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पुष्कर की यात्रा : कबीरा मन निरमल भया….

कई स्थान अपने आप में ही ऐसा कुछ समेटे हुये होते है कि आप उन्हें नज़रंदाज़ नही कर सकते, भले ही वो पर्यटकों के लिहाज़ से बिलकुल मुफ़ीद ना हों, सुविधायों का घोर अभाव हो अथवा मुक़म्मल तौर पर ही नदारद हों, पर उनकी फि़ज़ा में ही कुछ ऐसा घुला-मिला सा होता है कि देश-विदेश से लोग अपने आप ही उनकी तरफ आकर्षित होते रहें हैं | प्रभामंडल (aura), केवल देवतायों या मनुष्यों की ही मिल्कियत नही, एक भरा पूरा शहर भी, अपने आवरण के चारों तरफ उसे समेट सकता है, ये बात पुष्कर में जा कर ही मालूम होती है, कि कैसे इसके मोहपाश में वशीभूत हुये लोग चारों दिशायों से इसकी और खिंचे चले आते हैं | आप कहेंगे, ये तो धार्मिकता है जो उन्हें यूँ खींच ले आती है और लोग अक्सर ऐसी जगहों की कमियों को भी इसी वज़ह से नज़रंदाज़ कर जाते हैं, जिससे उनकी धार्मिक भावनायों को चोट ना पहुंचे | आप आंशिक तौर पर सही भी हो सकते हैं, मगर यह पूरा सत्य नही | कुछ तो है धरती के इस टुकड़े और इसकी आबो़-हवा में, जो इसे महज़ एक तीर्थ स्थान ना बनाकर तीर्थराज का दर्जा दिलवाती है | शायद, कुछ जगहों का अपने दौर में रुके रहना ही उनकी नियति है, आधुनिकता और आध्यात्मिकता में छत्तीस का आँकड़ा है, इसलिये अकारण नही कि तमाम सुख-सुविधायों को छोड़कर यूरोप और अमेरिका, जैसे विकसित देशों से आये हुये यायावर पर्यटक, यहाँ ऐसी-ऐसी जगहों पर महीनों पड़े रहते हैं, यहाँ उनके हाशिये पर रह रहे समाज के नागरिक भी रहना गवारा ना करें |

जी हाँ, कुछ ऐसा ही जलवा है तीर्थराज पुष्कर का ! क्या गज़ब का शहर है ! ऊपरी तौर पर तो हो सकता है, इस शहर से सामना होते ही आप नाक-मुँह सिकोड़ लें, छी…!!! इतनी गंदगी !, जगह जगह जानवर घूम रहें है, पहली नज़र में ही पुष्कर कुछ उन्नींदा और अलसाया सा शहर नज़र आता है और आप पूरे अधिकार से कह सकते हैं कि, कोई सिविक सेन्स नही है लोगों में, ट्रैफ़िक free for all है, आपसे आगे वाला आपको साइड दे या ना दे, ये उसकी मर्जी पर मय़स्सर है, यदि कोई सड़क पार कर रहा है तो अपनी ही धुन में चलेगा, अर्थात पूरे इत्मिनान से और अपना पूरा समय लेता हुआ, कहीं कोई जल्दी नही ! आखिर जितना हक़ आपका इस सड़क पर है उतना तो उसका और सड़क पर खुले घूम रहे अन्य प्रकार के जानवरों का भी है, आप तो आज आयें है, आज नही तो कल चले जायेंगे पर ये सब तो स्थानीय है, एक आपके कहने भर से या आपकी कुछ पलों की सुविधा के लिए ये शहर अपने मिज़ाज़ को भला क्यूँ बदलें !

“कबीरा कुआँ एक है, पानी भरें अनेक |
भांडे में ही भेद है, पानी सबमे एक ||”

भाई, No Parking में बंधे हैं, भले tow कर ले जायो


जयपुर से करीब 140 किमी तथा अजमेर से लगभग 12-13 किमी दूर, धरा के इस भू-भाग पर एक अलग ही रंग का हिन्दुस्तान बसता है, एक ऐसा हिंदुस्तान जिसे केवल देखने नही, बल्कि महसूस करने, इसे जीने और इसकी आध्यात्मिकता में डूबने, दुनिया भर से लोग इसकी तरफ खिंचे चले आते हैं | हो सकता है, आप इसे सिर्फ इस वज़ह से जानते हों कि यहाँ ब्रह्मा जी का एक मन्दिर है जो दुनिया में इकलौता ही है, वैसे मैंने सुना है कि एक मन्दिर बाली (इंडोनेशिया) में भी है, मगर आम हिन्दुस्तानी लोगों की पहुँच में तो यह ही एक मन्दिर है, सो उनका आना तो लाजिमी है और समझ में भी आता है, मगर किस कारण से और किसकी तलाश में, इतने रंग-बिरंगे, विदेसी लोग जाने कहाँ-कहाँ से यहाँ आते हैं और फिर, आते हैं तो ठहर ही जाते हैं, महीनों-महीनों भर ! और फिर जिन जगहों पर ठहरते हैं वहाँ कुछ अपनी ऐसी यादें छोड़ जाते हैं कि जब उनका कोई और करीबी यहाँ आता है तो उसी होटल, गेस्टहाउस या धर्मशाला का वही कमरा माँगता हैं, जिसमे उसका कोई संगी, कोई साथी या देशवासी कुछ समय गुजार कर गया था | शहर तो आप ने अनेकों देखे होंगे, अनेकों जगहों पर कुछ दिन गुजारे भी होंगे, पर क्या कभी आपने किसी स्थान के प्रति ऐसी आसक्ति दिखाई कि जिस जगह को मेरा परिचित जिस हाल में छोड़ कर गया था, मुझे वही कमरा, उसी हालत में चाहिये, उसी रंग में पुती दीवालें, वो उघड़ा हुया दीवाल का प्लास्टर, वही टूटे हुए कांच वाली खिड़की, वो पंखें का तिरछा ब्लेड, जो उसके किसी पूर्ववर्ति साथी ने अपने ध्यान के कुछ अदभुत क्षणों में किसी एक खास दिशा में मोड़ दिया था, वो दीवाल पर लिखी इबारत, और अगले आने वाले के लिए एक संदेशा, जिस वजह से जगह का मालिक सालों-साल चाह कर भी सफेदी नही करवा पाता, कि कब इसका कोई दूसरा मित्र आयेगा और मुझसे वही दरों-दीवार मांगेगा, तो फिर, मैं कैसे वो उसे ला कर दे पाऊंगा ! मालिक, मालिक ना हो कर केवल एक रखवाला (केयर टेकर) बन जाये, वो भी किसी दबाव या जबरदस्ती से नही, अपनी ही ख़ुशी से… ये इस शहर के मिज़ाज़ का एक ज़़ायका है !

एक बेहद छोटा सा शहर, जिसे एक छोर से दूसरे छोर तक आप पैदल ही माप सकते हैं, मगर अपने आप में पूरी सृष्टि का रहस्य समेटे, एक निहायत ही अलग सी दुनिया ! कुछ ऐसी दैवीय शक्तियाँ, कुछ आध्यात्मिकता, और निश्चित रूप से बहुत सा प्रकृति का वरदहस्त अपने ऊपर लिये हुये, नाग पहाड़ी, प्रकृति द्वारा अजमेर और पुष्कर के बीच खींची गयी एक भौगोलिक सीमा रेखा है | ये शहर तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ है, और इनके मध्य है, कुछ-कुछ वलयाकार सी आकृति लिए हुये यह बेतरतीब सा सरोवर, जो इसकी सम्पूर्ण आध्यात्मिकता और दर्शन का आधार है | कितने हाथ गहरा है, ये तो हम नही जानते मगर इसका होना ही अपने आप में महत्वपूर्ण है | पुष्कर के साथ जो भी दँत-किवँदतिया, कहानियाँ और चमत्कार जुड़े हुये हैं, यूँ लगता है जैसे इसी सरोवर की कोख से ही उपजें हों | इस सरोवर की उत्पत्ति के साथ जो मिथक जुड़े हैं, वो भी कुछ कम दिलचस्प नही, कहते हैं, जब दानव वज्रनाभ ने ब्रह्मा जी की संतानों का वध कर दिया तो उसे मारने के लिए उन्होंने अपना अस्त्र, जो कि कमल है, चलाया | उस कमल के फूल की एक पंखुड़ी छिटक कर इस रेगिस्तानी धरती पर गिरी, जिससे इस धरती पर पानी का श्रोत्र फूट पड़ा, जिसने एक झील का रूप ले लिया और आज, यह एक सरोवर के रूप में हमारे सामने है | ब्रह्मा जी के नाम का सरोवर, बीच झील में एक मन्दिर नुमा इमारत है, पर उसमे कहीं कोई मूर्ती नही, कभी देखा सुना नही कोई ऐसा मन्दिर जिसमे उसके देवता की मूर्ती ही ना हो ! सुना है, ब्रह्मा जी ने इस जगह पर यज्ञ करवाया परन्तु उनकी पत्नी सावित्री ने हार-श्रृंगार में बहुत अधिक समय लगा दिया और इधर आहुति का समय निकला जा रहा था तो उन्होंने यहीं की एक स्थानीय महिला ‘गायत्री’ को अपनी पत्नी की जगह बिठा, सभी विधियाँ पूरी कर ली, पर जैसे ही सावित्री उस जगह पहुंची और अपनी जगह किसी और महिला को पत्नी के आसन पर बैठे देखा तो ब्रह्मा जी को श्राप दिया और स्वयं पास ही के रत्नागिरी के जंगल में चली गयी जिस वजह से इस जगह पर ब्रह्मा का मन्दिर तो है पर इस मंदिर में उनकी कोई मूरत नही, क्योंकि एक श्रापित देवता की मूर्ती की स्थापना शास्त्र सम्मत नही |

ब्रह्म सरोवर में मन्दि, जिसमे कोई मूर्ती नही

पुष्कर, जिसका इतिहास ईसा पूर्व दूसरी से चौथी शताब्दी तक जाता है, इतना विलक्षण और समर्द्ध स्थान, कि जो कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम में भी स्थान पा गया, जिसका जिक्र रामायण और महाभारत में आदि तीर्थ के तौर पर हुआ, बुद्ध के स्तूपों में, चन्द्रगुप्त युग के समय के पाये गये सिक्कों में भी, और जिस जगह पर हिन्दुस्तान के ज्ञात इतिहास के सबसे बड़े घुमक्कड़ गुरु नानक के साथ-साथ गुरु गोबिंद सिंह जी भी आये, आप उसे यूँ खारिज नही कर सकते | कभी सोच कर देखो तो हैरानी होती है कि चारो तरफ रेत के विशाल रेगिस्तान से घिरा यह छोटा सा टापू नुमा स्थान, और इसके मध्य में बनी यह झील, जिसे हम और आप ब्रह्म सरोवर के नाम से जानते हैं, कैसे अपना अस्तित्व बचा कर रख पाया होगा ! वाकई, जिस प्रकार इस सृष्टी का निर्माण एक अद्भुत और विलक्षण घटना है, उसी प्रकार से इस स्थान का, इतनी विकट परीस्थितियों में भी अपने आप को जीवित रख पाना भी असाधारण ही रहा होगा !

मथुरा के बाद ये दूसरा शहर है, जिसमे घूमने का एक अलग ही मज़ा है, हिंदुस्तान के सारे रंग, अपने सदाबहार भिखारियों और मदारियों से लेकर, औघड़ सन्यासियों तक, सब इस सरोवर के अलग-अलग घाटों पर आप पा जायेंगे, कहीं कोई टोकरी में साँप रखे घूम रहा है, कहीं कोई सर पर बड़ा सा थाल सजाये, और उसमे बेहद करीने और नफ़ासत से मिट्टी के छोटे-छोटे कुल्हड़ लगाये, चलता फिरता चाय वाला मिल जायेगा, तो कहीं, केवल अपनी गर्दन भर हिला कर, हामी भर देने भर से, आपकी सभी लौकिक और परालौकिक इच्छाएं पूरी कर देने वाली गाय माता, कोई ऐसा पुरोहित, जो केवल आपके ललाट पर तिलक ही लगाने भर से अर्जित अपनी आजीविका में पूर्ण आनंद कमा लेता है, तो पास ही बैठा कोई सन्यासी आपकी पूरी जन्मपत्री ही मिनटों में बना कर बाँच भी देगा | जीवन और मोक्ष के वो सिद्दांत, मौत के वो रहस्य, जिसे नचिकेता ने, पिता की आज्ञा समझ अपने जीवन त्याग को ही तत्पर हो, स्वयं यम से सीखा, आप उसे यूँ ही राह किनारे खड़े किसी सन्यासी से दस मिनट की चर्चा से जान सकते हो ! किसी पिनक में कोई साधू घूमता बीच सडक पर पकड़ लेता है आपको, और फिर जो आप पर उसके ज्ञान की घटा घनघोर वर्षा होती है कि आप तपते सूरज की तपिश में भी यूँ भीग जाते हो जैसे सावन की झड़ी से सामना हुआ हो | क्या बात है भाई ! आप क्या सोचते हैं, ऐसे थोड़े ही इतने अँगरेज़ पुष्कर में डेरा डाले बैठे रहते हैं, ये बाबा लोग, उनके आश्रम, और फिर ऊपर से चिलम का सुट्टा ! 

2. कभी-कभी विकलांगता भी धन अर्जन का साधन बन जाती है

पुष्कर की गलियों में घुमते सपेरे संग नाग देवता

गुजरे ज़माने के सारंगी वादक के साथ कुछ बतकही के लम्हे

ब्रह्म सरोवर का विहंगम दृश्य

कहते हैं सन साठ-सत्तर में अमरीका का नौजवान वर्ग हिप्पी विचारधारा से बहुत प्रेरित था, बस कुछ दर्शन, कुछ समाज से बगावत का भाव, कुछ ड्रग्स ! और बस, फिर झूमते गाते, हरे रामा हरे कृष्णा करते रहना, इसी नाम और इसी विषय पर देवानंद ने एक फ़िल्म भी बनाई थी, और यहाँ घूमते ही लगता है मानो उसी दौर में पहुँच गये हों, ऐसे ही शहरों में आकर लगता है जैसे समय का पहिया कुछ थम सा गया है, मगर इस सबका अनुभव है मजेदार !

तंग और संकरी सड़क, दोनों तरफ लगी दुकाने, बीच में से आप का गुजरना, हैरानी और विस्मय के भाव लिये, आप जैसे किसी मोहिनी के मोहपाश में बंधे, एक के पीछे एक होकर, यूँ बढ़ते जा रहें है, जैसे जंगल में एक मृगशावक के पीछे दूसरा मृगशावक हो लेता है, ठीक उसी प्रकार से इक अनजानी सी मृगतृष्णा के मोहपाश में खिंचे ब्रह्म सरोवर की तरफ अपने कदम बढायें जा रहें हैं | ब्रह्म सरोवर के करीब पहुँचते ही, एक पंडे नुमा गाइड से बात हो जाती है जो 50 रुपैया लेगा, ब्रह्म सरोवर की कथा बाँचेगा और फिर ब्रह्मा जी के मन्दिर भी ले कर जायेगा | कथा तो वही है, जो मैंने ऊपर उचरी, पर ये सरोवर तो अपने पुरखों की मोक्ष प्राप्ति के यत्न का एक साधन भी है | बस आप जेब ढीली कीजिये, श्रम, साध्य और साधक मिल कर उस फल प्राप्ति का आपके अंतर्मन को अहसास करवाने का बीड़ा उठा लेते हैं, बस शर्त यही है आप वो सब करते जाएँ जो आपसे करवाया जा रहा है, क्यूंकि डर तो अनदेखे अनजाने का है और उसी से मुक्ति का यहाँ व्यापार है, तथा धर्म हमारी इसी मनोवैज्ञानिक ग्रन्थी को समझने और छलने का औजार ! जीते जी जिन माँ-बाप के लिए ना तो समय निकल पाया, ना पैसा और ना ही कुछ करने की नीयत, बस उनके नारायण वाहन होते ही उन्हें मोक्ष दिलवाने का कुछ ऐसा लोभ कि घाट पर तर्पण करवाने वालों की भीड़ बड़ती जा रही है, और इधर सूर्य देवता भी मंत्रमुग्ध हो जैसे अपनी ज्वाला इस सरोवर में उड़ेलते जा रहें हों | धर्म, आस्था, विज्ञान, विश्वास, अविश्वास सब यहाँ आकर गडमड हो जाते हैं, जग रचना मिथ्या है, हम सब जानते हैं पर यहाँ तो उसका अवलम्बन करना ही है | दक्षिणा की पर्ची कटवाते हुये फिर से पक्का कर लिया, भाई कुछ कमी तो नही रह गयी ! 50 रुपल्ली में आपको ब्रह्म सरोवर का इतिहास, पूजा विधि बताने के साथ-साथ ब्रह्म मन्दिर के अलावा कुछ और मन्दिर तथा घाट वगैरह भी दिखला देने का सौदा कुछ बुरा नही ! बाकी यदि दक्षिणा की पर्ची में उन्हें कमीशन मिलती हो, तो वो हमारी जानकारी में नही ! कभी यहाँ गुरु नानक भी आये थे और गुरु गोबिंद सिंह भी और यहाँ सरोवर के एक घाट का नाम भी गोविन्द घाट है जिसे कुछ लोग अब गाँधी घाट भी कहने लगे हैं…. समय-समय की बात है !

घाट से गुरुद्वारा साहिब का नज़र आता गुबंद

एक पूजा हमारे भी नाम से

पुष्कर सरोवर में पितरों के मोक्ष निमित पूजा

वैसे, ब्रह्म सरोवर की आमदनी अच्छी है, मगर यात्रियों को सुविधायों की दरकार है, अत: ऐसे में यदि यहाँ की संस्थाएं अपनी आय का कुछ हिस्सा कुछ बुनियादी सुविधायों पर खर्च कर दें तो बढ़िया हो जाये ! खैर, चलिये अब यहाँ से कुछ आगे बढ़ते हैं, सरोवर से कुछ दूरी पर ही ब्रह्मा जी का काफी प्राचीन मन्दिर है, वैसे आपको बताता चलूं कि मथुरा, वृन्दावन के बाद पुष्कर एक ऐसा शहर है जिसके चप्पे-चप्पे पर आपको मन्दिर मिलेंगे और प्रत्येक मन्दिर प्राचीन से प्राचीनतम ! हर मन्दिर अपने में एक अलग इतिहास समेटे हुये है, मगर इतनी जगहों पर एक साथ ना तो जाना सम्भव हो पाता है और ना ही उन पर ईमानदारी से लिखा जा सकता है इसलिए हम अपने आप को सिर्फ ब्रह्मा मन्दिर तक ही सीमित रखेंगे | कुछ ऊंचे से चबूतरे पर स्थापित ये मन्दिर अपने आप में विलक्षण इस वजह से भी है कि इस के फ़र्श के प्रत्येक हिस्से और सीढ़ी पर सिक्के गुदे हुये हैं, कहते हैं कुछ तो चन्द्रगुप्त के युग के भी हैं, प्रवेश द्वार के समीप एक कछुए की आकृति है, जिसका मुख, मन्दिर के गर्भ-ग्रह की तरफ है, अब चूंकि ब्रह्मा का वाहन मोर है, सो अकारण नही कि आप को मोर के अनेकों भित्तिचित्र मन्दिर की दीवारों पर भी नज़र आयें और सबसे बड़ी बात पूरे मन्दिर का परिदृश्य ही नीला है, ब्रह्मा जी की चार मुख वाली एक मूर्ती भी, जिसे चौमूर्ति कहा जाता है, यहाँ स्थापित है | कुल मिलाकर, भव्यता के मामले में यह मन्दिर यूँ तो साधारण है पर इस शहर के मिजाज से पूरी तरह मेल खाता है, इसी मन्दिर के प्राँगण में कुछ और भी मन्दिर हैं, जिनमे से एक बेसमेंट में शिवालय था, और जैसा कि हमे बताया गया कि यह शिवलिंग कई हजार वर्ष पुराना है, इस जगह के इतिहास और इसकी प्राचीनता को देखते हुये विश्वास भी हो जाता है कि शायद वास्तव में ही रहा होगा | 

नीले परिदृश्य में ब्रह्म मन्दिर

ब्रह्म मन्दिर के प्रवेश द्वार पर

ब्रह्म मन्दिर के भीतर की मूर्ती

ब्रह्मा जी की चोमूरती

हजार वर्ष पुराना, शिवलिंग, ब्रह्म मन्दिर में

कुछ पल सुस्ताने के, ब्रह्म नदीर में

मन्दिर से बाहर आ जायो तो ये शहर वही है, जिसका तिलिस्म आपको चुम्बक की तरह से अपनी और आकर्षित करता है | शहर की आबो-हवा मस्त, गलियाँ मस्त, जगह-जगह आवारा घूमती गायें मस्त और सबसे मस्त और फक्कड़ तबियत लिये हैं इस शहर के आम जन और साधू | हर मत, सम्प्रदाय के साधू आपको पुष्कर की गलियों में मिल जायेंगे, हाँ, ये बात अलग है कि असली कौन है और फर्जी कौन इसकी परख आसान नही | मोटे तौर पर सबकी निगाह फिरंगियों पर होती है और फिर फिरंगी भी बड़े मस्त भाव से महीनो इनके साथ ही घूमते रहते हैं, पता नही भारतीय दर्शन के बारे में कितना वो जान पाते होंगे या कितना ये बाबा लोग उन्हें समझा पाते होंगे पर इन्हें देखकर तो पहली नज़र में कुछ यूँ लगता है जैसे गुरु और भक्त दोनों ही भक्ति के किसी ऐसे रस में लींन हैं जिसकी थाह पाना आसान नही, जी हाँ पुष्कर इस के लिए भी जाना जाता है | वैसे, ये बाबा लोग अपने इन फिरंगी भक्तों पर अपना पूरा अधिकार रखते हैं और आपको इन से घुलने-मिलने नही देते |

इस शहर की धार्मिकता, और आध्यात्मिकता के इस बेझोड़ और आलौकिक रस में डूबे-डूबे से आप आगे बढ़तें हैं तो घाट के दूसरी तरफ ही गुरु नानक और गुरु गोबिंद सिंह जी की पुष्कर यात्रा की याद में बना ये शानदार गुरुद्वारा है, पुष्कर में आकर इस गुरूद्वारे के भी दर्शन ! और ऊपर से लंगर का समय ! लगता है ऊपर जरुर कोई मुस्करा कर अपना आशीर्वाद हम पर बरसा रहा है…ज़हे नसीब !!!  

गुरु नानक देव जी की याद में बना इतिहासिक गुरुद्वारा

लंगर की पंगत में

यदि बात पुष्कर की हो रही हो तो, यहाँ एक बात का जिक्र और कर लें कि यहाँ बन्दर बहुत है और उनमे भी ख़ास तौर पर उनकी एक प्रजाति लंगूर का तो वर्चस्व है, पुष्कर आने वाले रास्ते से लेकर घाट तक, हर जगह आप इन्हें पा सकते हैं और हमारे जैसे तो अपने घर से निकलते ही अपने सामान के साथ-साथ गुड और चना जरूर रखते हैं इनके लिये, बीच राह कहीं कार किनारे पर लगा, इन्हें कुछ खिलाने पर एक अजब सी संतुष्टि मिलती है | चलिए, अब लगे हाथ      यहाँ कार्तिक मास में लगने वाले उन दो मेलों का जिक्र भी कर लें जिनके कारण पुष्कर देश विदेश में जाना जाता है, पहला मेला पूरे तौर पर धार्मिक है जो 5 दिन चलता है और इस दौरान आने वाले श्रद्धालु इस ब्रह्म सरोवर में स्नान कर के मोक्ष की कामना करते हैं और दूसरा पुष्कर के ही बाहरी भाग में लगने वाला पशु मेला है, जिसमे पूरे राजस्थान और आस-पास के राज्यों से लोग अपने जानवरों जैसे ऊँट, गाय, भैंस, बकरी, गधा, भेड़ आदि बेचने-खरीदने आते है और अब तो यह मेले अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बना चुके हैं, और इन्हें देखने हजारों विदेशी पर्यटक भी आते हैं | आध्यात्मिकता और धार्मिकता के इस अनूठे मेल में रंगे हुये इस क्षेत्र का ये भी एक अनूथा ही रंग है | धार्मिकता से थोड़ा इतर मगर हिन्दुस्तान की परंपरागत कृषि आधारित अर्थव्यवस्था और उसमे पशु धन के महत्व को रेखांकित करता हुआ एक पर्व !

पुष्कर के रास्ते में लंगूर बहुत हैं

कुछ तो इतनी मित्रता गांठ लेते हैं कि कार पर ही सवार हो जाते हैं

पुष्कर में घूमते हुये महसूस होता है कि समय की यहाँ कोई बंदिश नही, जितना भी समय हो, यहाँ कम पढ़ जाता है, क्यूंकि यह शहर तो हर बदलते पल के साथ एक नये रंग के साथ आपके सामने आता है, यदि मुख्य सड़क से घाट तक आप गये तो एक रंग, वापिस लौटे तो बिलकुल बदला हुआ रंग, दिन में दस बार गुजरिये, दस भिन्न प्रकार के रंगो से आपका सामना होगा, इतनी विलक्षणता ! परन्तु समन्वय भी इतना कि हर रंग दूजे में गुंठा ही मिलेगा, हर बार !

यहाँ से निकलने की इच्छा तो नही, परन्तु व्यवहारिकता, दार्शनिकता पर हावी हो जाती है और फिर हम इस शहर के तिलिस्म और आध्यात्मिकता से बाहर निकल, एक बार फिर से जयपुर का रास्ता पकड़ लेते है, यूँ ही बीच राह एक ख्याल आता है जब भी आप एक स्थान में कुछ समय गुजार कर जाते हो तो फिर अकेले वापिस नही जा पाते ! या कम से कम उन भावों के साथ नही जा पाते, जिनके साथ आये थे ! वो शहर, उसकी दार्शनिकता, उसके वासी, सब स्मृतियाँ बनकर जुड़ जाती हैं आपके अंतर्मन में, और फिर वो आपके अवचेतन का एक हिस्सा बनकर आपके साथ वापिस जाता है | कोई भी यात्रा अकारण नही होती, हर यात्रा का एक मनोरथ और एक उद्देश्य होता है, कुछ परिभाषित तथा बहुत सा अपरिभाषित, और आपकी नियति आपकी यात्रा की निरन्तरता में ही समाहित है | अन्यथा ये सर्वदा असम्भव है कि आप घर बैठे-बैठे, यूँ ही अचानक किसी रोज़, घर पर ताला डाल, सैंकड़ों किमी दूर किसी अंजान से शहर में निकल आयें… भले ही हम अपनी तुच्छ बुद्धि वश तात्कालिक रूप से उन कारणों को जान नही पाते, मगर कुछ ऐसा निश्चित ही होता है, जो समय और समझ के बोध से परे होता है | बहरहाल, यहाँ से जाते हुये निश्चित तौर पर इस बात का संतोष है कि दुनिया में अपनी तरह के सर्वथा इकलौते ब्रह्म सरोवर और बहम मन्दिर के हमें दर्शन का अवसर मिला, साथ ही उस जगह की चरण धूली तथा उस माटी को प्रणाम करने का मौका भी मिला, जिसकी रज़-रज़ को आदि काल से ना जाने कितने ही महापुरुषों की चरण पादुकायों के स्पर्श का दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ होगा. और अब, यहाँ से जाते हुये इस बात की संतुष्टि के साथ जा रहें हैं कि हम भी इस परंपरा के वाहक बन सके कि इस सरोवर के माध्यम से ही सही, एक बार फिर से अपने पुरखों और पितरों को स्मरण कर के उनके लिये मोक्ष की कामना कर सकें | ऐसे ही कुछ स्थान और उनकी माया, चेतन को चैतन्य की तरफ कुछ यूँ परिवर्तित कर देती है, जिसके लिये कबीर ने कभी कहा होगा-

” कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा तीर |

पीछे लागा हरी फिरे, कहत कबीर कबीर || “

और बस यूँ ही विचारों की इस झँझावत के बीच एक बार फिर से हमारी कार जयपुर की तरफ बढ़ी चली जा रही है |

पुष्कर की यात्रा : कबीरा मन निरमल भया…. was last modified: June 11th, 2022 by Avtar Singh
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