Site icon Ghumakkar – Inspiring travel experiences.

अमृतसर यात्रा – स्वर्ण मंदिर दर्शन

इस बार जब दिमाग में घुमक्कड़ी का कीड़ा कुलबुलाया तो मन भागा पंजाब की ओर! दर असल स्वर्ण मंदिर के चित्र कहीं दिखाई देते हैं तो यह अद्वितीय, ऐतिहासिक पूजा स्थली अपनी ओर खींचती लगती है।  मन करता रहा है कि मैं भी वहां जाऊं और कुछ समय शांति से वहां बिताऊं।   जब से कुछ जानने समझने लायक आयु हुई, तब से ही स्वर्ण मंदिर से जुड़ी अनेकानेक घटनायें, निर्माण, विध्वंस और पुनर्निर्माण की गाथायें सुनता, पढ़ता चला आ रहा हूं!  और वहीं बगल में स्थित जलियांवाला बाग जिसमें जनरल डायर के आदेश पर हुए कत्लेआम के बारे में पढ़ कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।  मुझे लगता रहा है कि मेरे लिये इन स्थानों के दर्शन हेतु जाना अत्यावश्यक है, भले ही साथ में कोई जाये या न जाये।

इस वर्ष जून से तो अमृतसर दर्शन हेतु अकुलाहट कुछ अधिक ही हो गई थी।  अपने एक  मित्र, जिनका नाम संजीव बजाज है, और जो साइकिल पर सहारनपुर से कन्याकुमारी होकर आ चुके हैं, उन से बात की तो उन्होंने कहा कि पगला गये हो, इस सड़ी गर्मी में अमृतसर जाओगे?  दशहरा- दीवाली के आस-पास जाने का प्रोग्राम बना लेंगे।  यदि यही बात हमारी श्रीमती जी ने कही होती तो हमने साफ तौर पर नकार दी होती।  पर चूंकि यह सलाह एक घुमक्कड़ मित्र की ओर से प्राप्त हुई थी तो हमने सोचा कि अवश्य ही इसमें कुछ सार होगा, हमारी भलाई होगी, अतः माने लेते हैं !  फलस्वरूप, यात्रा अक्तूबर तक के लिये टाल दी गई!  अक्तूबर में उन मित्र के साथ हमने दो टिकट जाने-आने के जनशताब्दी के बुक करा लिये पर यात्रा से तीन दिन पूर्व उनका फोन आ गया कि सुशान्त भाई, वेरी सॉरी, प्रोग्राम पोस्टपोन करना पड़ेगा – बहुत बड़ी एमरजेंसी आ गई है।  हमने कहा, “नथिंग डूइंग ! इमरजेंसी से तो हम तब भी नहीं डरे थे, जब इंदिरा गांधी ने पूरे देश में इमरजेंसी लगा दी थी।  तब भी हम भेस बदल – बदल कर पुलिस को चकमा दे-दे कर घूमते रहे, लोकतंत्र की अलख जगाते रहे !  अब भला क्या खाक डरेंगे !  अगर आप नहीं जा पा रहे हैं तो कोई समस्या नहीं, एक टिकट कैंसिल करा देते हैं !  मैं और मेरा कैमरा काफी हैं। सवा लाख से एक लड़ाऊं, तब गोविन्द सिंह नाम कहाऊं !”

सहारनपुर से अमृतसर

तो साहेबान, अपुन अपने दोनों बैग पैक करके (एक में कपड़े, दूसरे में लैपटॉप व कैमरा) नियत तिथि को नियत समय पर नियत रेलगाड़ी पकड़ने की तमन्ना दिल में लिये स्टेशन जा पहुंचे।  ये नियत तिथि, नियत समय, नियत रेलगाड़ी सुनकर आपको लग रहा होगा कि मैं जरूर कोई अज्ञानी पंडित हूं जो यजमान को संकल्प कराते समय “जंबू द्वीपे, भरत खंडे, वैवस्वत मन्वन्तरे, आर्यावर्त देशे” के बाद अमुक घड़ी, अमुक पल, अमुक नगर बोल देता है।  हमारे वातानुकूलित कुर्सीयान में, जो कि इंजन के दो डिब्बों के ही बाद में था, पहुंचने के लिये हमें बहुत तेज़ भाग दौड़ करनी पड़ी क्योंकि किसी “समझदार” कुली ने हमें बताया था कि C1 आखिर में आता है अतः हम बिल्कुल प्लेटफॉर्म के अन्त में खड़े हो गये थे।  जब ट्रेन आई और C1 कोच हमारे सामने से सरपट निकल गया तो हमने उड़न सिक्ख मिल्खासिंह की इस्टाइल में सामान सहित ट्रेन के साथ-साथ दौड़ लगाई।  परन्तु अपने कोच तक पहुंचते पहुंचते हमारी सांस धौंकनी से भी तीव्र गति से चल रही थी। हांफते हांफते अपनी सीट पर पहुंचे तो देखा कि हमारी सीट पर एक युवती पहले से ही विराजमान है।  तेजी से धकधका रहे अपने दिल पर हाथ रख कर, धौंकनी को नियंत्रण में करते हुए उनसे पूछा कि वह – मेरी – सी – ट पर – क्या – कररर – रररही – हैं !!!  उनको शायद लगा कि मैं इतनी मामूली सी बात पर अपनी सांस पर नियंत्रण खोने जा रहा हूं अतः बोलीं, मुझे अपने लैपटॉप पर काम करना था सो मैने विंडो वाली सीट ले ली है, ये बगल की सीट मेरी ही है, आप इस पर बैठ जाइये, प्लीज़।

मैने बैग और सूटकेस ऊपर रैक में रखे और धम्म से अपनी पुश बैक पर बैठ गया और कपालभाती करने लगा। दो-चार मिनट में श्वास-प्रश्वास सामान्य हुआ और गाड़ी भी अपने गंतव्य की ओर चल दी।  मिनरल वाटर वाला आया, एक बोतल ली, खोली और डेली ड्रिंकर वाले अंदाज़ में मुंह से लगा कर आधी खाली कर दी!  बीच में महिला की ओर गर्दन एक आध बार घुमाई तो वही सिंथेटिक इस्माइल!  मैने अपना बैग खोल कर उसमें से अंग्रेज़ी की एक किताब निकाल ली ! (बैग में यूं तो हिन्दी की भी किताब थी पर बगल में पढ़ी लिखी युवती बैठी हो तो अंग्रेज़ी की किताब ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होती है।) किताब का टाइटिल “Same Soul Many Bodies” देख कर वह बोली, “Do you believe in what the author has said in this book?”  मैने कहा, “पहले पढ़ तो लूं, फिर बताऊंगा कि यकीन है या नहीं !” असल में मुझे विंडो वाली सीट पसन्द है पर मेरी वह सीट उसने हथिया ली थी अतः मुझे उस पर थोड़ा – थोड़ा गुस्सा आ रहा था।  मेरा यह सपाट जवाब सुन कर उसने अपना लैपटॉप निकाल लिया और सुडोकू खेलने बैठ गई !  मैं भी अपनी किताब में मस्त हो गया।  मुझे नहीं मालूम कि कब यमुनानगर, अंबाला, लुधियाना और जालंधर आये ।  बाहर वैसे भी अंधेरा था और एसी कोच की खिड़की से रात्रि में बाहर का कुछ नज़र भी नहीं आता है।

हमारी गाड़ी रात को 10.20 पर अमृतसर स्टेशन पर पहुंचनी तय थी पर वह 10 बजे ही पहुंच गई। मैने उस महिला को हिला कर पूछा कि अगर उसकी अनुमति हो तो मैं उतर जाऊं? दर असल वह जाने कब सुडोकू खेलते खेलते थक कर सो गई थी और उसका सिर मेरे कंधे पर आकर अटक गया था।  इस चिंता में कि कहीं उसके सिर की जुएं मेरे सिर तक न पहुंच जायें, मैं जागता रहा पर सोई हुई शेरनी को जगाना नहीं चाहिये, अतः उसे जगाया भी नहीं!  अब अमृतसर आने पर तो जगाना ही था। उसने आंखें खोलीं, सॉरी कह कर सीधी हुई और मैने फटाफट अपना दोनों बैग उतारे और स्टेशन पर उतरा !

जैसा कि मेरी आदत है, मैने अमृतसर आने से पहले भी गूगल मैप का काफी घोटा लगाया था। हमारा C1 कोच प्लेटफॉर्म के एक छोर पर था और मुझे जहां से रिक्शा – टैंपो आदि मिलने की उम्मीद थी, वह स्थान प्लेटफॉर्म का दूसरा छोर था।  पर मेरे पास लुढ़काने वाला बैग होने के कारण मन को कोई कष्ट नहीं था, मजे से ट्रॉली को लुढ़काते – लुढ़काते Exit point देखता-देखता आधा किलोमीटर से अधिक चलता रहा तब कहीं जाकर बाहर निकलने का रास्ता मिला।  दर असल, अमृतसर स्टेशन पर प्लेटफार्म नं० १  से बाहर निकलने के बजाय मैं दूसरी दिशा  से बाहर निकलना चाहता था क्योंकि स्वर्ण मंदिर दूसरी दिशा में ही है।   यदि प्लेटफार्म नं० १ से बाहर जाओ तो फ्लाईओवर से होते हुए रेलवे लाइन पार करके दूसरी दिशा में ही जाना होता है।  फालतू में लंबा चक्कर क्यों काटना?   वैसे भी जो इंसान प्लेटफार्म नं- १ की दिशा से बाहर निकले और फिर स्वर्ण मंदिर जाने की बात कहे तो इसका सीधा सा मतलब है कि वह अमृतसर पहली पहली बार आया है।  खैर।

बाहर कुछ टैंपो वाले खड़े थे ।  उनमें सवारियां भी पहले से मौजूद थीं ।  एक के ड्राइवर ने अपनी बगल में बैठने के लिये इशारा करते हुए कहा, सामान पीछे रख कर यहां बैठ जाओ।  परन्तु,  सामान पीछे (यानि, पिछली सीट के भी पीछे डिक्की जैसी खुली जगह में) रख कर आगे ड्राइवर के पास बैठना मुझे अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मारने जैसा ही लगा।  भला आप ही बताइये,  वहां से कौन कब मेरा सूटकेस लेकर रास्ते में उतर गया, मुझे क्या पता चलता?   टैंपो का आइडिया छोड़ कर एक रिक्शे से कहा, “हरमंदिर साहब!  बोलो कितने पैसे?”   (अमृतसर से बाहर के लोग जिसे स्वर्ण मंदिर के नाम से पुकारते हैं, वह वास्तव में हरमंदिर साहब हैं।  मैने सोचा कि हरमंदिर साहब कहने से मैं ’लोकल’ माना जाऊंगा और मुझे ठगने की कोशिश नहीं की जायेगी ! )   वह बोला, “तीस रुपये।“  मेरी जानकारी के अनुसार यह राशि बिल्कुल जायज़ थी पर मैं हिंदुस्तानी हूं और पंकज मेरे साथ हो या न हो, दोस्त तो उसी का हूं, अतः बोला, “क्या बात कर रहे हो? मैं कोई बाहर का थोड़ा ही हूं । यहां से तो बीस रुपये होते हैं।“  पर वह बोला, “नहीं साब, तीस रुपये बिल्कुल जायज़ बताये हैं, जल्दी से बैठो !”  मुझे लगा कि चलो,  फालतू  नौटंकी करने से क्या फायदा!   बैठे लेते हैं।

हरमंदिर साहब, जिसे उसकी स्वर्णिम आभा के कारण दुनिया स्वर्ण मंदिर नाम से जानती है, जाने के लिये गांधी गेट में से होकर व हॉल बाज़ार के मध्य में से जाते हैं।  रात के साढ़े दस बज रहे थे, हाल बाज़ार बन्द था परन्तु यह तो स्पष्ट ही लग रहा था कि ये यहां का अत्यन्त प्रसिद्ध और व्यस्त बाज़ार है। स्टेशन के बाहर रिक्शे में बैठा था तो लगा था कि सारा शहर सोया पड़ा है, परन्तु स्वर्णमंदिर तक पहुंचते-पहुंचते  भीड़ बढ़ती चली गई और स्वर्ण मंदिर के बाहर तो वास्तव में इतनी भीड़ थी।  इतनी अधिक भीड़  कि अगर कोई मां अपने जुड़वां बेटों का हाथ थामे न रहे तो मां और दोनों बेटे के बिछड़ जाने की, और इसके बाद एक और नयी बॉलीवुड फिल्म के निर्माण और हिट होने की पक्की संभावना थी।  खैर, रिक्शे से उतरा और पैसे देने के लिये पर्स टटोला तो उसमें 500 से छोटा कोई नोट ही नहीं था। बड़ा नोट देख कर रिक्शे वाला फैल गया। मैने उसे शान्त करते हुए कहा कि एक मिनट रुको, मैं पैसे खुलवा कर देता हूं।  दो दुकानदारों से छुट्टे पैसे मांगे तो उन्होंने मुंडी हिला दी !  तीसरी दुकान फालूदा वाले की थी, मैने उससे एक फालूदा कुल्फी बनाने को कहा ।  जब उसने फालूदा, कुल्फी और उस पर थोड़ा सा रूह अफज़ा डाल कर प्लेट मेरी ओर बढ़ाई तो मैने कहा, “भाई, पहले रिक्शे को विदा कर दूं, फिर आराम से खाउंगा! ये 500 पकड़ो और मुझे 30 रुपये दे दो।“ अपने बैग दुकान में ही छोड़ कर, खुले पैसे लेकर मैं रिक्शे तक आया, उसे विदा किया, वापिस कुल्फी खाने के लिये पहुंचा तो दुकानदार पूछने लगा कि कमरा चाहिये क्या?  कितने तक का चाहिये?  मैं सस्ता सा कमरा दिला देता हूं !”  मुझे अंगूर फिल्म की याद हो आई!”  मेरे पास इतने पैसे तो नहीं थे कि संजीव कुमार की तरह मैं भी हर तरफ “गैंग” देखने लगूं, पर हां, कमीशन खोरी का डर अवश्य था।

कुल्फी खा कर, दोनों बैग उठा कर मैं चला तो वह दुकानदार भी मेरे से दो कदम आगे – आगे मुझे रास्ता दिखाता हुआ बाज़ार सराय गुरु रामदास पर चल पड़ा!  (बाज़ार का ये नाम है, ये बात मुझे बाद में, होटल द्वारा दिये गये विज़िटिंग कार्ड से पता चली)।  मुझे उसका साथ-साथ जाना अच्छा तो नहीं लगा पर फिर लगा कि दिखा रहा है तो देख लेते हैं!  मेरे साथ कोई जबरदस्ती तो कर नहीं सकता, अल्टीमेटली कमरा फाइनल तो मुझे ही करना है।  हम जिस होटल / गैस्ट हाउस में भी जाते, मैं मन ही मन यही कल्पना करता रहा कि बताये जा रहे किराये में इस दुकानदार का कमीशन कितना होगा! दुकानदार के साथ एक होटल और दो गैस्ट हाउस देख लेने के बाद मुझे इतना भरोसा हो गया कि अब मैं अपने आप अपने मतलब की जगह ढूंढ़ सकता हूं और मुझे इन सरदार जी की जरूरत नहीं है।  अतः उनको हार्दिक धन्यवाद बोल कर विदा किया और फिर मैं कमरे की तलाश में आगे चल पड़ा ।  हर गली में गैस्ट हाउस और होटल थे, बस समस्या थी तो सिर्फ यही कि रात के ग्यारह बज रहे थे अतः लग रहा था कि जल्दी से जल्दी कोई जगह पक्की कर लेनी चाहिये। वहीं एक गली में होटल गोल्डन हैरिटेज के नाम से एक होटल मिला !

होटल गोल्डन हैरिटेज के सौम्य स्वभाव के मैनेजर

उन्होंने कमरे दिखाये – 650 में बिना वातानुकूलन और 850 में वातानुकूलन सहित !  मौसम बहुत खुशनुमा था, ए.सी. की कतई कोई जरूरत अनुभव नहीं हो रही थी, फालतू पैसे खर्च करने की इच्छा भी नहीं थी अतः 650 वाला कमरा ’पसन्द’ कर लिया जिसमें सारी चैनल सहित टी.वी., गीज़र व इंटरकॉम आदि सामान्य सुविधायें उपलब्ध थीं।  होटल रिसेप्शन पर प्रविष्टि करने के बाद मुझे मेरे सामान सहित कमरे में पहुंचा दिया गया।  मुझे रात्रि में स्वर्ण मंदिर देखने और फोटो खींचने की बेचैनी थी सो फटाफट नहा धोकर कैमरा उठा कर नीचे आया और पूछा कि गेट कब तक खुला है?  बताया गया कि पूरी रात खुला रहेगा, कभी भी आ सकते हैं !  उन्होंने यह भी कहा कि आप इस छोटे से गेट से निकल जाइये तो स्वर्ण मंदिर सामने ही है। जूते – चप्पल पहन कर जाने की भी जरूरत नहीं, चप्पल यहीं छोड़ जाइये – “काहे को चप्पल जमा कराना, टोकन लेना।“  मुझे लगा कि ये होटल वाला स्वभाव का बहुत अच्छा है।

एच.डी.एफ.सी. बैंक और ए.टी.एम. पर लगा हुआ नक्शा

हॉल बाज़ार की ओर से स्वर्ण मंदिर हेतु प्रवेश द्वार

रात के १२ बजे भी पंखों की सफाई के बहाने कार सेवा

बरामदे में सो रहे तीर्थ यात्री

जैसा कि दुनिया जानती ही है, स्वर्ण मंदिर के चार प्रवेश द्वार हैं !  मैं हॉल बाज़ार वाली दिशा से प्रवेश कर रहा था, जिसे घंटाघर वाली साइड भी कहा जाता है।   (पर घंटाघर तो विपरीत दिशा में भी बना हुआ है, फिर इसी को घंटाघर वाली साइड क्यों कहते हैं?) मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व मैने सिर ढकने के लिये 10 रुपये में एक भगवा वस्त्र भी खरीदा।  बाद में मंदिर के प्रदेश द्वार पर देखा कि प्लास्टिक की एक बड़ी सी बाल्टी में सैंकड़ों वस्त्र रखे हुए हैं जिसमें से आप भी एक वस्त्र लेकर उसे अपने सिर पर बांध सकते हैं।  वापिस जाते समय आप उसे वहीं बाल्टी में छोड़ जाते हैं।   हाथ धोने के लिये खूब सारी टोंटियां और पैर धोने के लिये फर्श में आठ फुट चौड़ा, छः इंच गहरा तालाब बनाया गया था ताकि आप टखनों तक भरे हुए उस पानी में से होते हुए मंदिर में प्रवेश करें।  कई व्यक्तियों को मैने देखा कि उस पानी को उन्होंने चरणामृत की तरह से पान भी किया।  मैं भगवान के चरण धोकर चरणामृत गृहण कर सकता हूं पर उस पानी को जिसमें न केवल मैने बल्कि और भी अनेकानेक श्रद्धालुओं ने अपने पांव धोये हों, पीने को मेरा मन तैयार नहीं हुआ।  खैर, उस ड्योढ़ी में से अन्दर, झील में हरमंदिर साहब का जगमगाता और झिलमिलाता हुआ दृश्य देख कर मैं चमत्कृत रह गया और चित्रखिंचित सा उसे ताकता रहा।    सीढ़ियां उतर कर परिक्रमा पथ पर पहुंचा तो वहां अर्द्धरात्रि के कारण बहुत भीड़ तो नहीं दिखाई दी परन्तु फिर भी दो-तीन सौ लोग अवश्य उपस्थित थे।  पता चला कि रात्रि 11.15 से सुबह 3 बजे तक मंदिर के कपाट बन्द रहते हैं।  परिक्रमा पथ के बरामदों में हज़ारों की संख्या में स्त्री – पुरुष और बच्चे फर्श पर ही घोड़े बेच कर सोये हुए थे।     अगर मेरे पास दो बैग न होते, जिनकी रक्षा करना मेरा परम कर्त्तव्य था तो मैं भी उन बरामदों में खुशी खुशी सोने के लिये तत्पर था।

मुझे वहां पर फोटो खींचते हुए देख कर एक सज्जन मेरे पास आये और अपना कैमरा मुझे देकर बोले कि मैं एक फोटो उनका भी खींच दूं !  उनकी पत्नी के साथ उनके कुछ चित्र खींच कर मैने कहा कि अगर आपकी ई-मेल आई.डी. है तो एक फोटो मैं अपने कैमरे से खींच सकता हूं जो शायद बेहतर आयेगा क्योंकि मैं अपने कैमरे को ज्यादा बेहतर ढंग से समझता हूं।  उनका फोटो मैं उनको ई-मेल कर दूंगा।  उन्होंने खुशी-खुशी फोटो खिंचवाई और अपना विज़िटिंग कार्ड दिया ।  रात को दो बजे अपने कमरे में पहुंच कर मैने फोटो लैपटॉप में अंतरित कीं और उनकी फोटो उनको सप्रेम ई-मेल कर दी।

स्वर्ण मंदिर परिसर में लगभग दो-ढाई घंटे परिक्रमा पथ पर घूमते फिरते मैं अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करता रहा !  निस्सीम शांति, चिन्ता-विहीन मन, एक अबूझ सी प्रसन्नता!   हरमंदिर साहब में प्रवेश उस समय बन्द हो चुका था, अतः  वहां परिक्रमा पथ के छोरों पर बनी हुई छबील, ऐतिहासिक पेड़ “बेरी बाबा बुढ्ढा साहिब” आदि के दर्शन करता रहा, उन पर लिखे हुए विवरण को पढ़ता रहा। बार – बार मैं कल्पना लोक में विचरते हुए कुछ सौ वर्ष पूर्व के काल-खंड में पहुंच जाता था और मेरे नेत्रों के सामने बेरी के पेड़ के नीचे अपना आसन जमाये बैठे बाबा बुढ्ढा सिंह साहिब आ जाते थे जिनके पास खुदाई के लिये फावड़े, तसले आदि रखे थे। वे उसी पेड़ की छाया में बैठे हुए सरोवर की खुदाई और हरमंदिर साहब का निर्माण कराया करते थे और मज़दूरों को हर रोज शाम को उनको भुगतान किया करते थे।  ऐसा ही एक दूसरा पवित्र स्थल – अड़सठ तीर्थ – थड़ा साहिब वहां पर है जहां पर सन् 1577 में गुरु रामदास जी ने अमृत सरोवर की खुदाई करवाई थी और सन् 1588 में हरमंदिर साहब की नींव रखवाई गई थी!   इन पावन तीर्थों को अपनी आंखों से देख कर, स्पर्श कर शरीर में एक सिहरन सी होती रही। लगता था कि मैं शायद यहां पहले भी कभी आया हूं जबकि निश्चित रूप से यह मेरी प्रथम अमृतसर यात्रा थी।

परिक्रमा पथ के प्रसिद्ध तीन पवित्र वृक्षों में से एक का वर्णन

छबील पर चौबीसों घंटे सेवा चलती रहती है!

अर्द्धरात्रि में जगमगाता हुआ अकाल तख्त साहिब

स्वर्णिम आभा बिखेरता हरमंदिर साहिब का नयनाभिराम दृश्य

श्री गुरु ग्रंथ साहिब का अहर्निश पाठ

बरामदे में से हरमंदिर साहब का झिलमिलाता स्वरूप

रात्रि १२ बजे दर्शनी ड्योढ़ी पर भीड़ नहीं होती !

कितनी देर भी देखते रहें, मन नहीं भरता !

रात को १२ बजे कार सेवा –चांदी के छत्र की पालिश

दर्शनार्थियों की पंक्ति में सुबह लगने का विचार बना कर वापिस होटल के अपने कमरे में चला आया। स्वर्ण मंदिर में दो – एक बातें जो मुझे सबसे अधिक विशिष्ट लगीं ।  बावजूद इस तथ्य के  कि मैं सिक्ख नहीं हूं, मुझे क्षण भर को भी ऐसा नहीं लगा कि मैं किसी अन्य धर्म के पूजा स्थल पर आया हूं।  वहां मौजूद एक भी व्यक्ति ने, यानि सेवादार ने मेरे प्रति ऐसा भाव नहीं रखा कि मैं उनका अपना आदमी नहीं हूं!  सबने मुझे नितान्त स्वाभाविक रूप में स्वीकार किया।  दूसरी बात ये कि कैमरा लेकर घूमने और फोटो खींचने पर कहीं कोई पाबन्दी नहीं थी। (जैसा कि मुझे अगले दिन सुबह पता चला, सिर्फ हरमंदिर साहब के स्वर्णिम भवन के अंदर कैमरा प्रयोग करना मना था। यहां तक कि,  अगर गले में कैमरा लटका हुआ है तो भी वहां किसी को कोई दिक्कत नहीं थी। ऊपर की मंजिल पर जाकर मैने वहां से अन्य भवनों के दृश्य अपने कैमरे में कैद करने आरंभ किये तो एक सज्जन ने बड़े सम्मान के साथ मुझे इंगित किया कि मैं ऐसा न करूं !  यह उस स्थिति से सर्वथा विपरीत था जो मुझे मनसा देवी मंदिर, हरिद्वार में और भी न जाने किस – किस मंदिर में झेलनी पड़ी है। मनसा देवी मंदिर में तो एक व्यक्ति मुझसे लड़ने को तैयार हो गया था और उस जमाने में मेरे कैमरे की फिल्म बरबाद करने पर उतारू था। पत्रकार होने का रौब ग़ालिब कर मैने उसे काबू किया था)।

शेष अगले अंक में …. सुबह हरमंदिर साहिब के दर्शन,  जलियांवाला बाग दर्शन और शाम को वाघा बार्डर !

अमृतसर यात्रा – स्वर्ण मंदिर दर्शन was last modified: November 26th, 2024 by Sushant Singhal
Exit mobile version