तीन महीने हो गए थे एक लम्बी घुमक्कड़ी किये हुए। ऊपर से एक प्रोजेक्ट की डिलीवरी भी हो गई थी और फिलहाल ऑफिस मे काम का प्रेशर भी नहीं था। ऐसी ही एक दिन ब्रेक-आउट एरिया मे बैठे-बैठे जिक्र हुआ और हम चार लोग रोड से लेह-लद्दाख जाने के लिए तैयार हो गए। इसी बीच हैदराबाद से मेरे एक मित्र का फ़ोन भी आ गया। मेरे मित्र का फ़ोन करने का मकसद भी कहीं घुमक्कड़ी करने का ही था। मैंने उसे अपने प्लान के बारे मे बताया। पहले तो उसने नखरे किए क्यूंकि में और मेरा मित्र 2011 मे लेह-लद्दाख घूम के आ चुके थे। सच कहूँ तो मेरी भी लेह-लद्दाख जाने मे कुछ खास रुची नहीं थी पर ऑफिस के लोगों के साथ जाने मे अलग ही माहौल बनता। इस बार हम लोग कश्मीर से होते हुए लेह-लद्दाख और वापसी मनाली से करने वाले थे। ये प्लान सुनकर मेरा हैदराबादी मित्र भी तैयार हो गया था।
सितम्बर 12-21 की तारीख तय कर दी गई थी। इसी दौरान व्हाट्सएप्प के माध्यम से और तीन लोगों ने हमारे साथ जाने ही इच्छा जताई थी। हमने उनका स्वागत किया और अपने प्लान की डिटेल्स उनके साथ शेयर कर डाली।
ऑफिस के हम चार लोग अपनी एक गाड़ी से जाने वाले थे। बाकी तीन लोगों को भी बता दिया गया था कि गाड़ी का इंतजाम कर लें। मेरे हैदराबाद वाले मित्र ने दिल्ली पहुँचने और वापस हैदराबाद जाने के लिए हवाई टिकट बुक करवा ली थी। इसका आना तो पक्का हो चुका था। बाकी सब लोगो को नोएडा मे ऑफिस के बाहर एकत्रित होना था। प्लान करते-करते अगस्त का महीना गुजर गया। जैसे-जैसे दिन गुज़र रहे थे उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। पर एक बात थी जो मुझे सताए जा रही थी। दूसरे ग्रुप के लोग कुछ चुप-चुप से लग रहे थे। बिल्कुल सन्नाटा सा छाया हुआ था। मेरी छटी इंद्री ने मुझे आभास करा दिया था कुछ तो लोचा होने वाला था। सितम्बर के पहले हफ्ते मे मेरी छटी इंद्री के रिजल्ट सामने आने लग गए थे।
जैसे कि:-
– गाड़ी नहीं मिल रही है। कोई लेह-लद्दाख जाने के लिए तैयार नहीं हो रहा है।
– हमारी गाड़ी नीची है। वहां जाने मे नीचे टिक जाएगी।
– मेरे ऑफिस मे नया प्रोजेक्ट आया है। VP के साथ मीटिंग है। छुट्टी रद्द करनी पड़ेगी।
– मैंने चेकउप करवाया था मुझे लेह-लद्दाख जाने मे मेडिकल इश्यूज हो जाएँगी।
एक से बढ़ कर एक नए-नए बहाने सामने आने लगे थे। मैं सोच रहा था कि जो भी यात्रा हमने प्लान करके बनाई है वो कभी सफल नहीं हुई है। मेरे लिए ये सबकुछ होना एक आम बात सी थी। पर मेरे ऑफिस के ग्रुप के लोग ये सब देख कर परेशान हो गए थे।
हैदराबाद से आने वाले दोस्त ने भी ये सब देखकर अपनी टिकट रद्द करवा दी थी। टिकट कैंसिल करने पर उसको घर बैठे 4000/- रूपए का नुक्सान झेलना पड़ा। अब हम ऑफिस से सिर्फ तीन लोग ही रह गए थे जिनकी अभी तक सहमती बानी हुई थी। तभी आप लोगों को भी याद होगा सितम्बर के पहले हफ्ते मे कश्मीर मे जलजला आया था। अब तो प्लान पूरा समझो चौपट ही हो गया था। क्यूँकि हम कश्मीर होते हुए ही लद्दाख जाना चाहते थे। जो कि अब मुमकिन नहीं था।
हम लोग जिसकी गाड़ी से जाने वाले थे उसने बोला कि टेंशन की कोई बात नहीं हम लोग मनाली से चल पड़ेंगे। लेकिन मुझे लग रहा था कि ये यात्रा सफल नहीं हो पायेगी। एक और बन्दे ने मना कर दिया उसकी वाइफ का UK का visa लगना था और उसको भी अपनी वाइफ के साथ UK जाना पड़ा था।
वाह उस्ताद वाह!!!!!!!!!!!!! सात लोगों से शुरू होकर अब हम सिर्फ दो ही लोग रह गए थे। मुझे तो पहले से पता था कि जहाँ भी जाना होगा मुझे अकेले ही जाना पड़ेगा। अब मैं आखरी ना सुनने का इंतज़ार करने लगा था। क्यूँकि वो भी अपनी बेटी के nursery एडमिशन के धक्के खा रहा था लेकिन उसको अभी पता नहीं था कि स्कूल मे interviews कब से शुरू होने वाले हैं। जैसे कि मैंने कहा “मैं तो बस आखरी ना सुनने का इंतज़ार कर रहा था”।
वो दो स्कूल मे इंटरव्यू दे कर आ गया था। लेकिन अब वो इंटरव्यू के रिजल्ट का इंतज़ार करने लगा था। अब मुझसे इंतज़ार नहीं हुआ और मैंने खुद ही उसको बोल दिया कि पहले बेटी का एडमिशन करवा ले घूमने तो बाद मे भी चले जाएँगे। अगर एडमिशन नहीं हुआ तो तेरी वाइफ जिंदगी भर ताने मारती रहेगी। घूमने से ज्यादा ज़रूरी एडमिशन है। मेरी ये बात सुनकर उसने भारी मन से मना करते हुए कहा “अनूप भाई तू सही कह रहा है” एक बार एडमिशन हो जाए फिर तो बस तू और मैं ही चल पड़ेंगे। हमे किसी और की ज़रूरत नहीं है। उस शाम हम दोनों ने गम मिटाए। ;-)
अब मैं सोच मे पड़ गया 12-21 सितम्बर का समय है मेरे पास। लेह-लद्दाह जाने मे मेरी खास रूचि नहीं थी। ऑफिस मे इंटरनेट सर्फिंग करने लगा और lahual-spiti कि जानकारी मे जुट गया। मैं अपनी आदत के विपरीत इस बार कार से नहीं बल्कि बस से जाने वाला था। बस से यात्रा करने को लेकर मैं उत्साहित था। पर अब कई साल हो चले थे ऐसा किये हुए। मनाली तक पहुँचाने मे तो कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन मनाली से आगे चन्द्रताल कैसे पहुँचना है ये जानकारी लेने मे मैं जुट गया। इंटरनेट पर कुछ ब्लॉग्स पढ़े पता चला कि कुल्लू से एक हिमाचल रोडवेज की बस रोज़ सुबह काज़ा जाती है। कुल्लू से ये बस 1-1.5 घंटे मे मनाली पहुँचती है। और भी कुछ जरूरी जानकारी लेकर मे सितम्बर 12 का इंतज़ार करने लगा।
12 सितम्बर आज शुक्रवार था और मैं ऑफिस से शाम के सात बजे अपने घर की और चल दिया। घर पहुँच कर एक बैग मे पैकिंग कर रहा था तभी ऑफिस के एक दोस्त का फ़ोन आया। मैंने बताया की मैं आज रात को मनाली के लिए निकल रहा हूँ। उसने पुछा कि ISBT तक कैसे जा रहा है मैंने कहा नोएडा सिटी सेंटर से मेट्रो पकड़ कर। उसने मुझे घर पर ही रुकने के लिए कहा और बोला कि मैं तेरे घर आ रहा हूँ और वो ही मुझे मेट्रो तक ड्राप करेगा। मैंने मना किया लेकिन वो नहीं माना। वो आठ बजे तक मेरे घर पहुँच गया। घर मे सबको अलविदा किया। और साथ मे यह भी बता दिया कि हो सकता है एक-दो दिन मोबाइल से संपर्क नहीं कर पाऊँगा।
मैंने बैग दोस्त की गाड़ी की डिक्की मे रख दिया। मेरे पास ठण्ड से बचने के किये एक जैकेट था जो बैग मे नहीं आ रहा था इसलिए मैंने उसको फिलहाल गाड़ी की पीछे वाली सीट पर रख दिया था। इसके अलावा मैंने ठण्ड से बचने के लिए एक चुस्ती(coats wool) बैग मे पहले से ही रख ली थी। मेरे दोस्त ने रास्ते मे ही एक मार्किट की पार्किंग मे गाड़ी रोक ली। मैंने पूछा क्या मकसद है भाई, तो वो हल्का सा मुस्कराया और बोला यार तू अब 9 दिन के बाद ऑफिस आएगा जाने से पहले कुछ हो जाए। हमने हल्के मे फटाफट निपटाया और वहीं डिनर भी कर लिया। मेरे पास टाइम की कमी नहीं थी ऊपर से अकेले ही जा रहा था तो किसी बात या दूसरे साथी की कोई बंदिश भी नहीं थी। नॉएडा से मेट्रो पकड़कर मैं करीब रात के 10:30 बजे ISBT कश्मीरी गेट पहुँचा था। काफ़ी हाथ-पाँव मारने के बाद पता चला कि अब कोई volvo मनाली नहीं जाने वाली। इससे भी अच्छी बात ये हुई कि अब volvo क्या कोई भी मनाली के नहीं जाने वाली थी। मैंने सोचा मज़ा आ गया अब तो अपने पुराने स्टाइल मे जाऊँगा। अकेले जाने का यही तो फ़ायदा है जैसा मन करे वैसा करो। मैं हरियाणा रोडवेज पकड़ कर चण्डीगढ़ पहुँच गया।
मनाली जाने वाली यहाँ भी इतनी सुबह कोई बस उपलब्ध नहीं थी। एक हिमाचल रोडवेज की 2×3 लगी हुई थी। टिकट काउंटर पर जाकर मैंने 3 टिकटें खरीद ली। मैंने बैग सीट के नीचे डाला और अपनी 3 वाली सीट पर जाकर लेट गया। बस चलने के बाद मुझे नींद आ गई। एक-दो बार लोगो ने टोका क्यूंकि उनको मालूम नहीं था कि मैंने तीनों सीट ख़रीद हुई है। मैं नींद मे झल्लाते हुए कहता जाकर कंडक्टर से पूछ लो। अगली बार मैंने कंडक्टर को ही बोल दिया कि जब भी किसी का टिकट काटने तो बोल देना कि मुझे ना छेड़े वरना दो टिकट के पैसे मुझे वापस करना होगा। वो हँसने लगा और कहता आप आराम से सो जाओ।
कंडक्टर ने मुझे उठाया सब लोग बस से नीचे उतर रहे थे। सुबह के 11 बज रहे थे। ये जगह मनाली जैसी नहीं लग रही थी शायद मै नींद मे था। ऊपर से इतनी जल्दी कैसे मनाली पहुँच गया। मेरे पूछने पर कंडक्टर ने बताया कि ये बस टाइम-टेबल के हिसाब से लेट हो गयी है। यहाँ से दूसरी बस मे जाना होगा। मेरा दिमाग ख़राब हो गया। पर क्या करता मज़बूरी थी। अबी तक मैं सुन्दर नगर ही पहुँच पाया था। दूसरी बस मे कुछ खास भीड़ नहीं थी वहाँ पर भी मैंने 3 वाली सीट पर कब्ज़ा जमाया और लम-लेट हो गया। अब नींद नहीं आ रही थी पर कमर सीधी थी आराम था। इस बस का ड्राइवर बड़ी तेज़ी से चला रहा था। अब बस की सीट पर लेटकर अपने-आप को संभालना कुश्ती करने जैसा लग रहा था। मैंने बैठने मे ही भलाई समझी। लेकिन जहाँ भी सवारी रुकने/चढ़ने के लिए बोलती ड्राइवर रोक देता था। इतना तो था कि मैं शाम तक ही पहुँचने वाला था। जैसे-तैसे मैं कुल्लू पहुँच गया।
कुल्लू से बस मे भीड़ हो गई। मैंने भी शराफ़त से सीट छोड़ दी और खिड़की वाली सीट पर बैठ गया। वैसे तो कुल्लू से मनाली करीब डेढ़ (1hr 30mins ) घंटे का ही रास्ता है लेकिन भीड़ देख कर मैं समझ गया था कि टाइम ज्यादा लगने वाला है। मेरे आगे वाली सीट पर स्कूल के बच्चे बैठे हुए थे। मैंने उनको कैमरा दिया और मेरी एक फ़ोटो खींचने के लिए बोला। कैमरा देख कर बच्चे खुश हो गए और झट से तैयार हो गए।
कुल्लू से बस ने कछुऐ की चाल पकड़ ली थी। बार-बार रुकते हुए चल रही थी। ढ़ाई घंटे (2hrs 30mins) बाद मैं मनाली पहुँच गया। एका-एक मौसम बिगड़ गया था। बारिश होने लगी। बस से उतरते ही मैं बारिश से बचने के लिए बस अड्डे की और दौड़ गया। वहीँ एक एक मोची दिखाई दिया। मेरे बैग की एक जगह से सिलाई उधड़ गयी थी उसी मोची से बैग की मरम्मत करवा ली। बस अड्डे के सूचना काउंटर पर जाकर मैंने काज़ा जाने वाली बस का पता किया। बस सुबह 5-6 बजे के बीच मे कभी भी आ जाती है। मैंने कुछ देर बाद फिर से पुछा इस बार काउंटर पर कोई और व्यक्ति था उसने कहा बस 4:30 पर आयगी। मैंने सोचा ये क्या बबाल है। ना जाने कौन सही बोल रहा है। खेर छोड़ो। कुछ देर बाद बारिश रुक गई और मैं होटल की तलाश मे निकल गया। मनाली तिब्बत मार्किट के पीछे एक मोनेस्ट्री(monestry) है उसी के पास 600/- रुपए प्रति दिन के हिसाब से एक रूम मिल गया था। होटल नया बना हुआ था और रूम एक दम साफ़-सुथरा चका-चक।
अकेले घूमने जाने का सिर्फ एक यही नुक्सान है कि बाँदा दुनिया जहान की फ़ोटो खींच लेता है बस स्वयँ अपनी नहीं खींच पाता। आजकल वैसे तो सेल्फ़ी(selfie) का ज़माना है। और FM रेडियो पर तो सेल्फ़ी कांटेस्ट भी चल रहा है। पर सेल्फ़ी लेना अपने बस की बात नहीं थी। और अगर लेता भी तो कितनी बार।
दिल्ली से मनाली तक जैसे-तैसे पहुँच गया। रूम पर ऐसा सुकून मिल रहा था जैसे मानो युद्ध विराम (cease fire) हो गया हो। मैंने गरम पानी से स्नान किया डिनर करने के लिए माल-रोड जाना चाहा। क्यूँकि मैंने अपनी घुमक्कड़ी के जीवन काल मे देखा है कि बजट होटलों मे अक्सर खाना आपके स्वाद के मुताबिक नहीं होता है। लेकिन अब बहार जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। शरीर मे हरारत सी हो गयी थी , ऊपर से गरम पानी से स्नान भी कर लिया था तो बाहर ठण्ड लगने का भी डर था। डर सिर्फ इसलिए कि अभी तो कल और आगे भी जाना था। इसी होटल से दाल , सब्ज़ी , रोटी मँगवाई। रात मे ही बिल भी दे दिया क्यूँकि मुझे अगली सुबह जल्दी निकलना था। और ये बात भी कर ली थी कि मेरा एक बैग होटल मे ही रहेगा जब मे वापस लौट कर आऊँगा तब ले लूँगा। सुबह 4:00 बजे का अलार्म लगा कर मैं घोड़े बेच कर सो गया।