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केदारनाथ से बद्रीनाथ


केदारनाथ से बद्रीनाथ
तीसरे दिन सुबह 8 बजे सभी तैयार होकर बस मे बैठ गये. अब हमारी मंज़िल बद्रीनाथ धाम थी. मैने ड्राइवर से पूछा अब किस रास्ते से चलोगे. यहाँ से बद्रीनाथ जाने के लिए दो रास्ते थे पहला कुंड से चोपटा होते हुए . दूसरा वापस रुद्रप्रयाग से है. मै चोपटा होकर जाना चाहता था क्योकि चोपटा की प्राक्रतिक सुंदरता के बारे मे काफ़ी कुछ पढ़ रखा था. पर बंगाली बाबू रुद्रप्रयाग से चलने के लिए कह रहे थे. पर जब मैने उन्हे समझाया तो वह राज़ी हो गये.

सीतापुर से चल कर ड्राइवर ने बस गुप्त काशी मे रोक दी बोला आप लोग उपर पहाड़ी पर मंदिर मे जा कर दर्शन कर आए. थोड़ा सा चढ़ने के बाद सोंचा कहाँ जाएँगे फिर हिम्मत कर के मंदिर तक पहुँच ही गये.मंदिर के बाहर ही दो-चार पंडा बैठे थे. हम लोंगो को देख कर बोले पूजा की थाली ले ले . चलिए आपको पूजा करवा देते हैं. मैने भी सोंचा की धर्म कर्म के लिए ही तो यहाँ आए हैं, वैसे भी इन पंडा पुजारी का खर्च भी तो हम लोगों की दान दच्छिना से ही तो चलता है. केदारनाथ के पाट खुलते समय भगवान की डोली यहाँ इस मंदिर की परिक्रमा करके ही आगे बढ़ती है. गुप्त काशी के मुख्य मंदिर के अंदर शिवलिंग स्थापित है साथ मे ही केदारनाथ की छोटी प्रतिक्रती भी विराजित है. मंदिर के सामने एक छोटा सा कुंड बना है इस कुंड मे अलग अलग दो जल धाराए गिर रही है. वहाँ पंडा जी ने बताया बाईं ओर की धारा से यमञोत्री का जल आ रहा है और दाई ओर की धारा से गंगोत्री का जल निकल रहा है. मुख्य मंदिर के साथ मे अर्धनारीश्वर का मंदिर है. भगवान शिव ने पांडवो को अर्धनारीश्वर के रूप मे दर्शन दिए थे. यहाँ से पूजा के बाद हम आगे के लिए चल दिए. कुंड से आगे चोपटा के मार्ग पर बढ़ते ही दोनो ओर हरे- भरे पेड़ो का जंगल नज़र आने लगा. यहाँ सड़क साफ अच्छी बनी हुई थी. ड्राइवर भी तेज़ी से बस चला रहा था. चोपटा पहुँचते – पहुँचते हमे अपने बाई ओर वर्फ़ से आच्च्छादित पर्वत श्रखलाएँ दिखने लगी. ज्यो-ज्यो बस बढ़ रही थी पर्वतो की चोटियाँ स्पष्ट होती जा रही थी . बहुत ही मोहक द्र्श्य था. चोपटा पहुँचने पर बस ड्राइवर ने बस रोक दी. सामने ही तुंगनाथ मंदिर जाने के लिए रास्त था. सड़क के दोनो ओर वर्फ़ से ढकी चोटियाँ नज़र आ रही थी . चोपटा के बारे मे पढ़ा था , स्विट्ज़रलैंड ऑफ इंडिया है. कोई शक नही हिन्दुस्तान मे चोपटा की प्राक्रतिक सुंदरता नायाब है.कोसानी के बारे मे महात्मा गाँधी ने स्विट्ज़रलैंड ऑफ इंडिया कहा था. वहाँ उन्होने अपना आश्रम भी बनाया परन्तु चोपटा की सुंदरता के आगे कोसानी कहीं नही टिकता है. जो भी चोपटा आता है वह यहाँ की खूबसूरती को भूल नही सकता. यहाँ पर हम लोग लगभग आधा घंटा रुक कर आस पास के नज़ारे देखते रहे. हमने साथ के बंगाली बाबू से पुंछ क्यो जी कैसा लग रहा है यहाँ. कहाँ तो वह इस रास्ते से आना नही चाहते थे पर अब यहाँ की सुंदरता देख कर बार-बार मेरे से कहने लगे आपने बहुत अच्छा किया जो आप हमे इस रास्ते से ले आए वरना हमे पता ही नही चलता कि कितनी खूबसूरत यह जगह है.

चोपटा



चोपटा

चोपटा

चोपटा

चोपटा

चोपटा


तुंगनाथ से चमोली का रास्ता हरे-भरे जंगलो से घिरा हुआ है. इस रास्ते पर ज़्यादा वाहन नही चल रहे थे. हमलोग दोपहर दो बजे चमोली पहुँच गये. यहाँ ड्राइवर ने एक होटेल के सामने बस रोकते हुए कहा की सब लोग जल्दी से खाना खा लो. अगर हम 4 बजे तक जोशीमठ पहुँच जाए तो बद्रीनाथ जाने का मार्ग खुला मिल जाएगा. फिर हमे रास्ते मे कहीं ना रुक कर सीधे बद्रीनाथ पहुँच जाएँगे. सभी ने 15 मिनट मे दोपहर का भोजन किया और बस मे बैठ गये. चमोली से बद्रीनाथ का मार्ग काफ़ी चौड़ा था. ड्राइवर तेज़ी से बस चला रहा था. गनीमत हुई की रास्ते मे कोई बाधा नही आई और हम लोग 4 बजे जोशीमठ पहुँच गये. अभी बद्रीनाथ जाने का मार्ग खुला था. हमारी बस के निकलने बाद ही बद्रीनाथ जाने के लिए रास्ता बंद कर दिया गया. जोशीमठ से आगे का मार्ग संकरा है इस कारण दो –दो घंटे के इंटरवल से जोशीमठ से बद्रीनाथ जाने का मार्ग खोला जाता है.

चमोली से कुछ आगे ही हमे सड़क के किनारे अलकनंदा पर कुछ अन्य विददुत परियोजनाओ पर काम चल रहा था. जोशीमठ से आगे बढ़ते ही हमे सड़क के किनारे लगे हुए jaypee के सैकड़ो बोर्ड नज़र आने लगे. हर एक बोर्ड पर बड़ा-बड़ा .” NO DREAM TOO BIG” jaypee लिखा हुआ था. ऐसा लग रहा था, अब हम किसी की प्राइवेट एस्टेट मे से होकर गुजर रहे है. ज्यो-ज्यो हम विष्णु प्रयाग की ओर बढ़ रहे थे अलकनंदा मे जल कम होता जा रहा था. विष्णुप्रयाग के पास तो अलकनंदा मे जल ही नही जज़र आ रहा था. विष्णुप्रयाग पहुँचने पर पता लगा की यहाँ पर jaypee ने अपनी विदूत परियोजना लगाई हुई है . इस कारण अलकनंदा का जल विष्णु प्रयाग मे रोक रखा था. चारो ओर jaypee..” NO DREAM TOO BIG” के बोर्ड लगे थे . ऐसा लग रहा था कि हम पर ठठाकर हंस रहा है और कह रहा है कि देखो किस तरह हम प्रकर्ती का दोहन कर के इतने बड़े हो गये है अफ़सोस कि यह लोग हम सबकी इस जल संपदा का दोहन कर के हमे ही चिढ़ा रहे है. इन्ही विचारो को लिए हुए हम बद्रीनाथ धाम पहुँच गये. इस बार भी बाकी लोंगो ने तो उसी होटेल मे कमरा लिया जहाँ पर ड्राइवर ने बस रोकी थी पर हमने परमार्थ निकेतन मे 4 बेड का एक कमरा 400 रुपये प्रति दिन के हिसाब से ले लिया. समान कमरे मे रख कर हम सब मंदिर दर्शन के लिए चल दिए. रात हो चुकी थी मंदिर के बाहर लगी लाइटो से मंदिर प्रकाशित हो रहा था. मंदिर मे भगवान बद्रीविशाल के रात्रि शयन की आरती होने जा रही थी . इसलिए मंदिर के अंदर नही जाने दे रहे थे. हम सब दूर से ही दर्शन कर के वापस आ गये.

बद्रीनाथ मंदिर

परमार्थ निकेतन की अपनी केंटिन है पर सीजन ना होने के कारण बंद थी. रात के खाने का इंतज़ाम करना था. परमार्थ निकेतन से बाहर कई होटेल रेस्टोरेंट बने हुए थे. पर अधिकतर खाली थे . एक रेस्टोरेंट मे जाकर खाना पैक करवाया. जब तक वह खाना तैयार करने लगा मै वहीं बैठे एक पंडा से बात करने लगा. बातो ही बातो मे पता लगा की वह वहीं पर एक दूसरी धर्मशाला के caretaker है. बोले हम तो आपको 200 रुपये मे कमरा दे देते. मैने कहा कोई बात नही. अब तो ले ही लिया है. वही सीजन के समय 2500 मे भी नही. मिलता है. बातो ही बातो मे इस धाम ( बद्रीनाथधाम ) की चर्चा होने लगी, मैने कहा सच तो यह है पंडित जी कि मुझे लगता है कि यहाँ तो केवल शुद्ध ह्रदय से भगवान बद्रीनारायण के दर्शन के लिए आने वाले ही आ सकते है. पापी लोग तो यहाँ पहुँच ही नही सकते. बद्रीनाथ मंदिर से पहले देव दर्शनी है. यहाँ से मंदिर दिखने लगता है. देवदर्शनी के पास ही एकादशी का मंदिर है. कहते है माँ एकादशी यहीं प्रकट हुई थी.

यहाँ पहुँच कर अचानक मन मे विचार आने लगे कि लोग क्यो झूठ, फरेब, धोखाधड़ी कर के पैसे कमाने की दौड़ मे लगे हुए है. देखता हूँ लोग 60, 70 और उससे भी अधिक उम्र के हो गये हैं पर लगे हुए हैं दौड़ मे. मै पूछता हूँ अरे किसके लिए यह सब कर रहे हो. सच तो यह है की सब कुछ तो यहीं छोड़ कर जाना है. लेकिन नहीं, लगे हैं कैसे किसको टोपी पहनाए.

सुबह चार बजे से ही कानो मे आस पास के मंदिरो मे हो रही आरती की आवाज़ गूंजने लगी. पर थकान के कारण सोते रहे. करीब 6 बजे सोकर उठे तो बाहर आ कर देखा हमारे चारो ओर विशालकाय पर्वत खड़े हैं. इन पहाड़ो की चोटियो पर पड़ी वर्फ़ सूर्य की रोशनी मे चमक रही थी. जल्दी जल्दी तैयार होकर हम भगवान बद्रीविशाल के दर्शन के लिए चल दिए. जैसी की परम्परा है कि दर्शन से पहले मंदिर के नीचे बने हुए तप्त कुंड मे स्नान किया जाता है.

अलकनंदा पर बने इस पुल से मंदिर जाते है.

नीचे बने हुए तप्त कुंड

मंदिर मे दर्शन के लिए दूर तक बना टीन शेड


हमारे लिए तो सब कुछ नया था. हम भी पूछते हुए वहाँ पहुँचे. यह एक छोटा सा टैंक था जिसमे कुछ लोग नहा रहे थे कुछ लोग बाहर बैठ कर मग से तप्त कुंड का पानी ले कर नहा रहे थे. तप्त कुंड का जल काफ़ी गर्म था. बाहर मौसम मे ठंडक थी पर फिर भी तप्त कुंड का जल शरीर पर डाला नही जा रहा था. लोग इसके अंदर नहा रहे थे. तभी वहाँ नहा रहे लोगो ने बताया की पहले जल को मग से अपने उपर डाले . जब शरीर सहने लायक हो जाय तो जल्दी से इस कुंड मे उतर आए. मैने ऐसा ही किया. वहीं लोगो ने बताया की गर्म जल सर पर ज़्यादा नही डालना चाहिए वरना तबीयत खराब हो सकती है.

स्नान के बाद पूजा की थाली ले कर हम पहले आदिकेदार के दर्शन के लिए गये. कहते है , बद्रीविशाल के दर्शन से पहले आदिकेदार के दर्शन करना चाहिए. यह मंदिर तप्त कुंड से आगे बद्रीनाथ के मंदिर को जाते हुए मंदिर के बाई ओर बना हुआ है. यहाँ मंदिर मे पत्थर पर श्री नारायण के पैरो के निशान बने हुए थे. यहाँ पूजा करके पुजारी जी से तिलक लगवा कर भगवान बद्रीविशाल के दर्शन के लिए गये. भगवान बद्रीविशाल पद्मासन मे ध्यान मुद्रा मे बैठे हुए हैं. मंदिर मे भीड़ नही थी. वरना तो फटाफट दर्शन करो और बाहर निकलो. वहाँ गद्दी पर बैठे रावल जी बताने लगे की भगवान ध्यान मुद्रा मे है. विग्रह स्पष्ट नही मंदिर भगवान के ललाट पर हीरा लगा हुआ है. दाहिनी ओर कुबेर और गणेश जी तथा बाई ओर उद्धव जी, नर-नारायण, गरूण जी, नारद जी, है. उनके सामने उद्धवजी हैं तथा उत्सवमूर्ति है मस्तक पर लगे हीरे को देख कर ऐसा लग रहा था की हरे रंग का ज़ीरो वाट का वल्व जल रहा हो हम लोग थोड़ी देर वहाँ एक टक निहारते रहे तभी एक दंपति वहाँ विशेष पूजा के लिए आए. रावल जी मंत्रोचार करने लगे. हमे लगा कि इससे पहले , हमको बाहर जाने के लिए कहे , बाहर चलना चाहिए. भगवान के सामने से हट कर बाहर को निकालने लगा तभी मंत्रोचर करते हुए रावल जी ने इशारे से अपने पास बुलाया और माथे पर चंदन का लेप प्रसाद के रूप मे लगा दिया. मंदिर की परिक्रमा करके खड़ा हुआ था तभी एक साधू ने आ कर पूछा भगवान का प्रसाद लेंगे, मन मे आया नेकी और पूछ- पूछ , मैने कहा क्यो नहीं महाराज साधु ने भगवान बद्रीविशाल को चढ़ने वाले केसर युक्त मीठे चावल का प्रसाद दिया. यहाँ चरणाम्रत केसरयुक्त मीठा था. बद्रीनाथ मंदिर के दाहिनी ओर लक्ष्मी जी, गणेश जी , हनुमान जी का मंदिर है.

बद्रीनाथ मंदिर

बद्रीनाथ मंदिर

मंदिर के पाट लगभग छह माह बंद रहते है. बद्रीनाथ मंदिर के पाट बंद होने के बाद नारद जी भगवान की पूजा करते हैं. विशेष बात यह है बद्रीनाथ मंदिर के पाट बंद करते समय जो ज्योति जलाई जाती है वह ज्योति पाट खोलते समय जलती हुई मिलती है.


 

बद्रीनाथ की आरती
श्री पवन मंद सुगंध शीतल , हेम मंदिर शोभितम्
निकट गंगा बहत निर्मल . श्री बद्रीनाथ विशम्भरम्।
शेष सुमरिन करत निशदिन , धरत ध्यान महेश्वरम्
श्री वेद ब्रह्मा करत स्तुति, श्री बद्रीनाथ विशम्भरम्।
शक्ति गौरी गणेश शारद ,नारद मुनि उच्चारणम्
वेद ध्यान अपार लीला ,श्री बद्रीनाथ विशम्भरम्।
यक्ष किन्नर करत कौतुक ,ज्ञान गन्धर्व प्रकाशितम्
श्री लक्ष्मी कमला चंवर डोले ,श्री बद्रीनाथ विशम्भरम्।
कैलाश में इक देवी निरंजन ,शैल शिखर महेश्वरम्
राजा युधिष्ठर करत स्तुति।,श्री बद्रीनाथ विशम्भरम्।
श्री बद्रीनाथ के पंचरत्न ,पढ़त पाप विनाशनम्
कोटि तीर्थ भए पुण्यों ,प्राप्ते फलदायकम्।

मंदिर से बाहर आकर पूजा की थाली दुकानदार को वापस की. ध्यान आया ब्रह्मकपाल चलते है. पूछने पर पता लगा मंदिर से करीब 100 गज पीछे अलकनंदा के किनारे ब्रह्मकपाल है. ब्रह्मकपाल के बारे मे कथा है की जब शिव जी ने ब्रह्मा जी का पाँचवा सिर काट दिया तो उन्हे ब्रह्महत्या लग गयी और वह सिर उनके हाथ मे चिपक गया. बहुत कोशिश के बाद भी नहीं छूटा. शिव सारी प्र्थवी की परिक्रमा कर के जब इस स्थान पर आए तो यहाँ पर उनके हाथ से स्वता सिर छूट गया और शिव ब्रह्म हत्या से मुक्त हो गये. तब शिव जी ने कहा जो भी इस स्थान पर अपने पितरो का श्राध और पिंड दान करेगा उसकी सात पीढ़ी तक मोच्छ को प्राप्त हो जाएँगी. तभी से इस स्थान का नाम ब्रह्मकपाल पड़ गया. कहते हैं. इस स्थान पर अपने पूर्वजो का श्राध करने से प्राणी बार-बार के जन्म म्रत्यु के बंधन से मुक्त हो कर मोच्छ को प्राप्त हो जाता है. यहाँ पर श्राध मे पहले मीठे चावल के पिंड बना कर अर्पण एक पंडा करवाते हैं , फिर ब्रह्मकपाल से नीचे स्थित ब्रह्मकुंड के पास जल से दूसरे पंडा तर्पण करवाते हैं, इसके बाद शुद्धि के लिए वापस उपर ब्रह्मकपाल के पास जाकर हवन द्वारा शुधि एक तीसरे पंडा करवाते हैं. पंडा ने बताया कि यहाँ पर श्राध करने के बाद फिर कहीं भी श्राद्ध नही किया जाता है.

ब्रह्मकपाल के पास अलकनंदा

ब्रह्मकपाल के पास अलकनंदा

 

 

श्री नारायण अदृश्य रूप से अपने भक्तों को देखते हैं व उनका कल्याण करते हैं लेकिन इस स्थान पर वही लोग जा सकते हैं जिन्हें श्री हरि अपने पास बुलाते हैं. बद्रीनाथ धाम एक पुण्य भूमि है कहते हैं यहाँ जो भी ही श्रधा से आता है वह मोच्छ को प्राप्त हो जाता है. इसलिए ही इस भूमि को भू-वैकुंठ कहते है.. इस भूमि के बारे मे कहा गया है की यहाँ पर एक दिन के तप का लाभ 10000 वर्षो के तप के बराबर मिलता है, कहते हैं दानव सह्स्त्रकवच ने सूर्या देव की तपस्या करके 1000 कवच प्राप्त किए थे. और एक कवच को वही तोड़ सकता था जिसने 10000 वर्ष तप किया हो. इस तरह से वह तीनो लोक मे अजय हो गया. जब उसके कुकर्त्यो से मानव, देवता, ऋषि, मुनि सभी त्राहि-त्राहि करने लगे तब सभी भगवान श्री नारायण के पास पहुँच, सह्स्त्रकवच को हराने के लिए यह ज़रूरी था कि आत्मचिंतन किया जाय श्री नारायण ने चिंतन कर के जाना की हिमालय पर केदार खंड मे यही स्थान ऐसा है जहाँ एक दिन तपस्या करके 10000 वर्ष का फल प्राप्त होता है. वह इस स्थान पर आ कर आत्म चिंतन मे लीन हो गये. बाद मे नर, नारायण के रूप मे जन्म लिया. अलकनंदा के एक तट पर नर ने तपस्या की और अलकनंदा के दूसरे तट पर नारायण ने तपस्या की. जिस तट पर नर ने तपस्या की वह नर पर्वत कहलाया और जिस पर्वत के नीचे अलकनंदा के दूसरे तट पर नारायण ने तपस्या की वह नारायण पर्वत कहलाता है. बद्रीनाथ का मंदिर नारायण पर्वत पर स्थित है. सह्स्त्रकवच जब युद्ध के लिए आया तब एक दिन नर युद्ध करते और उसका एक कवच तोड़ देते दूसरे दिन नर तपस्या करने बैठ जाते और सह्स्त्रकवच से नारायण युद्ध करते और उसका एक कवच तोड़ देते . बारी-बारी से एक भाई तप करता तो दूसरा भाई युद्ध करता. इस तरह से उसके 999 कवच तोड़ दिए तब सह्स्त्रकवच युद्ध भूमि से भाग कर सूर्य देव की शरण मे चला गया.

कहते हैं यहाँ आकर भागवत कथा का श्रवण थोड़ी हो सके तो देर को भी करना चाहिए. मै जिस दिन बद्रीनाथ धाम से चल रहा था उसी दिन परमार्थ निकेतन मे विशाल शामियाना श्रीमद् भागवत कथा के लिए लगाया जा रहा था. करीब 300 लोगो के एक सप्ताह ठहरने और भागवत कथा श्रवण का कार्यक्रम था.इस बार तो इस संयोंग का लाभ नही उठा पाया पर अगली बार अवश्य .

वापस आकर हमने ड्राइवर से प्रोग्राम पूछा तो बोला आज ही वापस चलना है. मैने कहा, आज तो चौथा दिन है पाँच दिन का टूर है तो कल चलना. बोला अभी आपको माना गाँव ले चलता हूँ उसके बाद वापस चलना है. एक दिन मे बद्रीनाथ से हरिद्वार नही पहुँच सकते. बद्रीनाथ से माना गाँव 3 किलोमीटर की दूरी पर अलकनंदा के किनारे बसा हुआ है. मुश्किल से 10-15 मिनट मे ही हम माना पहुँच गये. और इतनी सी दूरी के ड्राइवर ने हमसे 60 रुपये सवारी के हिसाब से अलग से ले लिया.

माना गाँव जिसे की पुराणो मे मणिभद्र पुरम के नाम से जाना जाता है. यहाँ से ही सरस्वती नदी के दर्शन होते है. कहते हैं की यहाँ से निकल कर वह भूमिगत हो जाती हैं बाद मे इलाहाबाद मे उनकी धारा दिखती है. मन मे जिग्यासा लिए हुए हम आगे बढ़े. यहाँ एक स्थान से दो रास्ते जा रहे थे एक गणेश गुफा के लिए दूसरा सरस्वती नदी के उदगम स्थल के लिए. हम पहले सरस्वती नदी के लिए गये. देखा पहाड़ के मध्य से सरस्वती की जल धारा निकल कर पतले से गलियारे मे गिर रही है. साथ मे ही सरस्वती देवी छोटा सा मंदिर है. वही पर एक चाय की दुकान है जिस पर लिखा है अंतिम चाय की दुकान. हम लोगो ने सरस्वती मंदिर मे जाकर के दर्शन किए वहीं पास मे एक बोर्ड लगा था केशव प्रयाग, अलकनंदा व सरस्वती का संगम.

माना गाँव का रास्ता

माना गाँव

माना गाँव

सरस्वती नदी उदगम स्थल


सरस्वती नदी उदगम स्थल

सरस्वती नदी के पास भारत की अंतिम चाय की दुकान

सरस्वती नदी

भीम पुल

गणेश गुफा पर लगा शिला लेख


माना गाँव , ऊन से तैय्यार किए हुए कालीन

माना गाँव

 

मैने दुकानदार से पूछा, मैने तो पढ़ा है कि सरस्वती नदी यहाँ से निकल कर भूमिगत हो गयी है फिर यह अलकनंदा मे कैसे मिल गयी. दुकानदार ने बताया की केशव प्रयाग मे बहुत थोड़ा सा ही पानी अलकनंदा मे मिलता है बाकी सारा भूमिगत हो जाता है. वहीं पर भीम पुल है. भीम पुल के साथ मे एक साधु ने धुनि रमा रखी है. वहीं पर एक छोटी सी जलधारा बह कर सरस्वती मे मिल रही थी. वहाँ पर लिखा था कि यह जलधारा मानसरोवर के जल की है. हमारे पास पानी की बोतल तो थी ही हम सबने पहले तो उस जल को पिया फिर बोतल मे भर कर साथ ले आया. वहीं पर दो

यूरोपियन पुरुष गेरुए वस्त्र मे आए हुए थे. उनसे बात करने लगा, बहुत ही अच्छी हिन्दी वह लोग बोल रहे थे. बताने लगे जोध पूर मे वह लोग किसी मठ मे रहते हैं.

वापस हम उसी स्थान पर आए जहाँ से गणेश गुफा जाने का मार्ग था. थोड़ा सा आगे ही गणेश गुफा है. कहते है यहाँ पर बैठ कर गणेश जी ने महाभारत ग्रंथ का लेखन किया था. रचनाकार वेद व्यास जी थे. पहले तो यह पहाड़ के बीच मे गुफा थी पर अब वहाँ पर एक छोटा सा मंदिर बना दिया है. हम जब गुफा के अंदर पहुँचे वहाँ से पानी बह रहा था. गणेश गुफा से आगे व्यास गुफा है. चढ़ाई चढ़ कर मै और मेरी लड़की व्यास गुफा पहुँचे. मेरी पत्नी और लड़का गणेश गुफा के पास ही रहे. कैमरा उनके पास था इस कारण फोटो नही खिच सका. वेद व्यास की गुफा के उपर एक चट्टान है जिस पर व्यास पोथी लिखा था. उसको देख कर ऐसा लग रहा था जैसे विशालकाय ग्रंथो का पुलिंदा है. वहीं एक शिलालेख पर लिखा था , व्यास जी ने सत्तरह पुराणो की रचना की पर उन्हे संतुष्टि नही मिली अंत मे उन्होने अठारवाँ पुराण श्रीमद् भागवत की रचना की थी. व्यास जी के पुत्र शुकदेव जी ने राजा परिच्छत को अंतिम समय मे सुनाया था. गुफा छोटी सी पर साफ है जिसमे व्यास जी की प्रतिमा स्थापित है.

माना गाँव के लोग ऊन से तैय्यार किए हुए तरह-तरह के स्वेटर , कालीन आदि बेंच रहे थे. वह यहाँ खेती भी करते हैं, हमारे ड्राइवर ने तो एक बोरा आलू का खरीद कर बस मे रख लिया था.

बद्रीनाथ धाम

बद्रीनाथ धाम

हम लोग दो बजे बद्रीनाथ से वापस धर्म छेत्र के बाद कर्म छेत्र के लिए चल दिए. जाते समय ही हमने ड्राइवर को गरूण गंगा पर रुकने को कहा था पर तब तो वह रुका नही. मैने दोबारा उसे याद कराया, लौटते समय वहाँ रुक कर चलना है. पीपलकोटि से पाँच किलोमीटर आगे

पास गरूण गंगा बहती है. यहाँ पर गरूण जी का मंदिर है. कहते है भगवान के बद्रीवन जाते समय गरूण जी यहीं रुक गये क्योकि यहाँ गरूण जी के पसंद का भोजन सर्प . बहुतायत मे थे. कहते हैं अगर किसी को कोई विषैला जीव काट लेता है उसे गरूण जी कि प्रतिमा से स्पर्श करा दिया जाय तो उसका विष उतर जाता है. पढ़ा तो यह था , यहाँ पर लोग सर्पो के उन अवशेषो को जो कि पत्थरो के रूप मे है. ढूदते रहते हैं जिन्हे घर मे रखने से घर मे विषैले जीव-जन्तु का ख़तरा नही रहता है. ड्राइवर ने गरूण गंगा के पास बस रोकी. सड़क से नीचे गरूण गंगा बह रही थी. यहाँ पर लक्ष्मीनारायण का मंदिर है. उससे नीचे गरूण जी का मंदिर है. यहाँ पर हमसे पहले आए हुए एक परिवार वालो को पंडित जी पूजा किए हुए पत्थर दे रहे थे. मैने भी उनसे लिए. हमारे साथ के बंगाली बाबू तो नदी के पास ढूंड कर कुछ पत्थर ले आए.

हम जब नंद प्रयाग पहुँचे , अंधेरा ढल गया था. ड्राइवर ने यहीं रुकने का निर्णय किया पर पता लगा पिछले 2 दिनो से पानी नही आ रहा है होटेल वालो ने ठहराने से मना कर दिया. अब 8 बजे के बाद ही हम कर्ण प्रयाग पहुँचे. यहाँ सड़क के किनारे एक होटेल मे केवल तीन कमरे ही खाली मिले दोनो बंगाली और एक गुजराती भाई ठहर गये. मुझे उस होटेल वाले ने सामने के रेस्ट हाउस मे 400 रुपये मे एक कमरा देकर ठहराया. जब हम कमरे मे पहुँचे तो देख कर सुखद आनंद आया कि साथ मे ही एक नदी बह रही है. जिसकी कलकल की ध्वनि गूँज रही थी. सुबह उठ कर पता लगा कि यह तो पिंडर नदी है. होटेल से आगे ही अलकनंदा और पिंडर नदी का संगम था. सुबह के समय यहाँ से भी दूर पहाड़ो पर वर्फ़ से ढकी चोटी दिख रहीं थी .

अलकनंदा और पिंडर नदी का संगम

अलकनंदा और पिंडर नदी का संगम


सब लोग तैयार होकर सुबह 8 बजे हरिद्वार के लिए चले. श्रीनगर से कुछ किलोमीटर पहले ड्राइवर ने बस रोक दी. पता लगा, पिछले 2 दिनो से आगे पहाड़ो से पत्थर टूट कर लगातार गिर रहे हैं रास्ता बंद है. गाड़ियाँ दूसरे रास्ते से जा रही थी जो की नियमित रास्ता नही था. हमारा ड्राइवर बोला में तो इस रास्ते से कभी गया नही हू. काफ़ी ख़तरनाक रास्ता है. हम लोगो ने कहा, जब सारे लोग अब उसी रास्ते से जा रहे हैं तो तुम्हे क्या परेशानी है. पता लगा परेशानी उसे यह थी की कुछ पैसे चाहिए थे. मतलब यह जो बोरा आलू का उसने खरीदा था वह उसे मुफ़्त का पड़ जाय . क्या करते मजबूरी थी. हमे हाँ करनी पड़ी. रास्ता काफ़ी संकरा था. सारा ट्रेफिक इस रास्ते पर आ जाने के कारण ट्रेफ़िक जाम भी हो रहा था. इस रास्ते पर चलते हुए डर भी लग रहा था. बहुत उँचे-उँचे पहाड़ो से होते हुए हमारी बस जा रही थी, कई जगह तो सड़क एकदम कच्ची मिट्टी की थी , डर लग रहा था कि इतने ट्रेफ़िक के वजन से अगर कहीं ढह गयी तो सीधे सैकड़ो फिट गहरी खाई मे जाएँगे. हमने देखा की पहाड़ो को चोटी तक खेती हो रही है. विशालकाय पहाड़ो को सीढ़ी नुमा काट कर खेती की जा रही थी. इस रास्ते पर पेड़ तो बहुत कम थे. वैसे भी जब पहाड़ो को काट-काट कर खेती की जाएगी तो पेड़ तो बचेंगे कहाँ से. कोई बड़ी बात नही कि पेड़ो की जगह खेती करने से यहा भू-स्खलन ज़्यादा होता है. मुझे लगता है कि इस तरह पहाड़ो को काट कर खेती करना भी ग़लत है. और पहाड़ो मे सुरंग बना कर बाँध बनाना भी भू-स्खलन का बड़ा कारण है.

अब कुछ विशेष जानकारी बद्रीनाथ और केदारनाथ के बारे मे.

हरिद्वार से केदारनाथ 269 किलोमीटर है. हरिद्वार से ऋषिकेश 24 किलोमीटर, ऋषिकेश से शिवपुरी 13 किलोमीटर, शिवपुरी से ब्यासी 4 किलोमीटर, ब्यासी से कौड़ियाला 17 किलोमीटर, कौड़ियाला से देव प्रयाग 36 किलोमीटर, देव प्रयाग से श्रीनगर 38 किलोमीटर, श्रीनगर से कैला सौर 10 किलोमीटर, कैला सौर से रुद्रप्रयाग 35 किलोमीटर, रुद्रप्रयाग से टिलवारा 9 किलोमीटर, टिलवारा से अगस्त मुनि 9 किलोमीटर, अगस्त मुनि से कुंड 19 किलोमीटर, कुंड से गुप्त काशी 8 किलोमीटर, गुप्त काशी से सोन प्रयाग 28 किलोमीटर, सोन प्रयाग से गौरिकुण्ड 5 किलोमीटर, गौरी कुंड से रामबाड़ा की चढ़ाई 7 किलोमीटर, रामबाड़ा से केदारनाथ 7 किलोमीटर कुल दूरी 269 किलोमीटर,

केदारनाथ धाम 11824 फिट की उँचाई पर है. गौरी कुंड 6500 फिट की उँचाई पर है. लगभग 5000 फिट की उँचाई 14 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ कर पूरी करनी होती है.

केदारनाथ से गोपेश्वर होकर बद्रीनाथ 230 किलोमीटर है.

हरिद्वार से बद्रीनाथ धाम की दूरी 302 किलोमीटर है,

हरिद्वार से ऋषिकेश 24 किलोमीटर, ऋषिकेश से शिवपुरी 13 किलोमीटर, शिवपुरी से ब्यासी 4 किलोमीटर, ब्यासी से कौड़ियाला 17 किलोमीटर, कौड़ियाला से देव प्रयाग 36 किलोमीटर, देव प्रयाग से श्रीनगर 38 किलोमीटर, श्रीनगर से कैला सौर 10 किलोमीटर, कैला सौर से रुद्रप्रयाग 35 किलोमीटर, रुद्रप्रयाग से गौचर 10 किलोमीटर, गौचर से कर्णपरयाग 10 किलोमीटर, कर्णपरयाग से नंद प्रयाग 21 किलोमीटर, नण्द्प्रयाग से चमोली 10 किलोमीटर, चमोली से पीपलकोटि 17 किलोमीटर, पीपलकोटि से जोशिमठ 13 किलोमीटर, जोशिमठ से विष्णुपरयाग 12 किलोमीटर, विष्णु प्रयाग से गोविंद घाट 7 किलोमीटर, गोविंद घाट से पांदुकेश्वर 2 किलोमीटर, पांदुकेश्वर से बद्रीनाथ 23 किलोमीटर है

बद्रीनाथ धाम 11204 फिट की उँचाई पर है.

केदारनाथ से बद्रीनाथ was last modified: November 1st, 2024 by Kamlansh Rastogi
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