिरूप और आगरे का मशहूर पेठा तक बेच रहें है | हमारा गाईड हमे कहता है कि शू कवर जरूर ले लें, दस रुपैये प्रति जोड़े के हिसाब से सबके लिए कवर और कुछ टोपियों भी ले ली जाती हैं, ताज़महल के अंदर जाने के लिए प्रवेश टिकट 20 रू की है, और जब तक हमारी ये छोटी सी खरीदारी पूरी हो, हमारा गाईड खुद ही टिकटें ले आता है | आँतक के इस दौर में, मुख्य प्रवेश द्वार से कुछ पहले ही सबकी सामान सहित तलाशी ली जाती है, और फिर सिक्योरिटी वालों के पूरी तरह संतुष्ट हो जाने पर, आपको हवाले कर दिया जाता है उन लम्हों के, जिन्हें देखने, सुनने, और महसूस करने का अनुभव, अब से केवल आपका और केवल आपका ही होगा !
प्रवेश द्वार के बाहर खुली सी जगह पर यहाँ-तहाँ, देसी-विदेसी पर्यटकों के झुण्ड, अपने-अपने गाईडों के साथ खड़े होकर ताज़महल का इतिहास, उनके नजरिये से समझने की कोशिश कर रहें हैं, या फिर इधर-उधर फोटो खींच रहे हैं | मैं और त्यागी जी अपने-अपने परिवार वालों को गाइड के पास छोढ़कर उन कोणों की तलाश करने लगते हैं, यहाँ से हमे अच्छे फोटो मिल सकते हैं | यहाँ-तहाँ बोलतें गाईडों की आवाजें आपके कानों में पडती रहती हैं और फिर कुछ पल में ही आप भी, उनकी तरह ताज़महल के जानकार हो जाते हैं… जरा मुलाहिजा फरमायें….
“ ताज़महल को शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज़ की याद में बनवाया…”
“ इसको बनने में कुल बाईस साल लगे, जो प्रवेशद्वार के ऊपर बने हुए गुम्बदों की संख्या के बराबर है…”
“ बाहर से देखने पर आपको ग्यारह ही गुम्बद नजर आते है मगर दूसरी तरफ से देखने पर पूरे बाईस दिखते हैं…”
ताज़महल सफेद पत्थर के चौकोर चबूतरे पर बना है…”
“ इसके अंदर बेशकीमती रत्न और सोने से बने अनेकों कला-चित्र थे, जिन्हें अंग्रेज अपने साथ ले गये…”
’ इसके चारों कोनो पर खड़ी चार मीनारें वास्तव में सीधी ना होकर थोड़ी सी बाहर की तरफ झुकी हुई हैं, जिस से किसी भी हादसे के वक्त वो मुख्य मकबरें पर ना गिरें…”
लीजिये, अब तो आप भी ताज़महल के अच्छे-खासे जानकार हो गये, और यदि और ज्यादा जानना हो तो फिर गूगल बाबा है ना !
और फिर, तमाशबीनों की भीड़ से जगह बनाते हुए जब आप मुख्य दरवाजे से गुजरते हुए, ताज़ की और बढ़ते हैं तो पहले-पहल दूर से एक हल्की सी आकृति उभरती सी नजर आती है, जो आपके आगे बदने के साथ-साथ अपना आकार लेती जाती है | जैसे ही आप प्रवेशद्वार के अंत तक पहुंचते हैं, एक अदभुत शाहकार आप के सामने अचानक से ही अपना पूरा आकार ले लेता है | ओह ! ये है ताज़ ! इतना दिलकश ! इतना खूबसूरत ! एक अति सुंदर और भव्य ईमारत आपकी अपनी आँखों के सामने शान से सर उठाये खड़ी है | कला और खूबसूरती का ऐसा नायाब नमूना कि खुद आपको अपनी आँखों पर विश्वास नही होता ! मोहब्बत की ऐसी अमर निशानी, जिसका और कोई सानी इस दुनिया में नही है, एक बादशाह की जिद, अपनी मल्लिका को उसकी मौत का एक नायाब तोहफा देने का ख्याब, जो आने वाली नस्लों को उसके यादगार प्रेम का पैगाम देता रहे….. मैं अपने आप में खोया हुआ सा सोच रहा हूँ, आँखें जो देख रही हैं, वो सपना है या हकीकत, क्या कोई किसी को इतना चाह सकता है, इतना प्रेम कर सकता है कि कुछ ऐसा कर जाए कि मरने वाले की यादगार ही एक शाहकार बनकर अमर हो जाये | वो भी एक बादशाह, जिसके हरम में ना जाने और कितनी मल्लिकाएं होंगी ! एक मकबरा जो मौत की निशानी है, ऐसा आलीशान कि मौत भी अपने शिकार के भाग्य से रश्क करने लग जाये ! है ना हैरत की बात, कि जिस जगह पर केवल ‘फातिहा’ पढ़ा जाना चाहिए था, वो प्यार करने वालों का मक्का बन गया ! ना जाने कितनी ही प्रेम कहानियाँ इक-दूजे को ताज की कसमे देती होंगी, कितनों की मोहब्बत की परवानगी की ये ईमारत मूक गवाह बनती होगी ! भले ही यह किसी और के प्यार की निशानी है, मगर इसकी खूबसूरती देखते ही आपको खुद इसी से पहली नजर का प्यार हो जाता है ! पर आप अकेले नही हैं जो इसके मोह-पाश में बंध गये हैं, चारो और से ऐसी ही कुछ प्रतिक्रियायें जब आपको सुनाई पडती हैं तो आपका ध्यान टूटता है | अपने आस-पास खड़े लोगों की नजरों में एक अविश्वास भरा रोमांच आपको साफ़ दिख जाता है | ये पल कुछ कहने के नही, बस देखने और महसूस करने और उन्हें अपनी यादों में भर लेने के हैं | ताज की उपस्थिति ने जैसे आस-पास की फिज़ा को ही बदल कर रख दिया हो, सब जोड़ों ने एक दूसरे का हाथ थामा हुआ है, एक दूसरे के और करीब आकर जैसे मोहब्बत की इस बुलंद इमारत को एक ही नजर से देखना चाहते हों !
कभी किसी दिलजले शायर ने कहा था –
“ इक शहंशाह ने बनवा के हसीँ ताज़महल, हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक “
मगर यकीन मानिये इसके दीदार करते हुए आप इस बात की परवाह नही करते कि शाहजहाँ ने इसे बनवाने पर अपना पूरा खजाना लुटा दिया | हाँ, उन मजदूरों, इंजीनियरों और कारीगरों के लिए जरूर दुःख होता है, जिन्होंने अपने बादशाह के ख्वाब की तामीर के लिये पता नही कितने जुल्म सहे होंगे, और ऐसा भी कहा जाता है कि कईयों के तो हाथ भी काट दिए गये, जिससे वो ऐसा कोई और ताज़महल ना खड़ा कर पायें | पर क्या शाहजहाँ जैसा कोई और ऐसा दूसरा दिवाना हो सकता था ? किसी के लिए इतनी चाहत कि अपना राज-पाट तक सब भूल गया ! शाहजहाँ ने मुमताज़ से जिस शिददत से प्यार किया इतिहास में उसका कोई और सानी नही ! पहले से शादीशुदा और दो बच्चों की माँ मुमताज़, जब शाहजहाँ की पसंद बनी तो अत्ठारह साल की वैवाहिक जिन्दगी में चौदह बच्चे ! और फिर जब अपने चौदहवें बच्चे के जन्म के दौरान मुमताज़ की मौत हो गयी तो शाहजहाँ ने उसकी यादगार को अमर रखने के लिए अपना पूरा खज़ाना ही लुटा दिया ! देश-विदेश से बेहतरीन आर्किटेक्ट और कुशल कारीगर इकठ्ठा किये गये | मकराना से बेशकीमती पत्थर मंगवाया गया और फिर जब मुमताज़ का मक़बरा बन कर तैयार हो गया तो उसमे जगह-जगह कीमती पत्थर और रत्न जड़े गये | बगदाद से कालीन मंगवाकर बिछाये गये, खज़ाना ख़ाली होता गया पर शाहजहाँ ने कोई परवाह नही की | राजा राज-पाट सब भूल गया, उधर दिल्ली में, दरबारी तिकड़में शुरू हो गयी, यहाँ-वहां विरोध के सुर उठने शुरू हो गये, पर शाहजहाँ टस से मस नही हुआ… मगर समय कभी नही रुकता, वो तो अपनी चाल से चलता ही जाता है | आखिर परिवार में ही बगावत हो गयी, गद्दी के लिए बेटों ने एक दूसरे के ऊपर तलवारें तान दी और फिर रास्ते की सारी रुकावटें पार करके, अपने ही भाइयों-भतीजों की लाशों को रौँद कर, औरंगज़ेब दिल्ली के तख्त पर बैठ गया, रोते-बिलखते राजा को पकड़ कर ताज़ के पास के ही एक किले में नज़रबंद कर दिया गया | वहीं एक खिड़की से वो, अपनी मोहब्बत के मक़बरे को देख -देख कर आंसू बहाता रहा और जब खुद मरा तो अपनी मोहब्बत के बगल में ही, ख़ामोशी से उसकी पनाह में, हमेशा-हमेशा के लिए फ़नाह हो गया |
इतना कुछ आपके अंदर घटता रहता है कि तभी आपको आपके परिवार वाले घसीट कर ले जाते है और उन लाइनों में खड़ा कर देते हैं, जो मक़बरे के अंदर जाने के लिए लगीं हैं | धूप बढ़ती जा रही है और साथ ही भीड़ भी ! अपने बूटों के ऊपर आप शू कवर चढ़ा लेते हैं, और भीड़ का हिस्सा बनकर मक़बरे के दरवाजे पर अपनी बारी के इंतजार में खड़े हो जाते है | आम पब्लिक के लिये, ताज़ के अंदर जाने और फिर बाहर आने का एक ही रास्ता है और दरवाजे पर पुलिस के सिपाही बड़ी मुस्तैदी से बारी बारी लोगों को अंदर जाने या बाहर आने का ईशारा करते है और आपकी बारी आने पर भीड़ का धक्का आपको ताज़महल के अंदर धकेल देता है | ताज़महल यदि बाहर से इतना बेहतरीन है तो अंदर से भी जरूर नूरानी होना चाहिए, मगर अफ़सोस ! इतनी भीड़ में आप ऐसा कुछ भी महसूस नही कर पाते, बस इसी भीड़ का हिस्सा बन कर घूमते जाते हैं | बीच-बीच में आपका गाईड आपको कुछ न कुछ दिखाने और बताने की कोशिश करता है, मगर अंदर की भीड़ और उमस इतनी ज्यादा है कि आप का मन कुछ देखना और समझना नही चाहता | एक जगह आपको बताया जाता है कि यहाँ मुमताज़ महल की कब्र का प्रतिरूप है, उसकी वास्तविक कब्र तो उस जगह से नीचे है, मगर वहाँ किसी को जाने नही दिया जाता | एक जगह आपको औरंगज़ेब द्वारा दिए गया दरवाजा भी दिखता है, जिसके मुकाबिल का बारीक संगमरमरी झीना पर्दा दुनिया में नही, वैसे तो औरंगज़ेब अपनी कट्टरता और निर्दयता के लिए इतिहास की किताबों में दर्ज़ है, पर यह उसकी शख्शीयत का इक दूसरा पहलू भी दर्शाता है | बस, यूँ ही कुछ ही देर में भीड़, उमस और घुटन के उस माहौल से बाहर निकलने की, फिर एक बार और जद्दोजहद होती है और फिर एक भीड़ के रेले के साथ आप अपने आपको खुली हवा में पाते हैं |
ताज़ की बाहरी आकृति तो बेहतरीन है ही, मगर वाकई में क्या ये केवल बाहर से ही सुंदर है ? उसे बनवाने और बनाने वालों ने उसके अंदर भी अदभुत सुन्दरता ना बिखेरी हो, और अपना सारा कला-कौशल इसके बाहरी भाग में ही खर्च दिया हो, ऐसा तो हो ही नही सकता ! इसके अंदर तो रूमानियत और मोहब्बत कूट-कूट कर भरी होनी चाहिये थी, मगर अफ़सोस ! या तो हमारी आँखें उसे ढूँढ नही पायी जा इतनी भीड़ के कारण हम ही उसे समझ नही पाये ! क्योंकि इतने लोगों में या तो आप अपने आस-पास बिखरे चेहरे ही देख पाते हैं या आगे-पीछे से लगने वाले धक्कों से ही खुद को महफूज करने की जुगत में लगे रहते हैं | वहाँ से बाहर निकलने के बाद, ये बात और भी ज्यादा शिद्दत से महसूस होती है |(फोटो 12, 13, 14, 16 17)
विशाल मीनारें, बेशुमार संगमरमर और उस पर की गयी लाशानी कलाकारी ना तो आप आँखों से भरपूर देख सकते हैं और ना ही आपके कैमरे की इतनी सामर्थ्य हो सकती है की इसकी सारी खूबसूरती अपने में समेट ले | ताज़ के दोनों और हुबहू एक जैसी दो और इमारतें हैं, जिनमे से एक मस्जिद है और दूसरा मेहमानखाना, जहाँ कभी शाही मेहमान रुकते होंगे | वैसे मस्जिद में आज भी नमाज़ अता की जाती है, अतः इस वजह से जुम्मे के दिन यानीं शुक्रवार को ताज़महल आम लोगों के लिए बंद रहता है | ताज़ के करीब से बहती हुई यमुना को देखना अदभुत है और पहाड़ों पर हुई इस साल हुई अच्छी बरसात की वजह से यमुना वाकई ही एक नदी की ही तरह से बह रही है | हमारा गाईड हमे यमुना के दूसरी तरफ कुछ खंडहर से दिखा कर बता रहा है कि नदी के दूसरे किनारे पर शाहजहाँ बिलकुल ऐसा है काले पत्थर का एक ताज़महल बनवाना चाहता था मगर उसे जल्द ही अपने ख़ाली हो चुके खज़ाने की वजह से इसे ऐसे ही छोड़ देना पड़ा | और आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं की यही वो दौर था जब यूरोप अपने सारे संसाधन नई तकनीकों,और खोज़ों पर लगा रहा था, अपने वैज्ञानिकों और नाविकों को प्रोत्साहित कर रहा था, तो उस दौर में हिन्दुस्तान के राजा-महराजा अपनी ऐय्याशियों और विलासिता के लिये नये-नये महल और भवन बनवा रहे थे, यदि गौर किया जाये तो हम में और उनमे सिर्फ इन पांच सौ सालों का ही फर्क पड़ गया है अन्यथा इस वक्त से पहले तक तो वो हमसे यदि पीछे ना सही तो एक बराबरी के स्तर पर ही थे |
इस गरमी के मौसम में ताज़महल घूमते हुए जिस चीज़ की आपको सबसे शिददत से जरूरत महेसूस हो सकती है वो है पानी ! ताज़ के प्राँगण में पानी उपलब्ध नही है और जो आपके पास था वो भी खत्म हो गया है | थकान, गरमी और प्यास सब पर इस कद्र हावी हो चुकी है की हम सब अब वापिस लौटने का फैसला करते हैं | ताज़ की सीढ़ीयाँ उतर, जब आप नीचे के बगीचे में आते हैं तो आपका साबका बहुतेरे ऐसे परेशान से लोगों से होता है, जिन्होंने शू कवर नही लिए थे सो उन्हें अपने जूते वहीं पार्क में रखे गये शू-रैक में रखने पड़े थे, अब या तो उन्हें वो जगह याद नही आ रही जहाँ उन्हों ने जूते रखे थे या फिर उन के जूतों पर किसी और का दिल आ गया था… हमारे आपके शहरों के मन्दिरों, गुरुद्वारों में ऐसे हलकान से होते चेहरे अक्सर दिख जाते हैं |
पार्किंग तक वापिस जाने के लिए इस दफा हम ऊँट गाड़ी का चुनाव करते हैं, मगर इसमें वो मज़ा और रोमांच नही था, जो तांगे में था ! पार्किंग में पहुँच, अब गाईड को विदा कर दिया जाता है हालाँकि उसकी बड़ी तमन्ना थी कि वो अभी हमारे साथ ही रुक कर हमे आगरा की कुछ यादगारी चीज़ें और पेठा, ऐसी दूकानों से खरीदवा दे, जहाँ अक्सर पर्यटक जाते हैं, मगर उसका यहाँ तक के सफ़र के लिये शुक्रिया अदा कर, यहाँ से आगे का चार्ज हम स्वयम ले लेते हैं, और फिर अपनी पसंद की दुकानों से अपनी-अपनी जरूरत की चीज़ें खरीद कर आगरा शहर को विदा करते हुए राजमार्ग अर्थात दिल्ली वाले हाईवे पर आ जाते हैं…..
Avtar Singh Ji , very nice post indeed written in your typical style,
Sir, that “diljala shayar” was Sahir Ludhianvi who was much more than sirf diljala shayar, a great poet and he had sais these words from the angle of communism. That black Tajmahal exists in form of ” Bibi ka Makbara” in Aurangabad, conceptualized by Aurengzeb.
Great….. Rakesh Bawa ji for your insightful updating. No denial for the greatness of Sahir, I, too, a big fan of his writings. But at the same time it is also true that the amazing monuments like this one or any other can be built by only the aristocratic emperors. Thanks for reading and providing valuable informations.
hi Avtar. beautiful post,nicely written supported with very beautiful photographs.you have rightly pointed out how India was busy with buildings while Europe kept inventing newer and newer things,and that really put them up far above our beloved India.good and commendable research as well as an eye opener.
Thanx ashok sharma ji for your kind and nice words…. the credit for some pics also goes to my friend Tyagi ji too.
Avtar jee , very nice and intersting post written in beautiful style, I visited the Taj many years ago, Now I am planning to visit again. Lot of fresh knowledge gained through your post. One thing I want to know about make and model of your camera as your photographs are very beautiful.
Regards
Thanx Tejinder Singh ji for your lovely words.
Sir, nowadays all the digital cameras give nice results, so don’t worry and just click. You will be surprised to know that I just have a very basic Sony cyber shot digital camera(point and shoot)…Wish you all the good luck…!!!
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Thanx a lot for your encouraging words. Silent Soul…these are really helpful. I do agree with you for the cases of stolen children. A few days back I read a post on fb, how a whole network is operating for this, even there are some families of JJ colonies, who provide the children on rent. These operators use marphin and other drugs on these children, so they never weep, and if you notice them, you will find them sleeping whole day long, which is not at possible for a normal child.
By the way Tajinder ji, its Sony DSC H 70… keep clicking!!!
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Thanx Ritesh Ji . I was waiting for your comment, since the day it published. We did not get the water there as many others but it does not matter much… some times it feels even better when native people correct you… My sincere thanx for nice words.
Hi Avtarji,
Great writeup and photos of Taj Mahal!
Everytime I read about Taj Mahal I kick myself for not seeing Taj.
So again – Note to me: Go see Taj!
Yes the cenotaphs or tombstones are usually on the upper level and the actual graves below or physically someplace else.
Rakeshji, Bibi ka Makbara cannot be black Taj Mahal – It is just a white miniature version of Taj Mahal. Aurangzeb did not give enough money to his son who wanted to build it for his mother. So very little marble is used.
Thanx a lot Nirdesh ji for your nice and informative words. You are not just a Ghummakar but a Historian too…. your post on various domes of Mugal emperors reflects your deep knowledge and interest on the subject.
Mr. Singh, thank you for sharing your experience about Taj, in your own original style.
You have raised a very valid point around begging. I agree with SS that if we stop giving money, it would gradually cease to happen. If at all, then may be give some thing to eat but never give liquid money. It is indeed a big racket.
I sincerely wish that we catch up on hundreds of years, which we lost. Yesterday, tens of pilgrims died on account of non-awareness, lack of safety infra – education in Bihar. In today’s morning paper, I read that in Japan , no rail accident has been reported in last 50 years.
Your travel log indeed goes beyond a regular travel experience log and makes us look around in different perspectives. Thank you.
Thanx Nandan for your words, I do hope with the spreading of education, people here too adopt themselves in some decent means of livelihood rather than begging etc.
Your words definetly provide much needed dose of appreciation. Thanx once again.
Singh Sa’ab,
Superb post with amazing, beautiful pictures. The fragrance of romance blended so well with nostalgia.
I want to know more about the ‘optical illusion’ from the picture.
And it is so sad that the most visited places of India – Agra and Jaipur – are SO hostile, corrupt and deceiving with the tourists. Our last visit to that area encountered such a bad incident of hooliganism that I swore never to visit the ‘Braj’ area unless required for business reasons! All for a large set of people who are on the roads to fleece the innocent, well meaning travelers. But when I read your post, the beauty of Taj rekindled and the earlier feeling mellowed :-)
It is hard to look away from the suffering beggars but is so important to refrain from giving them any money. Am glad that more people agree with the logic.
Thank you, and SS, for the message to all readers.
Many thanx Smita ji for your kind words for the post and I do agree for the concerns you raised over the problems of stolen children and other types of crooks on the roads on such places.
I am sorry to know about your bad experiences in the braj area…., we usually prefer our own vehicle for travelling and it helps us a lot to avoid many things etc.
Optical illusion helps in confusing our mind, so it does not easily distinguish between perception and perspective. Here the first look itself is an example of it, as you first see it from the entrance, you see only the basic structure and then when you encounter with the dooms, the whole monument suddenly looks so grand and vast!
Smita ji, the one pic here depicts optical illusion shows the depth in white and yellow marble tiles, but if you see it closely, the wall is all plain. Due to space constraints, I could not post more pics on it. Although this place has many architectural wonders and geometry patterns to mesmerize the viewer
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Hi Kamlansh ji,
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Many thanx for every word of yours…
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Many thanx for showing great observation and suggesting the right word for the caption.
If admin finds it appropriate the use of ??????? more accurate then they are free to change it .Thanx again.
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Avtarji sirf eko gal kehnda haan “Ultimate” Bhaji Maza aa gaya pad ke. Superb. am planning Trip to Taj On 14th April. I know it will be hot but to see The Taj in Full Moon is long time wish which may be full filled this time. Bhaji plz let me know the contact details of your guide if possible. It will be helpful.Than veerji for sharing ur experience.
Dear Yadvinder ji
Thanx for liking the post. Wish you all the fun for your proposed trip to Taj.
Although I am not sure if it opens in the night too.
I have whatsoever no objection to pass the contact number of the guide to pass on you. Please drop a mail to my id, I will provide you the number. Although, there is hardly any difference as for as the knowledge of guides are concerned. All of them have same set of knowledge.
Any way my id is – pahwaas2008@gmail.com
Thanx for reading and appreciating.