चोखी-ढाणी, पुलिया और राम-राम सा का देस: जयपुर

भारत भूमि के हृदय स्थल में स्थित राजपूताना यूँ तो दुनिया भर में अपने राजपूत राजायों की शौर्य-गाथायों और किलों के कारण प्रसिद्ध रहा है, लेकिन बदलते वक्त के साथ जब आवागमन के साधन सुलभ होने लगें हैं और प्रत्येक परिवार के कैलेन्डर में छुट्टियों में कहीं घूमने जाने का अर्थ केवल अपने दादा-दादी और नाना-नानी के शहर और गाँव जाना ही नही रह गया है तो ऐसे में जुगनुओं और पत्थरों का यह रेतीला प्रदेश उनकी प्राथमिकता सूची में अपना स्थान कहीं ऊपर बना गया है | क्षेत्रफल के नज़रिये से सबसे बड़ा और कभी राजपूत, जाट, अहीर, भील, मीणा और अन्य जातियों द्वारा समय-समय पर शाषित ये राज्य, आज अपने भव्य महलों, दुर्गम किलों, विशाल हवेलियों, अदभुत बाड़ियों, रेत के विशाल समुन्दर और रंग बिरंगे परिधानों के कारण लम्बे समय से देशी-विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र रहा है | ऐसे में यदि आप राजस्थान की धरती पर पाँव रखते हैं तो घनी लम्बी मूंछों वाले, सर पर रंग बिरंगी पगड़ी सजाये हुए, कुछ अलग से प्रकार में धोती और कुर्ता में सजे मर्द तथा शीशे और गोट्टे के कसीदाकारी वाले लहंगा चोली और कोहनी से ऊपर तक कंगन पहनी औरतें बरबस ही आपका ध्यान अपनी तरफ खींच लेते हैं | चुनरी राजस्थानी औरतों का एक और मुख्य परिधान है और जितनी नाना रंगो से परिपूर्ण चुनरियाँ या आप उसे औद्नी भी कह सकते है, आप धरती के इस भाग में पा सकते हैं शायद उतने विविधता पूर्ण रंगों का ऐसा अदभुत संयोजन तो पूरे भारत वर्ष के रंगरेज़ मिलकर भी नही बना पाते होंगे | ऐसा लगता है अपनी भौगोलिक परीस्थितीयों के कारण रेत के धूसर रंग में नहाया ये प्रदेश अपनी एकरसता के साथ ही अपनी नीरव और निर्जीव प्रकृति के अभिशाप को अपने चटीले रंगो से भर लेना चाहता है | यदि जयपुर अपने गुलाबी रंग के लिये जाना जाता है तो जोधपुर नीले ! ये हल्के मगर चटकीले रंग सूरज की किरणों को परिवर्तित जो कर देते हैं, और काफी हद तक गरमी के प्रकोप से बच जाते हैं ! ऐसे क्षेत्र अपनी दुर्दशा पर आंसू नही बहाते कि क्यूँ कुदरत ने उन्हें उन नियामतों से महरूम रखा है जो दूसरे प्रदेशों के लोगों को सहज ही उपलब्द हैं अपितु ये तो अपनी रेत को भी मानव-निर्मित रंगों से सरोबार कर देने का जज्बा रखते है | शायद विकट परीस्थितीयां ही मनुष्य को कुछ मौलिक करने की प्रेरणा देती हैं और निश्चित रूप से राजस्थान आपकी अपेक्षायों पर सौ फीसदी खरा उतरता है | यहाँ-यहाँ प्रकृति मनुष्य को कदम दर कदम परीक्षाओं में उलझाती है, जीवन व्यतीत करने के सभी साधन दुर्गम बना देती हैं तो ऐसे में यदि कोई प्रदेश और और उसके वाशिंदे जीवट वालें हैं तो वो उन दुर्गम परीस्थितीयों से ना घबराते हैं और ना उनसे लड़ने की चेष्टा करते हैं अपितु ऐसी दुरूह परीस्थितियों को ही अपना सहचर बना उनके साथ अपना सामंजस्य स्थापित कर लेते है | देशी विदेशी पर्यटकों के लिये ये भी राहत की बात है कि यह प्रदेश चरित्र में भी सद्धावी है, परम्परायों से जुड़ा हुआ है और इसका एहसास जल्द ही आपको स्वयम भी हो जाता है |

गणेश जी के मन्दिर में

गणेश जी के मन्दिर में


ऐसे में जब हमे मूल रूप से गुड़गांव के ही रहने वाले सोमेश ने (जो फिलहाल जयपुर के ANG Bank में है }, कि आनन-फानन में ही त्यागी जी के साथ जयपुर का प्रोग्राम बना लिया गया, क्यूंकि दिल्ली-जयपुर हाईवे इस समय अपने दुर्दिनो से गुजर रहा है, अत: अपनी कार से जाने का इरादा छोड़, सोमेश के ही सुझावानुसार हमने जाने कि टिकटें डबल डेकर से और वापिसी की अज़मेर शताब्दी से बुक भी करवा दी, वैसे भी जयपुर जाने वाली बहुत सी गाड़ियां गुडगाँव से ही होकर गुजरती हैं | सोमेश अपने बैंक में आडिट के कारण हमारा साथ नही दे पायेगा पर वो वहाँ हमे अपनी कार दे देगा घूमने के लिए, ये भी पूर्व निर्धारित था, इस व्यवस्था को देखते हुए हमने अजमेर और पुष्कर को भी अपने गंतव्य स्थानों की फेरहिस्त में जोड़ लिया | चूंकि सोमेश का परिवार जयपुर में ना रहकर गुडगाँव में ही रहता है, अत: यही निश्चित हुआ कि बच्चों के लिए कुछ रेडिमेड स्नैक्स रख लिए जाये और फिर सुबह की एक कप चाय के बाद हम यायावर, सोमेश को पीछे छोड़ अपने रास्ते खुद तलाशेंगे | रोमांचक है ना एक नितांत अजनबी शहर में खुद ही सब कुछ ! उस ढ़ूंढ़ने के प्रक्रम में ही आप ऐसा बहुत कुछ पा लेते हैं जो आपकी पूर्वनियोजित प्राथमिकताओं में नही होता ! मसलन कैसा मिज़ाज़ है इस शहर का ? कैसी है इस शहर के आम वासी की बोली ? कैसा स्वभाव है इस शहर के लोगों का ? कहीं रास्ता पूछते-पूछते अचानक से आपको कोई ख़ौमचे वाला कुछ ऐसा बेचता नजर आ जाता है जो एकदम से आपके मन को भा जाता है… कितना कुछ ऐसा होता है जो आप सोचते नही, पा भर लेते हैं, अकस्मात ही से अपने अवचेतन में….

हरियाणा तो हरियाणा है खड़ी बोली का प्रान्त, पर राजस्थान की धरती पर पाँव धरते ही जो सबसे पहली सुमधुर ध्वनि आपके कानों में पड़ते ही, आपका ध्यान बरबस ही अपनी तरफ खींच लेती है वो है, “राम-राम सा” की | आते-जाते, मिलते-जुलते हर जगह “राम-राम सा…”, अच्छा लगता है सुनकर ! हालाँकि ये भी सच है कि अब बाज़ार ने भी इस अभिवादन को अपनी मार्केटिंग के एक औजार के रूप में अपना लिया है और ज्यादातर उनके निचले स्तर के कर्मचारी ही इस का प्रयोग करते है, पर निस्ंदेह फिर भी इसे सुनना एक अच्छा अनुभव है ! बोली का ही एक और अनुपम इस्तेमाल है यहाँ, जैसे जिस जगह को हम फ्लाईओवर के नाम से जानते हैं, और हिंदी और इंग्लिश दोनों में ही अब तो ये शब्द समानार्थी हो चुका है, पर यहाँ तो केवल उसके लिए एक ही शब्द ‘पुलिया’ है, और समाज का हर वर्ग केवल पुलिया शब्द का ही प्रयोग करता है | तो कुछ ऐसा है कि जयपुर की सडकों पर पुलिया बहुत हैं और जब आप किसी से रास्ता पूछते हैं तो अपने खास अंदाज़ में वो आपको बताता है कि आगे आप को एक पुलिया मिल जाएगी उस पुलिया से चढ़कर फिर आगे एक और पुलिया आएगी उस पर नही चढ़ना, उलटे हाथ को ले लेना है फिर आगे से जो मोड़ आएगा उस तरफ मुड़ जाना है… हाँ-हाँ पुलिया के नीचे से…! पुलिया एक और मजेदार ज़ायका है इस शहर का !

बात जब सड़क की हो रही है तो ट्रेफ्फिक और पुलिस की भी कर लें, यूँ लगता है जैसे जयपुर का सारा पुलिस अमला केवल परिवहन की व्यवस्था के लिए ही जिम्मेदार हो ! और ऐसे में यदि आपकी गाडी की नम्बर-प्लेट हरियाणा की है तो सावधान रहिये ! सीट-बेल्ट, मोबाइल पर बात करना, रेड लाइट पार कर जाना… भले ही आपके आस-पास से राजस्थान की अनेक गाड़ियाँ निकल जाएँ पर रोका केवल आपको ही जाएगा ! जयपुर में ऐसे बहुत से खट्टे-मीठे अनुभव हुए और कई बार तो ना चाहते हुए कुछ समझौते भी करने पड़े, एक तो पराया शहर, ऊपर से गाड़ी किसी और की… अपना शहर हो तो झेल भी लें पर यहाँ… समय की भी बंदिश है, परिवार भी साथ है, और इस कमज़ोर नस को हमारे भाई लोग भी बखूबी पहचानते हैं… एक बार तो थक हार कर एक हवलदार से तंज़ भी करना पड़ा, यूँ तो कहते हो ‘पधारो म्हारे देस’ और जब कोई सचमुच पधार ही जाये तो सारे मिलकर उसे लूटने में ही लग जाते हो…. बहरहाल ये बातें तो देश के हर हिस्से में हर किसी के साथ घटती ही रहती हैं, तो आइये अब आगे बढ़ते हैं…

चलिए ऐसा करते हैं, ज़रा शुरू से शुरुआत करते हैं, सोमेश एक छोटे भाई के अलावा एक बेहतरीन मेहमान नवाज़ भी निकला और साफ़ कह दिया कि बिना नाश्ते के नही जाना, दो-दो भाभियाँ हैं मिलकर बना लेंगी बाकी दिन भर आप जो मर्जी खाते रहना और फिर उसने हमे एक कागज़ पर घूमने की जगहों के अलावा उन सभी मशहूर जगहों और खान-पान के ठिकानों का पता भी दे दिया जो जयपुर में अपनी विशिष्टता रखते हैं ! इनमे से सबसे बेहतरीन था ‘स्टेचू सर्कल’ पर रात को क़ाफ़ी पीते हुये ‘हैंग आउट’ करना, जिसे आप जयपुर का मिनी इंडिया-गेट भी कह सकते हैं | सवाई जय सिंह का बुत लगा यह चौक स्थानीय तथा पर्यटकों के लिये एक प्रमुख आकर्षण का केंद्र है |

जयपुर के स्टेचू चौक पर

जयपुर के स्टेचू चौक पर

त्यागी जी और सोमेश के साथ

त्यागी जी और सोमेश के साथ

जयपुर की सुबह होती है गणेश जी के साथ…. वैसे मेट्रो शहरों के मुकाबले ये शहर सोता जल्दी है और जागता देर से !, दिल्ली वालों के मुकाबले थोड़ा शांत और आराम परस्त शहर है ! खैर, जाने दीजीये, थोड़ा आगे बढ़ते हैं, तो प्रत्येक शहर का अपना एक आराध्य होता है, और जयपुर के आराध्य देवता है गणेश ! हर गली, नुक्कड़ और चौराहे पर आपको गणेश जी के मन्दिर मिल जायेंगे, ये शहर अपनी इमारतों के अलावा सोने-चाँदी और हीरे के व्यापार के लिए भी अपना नाम रखता है, अत: ऐसे में धन और समृधि से जुड़े एक देवता के प्रति आसक्ति इस शहर के लोगों में होना कोई अकारण नही ! अंग्रेजी में एक कहावत है ना, “ When in Rome, do as Romans do.” तो इसे चरितार्थ करते हुए हमने भी सबसे पहले गणेश जी से आशीर्वाद लिया और फिर निकल पड़े इस शहर को खोजने !

जयपुर में गणेश जी के मन्दिर के बाहर

जयपुर में गणेश जी के मन्दिर के बाहर

राजा जय सिंह द्वारा 1727 में निर्मित ये शहर ‘गुलाबी शहर’ के नाम से तब से जाना लगा जब 1876 में जयपुर के तात्कालिक राजा राम सिंह ने वेल्स के राजकुमार के सम्मान में, कुछ अलग करने की चेष्टा रखते हुये, पूरे शहर के भवनों को एक ही रंग में रंगवा दिया | इस धरती का तो रंगो से कुछ ऐसा मोह कि पूरा शहर ही इक रंग में घुलमिल गया, कोई ऐसा भी दौर था जब जयपुर की हर इमारत ही गुलाबी थी, पर आज निजी तो नही, हाँ अधिकतर सरकारी भवन आपको गुलाबी या यूँ कहें टेरीकोटा के रंग में रंगे इसे गुलाबी नगरी कहलाने का गौरव तो देते ही हैं | अब जयपुर चूंकि एक पर्यटक शहर है और ऊपर से राजधानी भी तो स्वाभाविक है कि शहर का ज़लवा कुछ अलग होगा ही | बाज़ार, आपको सामान से लदे-फदे भी नज़र आयेंगे और रंग-बिरंगे भी ! आस-पास ही छितरे हुए बाज़ार हैं, जिनमे से MI रोड तो अपने आभूषणों की दुकानों के लिये विख्यात है ही और आपकी जेब पर भी बहुत भारी !, इसका अनुभव हमे कुछ देर में जाकर हुया ! ये औरतों को गहनों का इतना शौक क्यूँ होता है??? जयपुर की धरती पर पाँव धरते ही पहला ही झटका वो भी इतना ज़ोर का ! अत: वहाँ से जौहरी बाज़ार में आते ही हमने उन्हें उनके मनपसंद कामों में छोड़कर बच्चों और त्यागी जी के साथ अलग राह ले ली |

ज़ौहरी बाज़ार, दिल्ली के करोलबाग की तरह का ही जयपुर का एक मशहूर बाज़ार हैं, यहाँ भी उसी तरह सडक पर दुकानों के आगे ही पार्किंग हो जाती है | ये बाज़ार स्थानीय और पर्यटकों दोनों में समान रूप से लोकप्रिय हैं, अत: कुछ कपड़ों और चादरों इत्यादि की खरीदारी तो अपेक्षित थी ही, और एक परिवार में होने के कारण आप इस से बच भी नही सकते ! अत: बेहतर यही होता है कि ऐसे में चुपचाप रहो और यदि देखा नही जाता तो एक्सपर्ट लोगों को उनके काम में छोड़ कर यहाँ-वहाँ भटक लो, मगर ज्यादा दूर भी ना निकल जाएँ क्यूंकि बहुत जल्दी-जल्दी उन्हें आप की जरूरत पड़ती रहती है अपनी पसंद पर (ही) आपकी रजामंदी की मोहर लगवाने के लिए भी और जेब ढीली करने के लिये भी !

ऐसे ही कुछ लम्हों का प्रयोग किया हमने जयपुर की रौनक देखने के लिये… एक विश्व-विख्यात पर्यटक स्थल … इसलिए सुविधाएँ होना तो स्वाभाविक ही है, सड़कें साफ़-सुथरी और काफी चौड़ी हैं, जगह-जगह ट्रेफ्फिक लाइट्स भी हैं, लेकिन भीड़-भड़क्का भी कम नही | खाने-पीने के शोकीनों के लिए काफी कुछ है, मगर अधिकतर शाकाहारी… और खोमचे वाले कई तरह के स्वाद आपको परोसते है, पर जयपुर के लोग तीखा बहुत खाते है, मसाले नही केवल लाल मिर्च का उपयोग, वो भी बहुत ही ज्यादा ! ऐसा क्यूँ, सोमेश ने समझाया, “जयपुर में पानी कम भी है और ख़ारा भी अत: मिर्च दोनों की कमी को पूरा करती है |” ज़ौहरी बाज़ार में ही आपको मिलता है ‘हवा महल’ जो तस्वीरों में तो बेहतरीन दिखता है पर यूँ एकदम से बीच बाज़ार में होने के कारण, अपना वो आकर्षण तथा महत्व खो बैठा है जिसका वो हक़दार है | अंदर आप जा नही सकते, बस सड़क किनारे से अपनी उपस्थिति की फोटो ही दर्ज़ करवा सकते हैं, भीड़-भाड़ के समय तो शायद लोग इसकी तरफ देखना भी भूल जाते होंगे, काश! ये किसी अन्य खुले स्थान पर होता, तो कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण होता ! जौहरी बाज़ार अपनी, दुकानों और हवा महल के अलावा जिस एक और वजह से जाना जाता है वो है LMB यानी लक्ष्मी मिष्ठान भण्डार, जिसे सोमेश के विशेष आग्रह पर हमने लंच के लिए रखा, महंगा तो निश्चित रूप से है, पर अपने ख़ाने की वजह से है बेहतरीन ! और फिर जब, बड़ी चौपड़ से लेकर, बापू बाज़ार और नेहरु बाज़ार तक घूम लेते हैं तो सोमेश द्वारा ही बताई गयी ‘रावत मिष्ठान भण्डार’ प्याज़ वाली कचौड़ियो का स्वाद लेने के लिए एक मज़ेदार स्थान है |

हवा महल, बीच बाज़ार में

हवा महल, बीच बाज़ार में

ढेर सारी खरीदारी और पेट भर कर खाने के बाद, बाज़ार से निकल कुछ दूर जाने का मन कर गया तो हम निकल पड़े टोंक की तरफ, यहाँ हमे संगमरमर की मूर्तियाँ बनाने वाली एक वर्कशॉप मिली, जिनके द्वारा बनायी गयी अनेको शिल्प कृतियों का प्रयोग कई बालीवुड फिल्मो और टीवी धारावाहिकों में हो चुका है, देश-विदेश के कई मन्दिर तथा अन्य उच्च आय वर्ग के लोग भी अपने पूजा घरों के लिये यहाँ से मूर्तियाँ बनवाते हैं, जिनकी कीमत लाखों तक में होती है | अब समय था, अपने लिए भी यहाँ से कुछ खरीदारी करने का !

जयपुर की वर्कशाप में राम दरबार, on order

जयपुर की वर्कशाप में राम दरबार, on order

पत्थर की बनी बेहतरीन मूर्तियाँ

पत्थर की बनी बेहतरीन मूर्तियाँ

बुद्ध तो सदा से कलाकारों के मनपसन्द subject रहे ही हैं

बुद्ध तो सदा से कलाकारों के मनपसन्द subject रहे ही हैं

आप जयपुर जाएँ और चोखी ढाणी ना जाएँ ये तो हो नही सकता पर सोमेश ने हमे पहले ही आगाह कर दिया था कि राजस्थानी रंग और नृत्य देखने के लिए तो बढ़िया है, पर खाने से ज्यादा उम्मीद न रखें ! कोई बात नही कम से कम आपको एक थाली में यदि सारे राजस्थानी ज़ायके एक साथ मिल जाएँ तो कुछ ऐसा बुरा भी नही ! तो साहब पूरा दिन शहर भटकने के बाद अब बारी थी चोखी ढाणी की, सो शाम ढलते ही हमने अपनी गाड़ी का रुख मोड़ दिया चोखी ढाणी की तरफ…

चोखी ढाणी, प्रवेश से पहले

चोखी ढाणी, प्रवेश से पहले

मारवाड़ी वेशभूषा में मुनीम जी

मारवाड़ी वेशभूषा में मुनीम जी

 यूँ तिलक लगा कर आपके आगमन का एहतेराम किया जाता है यहाँ

यूँ तिलक लगा कर आपके आगमन का एहतेराम किया जाता है यहाँ

जयपुर शहर से तकरीबन 10-12 किमी दूर टोंक रोड पर 1989 में स्थापित 10 एकड़ में फैला हुया ये स्थान एक पूरे राजस्थानी गाँव की अनुकृति है | प्रवेश द्वार पर रिसेप्शन की ज़गह एक मुनीमजी ठेठ मारवाड़ी पहरावे में अपने काम में मग्न मिलेगें | प्रवेश शुल्क में ही आपके खाने की कीमत जुड़ी है, मगर अंदर खाने की कुछ चीज़ें और ऊँट-हाथी की सवारी इत्यादि के पैसे अलग से लगते हैं | खैर, अंदर प्रवेश करते ही तिलक लगाकर आपका इस्तकब़ाल किया जाता है, और फिर आप आज़ाद हैं, अपनी मर्जी के मुताबिक यहाँ वहाँ घूमने और फ़ोटो खींचने के | थोड़ी-थोड़ी सी दूरी पर कई मंडप और स्टेज हैं जहाँ राजस्थान के विभिन्न इलाकों के लोक-नृत्य चलते रहते हैं, हालाँकि स्वाभाविक रूप से ‘कालबेलिया’ की मक़बूलियत सबसे अधिक है, और ‘इला अरुण’ के गाये गानों के साथ नौजवानों के बड़े झुरमुट आपको उधर ही नज़र आयेगें, जो खुद भी उनके साथ डाँस कर रहे हैं | इसके अलावा कहीं रस्सी पर चलने वाले नट हैं, तो कहीं कठपुतली का खेल चल रहा है, एक जगह कोई जादूगर अपने हाथ की सफाई दिखा आपको मोहित करता है तो कहीं कोई फुटपाथ पर बैठने वाला ज्योतिषी अपने तोते से आपकी किस्मत का कार्ड खोल सकता है | मेहँदी और टैट्टू के कलाकार भी हैं और बच्चों के लिए कई तरह की सवारियां भी और साथ में गाँव-देहात के मेलों में लगने वाले खेल भी…. अपने बचपन में शहर देहात में लगने वाले मेले याद है आपको, जब बड़े चाव से आप छर्रे वाली बंदूक से गुब्बारे फोड़ते थे या 3 गेंदों में आपको एक मेज़ पर लगे कुछ गिलास गिराने होते थे…. बस, ऐसे ही कुछ गुज़रे हुए लम्हों को यहाँ एक ही ज़गह पर फ़िर से संजो दिया गया है… जब आप किसी बच्चे को लकड़ी के एक बक्सेनुमा डब्बे में गोल डक्कन वाले शीशे में दोनों हाथों के घेरे में अपनी आँखे उस के अंदर गढ़ाये देखते हैं तो एक बालसुलभ मुस्कान आपके चेहरे पर भी छा जाती है, जैसे कुछ भूला हुया सा याद आ जाता है, और आप बड़े चाव से बच्चों को बताना चाहते हो कि कभी आपके बचपन में आप कैसे 10 पैसे या एक कटोरी आटे के बदले ये सब देखते थे और कैसे गर्मियों की भरी-दोपहरी इंतज़ार रहता था ऐसे सभी मदारियों और कलंदरों का जो उस दौर में हमे ख़ुशी के वो पल मुहैया करवाते थे जिन्हें आज टीवी और कम्पूयटर ने बच्चों से महरूम कर दिया है |

रौशनी का कम से कम प्रयोग है, जिस से आप असली गाँव जैसा महसूस कर पायें

रौशनी का कम से कम प्रयोग है, जिस से आप असली गाँव जैसा महसूस कर पायें

हाथी की सवारी तुषार, रावी और पारस

हाथी की सवारी तुषार, रावी और पारस

राजस्थानी लोक-संगीत

राजस्थानी लोक-संगीत

राजस्थानी लोक नृत्य

राजस्थानी लोक नृत्य

कालबेलिया नृत्य करते लोक नर्तक

कालबेलिया नृत्य करते लोक नर्तक

बीच-बीच में कुछ खाने के स्टाल भी हैं, इनमे से कुछ आपकी टिकट में ही समायोजित हैं तो कुछ के दाम अलग से चुकाने पड़ते है, गोलगप्पे तो खैर, सदियों से हम हिन्दुस्तानी जीभों की एक कमज़ोरी बने ही हुयें हें, इसलिए अकारण नही कि आप सबसे ज्यादा भीढ़ भी वहीं देखें पर मुझे जिस चीज़ ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो था जलज़ीरा और भुट्टे की कीस, जो हमारे लिए नई भी थी और अपने स्वाद में बेझोड़ भी ! जैसे, आजकल की किसी भी शादी में आपको हर तरह के स्टाल मिल जाते हैं ना, कुछ उसी तरह से जितने भी राजस्थानी पक़वान हैं, उनका जायका आप यहाँ ले सकते हैं |

इसी के भीतर एक छोटा सा बाज़ार भी है, जहाँ आपके परिवार की महिलायों का सबसे ज्यादा समय बीतने वाला है, घूमना, खाना बाद में देखा जायेगा पहले कुछ खरीदारी तो हो जाये! वो सब शापिंग की चीज़े, जिनके लिए जयपुर या यूँ कहें राजस्थान जाना जाता है, अपने हस्तशिल्प से लेकर नाना प्रकार की कलाकृतियों तक सब यहाँ उपलब्द हैं, और दाम भी लगभग बाज़ार के समान ही हैं, बस मोल-भाव की सुविधा नही है, जिसके बिना हमारा पक्का हिन्दुस्तानी मन कुछ निराश जरूर होता है, पर क्या है ना कि यहाँ सब कर्मचारी ही हैं, अत: उन्हें अंकित मूल्य पर ही बेचना पड़ता है ! वैसे मेरा यहाँ की मैनेजमेंट को एक विनम्र सुझाव है कि यदि वो दाम 20 फीसदी बढ़ा कर फिर 10 से 20 फीसदी मोल-भाव की छूट दे दें तो उनकी बिक्री भी बढ़ जायेगी और मुनाफ़ा भी !

इतने रंगो के बीच मेहँदी का रंग भी जुड़ गया है

इतने रंगो के बीच मेहँदी का रंग भी जुड़ गया है

 पता नही ये कलाकार क्या सोचते होंगे हमारे बारे में, पर हम तो उनकी कला कि दिल से कद्र करते हैं

पता नही ये कलाकार क्या सोचते होंगे हमारे बारे में, पर हम तो उनकी कला कि दिल से कद्र करते हैं

बोल री कठपुतली रानी ...

बोल री कठपुतली रानी …

समय जैसे लौट कर आ गया हो छर्रे वाली बंदूक के साथ

समय जैसे लौट कर आ गया हो छर्रे वाली बंदूक के साथ

आपके टिकट पर ही खाने का समय भी अंकित होता है, हालाँकि अपनी सुविधानुसार आप इसे परिवर्तित करा सकते हैं, इस मामले में यहाँ के कर्मचारी सहयोगी हैं | खाना खिलाने के लिए दो हाल हैं और ज्यादा भीड़ होने पर बाहर खुले में खिलाने की सुविधा भी है |

अपनी पर्ची दिखा जब आप हाल में प्रवेश करते है तो राम-राम-सा के अभिवादन के साथ गर्मजोशी से आपका स्वागत होता है | बड़ा सा झोपड़ीनुमा हाल है जिसमे पारम्परिक ढंग से नीचे बैठने की व्यवस्था है, खाना आपको पत्तों की थाली में परोसा जाता है | परम्परागत राजस्थानी खाने की शुरुआत ‘सांगरी’ से होती है, जिसका अपना एक अलग ऐतिहासिक महत्व है और फिर दौर चल पड़ता है दाल, कड़ी-गट्टे की सब्जी, खिचड़ी, दाल-भाटी-चूरमा, खीर, पापड़, दो-तीन अलग-अलग प्रकार के अनाजों की पूड़ी के आकार की छोटी-छोटी रोटीयां साथ में घी-मक्खन भी है, पीने को पानी के साथ पतली सी नमकीन लस्सी भी मिट्टी के गिलासों में, और मीठे में मालपुआ ! स्टाफ मेहरबान है और अपने बर्तनों में सामान लिये उनके दौर बार-बार चलते रहते हैं, और आप राजस्थान की इस आवभगत और मेज़बानी का आनंद उठा सकते हैं | हालाँकि खाना पूर्णतय: शाकाहारी है मगर औसत दर्जे का ही है | हाँ, खाना परोसने वाला स्टाफ ज्ररूर ज़ोश से भरा है और बार-बार आपसे शिकायत भी करता है कि हुकुम, आप तो कुछ खा ही नही रहे ! मगर खाने से ज्यादा यहाँ का अनुभव अधिक मज़ेदार है, एक ही छत के नीचे सौ से अधिक लोग एक साथ मिल बैठ कर खा रहे हैं और सम्भवत: उनमे से अधिकतर राजस्थान से बाहर के ही होंगे इसलिये सभी अपने इस अनुभव को संजो कर रख लेना चाहते है, अत: हाल की मद्धिम सी रौशनी में बार-बार यहाँ वहाँ से कैमरों की फ्लेश-लाइट चोंधिया रहीं है |

राजस्थानी मेहमाननवाज़ी चोखी ढाणी में

राजस्थानी मेहमाननवाज़ी चोखी ढाणी में

यहाँ खाना भले ही कैसा ही हो मगर एक अनुभव तो है ही

यहाँ खाना भले ही कैसा ही हो मगर एक अनुभव तो है ही

खाने के बाद आपके विश्राम के लिए यहाँ-तहाँ खाट बिछी हैं आप आराम से उन पर लेट कर अपने उन पुराने दिनों को याद कर सकते हैं जब आंगन में या घर की छतों पर ऐसी ही खाटें बिछती थी और हर एक पर बच्चों और बड़ों के अपने अपने झुण्ड बैठ कर घर परिवार से लेकर गली-मौहल्ले की सारी गा़सिप के साथ-साथ दुनियादारी के सारे राज़ भी बयाँ करते थे, और बच्चे ऐसे ही परिवेश में अपने दादा/दादी या नाना/ नानी से राजा-रानी से लेकर गुज़रे जमानें की उन तमाम कहानियों और अफ़सानों को रोज़ दर रोज़ बार-बार सुनते थे पर कभी उकताते नही थे !

चलो ऐसे ही कुछ पलों को यादगार बना लिया जाये

चलो ऐसे ही कुछ पलों को यादगार बना लिया जाये

कुछ सुस्ता लें फिर घर जायेंगे हम

कुछ सुस्ता लें फिर घर जायेंगे हम

और फिर लगभग रात के 10-11 बजे तक आप इसी खाट पर लेते-लेते अपने वर्तमान से अतीत की यात्रा आराम से कर सकते हो | जीवन के अब तक के सफ़र में क्या खोया, क्या पाया… पाया कम या खोया ज्यादा… वो लम्हे जो किसी भूले-बिसरे की याद दिला आपकी आँखों में एक हल्की सी नमी की परत घोल देते हैं, वो भाई, वो बहन, वो बिगड़ैल और शरारती संगी साथी कैसे एक-एक करके सब दूर बहुत दूर होते चले गये… साधन बढ़ते गये पर उनसे कई गुना ज्यादा बढ़ती गयी मसरूफिय्तें और दिलों की दूरियां… इस दरमियाँ, बच्चे आपको बिलकुल परेशान नही करते क्यूँकि उनके मनोरंजन के बहुत सारे साधन यहाँ मौजूद है और फिर जब हमे सोमेश का फोन आया कि अब वो अपने बैंक के काम से फ्री होने ही वाला है तो हमने भी इक हल्की सी जुम्बिश के साथ इन यादों को अपने दिल के किसी अंदरूनी कोने में समेट इस सहरी गाँव में लगे सहरी मेले से, जो दरअसल सही मायने में एक खिचड़ी की तरह ही है, जिसमे अनेकों पदार्थ सम्मिलित तो हैं मगर किसी का अपना कोई स्वाद नही, बाहर निकलने की कवायद शुरू कर दी !

34 Comments

  • SilentSoul says:

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    • Avtar Singh says:

      Many thanx SS ??
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  • ashok sharma says:

    beautiful narrative.a famous writer in making. few spellings could have been corrected.good photographs. keep roaming, keep writing.

    • Avtar Singh says:

      Thank you ashok ji for your kind words. Yeah, some times spellings create difficulty as most of the Hindi softwares are based on phonetic sounds, and even me too cannot type Hindi words on keypad. But, this should not be an excuse and I must put some more efforts and vigilant to overcome this. Thanks for your suggestions

  • Vipin says:

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  • Stone says:

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    • Avtar Singh says:

      Hi Stone
      Thanx for your comment.
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  • Abheeruchi says:

    Hello Avtar ji,
    Very nice post.A

    pki post se mujhe mera experience yaad aa gaya .Maine waise Chokhi Dhani to visit nahi kiya hai par Chokhi Dhani jaisa hi Nakhrali Dhani Indore me gayi thi.Bahut he badhiya experience raha aur khana to best Rajasthani food wo bhi Manwaar (Baar baar puchna) aur Pagdi sir pe pehnane ke saath.Yaha Canada me baithe baithe kabhi rajasthani food ki yaad aati hai to mujhe to ab sirf nakhrali dhani hi nazar aati hai.Jab bhi India wapis aana honga mai waha pakka jaane wali hu.

    Agli post ke intezaar me.

    Keep travelling, keep writing.

    • Avtar Singh says:

      Thanx Abheeruchi for your ‘Dil se’ comment.
      I think we must owe to ghumakkar for making us feel connected and regrouping our lost memories.
      Yeah, we all have some special memories in our heart related to one thing or the other, sometime we share it with others and some times prefer to keep it with ourselves.

  • h.l. singh says:

    have been to these places before but never tried to know why jaipur is pink or people prefer colourful clothes….. so nice to know all these things..thanx for such informative post.

    • Avtar Singh says:

      Many thanx h.I. singh ji

      for your comment. Sir, some times its also great to roam without knowing the history, chemistry, and biology of the place….. its also a great thing…..

  • Nice post….as usual.
    thanks for sharing..

  • Nandan Jha says:

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    • Avtar Singh says:

      Thanx Nandan Bhai for your soooo….. long comment, which seems like a critical view of the post…. ??????? ????- ????? ???? ???? !
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  • Vinod Sharma says:

    Avtar Singh Ji,
    bahti jal-dhara sa prvahmayee vritant dil ko apne saath-saath hi bahaye liye gaya ! vibhore kar diya aapne !!
    Dua hai aapki kalam se yeh dhara yunhi aviral bahati rahe !

  • Avtar Singh says:

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    • Avtar Singh says:

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    • Avtar Singh says:

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  • Bahut hi badiya likha hein Avtar, Jaipur ka description aur upper se Jaipur Police ka varnan, bahut majedar, maja aaya pad kar.

    • Avtar Singh says:

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  • Dr.Rakesh Gandhi,Advocate says:

    Well defined visit with nice clicks……thanks to Ghumakkar….with its help visited lot places without going there.Thanks a lot Avtar ji….a personal suggestion…u will look much smart in turban……..!!!

    • Avtar Singh says:

      Thanx Dr. Rakesh Gandhi Ji
      Yeah, you are absolutely right by saying that ghumakkar gives us marvellous opportunity to take the feel of many places without physically visiting there.
      You liked the post, many thanx for it.
      Your suggestion is valuable and I must appreciate this, I shall definitely follow your advice. Thanx for this nice gesture too.

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    • Avtar Singh says:

      Many thanx Kamlansh Rastogi sir

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  • Nirdesh Singh says:

    Hi Avtarji,

    Another enjoyable post! Jaipur is a nice clean developed city. People especially are a gracious lot.

    Need to go see the Chokhi Dhani next time.

    The highway is a mess. Taking the train makes sense. Using flash in the night brings up the spots on the photos unless you are shooting close-ups.

    Please ask Nandan to increase Hindi posts’ font size or if spacing could be increased. It will be easier on my eyes.

    • Avtar Singh says:

      heart full thanx Nirdesh sir
      Chokhi Dhani is a good bet, especially if you are with family. This place offer something for every one. You are right, Jaipur highway is totally in mess these days. Some really good trains are available for Jaipur, if you board from Delhi. We like the both Double Decker and Ajmer Shatabdi. Their departure timings are also suitable.
      Spots… I agree, the dust plays havoc for shooting at night.
      @Nandan/Archana, please do the needful. Its a very genuine complaint of Nirdesh sir. Please increase the font size and increase the space, both things are required

  • Saurabh Gupta says:

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    • Avtar Singh says:

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