श्री बद्रीधाम की अविस्मरणीय यात्रा। (भाग – 1)

 ग्रीष्म ऋतू का आगमन यूँ तो प्रत्येक वर्ष ही होता है, जिसके फलस्वरूप अक्सर हम सभी फिर से वापिस  अपने बचपन की उन यादों को जी लेते हैं जिनमे सिवाय मौज-मस्ती और सैर-सपाटा  के कुछ नहीं होता था। लगभग पूरे दो महीने तक स्कूल की छुट्टी और चारो तरफ बच्चों का शोरगुल आरम्भ।   सांप-सीढ़ी, कैरम-बोर्ड, पकड़म पकड़ाई, खो-खो, कबड्डी, पहला-दुग्गो आदि जैसे खेलों को खेलते हुए दिन कैसे बीत जाते थे कुछ पता ही नहीं चलता था। खैर यह तो रही भूली -बिसरि यादें, अब वर्तमान की बात की जाए तो मई-जून के दो महीने कब आये और कब चले गए कुछ पता ही नहीं चलता।  हाँ दफ्तर में थोड़ी बहुत हलचल होती जरूर है क्यूंकि बहुत से लोग या तो इन दिनों अपने पैतृक गाँव चले जाते है या फिर बच्चो के साथ कहीं घूमने-फिरने। किन्तु कार्य की अधिकता के कारण अक्सर इस तरह के अवसर हम जैसे अभागों के हाथ से तुरंत फिसल जाते हैं। 

लेकिन इस वर्ष एक चमत्कारी घटना घटित हुयी और जून के अंतिम सप्ताह में अचानक पूरे सात दिनों का आराम मिल गया अर्थात सभी मीटिंग्स और ऑफिस वर्क से छुट्टी।  दफ्तर में ही एक सहकर्मी ने जब कहीं बाहर घूमने का विचार प्रकट किया तो हमने भी उसे पूरी गंभीरता से लिया और बातों ही बातों में श्री बदरीनाथ जी के दर्शन का कार्यक्रम बना लिया गया जो की दिल्ली से लगभग सवा पांच सौ किलोमीटर दूर है। इस विषय में मैंने अपने घर में जब बात की तो किसी को भी कोई आपत्ति नहीं हुयी और सभी अगले एक हफ्ते तक पर्यटन के मूड में आ गए।

अब बारी थी एक सेवन सीटर वाहन की जिसके विकल्प के रूप में इन्नोवा क्रिस्टा से बेहतर हमे कुछ नहीं लगा। बात निकली तो यूँ ही किसी अन्य मित्र ने सुझाव दिया की वो अपने ही कार्यालय में परिवहन सेवा देने वाली आई.टी. डी. सी. से बात करके हमारे लिए प्रस्तावित वाहन उपलब्ध करवा सकता है।  इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए सौदा पांच हजार रुपये प्रति दिन के हिसाब से तय किया गया और लगभग पांच दिनों की हमारी यात्रा भी तय हो गयी। लेकिन अभी सस्पेंस बाकी है, हमारे सहयात्री मित्र के गाँव से उनके माता पिता ने भी उसी दरम्यान दिल्ली आने का प्रोग्राम बना लिया और इस प्रकार उनकी यात्रा रद्द हो गयी, जिसके लिए उन्होंने खेद प्रकट किया और आगे यात्रा में न जा पाने का दृढ़ निश्चय भी लिया।
खैर हमे तो यात्रा पर जाना ही था इसलिए हमने अपने प्रोग्राम को बिना किसी फेर बदल के जारी रखा, और वैसे भी बद्रीधाम की इतनी लम्बी यात्रा पर जाने का यह हमारा पहला अनुभव था।  अतः पूरे उत्साह के साथ प्रभु का नाम लेकर हमने (माताश्री, मैं और बहनाश्री) अपनी यात्रा दिनांक चौबीस जून दो हजार अठारह को प्रातः सात बजे इन्नोवा क्रिस्टा गाडी के द्वारा प्रारम्भ की।

यहाँ पर इस गाड़ी का उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ क्यूंकि जैसा की मुझे बताया गया था की पहाड़ी यात्रा पर जाने के लिए अच्छे और बड़े वाहन ज्यादा लाभकारी रहते है ताकि खराब रास्तों पर भी बिना किसी परेशानी के आप की यात्रा सुचारु रूप से चलती रहे।  हालाँकि पुरे रास्ते पर मोटर साइकिल से लेकर मारुती 800 तक सभी प्रकार के वाहन हमे दिखाई दिए और हमारी सोच काफी हद तक बदल गयी। दोपहर के दो बजते-बजते हम लोग ऋषिकेश  से आगे निकल चुके थे, किन्तु हरिद्वार में बड़ा भयंकर जाम मिला जिसमे हमारा काफी समय नष्ट हुआ, हालाँकि इसके लिए हम पहले से ही तैयार थे क्यूंकि पिछले दिनों की ख़बरों से हमे ज्ञात हो चूका था की पर्यटकों की अधिकता के कारण हरिद्वार से ऋषिकेश की तरफ जाने वाले मार्ग पर ट्रैफिक व्यवस्था पूर्णतः ठप्प हो चुकी है। और वैसे भी हमारे ड्राइवर साब ने एक घंटा तो परमिट लेने में ही लगा दिया था, बता दूँ की बद्रीनाथ धाम जाने के लिए पहले यात्रियों का पंजीकरण होता है जिसके लिए सारी कार्यवाही हमारे ड्राइवर साब ने हरिद्वार में ही की और सरपट गाडी राष्ट्रीय राजमार्ग 58 पर दौड़ा दी।

अब एक और समस्या थी जो शायद सही समय का इंतज़ार कर रही थी और वो यह की पहाड़ों पर धनाधन दौड़ती हुयी गाड़ी से अक्सर लोगों के पेट में कुलबुलाहट शुरू हो जाती है जिसके कारन पहाड़ों पर यात्रा के दौरान उल्टियां होना बहुत ही आम बात है।  माताश्री और बहनाश्री दोनों को इस समस्या से दो चार होना पड़ा, वैसे मुझे भी थोड़ा अजीब सा महसूस हो रहा था किन्तु स्वयं पर नियंत्रण बनाये रखा और ईश्वर की कृपा से मुझे उल्टियां नहीं हुयी हालाँकि बचपन में बहुत होती थी।  पहले दिन हमारा लक्ष्य रुद्रप्रयाग तक पहुंचना था किन्तु इन दोनों की हालत को देखते हुए हम देवप्रयाग भी बमुश्किल ही पहुँच पा रहे थे।  बातों ही बातों में देवप्रयाग पहुँचते ही हमारे ड्राइवर साब ने एक तरफ गाडी रोक कर हमे संगम देखने के लिए कहा।  गाड़ी से बाहर निकल कर जब हमने नीचे देखा तो एक अत्यंत ही नयनाभिराम दृश्य देखने को मिला और वो था भागीरथी और अलखनंदा का संगम।
कुछ समय वहां बिताने और थोड़ा आराम करने के बाद हमने फिर से अपनी यात्रा आरम्भ की किन्तु बहनाश्री की हालत थोड़ा नासाज ही लग रही थी।  इसलिए हमने मलेथा गाँव, कीर्तिनगर में एक अच्छा सा रिसोर्ट देखकर उसमे रुकने का निर्णय लिया।  यह रिसोर्ट हाईवे पर ही बना हुआ है, इसे ढूंढने के लिए आपको कहीं दूर जाना नहीं पड़ता, और इसका नाम है ‘रिवर साइड रिसोर्ट’। बेहतरीन लोकेशन, बड़े और वातानुकूलित रूम, लाजवाब खाना, उत्तम साफ़-सफाई और स्टाफ का अच्छा व्यवहार जैसी सुविधाएं यदि एक छत के नीचे मिल जाये तो सोने पे सुहागा ही समझिये। यहाँ पर हमने दो दिन तक आराम किया क्यूंकि बहनाश्री की उलटी की समस्या के कारण उसके उत्साह में थोड़ा खलल पड़ गया था और वो अब आगे नहीं जाने की जिद्द कर रही थी।  हमारे रिसोर्ट के जनरल मैनेजर साब ने भी उसे खूब प्रोत्सहित किया और बाबा के दर्शन करके ही वापिस जाने के लिए समझाया किन्तु अभी वह असमंजस की स्थिति में थी इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता था।
खाली समय में बैठे-बैठे यूँ ही मैंने अपने एक अन्य सहकर्मी मित्र, जो की छुट्टियों में वहीँ अपने माणागाँव गए हुए थे, को मैसेज भेज दिया की मैं आपके गाँव के काफी समीप हूँ।  तुरंत मैसेज का रिप्लाई आया की मैं रस्ते मैं हूँ और देहरादून की तरफ जा रहा हूँ, अतः एक घंटे में तुम्हारे पास पहुँच रहा हूँ। माहौल में थोड़ी स्फूर्ति भर गयी और कुछ समय इंतज़ार करने के पश्चात हमारे  मित्र श्री सूरी जी सपरिवार हमारे समक्ष थे। रिसोर्ट में ही हम लोगों ने जम कर लंच का लुत्फ़ उठाया और उनके माणागाँव की ढेर सारी फोटोस और वीडियोस देखी।  उनके दोनों बच्चियां अत्यंत ही प्यारी थी जिनके साथ बातें करने में काफी समय आराम से पास हो गया। 

उनकी धर्मपत्नी ने बताया की पहाड़ों पर यात्रा करते हुए उन्हें भी उल्टियों की समस्या से दो चार होना पड़ता है जिससे बचने के लिए वो अक्सर एक टेबलेट ले लेती है जो यहाँ पर आसानी से मिल जाती है, उसे खाने के बाद जी मिचलाना बंद हो जाता है और यात्रा आराम से पूरी हो जाती है। अपने जैसे ही केस से रूबरू होने के बाद अब बहनाश्री को थोड़ी हिम्मत मिली और हमारे रिसोर्ट के रिसेप्शन से संपर्क करने पर पता चला की उनके पास एक फर्स्ट ऐड बॉक्स है जिसमे वो इस प्रकार की सारी दवाइयां रखते हैं क्यूंकि हर दूसरा यात्री उनसे इस समस्या की ही दवा मांगता है। माहौल थोड़ा सकारात्मक प्रतीत हो रहा था और हमने अपनी यात्रा को कंटिन्यू करने के लिए सोचा, जिसके लिए बहनाश्री की सहमति आसानी से प्राप्त हो गयी, इस शर्त के साथ की यदि दवा ने काम नहीं किया तो हम आधे रस्ते से ही वापिस हो जायेंगे। इस तरह हमारा आज का दिन और हमारी यात्रा के दो दिन पुरे हुए और दिनांक छब्बीस जून को हमने कीर्तिनगर से श्री बद्रीधाम तक की यात्रा करने का निर्णय लिया।  इस यात्रावृतांत को अपने अविस्मरणीय अनुभव सहित आपके साथ अगले भाग में साँझा करूँगा, तब तक के लिए जय श्री बद्रीविशाल।

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