गतांक से आगे ….
[ पिछले अंक में आपने हमारी हिमाचल की सड़क यात्रा के बारे में पड़ा कि किस प्रकार से हमने अपने घर से लेकर कांगो जोहड़ी तक का सफर तय किया | ], अब आगे…
कैम्प रोक्स से करीब 100 मीटर की दूरी पर आपकी गाड़ी पार्क करवा दी जाती है, इससे आगे आपको नीचे ढलान की तरफ जाती कच्ची सीढ़ीयों से उतर कर जाना है, आपका सामान गाड़ी में ही है, कैम्प का स्टाफ इसे आपकी काटेज़ में पहुंचा देगा | सो, गाडी से निकले, बस निहायत ही जरूरी सामान उठाया और चल दिए एक और नये अनुभव की तरफ…
वैसे, कैम्प क्या है… बस जो कुछ पूरे रास्ते भर था, उसका एक विस्तार भर ही है | हाँ, यहाँ उसे एक व्यवस्था दे दी गयी है | कैम्प के भीतर जाते हुये आप एक सरसरी सी निगाह अपने आस पास डालते जाते हो | कैम्प रोक्स पूर्ण रूप से पर्वर्तीय क्षेत्र की विशेष भौगोलिक विशेषतायों को अपने में संमायोजित किये हुए है, प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़-छाड़ करने की कोशिश कहीं दिखाई नही देती, यहाँ तक की सुदूर ऊपर पहाड़ियों से, इस वर्षा ऋतु में बहकर आता पानी भी कैम्प क्षेत्र से, जहाँ-तहाँ यूँ ही बहकर, नीचे बहती हुईं बरसाती नदी में समाहित होने के लिये, बिना किसी मानव निर्मित अवरोध से गुजरता हुआ निर्बाध गति से जा रहा है, आप को इससे असुविधा भी हो सकती है या आप को इसमें आनंद भी आ सकता है, ये आपके अपने नजरिये पर निर्भर करता है | यहाँ, आप चाहे तो इस रिजोर्ट की मैनेजेमेंट को इस बात के लिये साधुवाद भी दे सकते हैं और उनकी दूरदर्शिता की सराहना भी, कि इन वजहों से ही यह कैम्प क्षेत्र अपने आप में ही उन सभी प्राकृतिक नजारों को अपने में समेटे हुए है जिसके मोहपाश में बँधा कोई सैलानी अपने घर से सैंकड़ो किमी दूर खिँचा चला आता है |
पारस की नजर से देखो, वादियाँ कितनी हसीन है !
त्यागी जी की बायीं तरफ से जो रास्ता है वो कैम्प की तरफ जा रहा है
मंजिल अब करीब है !
बीच बीच में किसी टीले को समतल करके उस पर कुछ काटेज बनाये गये हैं और उन पर तिरपाल डाल कर उन्हें एक टेंट का प्रतिरूप देने का एक सार्थक प्रयास किया गया है, पहली नजर में ही आप इसके ले-आउट से प्रभावित हो जाते हो | हमे एक बड़े से हाल में, जो कि 1200 वर्ग फीट क्षेत्र में बना हुआ है, ले जाया जाता है, जो कि यहाँ का एक काॅमन डाइनिंग एरिया है | वहीं, इस रिजोर्ट के प्रबंधक अनिल गुप्ता जी से मुलाकात होती है, इसी हाल से ही वो पूरे कैम्प क्षेत्र की व्यवस्था को सम्भालते हैं | मूल रूप से गुडगाँव के ही रहने वाले अनिल गुप्ता जी अपने बेटों एवम् अपने एक अन्य सहयोगी सतेन्द्र जी के साथ मिलकर इसे चला रहे हैं | वैसे हमारा प्रथम परिचय सतेन्द्र जी के साथ ही था, और उनके अनुरोध पर ही हमने इस जगह का प्रोग्राम बनाया था | प्रति व्यक्ति 2500 रुपैये से लेकर 3000/- रुपल्ली तक एक दिन का शुल्क है, जिसमे तीनो समय का खाना, काटेज और एक्टिविटीज का शुल्क समाहित है | ये रेंज मैंने इसलिये दी क्यूंकि होटल इंडस्ट्री में सीजन और व्यस्तता देख कर ही ग्राहक के माथे पर तिलक लगाया जाता है ! इस हाल के साथ ही लगा हुआ रसोई घर है, जिसमे इस समय दोपहर के भोजन की व्यवस्था की जा रही है | कुछ ही पलों में हमारे लिये चाय तैयार करवाई जाती है, चाय पीते पीते आप इस हाल में यहाँ वहाँ घूम कर देखते है कि इस हाल का केवल फर्श कंक्रीट का है, बाकी छत और दीवालें सब फाइबर की बनी हैं | यहाँ वहाँ बहुत सी कुर्सियाँ भी रखी गई हैं और दीवालों में बड़ी बड़ी कांच की खिड़कियाँ, जिन्हें आप खोल कर नीचे तेज प्रवाह से बहती उस नदी का साक्षात् अवलोकन कर सकते हैं जो इस कैम्प की एक USP है | हाल का क्षेत्र इतना बड़ा तो है ही कि यहाँ एक बार में 50-60 लोग आराम से बैठ कर अथवा चहलकदमी करते हुये खा पी सकते हैं | चाय पीने के दौरान ही वहीं पर जरूरी औपचारिकताएँ भी गुप्ता जी पूरी कर लेते हैं और फिर हमे हमारे लिए आरक्षित काटेज्स में शिफ्ट कर दिया जाता है | हमारा सामान पहले से ही काटेज में पहुंचा दिया गया है, परिवार के साथ होने की वजह से हमे वो काटेज दिया गया है जिसमे साथ ही टायलेट जुड़ा हुआ है |
दोपहर के भोजन में अभी कुछ समय है तो इस समय का सदुपयोग हम नहा धो कर तरो ताजा होने के लिये कर सकते हैं | 200 वर्ग फीट क्षेत्र में बना हुआ एक काटेज भी उसी प्रकार से फाइबर के ढांचे से बना हुआ है, बस इसे थोड़ा और अलंकृत करने के लिये इसकी सफेद फाइबर की दीवालों पर भीतर की तरफ से माईका की शीटें लगी हैं और फर्श पर धूल से बचाव के लिये नीचे तिरपाल और ऊपर एक कारपेट, बाथरूम में फर्श पर टाईल्स हैं | लकड़ी के पक्के पलंगो की जगह फोल्डिंग बेड हैं | किसी भी सूरत में ये परिकल्पना, इस क्षेत्र में ईट और सीमेंट के गारे से बने कमरों से बेहतर हैं क्यूंकि एक तो इन्हें बनाने में पर्यावरण से कोई छेड़ छाड़ नही की गयी और न ही इनमे अब सीलन के आने का कोई प्रश्न उठता है, जिसका होना ऐसे नमी वाले क्षेत्रों में अवश्यंभावी है और इस वजह से कमरों और बिस्तरों में एक अजब सी दुर्गन्ध समाई रहती है, और दीवालें भी साल भर गीली रहती है | हमारे लैंसडाउन के हिल व्यू शांति राज वाले मित्र यदि इसे पढ़ें, तो ऐसे किसी विकल्प पर अवश्य विचार करे !
इन्ही में से कोई हमारी काटेज भी है
काटेज का भीतरी द्रश्य
कैम्प का डाइनिंग एरिया
एक फोटो कैम्प के मालिक प्रबंधक गुप्ता जी के साथ तो बनती ही है’
लंच का समय हो गया है, और आपको यहाँ एक बात बताता चलूँ, कि इस कैम्प में किसी भी गेस्ट को उसके कमरे में चाय या खाना नही परोसा जाता, सभी को चाय, लंच और डिनर के लिये इसी हाल में आना होता है | कैम्प का अपना मेन्यु है जिसके अनुसार ही खाना बनता है और आप बुफे सिस्टम में इसे ले सकते हैं, हाँ यदि आपका अपना कोई बड़ा ग्रुप हो तो आप बुकिंग के समय इस पर बातचीत कर सकते हैं, आज दोपहर के खाने में राजमा, चावल, पनीर, रायता, रोटी और सलाद वगैरहा है | कुल मिला कर सादा मगर स्वादिष्ट !
दोपहर के भोजन के पश्चात अपराह्न 4 बजे का समय एक्टिविटीज का है, जिसके लिये प्रबंधन ने प्रोफेशनल ट्रेनर्स की टीम को रखा हुआ है, मगर सफर की थकान और ऊपर से बारिश की आशंका की वजह से हम इसकी जगह यूँ ही निरुद्देश्य भटकने को प्राथमिकता देते है | नीचे उफनती बरसाती नदी में जाकर पानी के प्रवाह में अवरोध बन कर जमे बड़े बड़े पत्थरों पर बैठना या फिर लम्बी सैर पर निकल जाना , रावी और तुषार ने काफी नीचे एक समतल मैदान देख लिया जिसमे दिल्ली से आये कुछ युवायों का समूह क्रिकेट खेल रहा है और ये भी जा कर उनमे शामिल होने चले गए | और हमारे लिये तो शुरू से ही, नदी के पानी में पाँव लटका कर यूँ ही घंटो बैठ जाना, सदा से ही मनपसंदीदा शगल रहा है, दूर कहीं से निर्बाध गति से आता हुआ पानी, दोड़ता, उछलता, कूदता, अपनी पूरी उच्खंलता के साथ अपनी ही मस्ती में चूर, कहीं अपने बीच उग आये नागफनी के पौधे को चुपके से छूकर निकल जाता हुआ, तो कभी अपने ही गर्भ में पल रहे जलीय प्राणीयों को यूँ ही अपनी किसी लहर के प्रभाव से डरा देता, मगर जब यही उफनता हुआ पानी अपनी राह में आ गये किसी बड़े से चट्टान के टुकड़े को देखता है तो पल भी रुक कर ठिठकता नही अपितु अपने पूरी शक्ति को अपने में समेट पूरे वेग के साथ उससे टकरा जाता है, चारो तरफ झाग का एक आवरण बन जाता है, उस पत्थर और इस पानी ने दोनों को एक साथ अंगीकार कर लिया है, मगर पत्थर अपनी जड़ों से कुछ ज्यादा ही मजबूती से जुड़ा है, वो पानी के इस प्रणय से खण्डित नही होता तो क्या…?, पानी तो खंडित हो सकता है न…!, और वो खंडित हो जाता है, झाग के साथ ही उसके टुकड़े खण्ड-खण्ड में विभाजित हो चारो तरफ बिखर जाते है | भले ही उस चट्टान ने अपने गरूर में उसके प्रणय निवेदन को ठुकरा दिया, परन्तु, अब उसकी अनेको जल धाराएँ बन गयी है, वो उस चट्टान के विशाल वक्ष को चूमता हुआ आगे सरक जाता है, उसे चोट लगी है मगर उसकी जिजीवषा समाप्त नही हुई है | कुछ कदम आगे बढ़कर, वह एक बार फिर से अपने को संयोजित करता है और फिर एक नई उम्मीद और उमंग को संजो, उसी मस्त चाल से अपनी राह में आ गयी किसी और चट्टान से अपना प्रणय निवेदन करने के लिए आगे बढ़ जाता है, शायद उसके पथ में आने वाली अगली चट्टान इतनी निष्ठुर न हो, और उसे उसके प्रेम का प्रतिदान मिल जाये ! ये सिलसिला यूँ ही अनवरत ढंग से सृष्टि के प्रारम्भ से ही चलता चला आ रहा है और यूँ ही चलता रहेगा | हाँ, कभी कभी ऐसा जरूर हो जाता है कि पानी का प्रणय इतना आग्रही होता है कि चट्टान भी उसके निवेदन को अपनी पूरी जड़ता के बावजूद ठुकरा नही पाती और खुद को उसके आगोश में बह जाने देती है और यकीन मानिए जब कभी ऐसा हो जाता है तो पहाड़ों से लेकर मैदानों तक में, प्रलय की कल्पना मात्र से ही खलबली मच जाती है |
कैम्प प्रबंधन के पास कुछ लेबराडोर प्रजाति के प्रशिक्षित कुत्ते भी हैं, जो आपके किसी भी ऐसे अभियान में आपके साथ साथ ही रहते है और आपकी सुरक्षा के साथ साथ खुद को भी आनंदित करते रहते हैं | हाँ, इतना अवश्य है कि किसी भी आपदा कालीन परिस्थिति में वो अवश्य ही कैम्प के स्टाफ को बुला लायेंगे, इसकी गारंटी गुप्ता जी आपसी बातचीत में देते हैं | पहाड़ों पर शाम कुछ जल्दी हो जाती है और आज तो रुक रुक कर बरसात भी हो रही है | शाम का धुंधलका बढ़ते ही फिर से एक बार बरसात शुरू हो चुकी है, मगर इस बार इंद्र देवता आसानी से पसीजने के मूड में नही | कैम्प क्षेत्र के चारो तरफ विशाल जंगल, घना घुप्प अँधेरा और ऊपर से ये घटाटोप बरसात… एक रहस्यमयी वातावरण सा छाया हुआ है | इस बरसात की वजह से कैंप फायर का मजा भी जाता रहा और सभी मेहमान अपने अपने कमरों में ही कैद हो कर रह गए है |
कैम्प क्षेत्र में ही इतना जंगल है कि घुमते रहो
लड्डू गोपाल अपनी ही दुनिया में लीनं है
गर्ल्स और किड्स यदि काटेज से बाहर होंगे तो कोई कुत्ता अवश्य साथ होगा, इसकी गवाही तो ये फोटो देतीं है
गर्ल्स और किड्स यदि काटेज से बाहर होंगे तो कोई कुत्ता अवश्य साथ होगा, इसकी गवाही तो ये फोटो देतीं है
नदी भी आपसे बातें करती है, बस आपको सुनना आना चाहिये
ऐसा प्राकृतिक नजारा और रावी के हाथ में The Krishna Key, क्या दोनों में कुछ तारतम्य है…
कैम्प क्षेत्र से होकर बहती बरसाती नदी
जैसे जैसे ऊपर पहाड़ों पर पानी गिरता है, इस नदी का यौवन उफान पर पहुँच जाता है
शाम के छह साढ़े छह बजे का समय चाय का नियत है, कुछ मेहमानों के पास अपनी निजी, और कुछ कैम्प वालों के पास, कुल मिलकर इतनी छतरियां है कि सभी एक एक करके हाल में पहुँचते है | इस तरह के आयोजन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि आप केवल अपने निजी आवरण में ही सिमटे नही रहते बल्कि अजनबी लोगो से मुलाकात होती है, कुछ नए दोस्त बनते है मोबाइल नम्बर भी लिए दिए जाते है और फिर एक दुसरे के सम्पर्क में रहने के वादे इरादे भी! यूँ तो ज्यादातर लोग गुडगाँव और दिल्ली के ही है, शायद इन्ही जगहों पर सबसे अधिक रोजगार के साधनों का सृजन भी हुआ है जिसकी वजह से देश विदेश से हजारो लोग अपने परिवेश को छोड़ कर इन शहरों में आये है, और एक सर्वथा नये प्रकार के नवधनाढ्य मध्यम वर्ग का उदय हुआ है, जो 1990 से पहले की भारतीय अर्थव्यवस्था में अनुपस्थित था | और, फिर ऐसे छुट्टी के अवसर पर दो चार दिन अपने PG में पड़े रहने से, या माल में घूमने से बेहतर है कि इस तरह का पर्यटन ही कर लिया जाये | एक बड़ा सा समूह, ऐसे ही लडके लडकियों का है, मगर वो अपनी ही दुनिया में मगन है, उन सब की काटेज आस पास ही है, सो उनका अड्डा वहीं जमा रहता है | अपने ही म्यूजिक सिस्टम पर वो गाने लगा लेते है और नाचते रहते है | अपनी गिटार भी है, कभी कभी उस पर भी खुद ही गुनगुनाते रहते हैं, लडके हों या लडकियाँ, सिगरेट और शराब के शौक़ीन है और कैम्प के सहयोग से इस सबकी अनवरत सप्लाई उनके लिए चालू है | एक दूसरा ग्रुप दस लोगों का, दिल्ली से है, जो एक ही स्कूल से सन नब्बे के पास आउट है, और अब सभी अलग अलग कार्य क्षेत्रों में सलिंप्त है | मगर उल्लेखनीय बात है कि वो आज भी एक दूसरे के सम्पर्क में है | और, कभी कभी साथ बिताये गये, अपने उन गुजरे लम्हों को याद करने के लिए, अपने परिवारों से अलग ऐसे प्रोग्राम बनाते रहते है | दिल्ली से हैं, और अधिकतर पंजाबी हैं, सो शुरूआती संकोच के बाद जब खुलते हैं तो फिर इतना खुल जाते हैं कि आप उनकी शाम की महफ़िल में ही अपने आप को जाम उठाये पाते है |
जहाँ दिखा मैदान वहीं गेंद और बल्ले का संघर्ष शुरू
इधर, बारिश का प्रकोप यूँ ही अनवरत जारी है, चाय के बाद एक फिर सब अपने अपने कमरों में कैद हो कर रह गये है | यहाँ की व्यवस्था के अनुसार आठ बजे के करीब स्टाफ का एक आदमी आप के कमरे में आपको स्नैक्स दे जाता है, जिसमे पकोड़े भी है और निरामिष भोजन करने वालों के लिये चिकन से बना कोई व्यंजन भी | अब हमारे ग्रुप में चूंकि दो तरह के लोग हैं तो हमे दो कैसरोल मिलते है | मानसून की घटाएं यूँ ही बरस रही है ऐसा लगता है कि जैसे, इस दफा सारा मानसून सिमट कर पहाड़ों में ही रह गया है | बादल बरस रहें हैं और पहाड़ भीग भीग कर भूस्खलन का शिकार हो रहे है, मगर मैदान यूँ ही रीते पड़े हैं | इस बरसते पानी की वजह से सभी मैदानी नदियाँ उफान पर है | आपके कमरों में तो टीवी नही है, मगर हाल में एक टीवी लगा है जिस पर मुख्यतया समाचार ही चलते रहते है, या जब तक पारस जैसा कोई बच्चा रिमोट उठा कर अपनी पसंद का चैनल न ढूँढने लगे | इसी बारिश के दौरान ही रात के भोजन का समय हो जाता है और फिर अपनी अपनी सुविधानुसार, एक एक कर सभी हाल में पहुंचना शुरू हो जाते हैं | दोपहर की तरह ही खाना है, फर्क है तो सिर्फ इतना कि इस बार निरामिष खाने वालों के लिये चिकन है, तो मीठे में हलवा भी | रात का समय, बाहर अनवरत मूसलाधार बारिश, किसी मुख्य शहर और सढ़क से कोसो दूर… ऐसे माहोल में आप खाने का लुत्फ़ ले रहे है और आपके समीप ही वो बरसाती नदी जोर शोर से बह रही है जो इस समय दृष्टिगोचर तो नही हो रही मगर उसके अनवरत प्रवाह की साक्षी आपके कानो में पड़ने वाली उसकी वो चिरपरिचित स्वर लहरियाँ है, जो वायु के झोंको के साथ आपके कानों से टकरा कर इस वातावरण को और रहस्यमयी बना रही है |
अब समय है खाना खाने का और आने वाले कल की पर्तीक्षा का
खाने के पश्चात आज के इस दिन की समाप्ति हो जाती है जो अपने आप में विविध रंग समेटे था | बारिश अभी भी जारी है और खाना खा चुके लोग एक दूसरे को रात्री की शुभकामनाएं देते हुए अपने अपने काटेज में जा रहे है | हमने भी इस आशा के साथ अपनी काटेज का रुख किया कि शायद कल का दिन, अपने आप में कुछ और खूबसूरत पल संजोये हुये हो, जो हमारी इस यात्रा को कुछ और भी यादगार, कुछ और भी मानीखेज़ बनाये …. तो एक बार फिर जल्द ही मिलेंगे अगले अंक में, एक नये दिन की शुरुआत के साथ…क्रमशः