
टिहरी झील
शाम में हम टिहरी से वापस चम्बा आ गए | पहाड़ियों के बीच से निकलती बस एक और ढलती शाम का खूबसूरत का नज़ारा प्रस्तुत कर रही थी | अपनी चम्बा में तीसरी और आखिरी रात्रि विश्राम का कार्यक्रम थे | तीन दिनों में चम्बा से एक लगाव सा हो गया था | काफी रास्तों से हम परिचित हो चुके थे और वहां के पर्यावरण में ढल भी चुके थे | जब हम चम्बा पहुचे तो बच्चे हमारा इंतज़ार कर रहे थे | फ्रेश होकर हम खेलने के लिए आ पहुंचे | बच्चों के साथ खेलने में बच्चे बन गये और दिन भर की थकान का आभाष भी नहीं रहा | मेरी पत्नी रूचि भी आज खेलने में ज्यादा रूचि ले रही थी | खेल का मैदान था होटल के पीछे की वह जगह जहाँ से पूरी वैली का दृश्य मिलता है | हम लोग खेलने में ऐसे लगे की उनके साथ कोई फोटो भी ना ले पाए | वहां पर स्कूल के कुछ युवा बच्चे भी आये जिनके आने के थोड़ी देर बाद उसी उम्रवर्ग की कुछ लड़कियां भी आई | दोनों समूह दो किनारे पर खड़े थे और हम बच्चो के साथ मध्य में अपने अन्ताक्षरी, अनुवाद, चिड़िया-उड़ जैसे खेलों को अंजाम दे रहे थे पर साथ ही साथ स्थिति का आकलन भी जारी था | पूरा समूह एक लड़के को प्रेरित कर रहे थे और वैसा ही नज़ारा दूसरी तरफ भी था परन्तु दोनों लड़के – लड़की केवल मुस्कुरा-शरमा रहे थे | मुझे अतैव आनंद आ रहा था और अपने वो बेहतरीन दिन याद आ रहे थे जब हम भी ये दोनों रोल (प्रेरित करने का और प्रेरित होने का) निभा चुके थे | मुझे लगता है ज्यादातर लोग इस दौर से गुजरे होंगे और उन्हें इसके शुरुआत से अंत तक के सफ़र का बेहतर अंदाजा होगा ही |

ढलती शाम का नज़ारा
शाम अपनी गति से ढलती रही और सूरज अपनी गति से | हम लोगों ने बच्चों के साथ मिल के के नए पुराने कई गीत गाये | वो नए गाने गाते तो मैं किशोर दा या रफ़ी साहब के नगमे गुनगुनाता | कभी कभी मैंने न उनके गाने सुने होते और न ही वो हमारे | बच्चे अपने अपने घर चले गये | धीरे धीरे रात हो आई और पहाड़ों के ऊपर तारे टिमटिमाने लगे | हवा तेज चल रही थी और ठण्ड कपड़ों के चीर कर त्वचा को छू रही थी जिससे थोड़ी थोड़ी देर में एक तेज सिहरन का आभास हो जाता था | ऐसे में पत्नी जी ने तुरंत अन्दर चलने की बात कही | हम लोग वापस अपने रूम में आये | टिहरी में दिन भर की पद-यात्रा से हम पूरी तरह थक चुके थे | अब बस एक अच्छी नीद की आवश्यकता महसूस हो रही थी | वैसे भी हम शाम में केवल लिक्विड ही लेते हैं इसलिए भोजन की उतनी जरुरत नहीं थी | परन्तु पत्नी जी ने इसे एक लोकल फ़ूड टेस्ट कर पाने के मौके की तरह देखा | उन्हें होटल के कुक में लोकल टेस्ट दिख चूका था जिसने पिछली रात बेहतरीन एग करी का प्रमाण प्रस्तुत किया था | फिर क्या था मेरे ऊपर जोर डाला गया की मैं जाकर इतनी ठण्ड में कुक को पास वाले स्टाफ क्वार्टर से बुला कर डिनर की इच्छा जाहिर करूँ | मैंने जाकर बुद्ध का मध्यम मार्ग अपनाया | मैंने उससे कहा की मुझे कोई भूख नहीं है लेकिन मेरी पत्नी जी को भूख लगी है तो अब एक लोग के लिए आप खाना क्या बनायेंगे; आप ऐसा करिए की आपके घर में जो कोई भी सब्जी हो उसे दो रोटी के साथ दे दीजिये | मेरे सलाह पर वह व्यक्ति राजी हो गया | मैंने अन्दर जाकर जब यह सारा वाकया इस तरह बताया की यह प्रपोजल उस व्यक्ति का ही था | आशा के विपरीत पत्नी जी बहुत खुश हुई और उन्होंने एक और लोकल टेस्ट और घर के खाने के लिए बेसब्री से इंतज़ार करने लगी | मुझे नीद आ रही थी पर जब मैं लेटने गया तो नीद गायब थी | थोड़ी देर कुछ बातें हुई और वह व्यक्ति सब्जी और चार रोटी देकर चला गया | मैंने दो रोटी अपने हिस्से की मान के खाने बैठ गया | सब्जी कंकोड़े (स्थानीय नाम) की थी | बिलकुल फ्रेश और टेस्टी | खाद्य पदार्थो के दिनोदिन गिरते गुणवत्ता में एक साफ़ सुथरी मिटटी और हवा के बीच उगी सब्जी का स्वाद तो निश्चय ही बेहतर होगा | खाने के बाद न जाने कब नींद आ गई पता भी न चला |
सुबह हमें धनोल्टी के लिए निकलना था | आशा के अनुरूप पत्नी जी ने ब्रेकफास्ट होटल में ही करने की इच्छा जाहिर की | मेरा भी मन था की यहाँ की एक और डिश का आनंद लिया जाये | इस बार मेन्यु पर पुनः नज़र डाली गई और फाइनली उंगली वेज-बिरयानी पर आकर रुकी | हम लोग गरम पानी ने नहा धो के तैयार हो गये और होटल के बाहर कुर्सीया लगाकर बैठ गये | मैंने रोज की तरह की अपना पॉकेट रेडियो ओन किया और विविधभारती ‘देश की सुरीली धड़कन’ ट्यून किया | ‘गाने नये जमाने के’ कार्यक्रम में भी एक पुराना गाना आ रहा था | रेडियो पर गाने सुनना मुझे बहुत पसंद है | एक लोकल चैनल पर कोई लोकगीत ट्यून किया जिसकी भाषा हमें पूरी समझ में नहीं आ रही थी पर संगीत काबिले तारीफ था | ऐसे में एक बार फिर से सूरज झिलमिलाता हुआ चीड़ के पेड़ों के बीच से निकल रहा था | दूर दूर तक शान्ति थी और हवा की सरसराहट कानों में गूँज रही थी | ऐसे में हमने वेज बिरयानी का आनंद उठाया जो पुनः बेहतरीन बनी थी |

बेहतरीन वेज बिरयानी
हम लोग सामान लेकर चम्बा मार्केट की आये | वहां से अमरुद खरीदा और मसूरी की लगी बस में जाकर बैठ गये | थोड़ी ही देर में बस चल दी | बसचालक बहुत ही तेज चला रहा था | कई मोड़ पर तो मुझे लगा की बस अब फिसली | पर आसपास के लोगों ने बताया की ड्राईवर एक्सपर्ट है और बीस साल से इसी रूट पर चला रहा है सो उसे रोड का एक एक इंच का अंदाजा है | मुझे वर्णन में अतिश्योक्ति नज़र आई पर कर भी क्या सकते थे | जल्द ही भयानक यात्रा का अंत हुआ और बस TRH धनौल्टी के गेट के सामने रुकी | मुझे TRH धनौल्टी काफी बड़ा और नया बना हुआ मालूम दिया | हमने वहां इकॉनमी बुकिंग की थी पर उसने हमें डीलक्स रूम दे दिया | हम अपने रूम में सामान पटक कर वापस बाहर आ गये और होटल के रेस्टोरेंट में बैठकर चाय की चुस्कियों का आनंद लिया | ‘धनौल्टी एकोपार्क’ TRH धनौल्टी के बिलकुल बगल में ही है |

ईको पार्क
धनौल्टी देवदार के पेड़ों के बीच बसा हुआ है | इस छोटे से हिल स्टेशन के हर ओर के विहंगम दृश्य आपके मन को निश्चय ही मोह लेंगे है | पूरा पार्क देवदार के पेड़ों से आच्छादित है जिसके बीच से चलने के लिए लकड़ी से रास्ते बनाये गये हैं | हम लोग उन टेढ़े मेढ़े रास्तों से होते हुए आगे बढ़ने लगे और साथ ही साथ आने वाले हर एक मनमोहक दृश्यों का आनंद उठाते रहे |

दूर गगन की छांव में
बीच बीच में मानव निर्मित झूलों की भी व्यवस्था थी (क्युकी बिना इनके किसी को पार्क की फील ही नहीं आती है ) जिसका न मुझे कोई इच्छा थी और न ही समय | मैं तो प्रकृति के साक्षात् स्वरुप के दर्शन में व्यस्त था | मन करता था हर तरफ के दृश्य को किसी तरह आखों में हमेशा के लिए उतार लिया जाये |
हर कदम एक नया दृश्य देता था और एक नया उत्साह भी की आगे क्या होगा | मन को संभालते हुए मैं धीमे धीमे ही चल रहा था | हमारे पास पूरा दिन था ईको पार्क के लिए | फोटो सेशन का एक दौर चला जिसमे मैंने एक एक्सपर्ट फोटोग्राफर की तरह अभिनय करते हुए पत्नी जी के विभिन्न पोज में पिक्चर ली जिसको वो हमेशा की तरह लेने के तुरंत बाद ही देखने को आतुर हो जाती हैं और हमेशा की तरह हम भी उसे बाद में दिखाने की बात करते हुए अगले पिक्चर की भूमिका बनाने लगता था | यह कई बार हो चूका है पर अक्सर होता है और शायद होता भी रहेगा | खैर मुझे इसका होना अच्छा लगता है |

अटका हुआ बादल
कुछ ही समय में एक सपाट सा मैदान जैसा दिखा | जहाँ पर कुछ लोग बैठे हुए थे | धूप ऐसी थी की वो थोड़ी गर्मी कर रही थी पर साथ ही चलती हवा ठण्ड का एहसास भी दिए हुए थी | ठण्ड मिश्रित गर्मी मौजने के लिए बेस्ट होती है और घुमक्कड़ व्यक्ति हमेशा इसका इंतज़ार करते रहते हैं | मैदान के आगे घाटी थी जिसके मुहाने पर कुछ पर्यटक धनौल्टी के बेहतरीन मौसम और प्रकृति की छटा निहार रहे थे |
हमने भी एक स्थान चिन्हित किया और वहीँ पर विराजमान हो गये | पूरे स्थान पर अच्छी घास बीछी हुई है | दूर से देखने पर लगता है की मानो हरी कालीन सजाई गई हो | जब हर जगह अच्छी घास हो तो बैठने का जगह ढूढने में एक दो बार निश्चय करके टालना पड़ता है क्युकी जैसे ही आप बैठने का सोचते हैं एहसास होता है की आगे ज्यादा अच्छी घास है | एक दो बार ऐसा करने पर समूह में से ही कोई या फिर आपका मन ही ये कहता है की चलो छोडो बैठते हैं एक जगह | इसी प्रक्रिया के तहत हमने भी एक स्थान ढूढा |

चयनित स्थान का छायांकन
मैंने बैकग्राउंड में रेडियो को धीमी आवाज में ट्यून कर दिया | रेडियो के गाने में सबसे अच्छी बात ये होती है की अगला आने वाला गाना कोई भी हो सकता है और यही मेरे रूचि को बनाये रखता है |

देवदार के वृक्ष
हम लोगों के पास पूरा दिन था | सुरकंडा देवी और कानातल का प्लान अगले दिन पर टाल दिया गया था | वहीँ घास पर दो तीन घंटे लेटे रहे | मूंगफलियों का दौर चला | चम्बा से लिए अमरुद का रस्वादन किया गया | घास पर लेटे नीले आकाश को देखना और विशेषकर तब जब वह आकाश पर्वतीय घाटियों में आकर ख़त्म होता हो | ऐसा महसूस होता है जैसे पहाड़ों से घिरे घाटी के मध्य मैं लेटा हूँ और नीला आकाश पहाड़ों पर टिका छत बना हुआ है |
मैंने अपनी कॉपी पेन निकाल कर कविता रचना भी की जिसका भाव स्वतः जाग उठता है | इसी बीच पत्नी जी ने एक आनंददायक नींद भी ले ली | हम बैठकर पर्यटन का आनंद उठा रहे थे तो वहीँ पर कुछ लोग अपने खेतों में काम भी कर रहे थे | इसी भाव पर केन्द्रित कविता का सृजन हो रहा था जिसकी एक पंक्ति है “घडी एक सी रहती सबकी, पर वक़्त अलग है सबका” | शाम हो आई तो हम लोग वहां से वापस अपने होटल आ गए |
रात का खाना हमने TRH होटल में ही खाया जहाँ चम्बा वाली बात नहीं थी हालाकि खाना बेहतर था | चम्बा में हम अकेले ठहरे थे तो एक हमारी ही इच्छा पर खाना पकाया जाता था वो अलग फील थी यहाँ नार्मल रेस्टोरेंट वाली फील थी | हमने दाल फ्राई और भिन्डी की सब्जी खाया जिसमे भिन्डी की सब्जी अलग तरीके से मनाई गई थी जिसकी तकनीक जानने के लिए पत्नी जी उत्सुक दिखी |

कान्ताल का एक व्यू
अगले दिन सुबह हम कानाताल के लिए निकले | जिससे भी पूछा उसने बोला वहाँ कुछ नहीं है वहां केवल लोग क्लब महिंद्रा के होटल के लिए जाते हैं | फिर भी हमने सोचा चलो चलके देखते हैं | कान्ताल पहुचकर पता चला वहां कैम्पिंग की सुविधा उपलब्ध थी जिसका आनंद लिया जा सकता था | कान्ताल में और कुछ देखने लायक नहीं था |
हमने वहां एक छोटी दुकान पर रुके जिसके सामने कैरम बोर्ड हो रहा था | दो बेहतरीन खिलाडी बेहतरीन खेल रहे थे | मैंने सोचा हमारे देश में कितने टैलेंट बिखरे पड़े हैं इन्हें पहचानने वाला कोई नहीं है | इतनी दूर यहाँ इस घाटी में ये दो कितना बढ़िया खेल खेल रहे हैं | अब देखने की बात है उनके पास स्किल इंडिया कब तक पहुचता है |

पर्वतों में लगती बाजी
वहीँ हमने आधे घंटे खेल का लुत्फ़ उठाया और बस का इंतज़ार किया और बस से कद्दूखाल पहुचे | कद्दुखाल वह स्थान है जहाँ से सुरकुंडा देवी की ट्रैकिंग की जाती है | चढ़ाई शुरू करने पर ही हमें लाल रंग के फूलों की खेती दिखी | जो हमारे तरफ मुर्गीकेश के फूलों जैसे लग रहे थे | ऊपर जाने पर यही हमारे उंचाई मापने का आधार बना | आप भी आगे के पिक्स में इसी लाल रंग के फूलों से हमारे द्वारा चढाई में किये गये मेहनत का अंदाजा लगा सकते हैं |

लाल रंग के पुष्प
पूरी यात्रा का सबसे मजेदार यही दौर था | लगभग 3km की चढाई शुरू की हमने | चढाई के साथ ही साथ दृश्य बदलने लगा | जहाँ नीचे अच्छी खासी धूप थी ऊपर जाते जाते धूप जाती रही और बादल आस पास से तिरने लगे |

चढाई के बीच में
मौसम धीरे धीरे ठंडा हो चला और नीचे घटी का व्यू और अच्छा मिलने लगा | मैं रास्ते पर कम और आस पास के दृश्यों पर ज्यादा ध्यान दिए हुए थे | मैंने अपने मधुर कंठ से चलो बुलावा आया है और शिरडी वाले साईं बाबा जैसे गीतों का गायन भी किया |

नीचे सड़क से सुरुआत हुई थी
चढाई के लिए खच्चर सुविधा भी थी लेकिन उसका प्रयोग काफी कम लोग ही कर रहे थे | वैसे कुल दस से ज्यादा चढ़ने वाले नहीं होंगे | मैं बीच बीच में फोटो लेने के बहाने रुक जा रहा था और उसी में अपनी थकावट को आराम दे रहा था | पत्नी जी थकने पर फोटो खिचवाती नहीं हैं इसलिए उन्हें इस तकनीक का फायदा नहीं मिल रहा था | लगभग एक घंटे के बाद हम लोग मंदिर तक पहुच गए | वहां बादल हमारे अगल बगल से तैर रहे थे | मैंने मंदिर का अवलोकन किया जो बुद्धिस्ट कांसेप्ट बन बनाया हुआ लग रहा था |

मंदिर का व्यू

मंदिर का बैक व्यू
वहीँ पास में हम लोग बैठे और मूंगफलियों का अंतिम दौर चला | हमने एक किलो मूंगफली इस पूरे ट्रिप पर निपटा दी | थोड़ी देर रूकने के बाद हम वापस लौटने लगे | लौटते वक़्त का नज़ारा और अच्छा था | लाल रंग के फूलों को देखकर हम अंदाजा लगाते की अभी कितना उतरना है | उतरने में ज्यादा समय नहीं लगता क्युकी इस कार्य में ग्रेविटी जी सहायता करती है | कद्दुखाल पहुचकर हम वापस धनौल्टी में अपने होटल आ गए | अगले दिन हमारी देहरादून से ट्रेन थी | हम सुबह देर से उठे और नाश्ता वहीँ करके लगभग 12 बजे तक मसूरी होते हुए देहरादून पंहुच गए | देहरादून से ट्रेन रात में 9 बजे थी और समय काफी था | हमने क्लॉक रूम में सामन रखा और निकल पड़े गुच्चुपानी के लिए |
गुच्चु पानी को रोब्बर्सकेव के नाम से भी जाना जाता है | यहाँ पानी का एक सोर्स है जो पहाड़ों के दरारों के बीच से बाहर आता है | पहाड़ों के बीच से होते हुए पानी के सोर्स तक जाया जा सकता है जहाँ एक छोटा सा झरना भी है | बाहर पानी के बीच बैठकर फ़ास्ट फूड्स का आनंद भी लिया जा सकता है | हम भी अन्दर झरने तक होकर आये और बाहर पानी के बीच पड़े एक पत्थर पर बैठ गए | सभी लोग खाने पीने में व्यस्त थे पर वहीँ एक छोटा बच्चा सबसे ज्यादा आनंद उठा रहा था |
धीरे धीरे यात्रा अंत की ओर बढती है हम वापस आकर देहरादून से अपनी ट्रेन पकड़ी और नेक्स्ट डे डेल्ही से शौपिंग करने के बाद शाम की आश्रम एक्सप्रेस पकड़कर अहमदाबाद आ गए | एक और बेहतरीन यात्रा समाप्त हुई | मस्तिष्क में जिसकी याद जिन्दा रहेगी | भविष्य में पर्वतों के बीच सेटल होने वाले निर्णय को अंतिम मुहर लग गई |

सूरज का अवसान
Bahut Sundar Lekh hai…maja aa gaya.
Dhanywad Arun ji.
Aapko pasand aaya yah mete liye khushi ka vishay hai.
Bahut sundar tarike se likha gaya hai…sadhuvaad.
Prashansha ke liye dhanywad Sanjay ji
Sadhivad.
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