Devbhoomi Uttarakhand …..2

….2      देवभूमी उत्तराखण्ड यात्रा – केदारनाथ-बद्रीनाथ

स्वामीजी से अनुमति ले 23-अक्टूबर-2010 की सुबह मैं वहां से केदारनाथ के लिये रवाना हुआ। हलकी बून्दाबान्दी हो रही थी, स्वामीजी ने स्वयं गेट खोलते हुए आशिर्वचन कहे और श्रीगौरहरीजी मुझे ‘विश’ करने नंगे पाँव ही आ गये। उनकी सहृदयता व स्नेह ने मुझे अन्दर तक भिगो दिया जिसे मैं अब भी महसूस करता हूँ। उत्तरकाशी से निकलते ही खड़ी चढाई के कारण कुछ स्पीड में रहते हुए, तीखे मोड़पर बारिश व अन्धेरे के कारण गहरे खड्डे में पिछला टायर उछला व बॉडी से टकराहट की आवाज आनेपर गाड़ी में नुक्सान होने की आशंका के साथ स्वयं पर क्षोभ हुआ कि मैं क्यों नहीं नीचे गीयर मे ही सावधानीपूर्वक गाड़ी चलाता हूँ। गाड़ी के धीरे होते ही एक नवयुवक अनुनय करने लगा कि उसकी बस छूट गई है और उसे श्रीनगर में किसी साक्षात्कार परीक्षा में उपस्थित होना है इसलिये मैं उसे साथ ले चलूं। मेरे कहने पर कि श्रीनगर मेरे रास्ते में नहीं पड़ेगा तो उसने आगे घनस्याली या किसी अन्य उपयुक्त स्थान से बस पकड़वाने की गुजारिश की। वह 75-80 कि.मी.तक साथ रहा और देवभूमी के विषय में अपनी आपबीती कई बातें बतायी। स्थानीय बाशिन्दे लहसुन का खूब उपयोग करते हैं। इसकी गन्ध के कारण ठण्ड मे भी मुझे बार-बार दरवाजे के शीशे को नीचे करना पड़ रहा था। बुद्धकेदार होते हुए तिलवाड़ा पहूंचने पर मुझे मुख्य सड़क-मार्ग मिला। यहां तक ज्यादातर सड़क की हालत खराब थी कहीं-कहीं तो इतनी कि केवल नाम की ही सड़क थी। गुप्तकाशी से कुछ पहले कालीमठ के लिये रास्ता फ़टता है। मेरा विचार कालीमठ में रात्री-विश्राम का था जो अभी 10 किलोमीटर दूर था परंतु मुख्य मार्ग की अच्छी सड़क से आते हुये बुरी सड़क होने की बात मन से निकल चुकी थी और अन्धेरा गहराते के कारण मैं बिना ज्यादा विचार किये कालीमठ की ओर चल पड़ा। रास्ता बहुत ही दुर्गम था, कहीं-कहीं तो ऐसा लगता था कि सड़क कभी कोई बनी ही नहीं होगी। चढाई इतनी दुर्गम कि दूसरे दिन वहां से लौटते समय सैकेण्ड-गीयर में चलती गाड़ी में पहला गीयर लगाते समय गाड़ी का मोशन खत्म होने पर कच्चे रस्ते व भीगी मिट्टी में कार का टायर ‘स्लिप’ करने लगा व न्यूट्रल पर गाड़ी के पीछे लुढकने को टायर के पीछे बड़े पत्थरों का डालना भी उसे रोक नहीं पा रहा था। उस वक्त वहां का एक फौजी बाशिन्दा गुप्तकाशी तक जाने के लिये साथ था। जिनके सहयोग से मैं इस कठिन परिस्थिति से निकल पाया। कुछ दूर आगे जाते ही वह फौजी यह कहते हुये उतर गया कि यहाँ से शॉर्टकट रस्ता है और वह पैदल जल्दी पहूँच जायेगा। क्या केवल सहायता के लिये वह मेरे साथ आया था !

कालीमठ व महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली आदि मन्दिरों के लिए पैदल पुलिया से एक नदी को पार करना पड़ता हैं। गाड़ीयाँ सड़क पर इस पार खड़ी रहतीं हैं। दुर्गम रस्ते, ऑफ सीजन तथा हाल ही में हुई प्राकृतिक आपदा के कारण मुझे वहाँ कोई अन्य यात्री नहीं मिला। वैसे भी यह स्थान दुरूह पंथ के शक्ति साधकों का सिद्धपीठ है और उस विशिष्ट पंथ के अनुयाईयों के लिये तिथि वार नक्षत्रों की स्थिति का बड़ा महत्व रहता है जो शायद उस दिन उपयुक्त नहीं था। जिसप्रकार लिंग़ पूजा शंकरजी के निमित्त की जाती है। यहां योनि पूजा शक्ति-रूपा भगवती के प्रति की जाती है। खाना किसी भी दुकान पर नहीं मिला और जो ऑर्डर देने पर उपलब्ध करते हैं पकाते हैं उन्होंने भी देर होने के कारण असमर्थता प्रकट की। शांतीकुंज से लिये पैकेटों का मैनें उपयोग किया। वैसे भी उत्तराखण्ड में मुझे कभी भूख का आभास नही हुआ। यहाँ की हवा व पानी ही शायद पूर्ण आहार है। कई वर्ष पहले दूरदर्शन पर हिमालय में साधनारत किसी साधू से साक्षात्कार प्रसारण में, उन्होंने केवल दो आँवले व उसपर गंगाजल का सेवन, पूरे दिन की आहारपूर्ती की पर्याप्तता का जिक्र किया गया था। जिसपर अनायास ही अब विश्वास करने का मन होने लगा।

24-अक्टूबर-2010 की सुबह मन्दिर प्रांगण में स्थित देव समीति के होटल कमरे मे स्नान कर तैयार हो मन्दिरों मे ध्यान स्तुति की और मठ प्रांगण में ही स्थित दुकान में चाय पीकर  केदारनाथ के लिये रवाना हुआ। गुप्तकाशी में श्रीविश्वनाथ मन्दिर सड़क के किनारे ही ऊँचाई पर स्थित है। चौक पर काफी गहमा-गहमी और दुकानों की सघनता के कारण मन्दिर जाने की सीढीयाँ ही नजर नहीं आती। मन्दिर तक गाड़ी से जाने का एक अन्य घुमावदार सड़क मार्ग है। पूछने पर सबने मुझे उसी मार्ग का जिक्र किया। मैनें मन्दिर दर्शन का विचार त्याग नाश्ते के लिये गाड़ी पार्क की तो श्रीविश्वनाथजी की कृपास्वरूप एक पण्डा आया और सीढीयों के रास्ते का जिक्र करते हुए अल्प समय में ही दर्शन होना व पूजा अर्चना की महत्ता का वर्णन करने लगा। सीढीयाँ ऊँची व काफी थी। दो तीन जगह रुकते हुये मन्दिर में पहूँचकर मन बड़ा प्रसन्न हुआ। शिव-स्तुति कर शांती मिली। हल्के व उत्फुल्लित मन के साथ नीचे आ वहां से रवाना हुआ। रामपुर के पश्चात सोनप्रयाग पहुँच, खाना खाया और चाय पी। यहाँ विस्तृत सड़क बड़े चौक का रूप ले लेती है। चौक यात्रीयों की विरलता के कारण शायद और भी बड़ा लग रहा था। यहाँ से गौरीकुण्ड 5 किलोमीटर है और वहां से 14 किलोमीटर की पैदल चढाई पश्चात केदारनाथ मन्दिर है। कार रुकने पर एक घोड़ेवाला लड़का आया और अगली सुबह घोड़े से केदारनाथ दर्शन के लिए अनुबन्ध करने की बात करने लगा परंतु भाड़े की दर अगले दिन जो खुलेगी वह लेने की बात पर अड़ा रहा जो कि यात्रीयों की संख्या के आधार पर कम-ज्यादा होती रहती है, मोल-भाव भी खूब होता है। मैं गौरीकुण्ड के लिये रवाना हो गया। वहां चौक में पार्किंग वर्जित है परंतु काफी गाड़ीयाँ खड़ी थी। पुलिस को गुजारिश करने पर उनका रवैय्या अच्छी अतिरिक्त राशि प्राप्ति का देख मैनें करीबन 500 मीटर पहले स्थित पार्किंग स्थल पर गाड़ी को पार्क करना उचित समझा। यहाँ सतत बहते गर्म पानी का कुण्ड ‘गौरीकुण्ड’ है और इसी के नाम पर ही इस स्थल/कस्बे का नाम गौरीकुण्ड है। । ऐसा लगता है कि माँ गौरी ने अपने पति शिव के भक्तों के लिये 28(14+14) किलोमीटर की थकान निवृति के लिये गर्म पानी का इंतजाम किया हो। अन्धेरा होने को था। मैने कुण्ड के पास पीठ से बैग उतार व उसपर पहने कपड़े रक्खे और कुण्ड में काफी समय, आधे घण्टे से भी ज्यादा गर्म पानी में रहा। बर्फीले ठण्डे मौसम में अनवरत बहते गर्म पानी के कुण्ड में रहने का आनन्द ही अर्वचनीय है। इसमें नहा कर केदारनाथ दर्शन के लिये जाने की मान्यता है और दर्शन कर वापिस आने पर इसमें नहाने से सफर की थकान उतर जाती है। कुण्ड के चारों तरफ कई मंजिलों के सघन आवास आदि निर्माण हैं। निकट ही रेस्टोरेण्ट है जहां मद्रासी तौर तरीके की अच्छी चाय पी। अन्य संकड़े रस्ते, मकानों के बगल से, बीच अहातों से, सीढीयों से गुजरते हुए मुख्य पतली सड़क पर आया और देवलोक नामक होटल में पहली मंजिल पर एक कमरा लिया। बैग रखकर बाहर आ किसी अन्य रेस्टोरेण्ट में खाना खाया व फोन करने कि लिये निकटस्थ पीसीओ में गया। घर पर सभी चिंतित थे और लौटने के लिये कह रहे थे क्योंकि दो दिन पहले ही दूरदर्शन पर समाचार था कि बर्फ गिरने के कारण केदारनाथ का रास्ता अवरोधित है। दूसरे दिन घोड़े से यात्रा के समय घोड़ेवाले ने बताया कि एक दिन पहले ही बर्फ के कारण कई महिला-यात्री रोने लग गई थी और रामबाड़ा से ही उन्हें लौटना पड़ा था। यह बाबा केदारनाथ की मुझपर कृपा थी कि रास्ते पर गिरी बर्फ भी पिघल चुकी थी और मुझे उनका दर्शन मिला। ज्यादातर घोड़ेवाले नेपाल से थे जो सीजन में यात्रीयों से और अन्य समय नीचे कस्बों में वस्तुएं ढोने, विशेषकर कंस्ट्रक्सन में काम आनेवाली बजरी, पत्थर, सिमेण्ट आदि से उपार्जन कर अपने देश भेजते हैं। पीसीओ में उनके द्वारा की गई कॉलों का अहम प्रतिशत होता है। पीसीओ मालिक से बातें करते अंतरंगता हो गई और उन्होंने एक घोड़ेवाले को दूसरे दिन सुबह सात बजे रवाना होकर मुझे केदारनाथ दर्शन के लिये अनुबन्धित करा दिया। उससे उसका टोकन मुझे दिलवा दिया, यह कहते हुये कि दर्शन यात्रा पूर्ण होने पर उसे लौटा दूं। 24-अक्टूबर-2010 की सुबह चार बजे उठकर फ्रेश हो पेस्ट कर गौरीकुण्ड के गर्म पानी में घण्टेभर से ज्यादा ही बिताया होगा। टट्टूवाले टट्टुओं को जोड़े से चलाते हैं। सात बजे तक अन्य एक यात्री नहीं मिलने की स्थिति में भी वह दूसरे टट्टू को खाली ही लेकर चल पड़ा। टट्टूवाले स्वयं पैदल ही चलते हैं चाहे दूसरा टट्टू खाली ही क्यों ना चल रहा हो। सामने पहाड़ों के हिमाच्छादित शिखर, दाहिनी तरफ सैकड़ों फिट नीचे गहराई में बहती मन्दाकिनी, रास्ते के लिये कहीं कटे पहाड़ की छत व पतली धार मे बहता पानी, बड़े ही आनन्दित करने वाले दृश्य थे। जूतों के अन्दर जुराबों को बेधते हुये तीर सी ठण्डी हवा पंजों को सुन्न कर दे रही थी। रास्ते में बाबा केदारनाथ के जयघोष से वातावरण गुंजायमान था। हेलीकॉप्टरों का निरंतर आवागमन था जो फाटा से आते हैं। हेलीकॉप्टर द्वारा यात्रा से गौरीकुण्ड ‘मिस’ करना पड़ता है। रामबाड़ा में खच्चरवाले अपनी निश्चित दुकानों पर रुकते हैं और खच्चरों को गुड़ खिलाते हैं तबतक यात्री चाय अल्पाहार लेते हैं। यहाँतक आधी दूर आ चुके होते हैं। इसके बाद की कष्टकारी यात्रा आध्यात्मिक विश्वास या ‘एडवेंचर’ समझकर पूरी होती है। टट्टू से उतरने के पश्चात करीबन आठ सौ मीटर दूर श्री केदारनाथ बाबा का मन्दिर है। यहाँ बैल के थुह रूप में शिवजी की पूजा होती है। कहते हैं कि शिवजी पाण्डवों से नहीं मिलने की इच्छा से बैल बनकर उनके झुण्ड में विचर रहे थे। भीम ने उन्हें पहचाना तो वे धरती के अन्दर जाने लगे और लपककर पकड़ने की कोशिश में भीम के हाथ उनका थुह आ गया। मुँह उनका काठमाण्डु नेपाल में निकला जहाँ वे पशुपतिनाथ मन्दिर में पूजे जाते हैं। केदारनाथ मन्दिर विशाल पत्थरों से निर्मित है। शिवजी के अन्य मन्दिरों की तरह दर्शनार्थियों द्वारा जल, दुग्ध, घी, बेलपत्र, पुष्प आदि अर्पण सहित पूजा-अर्चना के कारण भीड हो ही जाती है जिसमें प्रयास कर जगह बनानी पड़ती है। पण्डित की सहायता से पूजा कर गर्भगृह से बाहर आ मन्दिर परिसर में कुछ समय बिता बाजार में जलेबी पकौड़ी का नाश्ता किया। बर्फीले वातावरण में गर्म नमकीन स्वादिष्ट लगती है, दर दो सौ रुपये किलो तक थी। करीब एक किलोमीटर में फैली बर्फ से धवल समतल जैसा दिखता मैदान, उत्तंग पहाड़ों के हिमाच्छादित शिखर, हम मैदानवासियों के लिये विस्मयकारी आनन्ददायक सौन्दर्य था। पहाड़ पर नीचे उतरते समय की टट्टुओं से यात्रा बहुत तकलीफदेह होती है। रामबाड़ा के पश्चात तो रकाब पर उठंग रहते हुये भी हर सीढी पर झटके से होते कमर दर्द के कारण पूरा ध्यान केवल शेष रास्ते की तरफ ही रहा। वातावरण, प्राकृतिक सौन्दर्य आदि सब गौण थे, था केवल आध्यात्मिक संतोष और भावना। शिव व शक्ति के स्थान दुर्गम स्थलों पर ही होते हैं। मेरे बहनोई श्री बेणीशंकरजी ने कई बार अमरनाथ यात्रा की है। वे बताते हैं कि लौटते समय की कष्टकारी यात्रा के दौरान उन्हें ऐसा कष्ट किसी पाप का प्रतिफल ही लगता था परंतु अगले वर्ष पुन: वहाँ जाने कि लिए मन लालायित हो जाता। मैं होटल से ‘चेक-आउट’ कर चुका था परंतु इच्छा कर रही थी कि गौरीकुण्ड पहुँचते ही लेटने की व्यवस्था करूँ। खच्चरों के बेस स्टेशन पर उतर मैं किसी पत्थर पर बैठ गया। अपने अन्य कार्यों से निवृत हो घोड़ेवाले ने मेरा बैग उठाते हुए कहा कि वह कुछ दूर बाजार में आगे तक मेरे साथ चलेगा। केदारनाथ यात्रा के दौरान उसका सेवाभाव भुलाया नहीं जा सकता। धीरे-धीरे चलते हुये मैं कार तक आ गया। गुजरी धूप के कारण कार गर्म थी। बैठते ही आराम महसूस कर सोनप्रयाग के लिये चल पड़ा। जाते समय रुके चायवाले के पास चाय पीने के लिये रुकते ही वह प्रसन्नतापूर्वक बोला कि अरे आप इतनी जल्दी दर्शन भी कर आये, अब आप रात यहीं सोनप्रयाग में बिताईयेगा। मैने कहा कि आपने ही तो मुझे त्रिजुगीनारायण जाने के लिये प्रेरित किया था। क्या इस समय जाने के लिये वहाँ का रास्ता खराब है? नहीं नहीं सड़क है। बहुत अच्छा, त्रिजुगीनारायण में रुक जाइयेगा। वहाँ काली-कमलीवाले की अच्छी धर्मशाला है। वह एक तीस-पैतीस साल का युवक था और जाते समय स्थानीय लोगों से बात करते वक्त किसी के इस सुझाव पर कि दैविक अनुभवों को किसी के साथ ‘शेयर’ नहीं करने चाहिये, उसने तपाक से भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय को उद्धृत करते हुये बात काटी कि ईश्वर कथा को जितनी बार हो सके कहना चाहिये। उससे गीता की बात सुन मुझे उसके प्रति आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा हुई। पूछने पर उसने अवनत मुख से यदा-कदा श्रवण की बात बतायी। उसके पास चाय पीने के लिये रुकने का यह भी एक भावनात्मक बन्धन था। यहाँ से त्रिजुगीनारायण बारह किलोमीटर है जिसका रास्ता गुप्तकाशी के रास्ते मे कुछ दूर जाने पश्चात ही फटता है। पुराने समय में गंगोत्री से केदारनाथ के लिये पैदल यात्रा के दौरान त्रिजुगीनारायण एक अहम पड़ावस्थल था जो अब सुगम सड़क मार्ग निर्माण के कारण मुख्य मार्ग से दूर हो गया है। मान्यता है कि शिव-पार्वती का यहाँ विवाह हुआ था जिसका हवन वेदी कुण्ड आज भी प्रज्वलित है। यहाँ स्थित रूद्र-कुण्ड, विष्णु-कुण्ड, ब्रह्म-कुण्ड व सरस्वती-कुण्ड में नहाने व तर्पण पिण्डदान आदि कर्मकाण्ड करने की अहमन्यता है। मुझे सड़क मार्ग होने के अवशेष चिन्ह ही मिले। कार सेकेण्ड गीयर तक ही चल पा रही थी। सघन विरल हरियाली, ऊँचे पेडों पर कूदते बन्दर, पक्षियों के कलरव का आनन्द लेता खरामा खरामा चल रहा था कि निर्जन स्थान में बाँई ओर एक बालक, कुछ चार-पाँच वर्ष का, हरियाली की झुरमट में, मुस्कुराते हुये सौम्यतापूर्वक मेरी ओर हाथ हिलाते हुये दिखा। उसकी मोहक मुस्कान, कद से कुछ स्थूलकाय होने (बौने जैसे) व निर्जन में अकस्मात दृष्टिगोचर होने से मैं सन्न हो स्तम्भित सा उसे देखता रहा और कार चलती रही। आकांक्षा है कि यह स्मृति जीवनपर्यंत बनी रहे। पहाड़ के किनारे चौड़े रास्ते पर लम्बे पेडों की सघन हरियाली में बन्दरों के झुण्ड को देख मैनें खिड़की से बिस्कुट निकाले तो वे सब भाग लिये। रुककर नीचे उतरा तो वे सब और दूर चले गये। मैने तीन-चार जगह कुछ दूरी से बिस्कुटों को रक्खा और रवाना हो कुछ दूर से देखा तो काफी बन्दरों ने आकर बिस्कुट ले लिये थे परंतु किसी के भी हाथ में एक से ज्यादा बिस्कुट नहीं थे। गाँव के पास पहूँचते ही एक व्यक्ति साथ चलते व निर्देश देते हुये कि बाएँ मोड़कर वहाँ से कार घूमाकर वहाँ खड़ी कर दीजीये, पूछने लगा कि कहाँ से आये हैं? कहाँ रूकेंगें? काली-कमली धर्मशाला मे क्या बुकिंग है? हमारे पास भी रुकने का इंतजाम है आदि आदि। निर्देशित जगह पर रुकते ही 10-15 व्यक्ति और आ गये और मेरे कुल-गौत्र, जन्म गाँव-शहर, पूर्वजों के नामादि पूछते हुये अपने बही खातों में लिखी परिवार वंशावली को बताने लगे। ये विश्वप्रसिद्ध पण्डों के वंशज थे जो विख्यात हैं मिनटों में किसी पूर्वज के वहां आने की तिथि सहित वंशावली-विवरण निकालने में। सर्वप्रथम मिले पण्डे ने मुझे बताया कि यहाँ किसी भी विशिष्ट कुल परिवारों की पुरोहितगिरी के लिये पण्डों में विभाजन-निर्देशन नहीं हुवा हुआ है। करीबन 10-15 मिनट की खोजपरक बातों के पश्चात यह कहते हुये मुझे साथ ले चल पड़ा कि ये मेरे अमुक कमरे में रुके हुये हैं किसी को अपनी बही में इनके किसी पूर्वज का नाम मिले तो वहाँ आकर इनसे पूजा-कार्य निश्चित कर लें। मन्दिर परिसर के सामने कुछ हटकर ऊँचाई पर गाँव की तरह बना पक्का कमरा था। पास ही अलग-अलग लेट्रीन व बाथरूम थे। मोबाइल कनैक्टीविटी थी नहीं। उन्होंने पास ही स्थित चायवाले को खाना बनाने के लिये कहला दिया। करीब आधे घण्टॆ के बाद ही एक पण्डा अपनी बही के साथ आया जिसमें करीब 47 वर्ष पूर्व मेरे दादा श्री रामबिलासजी का वहाँ आने व मेरे नाम के साथ हमारी वंशावली विवरण दर्ज थी। जानकर खुशी होनी स्वाभाविक थी। उनहोंने सुबह जल्दी आ पूजा करवाना निश्चित किया। अब मुझे जानकारी मिली कि वस्तुत: यह मन्दिर वामन अवतार भगवान विष्णु का है जिन्होंने बलि राजा से तीन पैर भूमी का दान माँगा था और इस ब्राह्मण पुरोहित रूप मे शिव-पार्वती का विवाह सम्पन्न करवाया था। पास दुकान पर लकड़ी के चुल्हे पर बनते भोजन के पास ही मैं बैठ गया और दुकानदार से बातें करते हुये फुल्के सेकने में मदद कर वहीं थाली ले भोजन पाकर बिल्कुल गाँव जैसे माहौल का आनन्द मिला। 25-अक्टूबर-2010 । सुबह उनसे गर्म पानी का इंतजार नहीं करते हुये बर्फीले पानी में नहा, मन्दिर में पिछले द्वार से अन्दर गया, मुख्य द्वार अभी बन्द ही था। बीच मे हवन कुण्ड प्रज्वलित था जिससे गर्मी पाने, प्रात:दर्शन के लिये गाँव वालों का आना जाना जारी था। बद्री केदार मन्दिर समिति ट्रस्ट की ओर से नियुक्त, मुख्य पण्डित अपने आसन पर थे। उन्होंने यथाप्रयुक्त जानकारी दे दानपेटी की ओर इशारा कर दिया। वहाँ बैठ शिवाष्टक स्तुति कर आँख खोलते ही अब हवन वेदी पर बैठे पण्डित ने दो-तीन बार स्वाहा करवा हाथ फैला दिये और एक अन्य की ओर इशारा कर सत्यवान (लकड़ी डालने वाले) को दक्षिणा की अनुशंसा की। मैं हवन कुण्ड की प्रदक्षिणा के लिये आगे बढा तो कोने में सारंजाम जमाये एक कृशकाय श्यामवर्ण पण्डित ने अपने पास आने कि लिये इशारा किया, अनदेखी कर आगे बढा तो फिर कहा, फिर एक किताब हाथ में लेकर पुन: आग्रह किया। मै पीछे आ उनको प्रणाम कर दस रु. देने लगा। उनहोंने किताब देते हुये आग्रहपूर्वक कहा कि इस विष्णुसहस्रनाम का पाठ करते हुये अपनी यात्रा पूर्ण करूँ। रु. नहीं लिये। आग्रह पर इनकार का स्वर रुष्टतर होता चला गया। पण्डे ने श्रद्धापूर्वक कर्मकाण्ड-पूजा करवाई। तब तक यात्रीयों से भरी बस आ गई और पूरा मन्दिर प्रागण गहमा-गहमी पूर्ण हो गया, सभी स्थानीयगण व्यस्त हो गये। चायवाले के पास चाय पीते समय एक युवक आया और अपनी बस छूट जाने की बात बताते हुये रामपुर तक साथ ले चलने के लिये पूछा। वह वहाँ बैंक में कार्यरत था। शीघ्र ही हम दोनों रवाना हुये।

contd…..

21 Comments

  • vinaymusafir says:

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  • vinaymusafir says:

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    • Sharma Shreeniwas says:

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  • Mukesh Bhalse says:

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    • Sharma Shreeniwas says:

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  • Rajeshwari says:

    I was waiting for this post..I loved your last post so much. Thanks for sharing your wonderful journey with us (esp. the spiritual one) …

    • Sharma Shreeniwas says:

      Thanks for your comment and appreciation. The Uttarakhand is very rich in spiritual experiences. We find the instances of very old time, before the Jesus born, scattered in Uttarakhand.

  • Rajeshwari says:

    How can I post a comment in Hindi?

  • maheh semwal says:

    Enjoyed your each and every lines. very well explained.

    waiting for next post.

  • JATDEVTA says:

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  • JATDEVTA says:

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  • Sharma Shreeniwas says:

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  • V P Singh says:

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  • Nandan says:

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    If I can suggest, I think have some titles and a little more structure can make it easy to read.

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  • Vikas Kakkar says:

    “The Uttarakhand is very rich in spiritual experiences. We find the instances of very old time, before the Jesus born, scattered in Uttarakhand.”

    Sir, can you please suggest some of those places. I am very keen to visit.

    – Vikas Kakkar
    Amateur Travelleler

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