Site icon Ghumakkar – Inspiring travel experiences.

केदारनाथ यात्रा 2014 – सोनप्रयाग से केदारनाथ।

आज तारीख मई 5 हो चली थी। वैसे तो मैं मई 4 को दर्शन करना चाहता पर ख़राब मौसम की वजह से नहीं कर पाया था। आज सोमवार का दिन था भोलेनाथ का दिन। शायद भोलेनाथ की यही इच्छा थी यही सोच कर अपने दिल को बहला लिया। मैंने अपना रजिस्ट्रेशन और मेडिकल रिपोर्ट चेक करवाली। पुलिस वालों के पास एक रजिस्टर भी था जिसमे वो लोग हर व्यक्ति का पता, मोबाइल नंबर और एक एमेजेन्सी नंबर दर्ज कर रहे थे। यहाँ पर प्रशाशन ने सोनप्रयाग से गौरीकुण्ड तक 3 कि.मी. के लिए शटल सेवा निशुल्क की हुई है। मैं उसी शटल का इंतज़ार कर रहा था।

पुलिस चेक पोस्ट पर यात्री रजिस्ट्रेशन और मेडिकल रिपोर्ट चेक की जाँच हो रही है।


शटल मैं सीटिंग के हिसाब से ही लोग बैठे थे। एक जन भी फालतू नहीं था। सभी लोगों भोलेनाथ की जय बोलकर गाड़ी मे बैठ गए। शटल हमें 3 कि.मी. आगे तक छोड़ने वाली थी। यहाँ से आगे सड़क नहीं थी पूरा पहाड़ टूटा हुआ था। मुझे ऐसा लग रहा था कि मानो गाड़ी पत्थरों के गारे पर चल रही है। बहुत ही सँकरा रास्ता था। थोड़ी देर के बाद ड्राइवर ने गाड़ी रोकी और कहा यहाँ से अब पैदल जाना है। मैं हैरान था सब कुछ बदल गया था। यहाँ  पर गौरीकुण्ड जैसा कुछ नहीं था। पहले तो गौरीकुण्ड मे भी पार्किंग हुआ करती थी। जहाँ पर शटल ने उतारा था बस वहीँ तक रास्ता था। पिछले साल तक तो गाड़ियाँ आगे तक जाती थी। तबाही ने सब कुछ खत्म कर दिया था। यहाँ से गौरीकुण्ड 1-1.5 की.मी. का पैदल रास्ता था। यहाँ पर बहुत सी गाड़ियाँ खड़ी थी। मैंने शटल ड्राइवर से कहा “यार ये लोग भी यहाँ तक गाड़ी लेकर आये है और पार्किंग लगा कर चल दिए हैं। ऐसे तो मैं भी यहाँ तक अपनी गाड़ी लेकर आ सकता था। ” शटल ड्राइवर थोड़ा सा मुस्कराकर बोला “भाई जी ये गाड़ियाँ तो पिछले साल से यहीं खड़ी हैं। इनको लेने कोई नहीं आया। ” उसने यह भी बताया कि प्रशाशन ने तो गाड़ियों के रजिस्ट्रेशन नंबर से मालिक का पता भी लगवाया और उनके रिश्तेदारों को भी सूचित किया पर इन गाड़ियों को किसी ने भी क्लेम नहीं किया। हो सकता है घर के सभी सदस्य तबाही की चपेट मे आ गए हों।

लावारिस गाड़ियाँ।

लावारिस गाड़ियाँ। फ़ोटो मे जो रास्ता दिख रहा है यही पहले गौरीकुण्ड तक जाता था।

गौरीकुण्ड तक पैदल जाने का रास्ता भी नया बनाया गया था। रास्ता कच्चा ही था। भोलेनाथ की जय बोलकर मैंने चलना शुरू कर दिया। पहाड़ों मे ट्रैकिंग का एक गुरु मंत्र है एक सीमित गति से चलते रहो। जल्दी चलते और बड़े कदम लेने से इंसान जल्दी थक जाता है। इसलिए छोटे कदम रखते हुए मैं चलने लगा। मैंने घड़ी मे टाइम देखा अभी सुबह के 06:15 बज रहे थे। गौरीकुण्ड तक जाने वाला रास्ता भी नया बनाया गया था। बारिश होने की वजह से ये रास्ता भी कच्चा ही था।

गौरीकुण्ड पहुँचा तो वहाँ पर पुलिस पोस्ट पर फिर से रजिस्ट्रेशन चेक करवाया और यहाँ पर भी रेजिस्टर मे इनफार्मेशन दर्ज हुई। सुबह के वक़्त गौरीकुण्ड सुनसान पड़ा हुआ था। वैसे भी पुलिस पोस्ट की लाइन मे मुश्किल से 20 लोग रहे होंगे। यहाँ पर मेरी मुलाकात एक गुरुजी से हुई। वो अपने 13 शिष्यों के साथ चार धाम यात्रा पर निकले थे। ये लोग गंगोत्री और यमुनोत्री के दर्शन करके अब केदारनाथ जा रहे थे और आखिर मे बद्रीनाथ जाने वाले थे। ये एक मिशन के तहत चार धाम यात्रा पर थे। इनके मिशन का नाम “आल इस वेल(All Is Well) था। इस मिशन से ये लोगों से चार धाम की यात्रा करने का संदेश दे रहे थे। क्यूँकि पिछले साल हुई आपदा के बाद लोग भयभीत हो गए थे। गौरीकुण्ड से मैं गुरूजी की टोली के साथ हो लिया। ये लोग नैनीताल से आये थे।

रास्ते की हालत देखिये। कंकड़ और रोडियों से भरा पड़ा है। ये बारिश की वजह से हुआ है।

रास्ते मे हेलीकॉप्टर का कॉकपिट भी पड़ा हुआ था। न जाने क्यूँ यहाँ तक लेकर आये होंगे।

केदार घाटी की एक झलक।

चलते-चलते गर्मी सी लगने लगी मैंने सर से टोपी उतार ली और जैकेट की चैन भी आधी खोल ली थी। गुरूजी के कुछ शिष्य तो फटाफट आगे निकल गए थे। उम्र मे छोटे थे और शरीर भी दुबला पतला सा था। रास्ता ख़राब ही था अभी तो यात्री काम और हजारों की संख्या मे लेबर रास्ता ठीक करने मे लगी हुई थी। देख कर आश्चार्य हो रहा था इन मिश्किल हालत मे भी ये लोग काम कर रहे थे। आखिर पापी पेट और परिवार पालने के लिए सब कुछ करना पड़ता है। ज्यादातर लेबरों ने घुटनों तक के जूते और रेनकोट पहना हुआ था। सूर्य देव कुछ खास मेहरबान नहीं थे ज्यादा वक़्त धुप के दर्शन दुर्लभ ही रहे। जब जब विश्राम करते तो ठंड लगने लगती और जैसे ही चलते तो फिर से शरीर मे गर्मी आ जाती।

हल्की भूख लगने लगी थी। मैंने गौरीकुण्ड से एक पानी की बोतल, दो चॉकलेट, एक क्रीम वाला छोटा बिस्कुट और एक Parle-G ख़रीद लिया था। पानी तो लगातार पी ही रहा था पर हर बार सिर्फ एक घूँट। ज्यादा पानी एक बार पीने से उल्टी भी हो सकती है। मैं धीरे-धीरे चॉकलेट और बिस्कुट चाबते हुए आगे चलता रहा और जंगलचट्टी कैंप साइट तक पहुँच गया। यहाँ पर एक GMVN(गढ़वाल मंडल विकास निगम) की एक कैंटीन थी। कैंटीन मे गुरूजी और उनके चेलों ने चाय पी। यहाँ पर ऑक्सीजन की सुविधा भी उपलब्ध थी। इसके अलावा प्राथमिक रोकथाम के इंतज़ाम भी उपलब्ध थे और एक विश्रामग्रह भी था।

सुविधाएं – चिकित्सालय

गौरीकुण्ड से रामबाड़ा तक रास्ता पुराना वाला ही था पर बड़ी बुरी तरह क्षति ग्रहस्त हो गया था। रास्ता पहचान मे ही नहीं आ रहा था। बारिश और भूस्खलन होने की वजह से रास्ते के ऐसे हाल हुए थे।

रामबाड़ा से कुछ पहले की एक तस्वीर।

रामबाड़ा पहुँच तो होश उड़ गए। सिर्फ रामबाड़ा नाम के अलावा  पर सही माने मे कुछ नहीं बचा था। अभी  मैं मंदाकनी नदी के बाएँ ओर चल रहा था लेकिन रामबाड़ा बाद आगे का पूरा रास्ता जिस पहाड़ पर बना था वो पहाड़ पिछले साल ढह गया था। सीधा बोलूँ तो रामबाड़ा बाद प्रशाशन नया रास्ता बनाया था। नए रास्ते पर जाने लिए बाएँ ओर से मंदाकनी को एक पुल के  जरिए पार करके दाएँ ओर जाना था। और अभी तक इस पुल पर काम चल रहा था।

रामबाड़ा के बाद एक गहरी उतराई लेकर पुल पार किया।

वीडियो 1:-   

ऐसा विनाश हुआ था रामबाड़ा पर।

कितने भयानक रूप से जलजला आया होगा। रामबाड़ा का नामोनिशान मिटा दिया। मेरी पिछली यात्राओं मे मैं और मेरा साथी यहीं पर विश्राम किया करते थे और पेट भर पराँठे खाया करते थे। यहाँ पर रात को सोने का इंतज़ाम भी हुआ करता था। ऐसी ही मेरी एक यात्रा मे केदारनाथ के दर्शन से लौटते वक़्त हमने रात के 2 बजे यहीं रामबाड़ा पर एक दूकान वाले से विनती करके कुछ खाने की पेशकश की थी। उस वक़्त उसके पास सिर्फ आलू की सब्ज़ी थी। हम उस साल 6 दोस्त गए थे। सभी भूखे थे हमारी हालत पर दुकानदार को तरस आया और बोला कि चलो ठीक है अंदर आ जाओ और पहले चाय पी लो तबतक मैं आटा गूँद देता हूँ। गर्म-गर्म रोटी और आलू की सब्ज़ी खाकर मज़ा आ गया था। तो मेरा ये वाक्य सुनाने का तात्पर्य यह है कि रामबाड़ा अपने आप मे एक सम्पूर्ण कसबे की तरह था। जहाँ पर यात्रा सीजन मे लोग हजारों की संख्या मे होते थे।   यहीं पर खच्चर स्टैंड भी हुआ करता था। लेकिन इस बार सब खत्म। जो पहली बार गया होगा वो कल्पना और यकीन अभी नहीं कर सकता कि रामबाड़ा पर कैसा कहर टूटा था।

जैसे कि मैंने पहले भी बताया था पूरे रास्ते पर अभी काम ही चल रहा था।

सिर्फ दो घूंट पानी बचा है बोतल मे।

बारिश आई नहीं कि रास्ता गायब।

नए रास्ते पर चढ़ाई ज्यादा है। ज्यातर कच्चा ही है मुझे लग रहा था की आने वाले बारिश के मौसम मे तो यात्रा बिलकुल ही नहीं हो पाएगी। सारा रास्ता ढह जाएगा। यात्रीयों से ज्यादा यहाँ अभी लेबर काम कर रही थी। लिंचोली बेस कैंप तक सामन पहुँचाया जा रहा था। लिंचोली मे प्रशाशन कि तरफ से निशुल्क जल-पान, भोजन और विश्राम का पूरा इंतज़ाम था। लेकिन अभी लिंचोली पहुँचने मे टाइम था। चढाई लोहे के चने चबाने जैसी थी। चॉकलेट, बिस्कुट, पानी  सब खत्म हो गया था। लेकिन मैंने पानी की खाली बोतल संभाल के रखी हुई थी।

कुछ देर तक चलने के बाद मैं लिंचोली कैंप साइट पर पहुँच गया। यहाँ पर भोजन का पूरा इंतज़ाम था। विश्राम करने और रात मे रुकने/सोने के लिए बहुत सारी कैंप हट्स थी। स्लिपिंग बैग्स थे। यहाँ पर हैलीपेड भी बना हुआ था। जो सामान भरी था उसको हेलीकॉप्टर के द्वारा ही पहुँचाया जा रहा था। हेलीकॉप्टर बीमार लोगों को भी निशुल्क वापस लेकर जा रहा था। अभी फाटा से वैसे तो हेलीकॉप्टर सेवा शुरू नहीं हुई थी पर जरूरी काम-काज के लिए तो उड़ा ही रहे थे।

लिंचोली कैंप साइट।

गरमा-गरम स्वादिस्ट खिचिड़ी।

मैंने भी यही पर खिचिड़ी खाई थी। वैसे दूसरी जगह पर चावल छोले, सब्ज़ी भी थी पर मैंने सफर के समय हल्का भोजन लेना ही ठीक समझा। पेट भर के ठूस लेता तो चलने मे दिक्कत होती। कभी-कभी अपनी समझदारी पर मुझे आस्चर्य होता है क्यूँकि असलियत मे इतना समझदार हूँ नहीं। यहीं से मैंने अपनी पानी की बोतल फिर से भर ली। पानी कतई ठंडा था।

हैलीपैड।

फ़ोटो मे दाएँ और टैंट दिख रहे हैं ये यात्रिओं के लिए लगे हुए थे। फ़ोटो मैंने ठीक से नहीं लिया। बहुत ज्यादा संख्या मे थे टैंट।

अब मज़िल दूर नहीं थी पर असली चढ़ाई लिंचोली के बाद ही थी। पता चला कि हौंसले टूट जाएँगे आने वाली चढ़ाई मे। मैं आगे चल दिया। दूर से कुछ ऐसा नज़ारा दिख रहा था। तभी बारिश शुरू हो गयी। मैंने एक टैंट लगा देखा और उसकी ओर दौड़ा। टैंट के बाहर 2-3 बाबा लोग बैठे हुए थे। मैं भी उनके बगल मे जा बैठा। तभी आवाज़ आई भाई साहब अंदर आ जाओ बहुत जगह है। मैंने जूते उतारे और अंदर चला गया। ये टैंट NDMA (National Disaster Management Authority) वालों का था। बोला आराम से लेट जाओ। टैंट मे बिस्तर लगे हुए थे और रजाईयां भी बहुत थी। लेकिन मैंने रज़ाई नहीं ओडी शरीर का जो तापमान था उसको वैसे ही रहने दिया। बारिश जल्दी ही 10 मिनट के बाद ही रुक गई और मैं फिर से आगे निकल पड़ा।

जिस पहाड़ पर ये रास्ता बना हुआ था वो भी टूटा हुआ था। भूस्खलन हो रखा था।

मुझे अपने गाँव तक जाने के लिए भी कुछ ऐसी ही चढ़ाई पर चलना होता है तो मेरे लिए दिक्कत की बात नहीं थी। लेकिन गुरु चढ़ाई सही मे जानलेवा थी। ऐसी की तैसी हो गई। गौरीकुण्ड से लिंचोली तक इतना कष्ट नहीं हुआ था जितना इस आखरी पड़ाओ मे हुआ। मैं हर 10-15 कदम चलने के बाद रुक जाता था। रास्ता कच्चा था यहाँ पर अभी पत्थर नहीं बिछाए थे इसीलिए बहुत सावधानी से पैर जमाकर चलना पद रहा था। कुछ लोग रास्ते को छोड़ कर पगडण्डी से जा रहे थे। पगडण्डी से जाने मे और ज्यादा मेहनत लगती है और थकान लग जाती है। मैं तो सीधे रास्ते ही चलता गया। अब मैं पहाड़ के ऊपर था और अब रास्ता बिलकुल समतल आ गया था। ऐसे इलाके को “बुग्याल” बोलते है। पर अभी यहाँ पर बुग्याल जैसा कुछ नहीं था। चारों तरफ बर्फ़ ही बर्फ़ थी। एकदम सफेद चादर की तरह।

तभी मेरी नज़र सामने वाले पहाड़ पर गई जहाँ पहले पुराना रास्ता हुआ करता था। पहाड़ पर कुछ बड़ी से चीज़ गिरी पड़ी थी पर ठीक से नज़र नहीं आ रही थी। फिर समझ मे आया बाप से ये तो किसी हेलीकॉप्टर के अवशेष हैं। दूर से किसी कूड़े के ढ़ेर जैसा लग रहा था। पिछले साल हुई आपदा मे बचाओ कार्य करते समय क्षतिग्रस्त हुआ था।

हेलीकॉप्टर के अवशेष। पहाड़ पर नज़र डालिये पूरा ढह गया है।

पुराना रास्ता और हेलीकॉप्टर के अवशेष। हेलीकॉप्टर एक बिंदु मात्र ही लग रहा है।

पुराना रास्ता अब केरदारनाथ की ओर नहीं जा सकता।

कैसा बबाल हुआ होगा ज़रा कल्पना कीजिये। सदियों से जो पहाड़ों की श्रृंखला अडिग थी पिछले साल हुई तबाही ने उन्हें भी हिला कर रख दिया था। या कहूँ कि ख़त्म कर दिया क्यूँकि ये वापस से अपनी पहले जैसी सक्ल मे नहीं आ सकते। इनपे जो डेंट पड़ा है उसे कोई भी बॉडी शॉप ठीक नहीं कर सकती। इनपर लगे हुए दाग सर्फ-एक्सेल भी नहीं हटा सकता।

चलिए आगे बढ़ते हैं।

मैं इस समय बहुत ऊँचाई पर था और अब मुझे कुछ दूर सीधे जाकर नीचे की और उतरकर केदारनाथ तक पहुँचाना था। यहाँ पर बर्फ़ के अलावा कुछ नहीं था। मुझे नहीं पता कि बर्फ़ की मोटाई कितनी थी पर किसी-किसी जगह पर मेरा पैर घुटनों तक धस जाता था। मैंने अपनी घड़ी मैं altitude(समुद्र ताल से ऊँचाई) चेक किया। मीटर ने 3470 दिखाया, बोले तो 11384 फीट.

यहाँ पर बहुत सारे कर्मचारी और स्वयंसेवी लगातार बर्फ़ हटाकर रास्ता बनाने की कोशिश मे लगे हुए थे। लेकिन बर्फबारी रोज ही चल रही थी और इन लोगों की मेहनत पर पानी फिर जाता था।

जहाँ पैरों के निशान थे मैं भी वहीँ पर चल रहा था। मुलायम बर्फ पर तो पैर अंदर धस जाता जिससे गति धीमी हो जाती थी।

क्या कहूँ। खुद ही देख लीजिये।

GMVN कैंप यात्रियों का स्वागत करते हुए।

दोपहर के दो बजने वाले थे मैं बिना समय नष्ट किये मंदिर की ओर चल दिया। मंदिर को छोड़ कर सब कुछ खत्म हो गया था। मंदिर का पूरा आँगन मलवे के नीचे दब चुका है। पहले मंदिर के चारों तरफ ऊँची दीवार थी। तीन-चार सीढ़ियाँ चढ़ कर मंदिर के आँगन मे पहुँचते थे। अब ऐसा नहीं है।

जय केदारनाथ।

बहुत आराम से दर्शन किये। गिने-चुने लोग ही थे।

केदारनाथ घाटी मे मंदिर के अलावा कुछ नहीं बचा था। मंदिर के दोनों ओर बनी दुकानें, लॉज, धर्मशालाएँ सब कुछ नष्ट था। मंदिर के पीछे भी कुछ मठ, भैरोँ मंदिर, आश्रम हुआ करते थे एक भी जगह साबुत नहीं बची थी।

केदारनाथ को भी एक चट्टान ने बचा लिया था। एक बहुत बड़ा पत्थर मंदिर के पीछे शिला की तरह पड़ा हुआ था। इसी की वजह से पानी और मालवा मंदिर के दाएँ-बाएँ से निकल गया था। वैसे मलवा तो मंदिर के अंदर तक भर गया था पर इस पत्थर ने मंदिर के अंदर के शिवलिंग को नुक्सान होने से बचा लिया था। मैंने देखा कि इस पत्थर को भी मालाओं से सजाया हुआ था। हो न हो अब इसकी पूजा भी ज़रूर होती होगी।

इसी चट्टान ने मंदिर को बचाया।

भोलेनाथ के दर्शन करने के बाद मैं वापस निकल पड़ा। बार-बार मैं पलट कर केदार घाटी की हालत देख रहा था। दिल दुख से भर उठता था और अपनी आँखों पर यकीन नहीं होता था। मैं पिछले साल ये यात्रा नहीं कर पाया था क्यूँकि उस वक़्त मेरे माता-पिता इस यात्रा पर गए थे और मैं घर की देख-रेख के लिए रुक गया था। मेरे माता-पिता भी सही सलामत इस यात्रा से वापस आ गए थे। केदार घाटी की ये दुर्दशा देख कर मैं यही सोच रहा था की मेरे घरवालों पर भोलेनाथ की कृपा बानी रही होगी।

वैसे मेरा सोचना थोड़ा अलग है। सब लोग यही कहते थे की देवी आपदा है। मेरे हिसाब से ये आपदा प्रकृति मे असंतुलन होने की वजह से आई थी। सबसे बड़ी चीज़ हमारा प्रशाशन आज तक सोता रहा था। पिछले साल हुई घटना के बाद कुछ होश आया था। पहले हजारों की संख्या मे लोग रोज़ दर्शन करने जाते थे। उन लोगों का रजिस्ट्रेशन तक नहीं होता था।

इस बार प्रशाशन सचेत था। जरा सा भी मौसम बिगड़ने पर यात्रा पर रोक लगा दी जाती थी। NDMA के लोग रास्ते मे कई जगह पर तैनात थे जो मौसम का हाल समय-समय पर प्रशाशन तक पहुँचाते रहते थे।

दर्शन करने के बाद मैं लौट रहा था तभी देखा एक साधू बाबा कुछ गुनगुनाते हुए मेरे पीछे चले आ रहे हैं। यहीं कुछ दूरी पर भोजन की व्यवस्था थी। मैं यही पर रुक गया और एक प्लेट मे कड़ी-चाँवल और अचार ले लिया। तभी साधू बाबा भी यहाँ पहुँच गए। मुझे लग गया था कि ये भोले की भक्ति मे बुरी तरह लीन हो चुके हैं। इन्होंने ज़रूर अंटा(grass) मारा हुआ था। बाबा के मुह से निकले हुए बोल कुछ इस तरह।

अच्छा है दरबार भोले बाबा का ,

प्यारा है दरबार भोले बाबा का ,

आओ भक्तों आओ ,

यहाँ चाय भी मिलेगी ,

खाना भी मिलेगा ,

पैसा भी नहीं लगेगा ,

अच्छा है दरबार भोले बाबा का ,

प्यारा है दरबार भोले बाबा का।

मैं इसका वीडियो बनाना चाहता था लेकिन इस वक़्त मैं खाना खा रहा था। मैंने जल्दी खाना खत्म किया पर कुछ सेकंड पहले साधू बाबा चुप हो गए और एक चाय माँगी। बाबा को रिकॉर्ड करने का सुनेहरा मौका मैंने खो दिया।

लौटते वक़्त ली गई कुछ फ़ोटो।

जान जोखिम मे डाल कर काम करते हुए कुछ लोग।

वापस लौटते वक़्त मैं, गुरूजी के टेम्पो-ट्रैवलर का ड्राइवर, गुरूजी और NDMA के कर्मचारी।

ये सब लेबर पत्थर निकलते हुए, फिर इन पत्थरों को हथोड़े से तोड़ती थी, फिर चलने लायक रास्ते पर बिछाती थी।

शाम तेजी से ढल रही थी। अभी तो बहुत दूर तक उतरना था। अब मुझे पंजो और खासकर दोनों पैरों के अंघूटों मे दर्द होने लगा था ऐसा लग रहा था की छाला बन गया हो। अँधेरा होना शुरू हो गया। इस वक़्त मैं गरुड़ चट्टी पर बने GMVN कैंप तक पहुँच गया। मैंने यही पर एक Glucon-D का पैकेट खरीदा और चाय के कप मे दो बार घोल के पी लिया। तभी सोने पर सुहागा हो गया और बारिश शुरू हो गई। मैं जल्दी से जल्दी नीचे उतरना चाहता था इसलिए बारिश की परवाह किये बिना आगे निकल गया। इस वक़्त मैं घुप अँधेरे और बारिश मे अकेले ही चले जा रहा था। बारिश मे फिसलने के अलावा मुझे कोई डर नहीं था। भोलेनाथ के दर्शन करके जो लौट रहा था।

मैंने घड़ी मे टाइम देखा तो रात के 8 बजने वाले थे। बारिश और पैर मे छाले पड़ जाने की वजह से मैं बहुत धीरे-धीरे चल रहा था। रात 8:30 बजे मैं गौरीकुण्ड पहुँच गया। कुछ 2-4 दुकानें ही खुली हुई थी। पिछले साल तक तो बाज़ार सजा रहता था। मैं एक दुकान मे घुस गया और पानी की बोतल खरीदी। फिर से Glucon-D का पैकेट निकला और एक एक गिलास भर के पिया। 10 मिनट आराम करने के बाद कुछ राहत मिली। तभी गुरूजी और उनके कुछ शिष्य भी आ गए। मैंने पता किया तो दुकानदार ने बताया कि इस वक़्त गौरीकुण्ड से सोनप्रयाग जाने के लिए कोई शटल नहीं मिलेगी। शटल शाम 6-7 बजे के बीच मे बंद हो जाती हैं। ऊपर से मौसम भी ख़राब है कोई एमर्जेन्सी भी होगी तब भी शटल नहीं आएगी।

मैंने रात गौरीकुण्ड रुकने मैं ही ठीक समझा। उसी दुकानदार से मैंने कहा और 350/- मैं उसने एक लॉज मे मेरे रुकने का इंतज़ाम करवा दिया। गुरूजी और उनके शिष्यों को अलविदा कर मे लॉज की ओर चल दिया। बहुत ही साफ़-सुथरा लॉज था। माफ़ कीजियेगा मुझे नाम याद नहीं आ रहा। सबसे पहले मैंने गीले कपड़े निकाले और गीजर से गर्म पानी निकाल कर बाल्टी मे पैर डुबो दिये। 10 मिनट के बाद भोजन भी आ गया और खाना खत्म करने के बाद मैं घोड़े बेच कर सो गया।

आज तारीख 6 मई हो गयी थी। कल से तो मुझे ऑफिस ज्वाइन करना था। आज मैं सुबह 5:30 बजे ही लॉज वाले के साथ हिसाब करके 1 कि.मी और आगे चल दिया। वहीँ से शटल सेवा मिलने वाली थी। शटल ने सोनप्रयाग पर वापस उतार दिया और सबसे पहले मैंने पुलिस पोस्ट पर जाकर बताया की मैं वापस आ गया हूँ। उन्होंने रजिस्टर मे दर्ज किया लिया। इसके बाद मैंने एक चाय बनवाई और फैन खाए। वैसे भी सुबह के 6:30 बजे किसको भूख लगती है। अब मैं पार्किंग की ओर गया और यहीं खड़े-खड़े कपड़े बदल लिए। इसके बाद जब तक गाड़ी का इंजन गर्म हुआ मैंने एक सुट्टा लगाकर अपना इंजन भी गर्म कर लिया।

भोलेनाथ की जय बोलकर गाड़ी घर के लिए वापस दौड़ा दी।

 

सोनप्रयाग से गुप्तकाशी की और जाते वक़्त एक साइन बोर्ड।

selfie (अपनी अपने आप लेना)


 

मैंने गुप्तकाशी पहुँच कर पानी की दो बोतल खरीदी और एक पैकेट नेवी-कट भी। तभी देखा की रंग-रुट (फ़ौजी) दौड़ पर निकल रहे हैं। ये इन लोगो के रोज़ के अभ्यास का हिस्सा होता है।

गुप्तकाशी से मैं बिना रुके चलता रहा और गाड़ी धारी देवी पर जाकर रोकी। इस मंदिर को इसकी असली जगह से उठा कर पिलर पर रख दिया गया है। कुछ लोग इसे भी पिछले साल हुई तबाही का कारण मानते हैं। यहाँ पर डैम का काम पूरा हो चुका है और विष्णुप्रयाग हाइड्रो प्रोजेक्ट शुरू होने वाला है। अगर धरी देवी मंदिर को पिलर पर नहीं उठाते तो ये मंदिर डूब जाता। मेरे हिसाब से तो लोगों की आस्था का ध्यान रखते हुए सरकार ने काबिले तारीफ काम किया है। हम लोग 21वी सदी मे हैं। भगवान मे आस्था के साथ हमें देश के विकास के बारे मे भी सोचना है।

जय माँ धारी।

पिलर पर धारी देवी का मंदिर।

टाइम की कमी होनी की वज़ह से धारी देवी को दूर से नमन करके मैं सीधा देवप्रयाग पर रुका। दोपहर के 2:00 बजने वाले थे। यहाँ बने सुलभ शौचालय मे जाकर फ्रेश हुआ। पेट खाली होते ही फिर से भरने का टाइम तो हो ही गया था। सुबह ठीक से नाश्ता भी नहीं किया था। पेट भर दाल, रोटी, सब्ज़ी का सेवन किया। एक कोल्ड-ड्रिंक के सुट्टा लगाया और ऋषिकेश की ओर निकल पड़ा। ठीक 3:00 मैं ऋषिकेश नटराज चौक पर पहुँच गया। अपने तजुर्बे के मुताबिक मैं सोच कर चल रहा था कि काम से काम रात के 10:00 तो बज ही जाएँगे। पर इस बार मेरी किस्मत अच्छी थी ट्रैफिक कम मिला और मैं रात 8:15 तक घर पहुँच गया।

घर पहुँच कर सारी थकान दूर हो गई। फ्रेश होने के बाद मैं अपनी पसंदीदा दुकान की ओर चल दिया। पाँच दिनों से मैंने एनर्जी बूस्टर नहीं लिया था।  7 मई को ऑफिस जाना था और बूस्टर लेना बहुत जरूरी हो गया था।

उम्मीद है कि आप लोगों को ये यात्रा पसंद आये।

कुछ जरूरी बातें:-

1 – मेरी तरह बेवकूफी करते हुए गाड़ी से अकेले नहीं जाएँ। एक से भले दो।

2 – मौसम की जानकारी लेकर जाएँ। मैं जब यात्रा से वापस आया था तो उसके दो दिन बाद यात्रा रोक दी गयी थी।

3 – अतिरिक्त दिन की छुट्टी लेकर जाएँ।

4 – अब दूरी पहले से बढ़ गयी है। आना-जाना कुल मिला कर लगभग 40 कि.मी हो गया है।

5 – रेनकोट बहुत जरूरी है। चढ़ाई करते वक़्त अपने साथ खाने का सामन और पानी जरूर रखे।

6 – जब मैं गया था तब रास्ता बहुत से जगह पर कच्चा और संकरा था। वृद्ध और बच्चे को साथ लेकर जाने से दिक्कत ज्यादा बढ़ सकती है।

7 – अँधेरे और बारिश के माहौल मे न उतरें। बारिश के वक़्त पत्थर गिरने का दर होता है।

8 – अगर गुप्तकाशी रुके तो यहीं पर रजिस्ट्रेशन करवा लें।ट्रैन से जाने वाले हरिद्वार रेलवे स्टेशन और बस से जाने वाले ऋषिकेश बस अड्डे पर भी रजिस्ट्रेशन करवा सकते हैं।

केदारनाथ यात्रा 2014 – सोनप्रयाग से केदारनाथ। was last modified: August 19th, 2025 by Anoop Gusain
Exit mobile version