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उदयपुर और माउंट आबू घूमने चलें?

“सुनो जी! उदयपुर घूमने चलने का मूड है क्या?”

“कमाल है! भूत के मुंह से राम-राम!  आज तुम घूमने की बात कर रही हो! सब खैरियत तो है?”

“हवाई जहाज से चलेंगे!”

“अब मुझे चिंता होने लगी।  श्रीमती जी के माथे पर हाथ रख कर देखा कि कहीं बुखार वगैरा तो नहीं है, पर माथा भी सामान्य लग रहा था !  “आखिर चक्कर क्या है?  आज तुम्हें क्या हो गया है? मुंगेरीलाल के ऐसे हसीन सपने क्यों दिखा रही हो?

“क्यों?  हवाई जहाज से जाने में क्या दिक्कत है अगर सिर्फ एक रुपये टिकट हो?”

छोटा सा ही सही, पर है तो जहाज ही !

तुमने आज कहीं भांग-वांग तो नहीं पी ली है गलती से? तुम तो बिल्कुल प्रेक्टिकल जीवन जीने में यकीन रखती हो! फिर ऐसी बातें कैसे करने लगी हो?”

अरे, आप भी बस!  असल में बड़ी दीदी का फोन आया था। वह कह रही हैं कि उदयपुर घूमने चलते हैं ’बाई एयर’!  उनके बेटे ने कहा होगा कि एयरलाइंस एक – एक रुपये के टिकट दे रही हैं। सिर्फ टैक्स देना होता है जो करीब 1200 बैठता है।  एक टिकट 1201 का पड़ता है!  ट्रेन के टिकट से भी सस्ता! आपको तो घूमने जाने में कोई दिक्कत है ही नहीं!  मैने तो हां कह दी है, मार्च एंड में चलेंगे अगर टिकट कंफर्म हो गये तो!”

“अरे, ये एयरलाइंस वाले तुम्हारी जीजी के समधी हैं क्या?  1 रुपये में दिल्ली से उदयपुर क्यों लेकर जायेंगे?  और फिर, तुम्हारी दीदी-जीजाजी के साथ घूमने जाना पड़ेगा?”

“क्यूं? उनमें क्या खराबी है? जब उनको आपके साथ जाने में कोई तकलीफ नहीं है तो आपको क्या तकलीफ है?  श्रीमती जी को रुष्ट हो गया देखकर मैने अपने माथे पर हाथ मारा !  अच्छा भला घूमने का प्रोग्राम बन रहा है, क्यों चौपट करे दे रहा हूं? 

“नहीं, ऐसी कोई खराबी भी नही है !”  चलो, ठीक है, चलेंगे !  पर सिर्फ उदयपुर नहीं, माउंट आबू भी!  बड़ी गज़ब जगह है, देख कर प्रसन्न हो जाओगी !”

“कुल पांच दिन का टूर रखेंगे !  अगर उसमें माउंट आबू भी शामिल हो सकता है तो ठीक है, आप जीजाजी से बात कर लेना।“

हमारी ये बातचीत वर्ष 2007 की जनवरी की है।  जब तीन दिन बाद मुझे पता चला कि गाज़ियाबाद स्थित हमारे रिश्तेदारों के माध्यम से हम चारों के आने-जाने के एयर – टिकट कंफर्म हो गये हैं तो मैंने सपने में ही हवाई यात्रा करनी चालू कर दी।  दरअसल, हम कुछ वर्ष पहले तक तो रेल में भी ए.सी. यात्रा को फालतू का खर्चा मान कर स्लीपर क्लास में खुशी खुशी यात्रा करते रहे हैं।  अतः हवाई जहाज से यात्रा करने की दिशा में हमने कभी कल्पना ही नहीं की।  बेटा भले ही इंग्लैंड के कई चक्कर लगा आया हो पर हम मियां-बीवी थोड़ा आलसी किस्म के हैं!  उसके बार-बार कहने के बावजूद हमने आज तक पासपोर्ट भी नहीं बनवाया है।  एक बार ऑनलाइन पासपोर्ट की अर्ज़ी दी थीं। उस आवेदन पत्र में एक कॉलम यह भी था कि साक्षात्कार के लिये गाज़ियाबाद स्थित पासपोर्ट ऑफिस में कब पधारेंगे।  हमने जो तिथि आवेदन पत्र में सूचित की थी उस दिन हम गये ही नहीं !  पता नहीं, उस प्रार्थनापत्र की आज क्या स्थिति है!  पर चलो, विदेश यात्रा न सही, स्वदेश में ही एयर ट्रेवल कर के देख लिया जाये।

श्रीमती जी की बड़ी बहिन गाज़ियाबाद में रहती हैं अतः यह तय हुआ था कि हम अपनी कार से गाज़ियाबाद जायेंगे और वहां से पांच दिन के टूर पर उन लोगों के साथ – साथ उदयपुर और माउंट आबू घूमेंगे और हवाई जहाज से ही वापस आयेंगे। हमारी श्रीमती जी अपनी सबसे बड़ी बहिन से  लगभग २० वर्ष छोटी हैं और इस कारण उन दोनों में मां-बेटी जैसी ही भावना है। पर यह बात जाने से पहले ही स्पष्ट कर ली गई थी कि सारे खर्च एक ही व्यक्ति करता चलेगा और बाद में दोनों परिवार आधा – आधा खर्च बांट लेंगे।

28 मार्च की सुबह पांच बजे हमने अपनी कार में सामान लादा और गाज़ियाबाद के लिये निकल पड़े!  दिन में 2.30 बजे के आस-पास फ्लाइट का टाइम था जिसके लिये हमें दिल्ली एयरपोर्ट के देसी टर्मिनल पर दोपहर एक बजे तक पहुंच जाना चाहिये था। रास्ते भर हवाई किले बनाते हुए हम दोनों दस बजे शास्त्रीनगर, गाज़ियाबाद पहुंच गये।  जो – जो बातें फोन पर नहीं हो पाई थीं, वह सब तय कर ली गईं।  इतने दिनों में मैने भी उदयपुर और माउंट आबू की खाक इंटरनेट पर जम कर छान ली थी।  सारे होटलों और दर्शनीय स्थलों के नाम रट चुका था।  आमेट हवेली के बारे में बड़े अच्छे अच्छे रिव्यू पढ़े थे, फोटो भी देखे थे, अतः दिमाग में बस यही छाया हुआ था कि अगर जेब ने साथ दिया तो आमेट हवेली में जाकर ही टिकेंगे।  जहां तक माउंट आबू का प्रश्न था तो मैं प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के त्रि-दिवसीय शिविरों में पहले भी दो बार हो कर आ चुका था और उस संस्था के अद्‌भुत परिसर, शांत एवं पवित्र वातावरण,  कुशल प्रबंधन और वहां के संचालकों के स्नेहपूर्ण व्यवहार के कारण वहां के बारे में बहुत अच्छी धारणा मेरे मन में थी। स्वाभाविक रूप से मेरी इच्छा थी कि हम वहीं पर रुकें।  पर बाकी तीनों लोगों का उस संस्था से पूर्ण अपरिचय होने के कारण उन को शंका थी कि घूमने फिरने के लिये जाना है तो किसी धार्मिक संस्था में जाकर रुकना पता नहीं रुचिकर रहेगा या नहीं! पर चलो, ये सब तो उदयपुर पहुंच कर देखा जायेगा।

अपनी कार तो हमने गाज़ियाबाद में घर पर ही खड़ी कर दी थी। घर से एयरपोर्ट तक पहुंचाने के लिये श्रीमती जी के भानजे ने अपने ड्राइवर को गाड़ी सहित भेज दिया था जिसने हमें समय से एयरपोर्ट पहुंचा दिया।  हम दोनों के लिये वायुयान से यात्रा का ही नहीं, बल्कि एयरपोर्ट में भी प्रवेश का यह पहला अवसर था अतः रोमांच बहुत था।  एक – एक मिनट एक – एक घंटे जैसा अनुभव हो रहा था। टर्मिनल में प्रवेश करके अपने बैग – अटैची एयरपोर्ट अधिकारियों को सौंपे गये बदले में हमें बोर्डिंग पास मिले!  वहां से अन्दर गये तो कैफेटेरिया-कम-वेटिंग हॉल दिखाई दिया। खाली सीट देख कर हम चारों बैठ गये।  मुझे लगा कि अब समय आ गया है कि अपने कैमरे को बैग से बाहर निकाल लिया जाये।  दीदी ने प्रश्नवाचक निगाहें मेरी ओर उठाईं “अभी से कैमरा?” तो हमारी श्रीमती जी ने उनके कान में फुसफुसा कर कह दिया कि इनको कैमरे के लिये कभी कोई कमेंट मत करना वरना भैंस पानी में चली जायेगी!  पूरे टूर में ये मुंह फुलाये घूमते रहेंगे!”

अंततः वह क्षण भी आया जब उस प्रतीक्षालय की दीवारों पर लगे हुए इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड पर हमारी फ्लाइट का ज़िक्र आया और सभी यात्रियों को बस में बैठने हेतु उद्‌घोषणा की गई।  पत्नी ने कहा कि बस की क्या जरूरत है, पैदल ही चलते हैं तो उसके जीजाजी ने कहा कि चिंता ना करै ! टिकट नहीं लगता।  मैं एयरपोर्ट की बस में बैठते ही कैमरा लेकर ठीक ऐसे ही एलर्ट हो गया जैसे बॉर्डर पर हमारे वीर जवान सन्नद्ध रहते हैं।  दो – तीन मिनट की उस यात्रा में वायुयान तक पहुंचने तक भी बीस-तीस फोटो खींच डालीं!

जीवन में पहली हवाई यात्रा

जब अपने वायुयान के आगे पहुंचे तो बड़ी निराशा हुई!  बहुत छोटा सा (सिर्फ 38 सीटर) जहाज था वह भी सफेद पुता हुआ।  मुझे लगा कि मैं छः फुटा जवान इसमें कैसे खड़ा हो पाउंगा !  सिर झुका कर बैठना पड़ेगा!  एयर डैक्कन एयरलाइंस के इस विमान में, जिसका दिल्ली से उदयपुर तक का हमने सिर्फ 1201 रुपये किराया अदा किया था, हम अन्दर प्रविष्ट हुए तो ऐसा नहीं लगा कि सिर झुका कर चलना पड़ रहा है।  सिर्फ बाहर से ही ऐसा लग रहा था कि जहाज में घुस नहीं पाउंगा। खैर अन्दर पहुंच कर अपनी सीटें संभाल लीं।  मुझे खिड़की वाली सीट चाहिये थी सो किसी ने कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं की।  अन्दर सब कुछ साफ-सुथरा था। एयरहोस्टेस भी ठीक-ठाक थी।  यात्रा के दौरान सुरक्षा इंतज़ामों का परिचय देने की औपचारिकता का उसने एक मिनट से भी कम समय में निर्वहन कर दिया।  सच तो यह है कि कोई भी एयरलाइंस, यात्रा के शुभारंभ के समय दुर्घटना, एमरजेंसी, अग्नि शमन जैसे विषय पर बात करके यात्रियों को आतंकित नहीं करना चाहती हैं पर चूंकि emergency procedures  के बारे में यात्रियों को बताना कानूनन जरूरी है, अतः इसे मात्र एक औपचारिकता के रूप में फटाफट निबटा दिया जाता है।  यात्रियों को समझ कुछ भी नहीं आता कि किस बटन को दबाने से ऑक्सीज़न मास्क रिलीज़ होगा और उसे कैसे अपने नाक पर फिट करना है।  एमरजेंसी लैंडिंग की स्थिति में क्या-क्या करना है और कैसे – कैसे करना है।  अगर कभी दुर्घटना की स्थिति बनती है तो यात्रियों में हाहाकार मच जाता है, वह निस्सहाय, निरुपाय रहते हैं, कुछ समझ नहीं पाते कि क्या करें और क्या न करें!  मेरे विचार से इसका कोई न कोई मध्यमार्ग निकाला जाना चाहिये।  अस्तु !

कुछ ही क्षणों में हमारे पायलट महोदय ने प्रवेश किया और बिना हमारा अभिनन्दन किये ही कॉकपिट में चले गये।  उनके पीछे – पीछे एयरहोस्टेस भी चली गई पर जल्दी ही वापस आ गई और हमें अपनी अपनी बैल्ट कसने के निर्देश दिये।  मैने अपनी पैंट की बैल्ट और कस ली तो श्रीमती जी ने कहा कि सीट की बैल्ट कसो, पैंट की नहीं ! अपनी ही नहीं, मेरी सीट की भी।  मैने एयरहोस्टेस को इशारा किया और कहा कि मेरी सीट की बैल्ट कस दे।  (सिर्फ 1201 रुपये दिये हैं तो उससे क्या? आखिर हैं तो हम वायुयान के यात्री ही !  एयरहोस्टेस पर इतना अधिकार तो बनता ही है!) अब मुझे भी समझ आ गया था कि सीट बैल्ट कैसे कसी जायेगी अतः पत्नी की सीट की भी बैल्ट मैने कस दी।   मुझे खिड़की में से अपने जहाज की पंखड़िया घूमती हुई दिखाई दीं, द्वार पहले ही बन्द किये जा चुके थे।  एयर स्ट्रिप पर निगाह पड़ी तो पुराना चुटकुला याद आया। “जीतो ने संता से अपनी पहली हवाई यात्रा के दौरान खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा कि बंता ठीक कहता था कि हवाई जहाज की खिड़की से झांक कर देखो तो जमीन पर चलते हुए लोग बिल्कुल चींटियों जैसे लगते हैं!  संता ने जीतो को झिड़का, “अरी बुद्धू !  ये चींटियां ही हैं, अभी जहाज उड़ा ही कहां है!” चलो खैर !

जहाज ने रेंगना शुरु किया और काफी देर तक हवाई पट्टी पर ही रेंगता रहा और गति बढ़ती रही तो मुझे शक होने लगा कि कहीं ये सड़क मार्ग से ही तो उदयपुर तक लेकर नहीं जायेंगे? मुझे टिकट पर बारीक – बारीक अक्षरों में क्या – क्या लिखा हुआ है, यह ठीक से पढ़ लेना चाहिये था।   मैने अपने संदेह की पुष्टि के लिये पुनः एयरहोस्टेस को बुलाना चाहा तो पत्नी ने आंखें तरेरी! पर तभी मुझे लगा कि जहाज अब धरती छोड़ चुका है और तेजी से आकाश की ओर उठता जा रहा है।  दिल्ली के बड़े – बड़े बहुमंजिला मकान और नेशनल हाई वे अब गत्ते के मॉडल जैसे दिखाई देने लगे थे जो आर्किटेक्ट लोग अपने ऑफिस में सजा कर रखते हैं।  कुछ ही मिनट में ये मकान गायब हो गये और उसकी जगह खेत – खलिहान आ गये और फिर जल्दी ही उनकी जगह उजाड़ – बंजर धरती ने ले ली!  मुझे इस बात का सख्त अफसोस हो रहा था कि जहाज और ऊंचाई पर क्यों नहीं जा रहा है।  जिस ऊंचाई पर हम थे, वहां से धरती अभी भी ऐसी नज़र आ रही थी जैसी दस-बारह मंजिला भवन की छत से नज़र आती है।  मुझे लगा कि पायलट से पता करूं कि और ऊपर क्यों नहीं जा रहे पर दीदी ने कहा कि इतने कम पैसों के टिकट में इतनी ही ऊपर तक ले जाते हैं!

तभी उद्‌घोषणा हुई कि जयपुर में उतर रहे हैं और यहां पन्द्रह मिनट रुकेंगे पर बाहर जाना मना है। हद तो तब हो गई जब जयपुर में हमारे वायुयान के ए.सी. और लाइट्स भी बन्द कर दी गईं!  एयरहोस्टेस भी जो कुछ खाने पीने की चीज़े दे रही थी वह सब खरीदना ही था – फ्री में कुछ भी नहीं था।  बाद में, एयर डैक्कन के सी.ई.ओ. का एक साक्षात्कार पढ़ा जो हवाई जहाज में उपलब्ध एक मैगज़ीन में प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने अपनी एयरलाइन की भावना समझाई थी।  उनका कहना था कि अगर एयरलाइन टिकट का मूल्य बहुत कम करके निःशुल्क खान-पान की सुविधाएं हटा देती है तो यात्री इसे बहुत पसन्द करेंगे।  आखिर एक डेढ़ घंटे की यात्रा में खाना खाने की आवश्यकता किसे होती है? एयरलाइन को हवाई जहाज में खाना – नाश्ता – ड्रिंक्स आदि सर्व करना बहुत महंगा पड़ता है और इसलिये इसका भारी भरकम मूल्य और ढेर सारा मुनाफा टिकट में ही जोड़ दिया जाता है।  यदि एयरलाइंस “निःशुल्क” खान-पान सेवा बन्द कर दें तो यात्रियों को टिकट मूल्य में बहुत राहत दे सकते हैं।   बात तो पते की कही गई थी पर उस सी.ई.ओ. ने अपने साक्षात्कार के दौरान ये नहीं बताया था कि रास्ते में पन्द्रह मिनट के लिये वायुयान जयपुर एयरपोर्ट पर खड़ा करें तो ए.सी. और लाइट ऑफ करके भी पैसे बचाये जा सकते हैं।

जयपुर से आगे बढ़े तो लगभग आधा घंटे में हम उदयपुर एयरपोर्ट पर जा पहुंचे!  बाहर निकले तो देखा कि वहां कोई बस नहीं थी जो हमें टर्मिनल तक लेकर जाये।  छोटे से एयरपोर्ट पर, जिस पर एक ही हवाई पट्टी नज़र आ रही थी, हमारा वायुयान टर्मिनल के लगभग सामने ही आकर रुका था तो बस का करना भी क्या था?  हम लोग उतर कर टर्मिनल में गये, अपना सामान कहां मिलेगा इसका पता किया।  conveyor belt पर सबके अटैची – बैग टर्मिनल के किसी कमरे में से निकल कर आ रहे थे।  जब हमारे वाले अटैची-बैग बाहर निकले तो ट्रॉली पर लाद कर बाहर आये।  टैक्सियों से मोल भाव शुरु किया और अन्ततः जब देखा कि सब एक ही रेट बोल रहे हैं तो लगा कि मोलभाव करना अनावश्यक ही है।  हमने अब सिर्फ यह देखना था कि कौन सी टैक्सी अच्छी है, साफ – सुथरी और नयी लग रही है, कौन सा वाहन चालक बीड़ी – सिगरेट – पान – बीड़ी से दूर है।  दो-एक बार मुझे ऐसे टैक्सी चालक टकराये हैं जिन्होंने सहारनपुर से दिल्ली के बीच में लगभग 250 बार अपनी साइड का दरवाज़ा खोल कर पीक थूकी होगी।  ऐसे ड्राइवरों को तो कार निर्माता कंपनी से खास तौर पर कह कर हैवी ड्यूटी दरवाज़ा लगवाना पड़ता होगा।  जब मुंह में पान या गुटका भरा हुआ हो तो ऐसे आदमी की बातचीत समझने के लिये भी विशेष प्रयास करना पड़ता है।

हमने काफी सारे ड्राइवर और कारों का सूक्ष्म निरीक्षण – परीक्षण करके अन्ततः हसीन नाम के एक टैक्सी चालक के हाथों में पांच दिन के लिये अपनी नैया सौंप दी।  उसने पूछा कि कौन से होटल चलूं?  मेरे तीनों सहयात्रियों ने मेरी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो मैने बोल दिया कि पिछोला लेक के आस – पास ठहरेंगे ।  फोन पर आमेट हवेली वालों से बात हुई है, पर अभी पक्का नहीं किया है।  पहले वहीं चलते हैं।  वहां बात बनेगी तो ठीक वरना आस-पास में और कोई और होटल देख लेंगे पर चाहिये हमें पिछोला के तट पर ही!  ड्राइवर बोला, “आपकी पसन्द एकदम अंग्रेज़ों वाली है। वह भी आते हैं तो हवेलियों में ही ठहरना चाहते हैं।

उदयपुर एयरपोर्ट से शहर लगभग 25 किलोमीटर है।  हम लोग आपस में बातें करने लगे कि एयरपोर्ट शहर से इतनी दूर बनाने की क्या जरूरत थी, शहर में क्यों नहीं बनाया? पर इसका उत्तर ड्राइवर की ओर से आया – “बात तो आपकी सही है पर अधिकारियों ने सोचा होगा कि एयरपोर्ट और हवाई पट्टी आस-पास ही रहें तो ज्यादा उचित रहेगा!”  हसीन की ये हाज़िर जवाबी देख कर मुझे समझ आ गया कि पांच दिन अच्छे कट जायेंगे इस ड्राइवर के साथ!

आमेट हवेली के आसपास हसीन ने कहा कि वह हमारी पसन्द को समझते हुए एक होटल और दिखायेगा जो उससे सस्ता है और हमारे टेस्ट का है।  अगर अच्छा लगे तो ठीक वरना आमेट भी बगल में ही है। “ड्राइवर होटल से कमीशन बनाना चाह रहा है” यह आशंका हमें थी अतः अनिच्छापूर्वक हम टैक्सी से उतरे और वंडर व्यू नाम से एक चार मंजिला होटल में घुसे। पर आश्चर्य! ड्राइवर हमारे साथ होटल के अंदर नहीं आया। होटल के प्रबन्धक महोदय को लेक साइड के कमरे दिखाने के लिये कहा तो वह हमें प्रथम तल पर ले गये और एक कमरे का द्वार खोला।  कमरे को देखते ही मेरा तो दिल तुरन्त ही उस पर आ गया। “Love at first sight!” वाला मामला हो गया था।  एक दम साफ – सुथरा, चकाचक, बड़े सुरुचिपूर्ण अंदाज़ में सजाया हुआ।  जो चीज़ मैं किसी भी हाल में छोड़ने के लिये तैयार नहीं था, वह थी उस कमरे में झील के ऊपर बनी हुई एक बालकनी जिसमें दो गाव-तकिये (गोल वाले लंबे तकिये) और बीच में एक चौकी सजा कर छोड़ी गई थी। वहां बैठ कर खिड़की में से पिछोला झील,  सामने उस पार घाट, जगदीश मंदिर, सिटी पैलेस वगैरा सब नज़र आ रहे थे।  बालकनी इतनी बड़ी थी कि वहां सोया भी जा सकता था।  मैने भाईसाहब को इशारा कर दिया कि होटल भी यही चाहिये और कमरा भी हम ये ही लेंगे।  इसके बाद एक कमरा उनके लिये भी देखा गया जो हमारे कमरे के सामने ही था और हमारे कमरे से दोगुना बड़ा था। भाई साहब ने कहा कि मैं दोनों में से कोई सा भी कमरा पसन्द कर लूं पर मैने तो पहले ही मन बना लिया था अतः बड़ा कमरा उनके लिये पसन्द कर लिया गया।  होटल के किराये को लेकर होटल मैनेजर से आधा घंटा सौदेबाजी होती रही अंततः 1200 और 1600 रुपये की दर से बात पक्की हो गई।  ये रेट कार्ड में दिये गये रेट से आधे थे।  हमने यह भी बता दिया कि कल सुबह हम माउंट आबू जायेंगे और परसों शाम तक लौट कर आयेंगे और लौट कर भी हमें ये ही कमरे चाहियें। मैनेजर ने कहा कि आप 28 मार्च को यहां पहुंचे हैं अतः हम आपको ऑफ-सीज़न डिस्काउंट दे पा रहे हैं। अगर आप 1 अप्रैल को आते तो सीज़न वाले रेट लगते।

Hotel Wonder View, Udaipur

टैक्सी से सामान मंगवा कर कमरों में सजा लिया गया ।  दोनों कमरों के बाहर बड़े कलात्मक ढंग से बरामदे को सजाया गया था। वहीं कुर्सी मेज़ पर हम बैठ गये और चाय का आर्डर दे दिया।  होटल मैनेजर ने बताया था कि पुरानी शाही हवेली को परिवर्तित करके ही इसे होटल का रूप दे दिया गया है। कमरे में बाथरूम आदि के सदियों पुराने डिज़ाइन के दरवाज़ों को देख कर हमें लग रहा था कि शायद यह होटल भी हैरिटेज साइट ही है।

हसीन ने हमारे लिये अगला कार्यक्रम तय किया था – सहेलियों की बाड़ी और फिर आमेट हवेली में “ओपन टैरेस डिनर!”  शाम को छः बजे हम पुनः टैक्सी में आ बैठे और सहेलियों की बाड़ी देखने निकले।

उदयपुर और माउंट आबू घूमने चलें? was last modified: December 19th, 2024 by Sushant Singhal
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