अप्रैल 2010 की 18 तारीख को रात को दस बजे से अगले दिन छह बजे तक मेरी नाइट शिफ्ट की ड्यूटी थी। इस नाइट का मतलब था कि 19 को फ्री, 20 का मेरा साप्ताहिक अवकाश था और 21 तथा 22 की मैने ले ली छुट्टी; देखा जाये तो कितने दिन हो गये? चार दिन। ये चार दिन घुमक्कडी में बिताने थे। हमेशा की तरह वही दिक्कत, कहां जाऊं, किसे ले जाऊं? कोई भी मित्र तैयार नहीं हुआ। अब अकेले ही जाना था। कहां? पता नहीं। खोपोली वाले नीरज गोस्वामी जी को फोन मिलाया। वैसे तो वे हमेशा और सभी से कहते हैं कि खोपोली आओ, लेकिन आज उन्होनें सिरे से पत्ता साफ कर दिया। बोले कि यहां मत आओ, बहुत गर्मी पड रही है। मैने कहा कि साहब, गरमी-सरदी देखने लगे तो हो ली घुमक्कडी। बोले कि बरसात के मौसम में आ जाओ या फिर बरसात के बाद। ठीक है जी, बरसात के बाद आ जायेंगे।इस बार पक्का सोच रखा था कि हिमालय की ठण्डी वादियों में नहीं जाऊंगा। बहुत बार हो आया हूं। इस बार कहीं और चलूंगा। तय किया कि माउण्ट आबू चलो। फिर सोचा कि जबलपुर की तरफ चलो। चाहे जाना कहीं भी हो, मुझे 19 अप्रैल की सुबह-सुबह निकल पडना था। 18 की शाम हो गयी, अगले का हिसाब ही नहीं बना कि जायेगा कहां। रात को ड्यूटी पर पहुंचा। खूब सोच-विचार किया। हालांकि इतना सोचने के बावजूद भी कहीं का रिजर्वेशन नहीं कराया। इसलिये राजस्थान या मध्य प्रदेश का काम खत्म। इस बार फिर हिमालय की तरफ ही जाना पडेगा। दो विकल्प थे – पहला हिमाचल और दूसरा उत्तराखण्ड। उत्तराखण्ड में रात को बसें नहीं चलतीं इसलिये मैं वहां जाने से हिचकिचाता हूं। लेकिन कब तक? इस तरह तो उत्तराखण्ड अधूरा ही रह जायेगा। उत्तराखण्ड जाऊंगा। लेकिन फिर वहीं बात। कहां? गढवाल या कुमाऊं?
अगर गढवाल में जाना हो तो सुबह छह बजे शाहदरा आने वाली हरिद्वार मेल पकडूंगा, और कुमाऊं के लिये साढे छह बजे आने वाली बरेली मेल पकडनी पडेगी। तभी ध्यान आया कि अक्षय तृतीया वाले दिन गंगोत्री – यमुनोत्री के कपाट खुलते हैं। उसके एक-दो दिन बाद केदारनाथ-बद्रीनाथ के कपाट भी खुल जाते हैं। मैने हिसाब लगाया। मेरे हिसाब से 16 अप्रैल को अक्षय तृतीया थी। यहीं गडबड हो गयी। असल में 16 मई को है। मैने सोचा कि 16 तारीख को गंगोत्री-यमुनोत्री के कपाट खुल गये होंगे, अब आजकल में केदारनाथ-बद्रीनाथ के भी खुल जायेंगे। केदारनाथ चलते हैं।
सुबह साढे पांच बजे ही ऑफिस से निकल पडा। कल रात को ही अपना बैग तैयार कर लिया था। जरुरत का कम से कम सामान रख लिया था। शाहदरा से छह बजे अहमदाबाद से आने वाली 19105 हरिद्वार मेल पकडी और नौ बजे तक मुज़फ़्फ़रनगर पहुंच गया। हरिद्वार पहुंचने के लिये मुझे बस पकडनी थी। इस ट्रेन का हरिद्वार का समय था साढे बारह बजे, लेकिन बस दो घण्टे में यानी ग्यारह बजे तक ही हरिद्वार पहुंचा देती है। मुज़फ़्फ़रनगर से एक अखबार लिया और रेलवे स्टेशन के सामने से ही हरिद्वार की बस मिल गयी। अखबार पढने लगा। एक जगह लिखा था कि केदारनाथ के इलाके में कल भयंकर मूसलाधार बारिश और ओले पडे थे। कई घर तबाह हो गये। कई लोग मर गये। अब छठी इन्द्री ने दिमाग में घण्टी बजायी। श्रद्धालु क्यों नहीं मरे, गांव वाले क्यों मरे? तो क्या अभी तक कपाट नहीं खुले?
अब मुझे केदारनाथ पर शक होने लगा। पता नहीं मेरे जाने तक खुलेंगे या नहीं। इरादा बदल गया। यमुनोत्री चलो। यमुनोत्री जाने के लिये सबसे बेहतर है कि देहरादून से बडकोट जाया जाये, ना कि ऋषिकेश से। इस बस में मैने रुडकी तक का टिकट लिया। रुडकी से तुरन्त ही देहरादून की बस मिल गयी। कुल मिलाकर मैं दो बजे तक देहरादून पहुंच गया। देहरादून में पहाड पर जाने वाली बसें रेलवे स्टेशन के पास वाले पर्वतीय बस अड्डे से मिलती हैं। वहां से बडकोट जाने वाली आखिरी बस दो घण्टे पहले यानी बारह बजे निकल चुकी थी। तभी मुझे याद आया कि जब मैं हरिद्वार में रहता था तो वहां मेरा एक दोस्त बडकोट का रहने वाला था। मैने उससे सम्पर्क किया। उसने बताया कि बन्धु, गंगोत्री-यमुनोत्री के कपाट तो अगले महीने की 16 तारीख को खुलेंगे। लेकिन कोई बात नहीं, तू चला जा। मैने पूछा कि भाई, कोई ऐसा तरीका बता कि मैं जल्दी से जल्दी बडकोट पहुंच जाऊं। बोला कि पटेल नगर में दैनिक जागरण के पास से एक प्रेस वाली जीप जाती है। रात को बारह बजे चलती है और सुबह पांच बजे तक बडकोट पहुंच जाती है।
अब मुझे कम से कम नौ घण्टे तक देहरादून में ही रहना था। समय बिताने के लिये मैं सहस्त्रधारा चला गया। चूंकि रात का सफर था, यह सोचकर मैं सहस्त्रधारा से वापस आकर देहरादून रेलवे स्टेशन पर खाली पडी बेंच पर ही सो गया। शाम को सात बजे सोया था, आंख खुली साढे दस बजे। वो भी पता नहीं कैसे खुल गयी। मन्द मन्द हवा चल रही थी, मुझे कुछ थकान भी थी और सबसे बडी बात कि मच्छर नहीं थे। हां, याद आया, सफाई वाले ने उठाया था। खाज होती है ना कुछ लोगों को। भई, तुझे झाडू मारनी थी, चुपचाप बेंच के नीचे मार लेता, मैने तो वहां जूते भी नहीं निकाल रखे हैं। एक रेलवे पुलिस वाले भी ऐसे ही होते हैं। खैर, जैसे जैसे रात होने लगी, मौसम खराब होने लगा। ग्यारह बजने तक बूंदाबांदी भी होने लगी। पटेल नगर पहुंचा। वहां बडकोट, उत्तरकाशी, पुरोला, श्रीनगर कई जगहों की प्रेस की गाडियां खडी थीं। ये गाडियां यहां से वहां तक अखबार की आपूर्ति करती हैं। मुझे चूंकि बडकोट जाना था इसलिये अपन बडकोट वाली में विराजमान हो गये। साढे बारह बजे जीप चल पडी।
मसूरी होते हुए फिर डामटा, नौगांव होते हुए बडकोट पहुंचे। मैं ड्राइवर के पीछे बैठा था। ज्यादातर समय सोता रहा। ड्राइवर ने खिडकी का शीशा खोल रखा था, ठण्डी हवा आ रही थी, मैने टीशर्ट पहन रखी थी, ठण्ड लगने लगी। टीशर्ट निकाल दी, गर्म इनर पहना, ऊपर एक शर्ट पहन ली, फिर एक चादर ओढ ली। तब जाकर तसल्ली मिली। वैसे चादर में एक छेद भी था।
बडकोट – सुबह के साढे चार बजे। समुद्र तल से 1828 मीटर की ऊंचाई पर। ठेठ हिमालयी कस्बा – गढवाली। यमुना तट पर बसा हुआ। यहां का मौसम सालभर खासकर गर्मियों में मस्त रहता है। यह उत्तरकाशी जिले में पडता है। यहां हर सुविधा उपलब्ध है – खाने की, पीने की, रहने की, आने-जाने की। मेरे साथ उसी जीप में तीन-चार सवारियां और थीं। जाते ही मोटे-मोटे झबरे पहाडी कुत्तों ने स्वागत किया। भौंके भांके नहीं, बल्कि हमारी तरफ देखा तलक नहीं, वे तो अपनी मैडम को पटाने में लगे थे। जीप वाले ने एक दुकान के चबूतरे पर अखबार पटके और चला गया वापस देहरादून। बाकी लोग भी यहीं के थे। उन्होने एक दुकान के शटर को दो तीन बार पीटा, शटर खुल गया। यह एक हलवाई की दुकान थी। चाय बनने लगी। कम से कम बैठने को जगह तो मिली। नहीं तो इंसान कैसा होता है, पता ही नहीं चल रहा था। इंसान की जात हमारे अलावा दूर दूर तक दिख ही नहीं रही थी।
पांच बज गये, उजाला होने लगा। हलचल होने लगी। बडकोट इतना बडा कस्बा है लेकिन बस अड्डा नाम की कोई जगह नहीं। हालांकि यह विकासनगर, देहरादून, जानकीचट्टी, पुरोला, उत्तरकाशी से आने वाली ज्यादातर बसों का टर्मिनल है। बसें मुख्य बाजार में सडक पर ही खडी होती हैं। एक तो मुख्य बाजार, फिर पहाडी सडक, दो लेन वाली। जहां एक दुकान के सामने उत्तरकाशी जाने वाली बस खडी है, वहीं उस बस के पीछे दूसरी तरफ मुंह करके देहरादून वाली बस भी खडी है। सभी बसों के पहिये सात बजे के बाद ही घूमते हैं। मुझे जानकीचट्टी जाना था। वहां जाने वाली पहली बस थी साढे नौ बजे यानी तीन घण्टे बाद। यहां से थोडी ही दूरी पर जीप स्टैण्ड भी है। मालूम पडा कि चूंकि अभी यात्रा सीजन शुरू नहीं हुआ है, इसलिये जानकीचट्टी वाली जीप मुश्किल से ही मिलेगी। काफी देर बाद एक जीपवाला अन्य सवारियों के अनुरोध पर हनुमानचट्टी तक जाने को राजी हुआ। वे सवारियां हनुमानचट्टी और रास्ते में पडने वाले गांवों के निवासी थे, कुछ मास्टरजी थे, स्कूल में पढाने जा रहे थे। जानकीचट्टी की कोई सवारी नहीं थी।
बडकोट से करीब 40-45 किलोमीटर दूर हनुमानचट्टी है। साढे सात बजे चलकर जीप नौ बजे वहां पहुंची। रास्ते की हालत उस समय बहुत खराब थी। लोगों का कहना है कि उत्तर प्रदेश शासन में तो ऐसी सडक भी नहीं थी। कम से कम अब सडक बन गयी है, गाडियां भी चल रही हैं, राजधानी देहरादून से सीधी बस सेवा चल रही है। असल में अब पहाड को और काटकर ज्यादा चौडी सडक बनायी जा रही है। जगह-जगह मलबा पडा है। जगह-जगह गड्ढे है।
हनुमानचट्टी – समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 2134 मीटर। रास्ते में कई चट्टी और भी पडती हैं जैसे स्यानाचट्टी, रानाचट्टी। हनुमानचट्टी में यमुना और हनुमान गंगा का मिलन होता है। यहां से हिमालय की बरफ भी दिखने लगती है।
अभी मैं हनुमानचट्टी तक ही पहुंचा हूं। कैमरे ने अब अपना काम शुरू किया है। इसलिये कम फोटो हैं। अगले भागों में तसल्ली से फोटो दिखाये जायेंगे।