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लेह लद्दाख – मनाली – केलोंग – दार्चा – बरालाचा ला – लाचुलुंग ला – पैंग – 3

प्लान के मुताबिक सब सुबह 05:00 बजे तक उठ गए। देर रात खाने और सोने की वजह से कोई भी फ्रेश नहीं हो पाया। 05:15 तक सब अपना सामान लेकर होटल से चेक आउट करके गाड़ी में जाकर बैठ गए। सुबह-सुबह बहुत ठंड लग रही थी। गरम रजाई से निकल कर ठंडी गाड़ी मे जो आ बैठे थे। आज हमे मनाली से पैंग तक 300km का सफ़र तय करना था। वो भी पूरा पहाड़ी रास्ता।

पैंग से पहले आज हमारा सामना बरालाचा ला दर्रा (Baralacha La Pass) से होना था। इसकी ऊंचाई 4890 मीटर या 16040 फीट है। मैं और राहुल कई बार उत्तराखण्ड में बहुत सी जगह जा चुके थे पर कोई भी इतनी ऊंचाई पर नहीं थी। और आगे के सफ़र मे तो इससे भी ऊँचे दर्रो से होकर जाना था। हम इस सबके लिए पहले से ही मानसिक रूप से तेयार थे। दाद तो अंकल की देनी होगी जो कभी मनाली से आगे नहीं गए थे। पूछने पर बताया की रोहतांग तक गया हूँ पर कोई जानकर बता रहा था कि रोहतांग से 100km आगे ही लद्दाख है। ये अंकल की कमान से निकला हुआ तीसरा joke था। मैंने आगे कुछ नहीं बोला हम सब फिर से चोरी-छुपे मुस्कराने लगे। मैंने सोचा बताने से क्या फायदा आगे खुद ही बोर्ड्स मे पढ़ लेंगे की कितनी आगे जाना है।

इस समय भी गाड़ियाँ लगातार चलने लग गई थी लोग जल्दी से जल्दी निकल पड़ते है ताकि रोहतांग तो समय से पार कर ले। देरी हो जाने पर अक्सर रोहतांग से 8-10km पहले से ही ट्रैफिक बढ़ने लगता है और लगातार बर्फ के पिघलने की वजह से सड़क में 2-3 फुट गहरा कीचड़ बन जाता है। टाइम से निकलने के बाद भी हम लोग भी कीचड़ के शिकार बन गए थे। हमारे आगे एक Innova थी वो बुरी तरेह से फँसी हुई थी। उसकी सवारी उतर कर धक्का लगा रही थी। कहीं वजन से हमारी गाड़ी भी न फँस जाये मैं, हरी और मनोज भी नीचे उतर गए। हमने भी उस Innova पर धक्का लगाया लेकिन वो बुरी फँस गई थी। मैं Innova को पीछे बाएँ तरफ से धकेल रहा था। तभी ड्राईवर ने फिर से गियर लगाया और इस बार पीछे के टायर्स तेजी से घुमे और सारा कीचड़ मेरे ऊपर आ गिरा। मेरा उपरी माला खाली है अर्थात मेरे सर पर बाल कम हैं तो मैंने टोपी पहनी हुई थी लेकिन टोपी से लेकर मफलर, जैकेट, जीन्स, जूते सब कुछ कीचड़ मे लतपत हो गया था। ठंड बहुत थी ऊपर से ये कीचड़ कौन साफ़ करे साफ़ करने पर और ज्यादा फैल जाएगा। मैंने सिर्फ अपना चेहरा साफ़ किया और बाकि ऐसे ही छोड दिया। कीचड़ सूखने के बाद आराम से झड गया। चूकि वो कीचड़ पहाड़ ओर रास्ते की गीली मिट्टी का था कहने का मतलब गंदा नहीं था तो झड़ने के बाद कोई काला धब्बा भी नहीं लगा। अपनी सूझ-भुझ पर खुशी हुई की अच्छा किया की कीचड़ को सूखने दिया।

“Innova” पर धक्का लगाते हुए।



इस वक्त सिर्फ राहुल ही अंकल के साथ गाड़ी में था। अंकल कीचड़ से बचने के लिए गाड़ी को दाएँ ओर दबा कर चला रहे थे।

अंकल के साथ राहुल गाड़ी मे अकेले बैठा हुआ

एका-एक राहुल ने गाड़ी रुकाई और हमारे साथ पैदल चलने लगा और बोला की सालो मुझे अकेले मरने के लिए छोड़ आए, बूढ़ा पागल हो गया है दाएँ तरफ दबा कर चला रहा है नीचे गहरी खाई है।

देखिए सड़क की हालत। चारकोल की जगह कीचड़ की सड़क।

ये फोटो मनोज ने लिया है। कुदरत का खूबसूरत नज़ारा और कीचड़ से भरी सड़क।

वैसे तो राहुल कश्मीर का रहने वाला है और अपना बचपन वहीँ बिताया और स्कूल की पढाई वहीँ से की है, मैं ये बताना चाहता हूँ की उसको ऊंचाई-गहराई से कोई खौफ़ नहीं है पर वो भी क्या करता पिछले बीते 2 दिनों मे अंकल के साथ अकेले बैठने का उसका साहस थोड़ी देर मे ही चूर-चूर हो गया। हम लोग फिर से पेट पकड़ कर हँसने लगे।
करीब 1 km चलने के बाद हम फिर से गाड़ी मे सवार हो गए। सुबह के 09:30 बजे तक हम रोहतांग पहुँच गए। इस समय भीड़ बहुत कम थी। इतनी सुबह कोई पर्यटक रोहतांग पर नहीं आते। इस समय लोकल लोग ही सफ़र करते हैं जिनको अपने घर या फिर किसी काम से रोहतांग से आगे जाना होता है। या फिर हम जैसे लोग ही होते हैं। रोहतांग पर गाड़ी रोक ली गई। अब तक रात का खाना पच गया था एक-एक कर सब फ्रेश हो गए। यहीं पर नाश्ते का आर्डर दे दिया गया। अंकल ने चाय और आलू के परांठे, बाकि हम सबने दूध और ब्रेड-बटर। राहुल ने कुछ चॉकलेट भी खरीदे। चॉकलेट मे हाई एनर्जी होती है जो ठंडे मौसम के लिए लाभदायक है।

अंकल पिछले 2 दिनों मे काफ़ी थक चुके थे जैसे की:-
– “Haveli” से पहले गाड़ी को रोड से नीचे कुदाना का स्टंट।
– 09-सितम्बर की पूरी रात गाड़ी चलाना।
– 10-सितम्बर को बिलासपुर से मंडी और वापस मंडी से बिलासपुर हिमाचल रोडवेज की बस का टूर लगाना।
– मनाली पहुँच कर सिर्फ 5 घंटे की नींद लेना और 11-सितम्बर को फिर से आगे चल पड़ना।

नाश्ता करने के बाद उन्होंने गाड़ी की चाबी मुझे पकड़ा दी और बोले जब थक जाए तब बता देना मैं पीछे जाकर सो रहा हूँ। अंकल का सबसे ज्यादा खौफ़ हरी को था ये सुनकर मानो उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना न था। उसका चेहरा देखना लायक था। हरी ने इंग्लिश मे बोलकर अपनी ख़ुशी का इज़हार किया ताकि अंकल को समझ मे न आए। हम सब हँसने पड़े। सारे रस्ते अंकल और मैंने ही गाड़ी चलाई। वैसे तो हम सभी अच्छे चालक हैं लेकिन हरी और मनोज तो पहाड़ पर चलाने की सॊच भी नहीं सकते थे। इन दोनों का ये पहला पहाड़ी अनुभव था वो भी सीधे लद्दाख का। राहुल कई बार पहाड़ पर ड्राइव कर चुका है पर सिर्फ अपनी गाड़ी से क्यूँकि उसके पास आटोमेटिक ट्रांसमिशन (AT-Automatic Transmission) वाली कार है और गियर वाली गाड़ी का अनुभव कम है। रोहतांग को अलविदा कर हम दर्रा पार करके अब नीचे उतरने लगे। अब हम चंद्रा नदी के साथ चल रहे थे। ये हमारे दाएँ ओर बह रही थी। आगे एक लोहे का पुल पार करके हम “कोकसर” वेली मे पहुँच गए। “कोकसर” एक गाँव के जैसा है। यहाँ पर चाय, खाने-पीना की दुकाने हैं, कुछ दुकानों मे रात बिताने का भी इंतजाम है। Rs 100 मे बिस्तर और रजाई/कंबल आराम से मिल जाता है। अभी का पता नहीं, उम्मीद है की मंहगाई के चलते रेट बढ़ ही गया होगा। यहाँ पर टायर/पंक्चर की दुकाने भी हैं। अब चंद्रा नदी हमारे बाएँ ओर बह रही थी और हम चाय पीने के बाद आगे निकल पड़े। “कोकसर” वेली से आगे का रास्ता अच्छा था और प्राकर्तिक सोन्दर्य तो भरपूर था। चंद्रा नदी हमारे बाएँ ओर बह रही थी अभी हम ज्यादा ऊंचाई पर नहीं थे और सड़क भी ज्यादा घुमाऊदार होने की बजाए लगभग सीधी ही थी। कभी-कभी तो गाड़ी की रफ़्तार बिना किसी दिक्कत के 60-70km/h पर बनी हुई थी। कुछ देर के बाद फिर से चढाई शुरू हो गई थी। हम “सिस्सू” नामक कसबे मे गुज़र रहे थे। “सिस्सू” मे एक “Helipad” भी है। किसी-किसी जगह पर हमारे बाएँ ओर चंद्रा नदी के किनारे निर्माण कार्य भी चल रहा था। सच कहूँ तो रोहतांग दर्रा पार करने के बाद से ऐसा लग रहा था की किसी दूसरी दुनिया मे आ गया हूँ। अगर लोगों और गाडियों को हटा दिया जाए तो मैं एक नयी, अंजान, खूबसूरत और रोमांच से भरी दुनिया मे था। “सिस्सू” से आगे चलने पर “टांडी” आ गया। “टांडी” मे चंद्रा नदी के साथ “भागा” नदी मिलती है। इस संगम के बाद यहाँ से इसका नाम “चंद्रा-भागा” हो जाता है। जम्मू-कश्मीर मे प्रवेश करते ही चंद्रा-भागा का नाम “चेनाब” हो जाता है। “टांडी” मे एक इंडियन आयल का पेट्रोल पंप है। वहीं से हमने फिर से Xylo का टैंक फुल करवा लिया था। इसके अतिरिक्त हमारे पास एक 20 लीटर की कैन भी थी जिसे हमने दिल्ली मे भरा था। इस पेट्रोल पंप पर लगे बोर्ड के मुताबिक यहाँ से अब अगला पेट्रोल पंप 365km बाद था।

“टांडी” मे इंडिया आयल का पेट्रोल पंप।

टांडी से 9km आगे चल कर हम लोग “केलोंग” पहुँच गए थे। यहाँ रुक कर सबने चाय और बिस्कुट का सेवन किया। पानी की 4-5 बोतलें भी खरीदी। ऊँची जगह पर प्यास तो कम लगती है और अगर प्यास लगे भी तो मौसम ठंडा होने के कारण इंसान नज़रंदाज़ भी कर देता है, पर असल मे इस वजह से शरीर मे पानी की कमी हो जाती है जिसकी वजह से अक्सर तबीयत बिगड़ जाती है। ऐसा हमारे साथ न हो इसलिए पानी का पूरा इंतजाम कर लिया था। केलोंग मे “Lahaul और Spiti” का district headquater है।

केलोंग मे नाश्ता करते हुए।

यहाँ पर बहुत से सरकारी दफ्तर और सेवाएँ है। एक बड़ा बाज़ार और सड़क से दाएं ओर नीचे बस स्टैंड भी है। यहाँ पर रुकने का पूरा इंतजाम है कई रेस्ट हाउस, सरकारी बंगलो और होटल भी है। केलोंग मे गाड़ी का हवा-पानी टिप-टॉप करने के बाद हम बिना रुके “जिस्पा”, “दार्च” होते हुए “zingzingbar” पहुँच गए। एक बात बता दूं की “zingzingbar” मे भी रात को रुकने का इंतजाम है। अभी दोपहर का समय था तो हमने रुकना ठीक नहीं समझा। ये हमारी बहुत बड़ी भूल थी। इसका ज़िक्र आगे चल कर दूंगा। “zingzingbar” से आगे खड़ी चढाई पार करने के बाद हमने “बारालाचा ला दर्रा” दर्रा पार कर लिया था। इस दर्रे की ऊंचाई 5030 मीटर या 16500 फीट है। यहाँ से लगातार उतरने के बाद हम लोग “भरतपुर” होते हुए “सार्चू” पहुँच गए।

“सार्चू” मे हिमाचल प्रदेश की सीमा समाप्त हो जाती है और जम्मू-कश्मीर की लाद्द्खी सीमा शुरू हो जाती है। यहाँ पर भारतीय सेना का बेस कैंप है और एक पुलिस चेक पोस्ट भी है। चेक पोस्ट पर गाड़ी सड़क के किनारे रोक दी गई। हमारा परमिट चेक किया और रजिस्टर मे दर्ज कर लिया गया। “सार्चू” मे सड़क एक दम सीधी है और गाड़ी की रफ़्तार आराम से 100-120km/h तक पहुँच जाती है। यहाँ पर गाड़ियाँ फर्राटे से दौड़ रहीं थी। तभी क्या देखा एक फिरंगी महिला साइकिल(आजकल तो bike बोलते हैं) पर सवार होते हुए चली आ रही थी। मुझे सड़क पर लेटा हुआ देख वो साइकिल से नीचे उतर गई और पैदल चलने लगी।

सार्चू मे एक दम सीधी सड़क

हम सब उसको देख कर हैरान हो गए। शायद हरी ने उससे पुछा की अकेले जा रही हो तो risk है। उसने बताया की उसके साथ के और लोग भी पीछे आ रहे हैं। वो और उसके साथी मनाली से लेह साइकिल से ही जाने वाले थे। और उसको आज “सार्चू” मे ही रुकना था। इतने दुर्गम, पथरीले, टूटे-फूटे, चढाई-उतराई, अनिश्चिताओ से भरपूर इलाके मे जहाँ 2.6L की Xylo का भी दम निकल जाता था ये फिरंगी इसको साइकिल से ही पार करने वाले थे। इनके जज़्बे और हिम्मत की तारीफ़ की गई और इनको सलाम बोल कर भोजन की तलाश मे चल दिए।

ठीक से याद नहीं है पर दोपहर के करीब 3 बज रहे थे और भूख लग चुकी थी। यह जगह एक बहुत बड़े समतल मैदान जैसी है। यहाँ पर भी रुकने के लिए बहुत सारे टेंट लगे हुए थे। ये सब देख कर समझ आ गया था की यहाँ के लोग काफी मेहनती है। साल के 6 महीने ही मनाली-लेह हाईवे खुलता है। इन्ही 6 महीनों मे इनकी कमाई होती है और बाकि के 6 महीने तो बर्फ पड़ी रहती है। यहाँ पर लगे एक टेंट खाने का इंतजाम था। हमसे पहले और लोग भी थे तो हमको 10-15 मिनट बाद का टाइम दे दिया गया। इस टाइम का हमने पूरा उपयोग करके फोटो session कर डाला। “सार्चू” मे ली गई कुछ फोटो। जानकारी के लिए बता दूँ यहाँ पर ली गई सारी फोटो मैंने नहीं बल्कि मनोज, हरी और राहुल ने खीचीं हैं।

रॉयल एनफील्ड

राहुल और हरी।

टेंट के बाहर खाने का इंतज़ार करते हुए मनोज, मैं और हरी।

भारी खाना खाने की बजाए मैगी का आर्डर दे दिया। अभी तो उजाला बहुत था। यहाँ से “पैंग” 80km था, टेंट वाले ने बताया की अंधेरा होते-होते आराम से पहुँच जाओगे। हमे भी प्लान के मुताबिक “पैंग” तक ही जाना था। तो लो जी चल दिए हम “पैंग” की ओर।

रास्ते मे एक फोटो।

“सार्चू” से “पैंग” जाते हुए हमने “लाचुलुंग ला” दर्रा पार किया। इस दर्रे की ऊंचाई 5065 मीटर या 16616 फीट है।

80km आगे चलने के बाद शाम के 7 बजे तक हम “पैंग” पहुँच गए। रात गुज़ारने के लिए टेंट सुनिश्चित करने के बाद गाड़ी को उसी टेंट के बाहर खड़ा कर दिया।

पैंग मे टेंट के बाहर का एक फ़ोटो। बैकग्राउंड मे अंकल अपना कम्बल सीधा करते हुए।

हमारा सामान मनाली से लेकर अभी तक गाड़ी की छत पर ही लोड था। हमारे हाथों में सिर्फ कैमरे ही थे। अंकल ने सामान को खोल कर गाड़ी के अंदर रख दिया। हमने कैमरे भी गाड़ी मे ही रख दिए। टेंट के अंदर जाने के बाद सारा इंतज़ाम देखने के बाद सबसे पहले फ्रेश हुए। सुबह से लेकर शाम तक इतने ऊबड़-खाबड़ सफ़र मे सब कुछ डाइजेस्ट हो चुका था। पानी बहुत ठंडा था लेकिन तेज़ प्रेशर होने की वजह से सब कुछ मंज़ूर था। फ्रेश होने के बाद टेंट को मालकिन लद्दाखी महिला ने बोला की गरम पानी है आप ठंडा क्यूँ ले गए। ये सुनते ही बाकि लोग हँसने लगे और अपनी-अपनी बोतल लेकर गरम पानी भर कर फ्रेश होने चल दिए। मेरी ही किस्मत मे ठंडे पानी का एहसास झेलना लिखा था सो मैंने झेल लिया था। हमारे अलावा टेंट मे और लोग भी थे। टेंट के अंदर ज्यादा ठण्ड नहीं लग रही थी क्यूंकि अंदर गैस पर खाना पक रहा था और कोयला भी जल रहा था। हम गैस के पास लगी कुर्सी पर बैठ गए। अंडा करी का आर्डर दे दिया गया। मैं उठ कर लद्दाखी महिला के पास गया और अंडे छिलने मे उसकी मदद करने लगा। मेरा मकसद तो गैस के और पास जाकर गर्मी हासिल करने का था। गैस के पास खड़ा था तो मैंने खुद ही अंडा भुर्जी भी बना डाली। अभी अंडा करी बनने मे समय था। आंटी से पूछा तो पता चला की वहाँ Rum भी मिलती थी। हम लोग खाने के बाद 5-10 मिनट के लिए टेंट से बाहर चले गए। बाहर बहुत ही ज्यादा ठंडा था। आसमान बिलकुल साफ़ था और बहुत पास लग रहा था। तारे भी बड़ी तेज़ चमक रहे थे। बाहर बिलकुल शांत था घनघोर अँधेरा हो चूका था। हम लगभग पहाड़ की सबसे ऊँची जगह पर थे सामने वाला पहाड़ भी बिलकुल हमारे बराबर ही था। एक अजीब सा एहसास हो रहा था। अभी तक की जिंदगी मे कभी ऐसी वीरान जगह पर नहीं गया था और वो भी रात को। यहाँ पर जिंदगी का कोई नामो निशान नहीं था। बिलकुल सूखे मिट्टी और रेत के पहाड़ थे। अँधेरे मे डर तो नहीं लग रहा था पर अजीब सा लग रहा था जिसको मैं शब्दों मे नहीं बता सकता। सुबह जल्दी निकलने की सॊच कर हम लोग सोने चल दिए। अभी रात के 08:30 ही बज रहे थे। अगली सुबह 05:00 बजे निकलना था। आज की रात सोने के लिए हमारे पास 08:30 घंटे थे। अपनी आदत के मुताबिक अंकल सोने के लिए गाड़ी के अंदर ही चले गए। हम लोगों ने 2 बेड ही लिए थे ताकी रजाई मे गरमी बनी रहे। मैं,राहुल एक बेड मे और हरी, मनोज दूसरे बेड मे। इतनी ज्यादा ठंड थी की बिस्तर गीला सा लग रहा था। बिस्तर को गरम होने मे 10 मिनट तो लगे होंगे। सबने शरीर अच्छे से ढका हुआ था। मैंने और हरी ने गरम टोपी भी पहनी हुई थी। दो रजाई लेने की वजह से सांस लेने मे थोड़ी परेशानी हो रही थी और कपडे भी जम कर पहने हुए थे। करीब रात के 09:00 बजे मैंने जैकेट, जीन्स, शर्ट और टोपी उतार कर सोना ही ठीक समझा। मैं रजाई को मुहं मे नहीं ओड़ता थोड़ी सी जगह खुली रखता हूँ शायद इसीलिए परेशानी हो रही थी। ठण्ड लगने की वजह से मैंने फिर से टोपी पहन ली। मुझे सांस लेने मैं कुछ ज्यादा हो परेशानी हो रही थी। मैं जोर लगा कर सांस खींच रहा था। बाकी सरे लोग सो रहे थे मैंने किसी को पूछना ठीक नहीं समझा। मुझे लग गया था की ऑक्सीजन कम होने की वजह से ये परेशानी हो रही थी। हम लोग नॉएडा से मनाली और मनाली से पैंग बिना रुके चले आए थे। इस वजह से हमारा शरीर वातावरण के अनुकूल नहीं ढला था। मनाली की ऊंचाई 6400 फीट है और पैंग की 15100 फीट। एक ही दिन मे जमीन आसमान का फर्क हो गया था। मैं ये सॊच कर और जयादा परेशान था की मुझे छोड़ कर सब ठीक थे। ऊपर से मनोज, हरी तो साउथ से आए थे और ये उनका पहला पहाड़ी सफ़र था। मुझसे रहा नहीं गया और करीब रात के 11:00 बजे कुछ इस तरह:-
मैं – राहुल सो गया क्या?

राहुल – नींद नहीं आ रही।

मैं – हरी, मनोज तो सो गए?

तभी बगल वाले बिस्तर से दोनों की आवाज आई “अभी नहीं सोए”।

ये सुनते ही हम सब हँसने लगे। किसी को अभी तक नींद नहीं आई थी। लेकिन फिर भी सब किसी से बिना कुछ कहे चुपचाप लेटे हुए थे। लेकिन मेरे पूछने पर सब बोल पड़े। राहुल ने अब बताया की गूगल पर भी लिखा हुआ था की जहाँ तक हो सके “सार्चू” और “पैंग” पर रात को नहीं रुकना चाहिए। ऊंचाई पर होने की वजह से कम ऑक्सीजन मे रात गुजरने मे दिक्कत होती है। मैंने उसे गली देते हुए कहा अब क्यूँ बता रहा है। उसका ये बताना तो जैसे “आग मे घी, जले पर नमक छिड़कने” का काम कर रहा था। अब क्या कर सकते थे। मैं उठ कर टेंट से बाहर गया तो बड़ी राहत मिली बाहर कुछ भी परेशानी नहीं हो रही थी तो अंदर क्यूँ। गाड़ी मे जाकर देखा तो अंकल मजे से सो रहे थे। मैंने भी गाड़ी मे हो सोना चाहा पर गाड़ी मे अब जगह नहीं थी क्यूँकि पिछली वाली सीट पर सामान पड़ा था बीच वाली पर अंकल सोए हुए थे और अगली सीट पर कैमरा पड़े थे। मैं निराश होकर फिर से अंदर चला गया लेकिन अंदर 10 मिनट के बाद वही परेशानी शुरू हो गयी। मेरे बाकि साथी अभी भी उठे हुए थे। राहुल भी इस परेशानी की वजह से थोडा चिड-चिड़ा सा हो गया था। उसने बोल की अंकल को उठाते हैं और आगे निकल पड़ते हैं। लेकिन हमने ऐसा नहीं किया क्यूँकि उनको सुबह गाड़ी चलानी थी। बाद मे ध्यान आया की ऊँची जगह होने की वजह से ऑक्सीजन कम तो ज़रूर है पर ये परेशानी का असली कारण नहीं था। दरअसल टेंट के अंदर खाना बनाने और कोयला जलने से जो गैस निकलती है वो टेंट के अंदर की ऑक्सीजन के साथ मिल चुकी थी। टेंट पूरी तरह से बंद था। इसी वजह से ये गैस बहार नहीं जा पा रही थी और ना ही बाहर से फ्रेश ऑक्सीजन अंदर आ पा रही थी। जैसे-तैसे बिना सोए रात बिताई। सुबह के 04:30 बजे हम लोगों ने बिस्तर छोड़ दिया। टेंट की मालकिन भी उठ चुकी थी। वो एक बूढी महिला थी। अगर कोई जवान व्यक्ति होता तो उसको मैं जरूर लताड़ता। चाय बनवाई, अंकल को भी उठा दिया गया। अंकल ने 15 मिनट का समय माँगा क्यूँकि उनको सामान भी सेट करना था। अंटी के साथ हिसाब करने के बाद हम 05:00 बजे “पैंग” को अलविदा बोल आगे निकल पड़े। यहाँ से आगे का सफ़र अगले पोस्ट मे………………..

लेह लद्दाख – मनाली – केलोंग – दार्चा – बरालाचा ला – लाचुलुंग ला – पैंग – 3 was last modified: February 16th, 2025 by Anoop Gusain
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