पहाड़ों को एक दर्शनीय पर्यटन स्थल मान कर तो हम सब कभी ना कभी वहाँ जाते ही रहते है, उनकी भव्यता और उनकी विशालता को देखकर रोमांचित भी होते रहते हैं | गाहे-बगाहे आप कुछ ऐसे लेखों से भी दो-चार हो ही जाते हैं, जिसमे पहाड़ के लोगों की दुरूह जीवन स्थितियों का वर्णन किया गया होता है, पर वास्तव में कभी आपने उन गाँवों के बीच में जाकर उन क्षेत्रों की विशेष भौगोलिक परिस्थतियों को जानने बूझने का प्रयत्न किया है ? यदि आप मेरी बात का विश्वास करें तो यह बात पूर्णतया सत्य है कि वहाँ की परिस्थतियों अत्यंत ही दुर्गम हैं, रास्ते कच्चे-पक्के हैं, परिवहन के कोई साधन नही, हर जगह आने-जाने के लिए केवल पैदल ही जाना होता है, कभी कई-कई मीटर की गहरी ढलान और कहीं कुछ मीटर तक ऊँची खड़ी चढ़ाई, बीच-बीच में कहीं–कहीं गाँव के लोग स्वयम ही मिलकर वहीं उपलब्ध पत्थरों को जोड़ कर सीढ़ीयां बना लेते हैं, जिससे चढ़ना-उतरना कुछ सुगम हो सके| कई गाँव तो ऐसी जगहों पर हैं कि वहाँ रहने वालों को मुख्य सड़क तक आने के लिए एक-दो दिनों तक पैदल तक चलना पड़ता है |
किसी वास्तविक पहाड़ी गाँव तक जाना वैसा रोमांचित तो हरगिज़ नही हो सकता, जैसा कि अक्सर हम किसी धार्मिक पर्यटन स्थल पर जाकर महसूस करते हैं और फिर वहाँ से लौट कर, बहुत गर्व के साथ परिचितों को अपने अनुभव बताते हैं कि हमने तो पूरी चढाई बहुत आराम से पूरी कर ली थी | यकीन जानिये, वास्तविक गावों के रास्ते इतने साफ़ सुथरे और आसान नही होते क्यूंकि वहाँ कभी कोई पर्यटक तो जाता नही, और पाँच साल से पहले हमारे इस महान प्रजातंत्र को भी उनकी कोई आवश्यकता नही होती, अत:, सरकारें भी उन्हें, उनके भरोसे पर ही छोड़ देती हैं | किसी पर्यटक स्थल पर जाने वाले पर्यटक साफ़ सुथरी सड़कों, ठंडी चलती हवा, बड़े-बड़े होटलों और भरे हुए बाजारों को देख कर ही उस क्षेत्र विशेष के बारे में अपनी राय कायम कर लेते हैं, लेकिन कभी आप उन तारकोल से लिपटी सडकों के बगल से ही निकलती किसी कच्ची पगडण्डी पर कुछ कदम चल कर देखिये, पहाड़ की वास्तविक ज़िन्दगी की दुरुहता आपके सम्मुख मुंह-बाये खड़ी हो जायेगी I ये जो हम अक्सर किसी पर्वतीय स्थल पर जा कर कहते हैं ना कि, “यार इनकी भी क्या मस्त जिंदगी है, इतने शानदार क्षेत्रों में ये रहते हैं, एकदम शुद्ध और ताज़ी हवा, कोई प्रदूषण नही, कोई मारा-मारी नही, लाइफ कितनी पीस फुल है यहाँ !, ऐसा सब कहने से पहले, थोडा सा रुक कर एक बार अवश्य सोचेंगे…
मेरे पिताजी ने अपनी CPWD की नौकरी के दौरान कुछ समय जोशीमठ से आगे ओली में गुजारा था और वो वहाँ ITBP के कैम्प में रुकते थे, दरअसल उन्हें वहाँ कुछ सरकारी भवनों के निर्माण से सम्बन्धित कार्य करवाने होते थे और उनकी मदद के लिये स्थानीय मजदूर, खलासी और बेलदार का काम करते थे जो उनका सामान इत्यादि लेकर चलते थे तथा अन्य कार्यों में भी मदद करते थे, उनसे अपनी बातचीत को वो अक्सर हमसे साझा करते थे, कुछेक जुमले जो स्थानीय लोग सुनाते थे, और आज भी मुझे याद हैं, वो कुछ इस प्रकार से थे कि “पहाड़ का वासा, कुल का नासा”, और, “जो नदी के किनारे बसते हैं, नदी उन्हें बसने नही देती” और यदि उन बातों को फिलहाल में केदारनाथ में हुई भयंकर आपदा के परिपेक्ष्य में देखें तो ये मानना ही पड़ेगा कि अपने क्षेत्रों की जटिल परिस्थतियों को वो ही बेहतर ढंग से जानते-समझते है |
मैं अपने इस आलेख में ऐसा कोई दावा नही करने जा रहा कि मुझे इन गाँवों के बारे में कोई जानकारी है या मै उनकी रोजमर्रा की दुश्वारियों को दूसरों की अपेक्षा अच्छी तरह समझता हूँ | अपितु मेरा तो ये आलेख ही स्वयम अपने आप पर ही तंज़ (व्यंग्य,कटाक्ष) है कि एक बार की चढ़ाई-उतराई ने ही हमारी ये हालत कर दी कि उसके बाद काफ़ी समय तक रुक कर आराम करना पड़ा | वस्तुतः मै इस आलेख के माध्यम से उन क्षेत्रों के वासियों और खास तौर पर महिलायों के जज्बे और उनकी हिम्मत को अपना नमन करता हूँ जो कि अपनी घर-ग्रहस्थी के अलावा बाज़ार के कामों और अपने जानवरों को भी सम्भालती हैं, जिन रास्तों पर चलते ही हमारी सांस फूल जाती है, वहाँ वो अपने सर पर घास के गटठर या जलावन के लिए लकड़ियाँ उठाये, बिना किसी शिकायत के चलती रहती हैं, वो बच्चे भी दाद के हकदार हैं जो अपने स्कूल तक पहुंचने के लिए कई-कई किलोमीटर इन कच्चे-पक्के रास्तों से गुजरते है, जिनमे कई पहाड़ी नदियाँ भी आती है और जंगली जानवरों का खतरा भी हरदम बना रहता है, पर वो अपने अदम्य साहस और मजबूत जिजीविषा के बलबूते सारी विपरीत परिस्थतियों के बावजूद अपने हौसले को बनाये रखते हैं | अपने पूरे सफर के दौरान कई मर्तबा हम ये सोच कर हैरान-परेशान होते रहे कि इन जगहों पर गर्भवती महिलायों और किसी बीमार का क्या हाल होता होगा?, शायद उनमे से अनेकों इलाज के आभाव में ही दम तोड़ देते होंगे, इसलिए अकारण नही कि पूरे NCR में बहुत बड़ी संख्या में पहाड़ से आये हुए लोग बसे हुए हैं पर उनमे से कोई भी अब अपने गाँव वापिस नही जाना चाहता, क्यूंकि वहाँ जीना वाकई में बहुत जीवट का कार्य है, ये मेरा अपना व्यक्तिगत आंकलन है कृप्या नेरे पहाड़ के मित्र इसे अन्यथा न लें | वस्तुस्थिति यही है कि वास्तविक पहाड़ी गाँव किस्से-कहानियों, और हिंदी फिल्मों में दिखाये जाने वाले गाँवों जितने रोचक और मनोहारी नही होते |
बहरहाल, लैंसडाउन का Hill View Shanti Raj Resort हमारे लिए घर जैसा ही बन गया है और वहाँ के लोग परिवार के सदस्यों जैसे ! अत: जब दिनेश ने हमे सुझाव दिया कि हम उसके गाँव के घर तक घूम कर आयें, तथा साथ ही रास्ते में वो जगह भी देखें, जहाँ वो अज्ञातवास की ही तरह swiss cottage बनवाना चाहता है तो इंकार करने का कोई प्रश्न ही नही था | नियत समय पर हम सब, सुबह के नाश्ते के उपरान्त दिनेश का गाँव देखने के लिए निकल पड़े | हमे रास्ता दिखाने के लिए रिसोर्ट का एक कर्मचारी भी हमारे साथ था | दिनेश का गाँव ‘मोहरा’ इस रिसोर्ट से लगभग 4 किमी नीचे गहराई की तरफ है, टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डीयों पर चलना, बीच-बीच में प्राकृतिक पानी के श्रोत, जिनसे बहता पानी रास्ते के ऊपर से ही गुजर कर और आगे बढ़ जाता है, पत्थरों से बना कच्चा रास्ता, रास्ते के दोनों तरफ चीड के ऊंचे-ऊंचे वृक्ष, बीच में जंगली पौधे और खरपतवार, उनके साथ ही उगे बिच्छु घास के कंटीले पौधे, जो छू लें तो मारे जलन और खुजली के आपका हाल-बेहाल हो जाये, हम शहरी लोगों के लिए तो बस यही ट्रैकिंग का पर्याय था | बच्चों का जोश कुलाँचे भर रहा था, जिन जगहों पर हम पैर जमा-जमा कर उतरते थे, वो उन जगहों को उछलते-कूदते पार कर जाते थे, अब इसे क्या माना जाये हम बूढ़े हो रहें हैं या बच्चे जवान हो रहे हैं …. शायद दूसरी बात ही ज्यादा बेहतर है –
“हमको मालुम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल को खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख्याल अच्छा है |”
गाँव के करीब पहुंच कर वो जगह भी देखी, जहाँ swiss cottage बनाये जायेंगे, जगह तो अदभुत है, एक पहाड़ी टीला और उस पर 4-5 cottege, बाहरी दुनिया से कोई सरोकार नही, बगल में ही दिनेश का गाँव है, खाना भी वहीं से आयेगा, चारो तरफ विशाल पहाड़ और चीड़ के जंगल, मगर यहाँ तक पहुंचते-पहुंचते ही दम निकल जाता है, गुरुत्वाकर्षण की दिशा में आप खुद को और अपने कैमरे को सम्भालते-सम्भालते कहीं लुढ़क ही न जाएँ और आपकी रही-सही इज्जत का बैठे-बिठाये ही फाज़िता हो जाये, बीच रास्ते कोई-कोई घर आ जाता है, जिसकी बगल से ही आगे का रास्ता है, यहाँ गाँव वैसा नही होता जैसा आप कल्पना में पाते हैं, एक घर दुसरे घर से काफ़ी दूर होता है, कई दफा तो, बीच में किसी पहाड़ी की वजह से अगला घर दिखता भी नही | यूँ लगता है, जैसे गाँव खाली-खाली सा है, वैसे तो लगभग 100 परिवारों का गाँव है ये, लेकिन अब अधिकतर लोग लैंसडाउन या कोटद्वार में काम करते हैं और औरतों को अपने चूल्हा-चोका को जल्द समेट खेतों और जानवरों को भी सम्भालना पड़ता है, इस गाँव में सरकारी विद्यालय के अलावा एक अंग्रेज़ी स्कूल भी है, बच्चे स्कूलों में हैं, अत: माहौल कुछ सूना-सूना सा है ! वैसे अब गाँव के बहुत से लोग बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिये कोटद्वार में रहने लगे हैं | सर्दियों की अपेक्षा, गर्मियों में पहाड़ के लोगों को ज्यादा काम करना पड़ता है, इसका कारण ये है कि इस मौसम में वो गेहूँ, चावल, मक्का,दाल आलू, पेठा आदि उगा लेते हैं, जिसका भण्डारण फिर सर्दियों में उनके काम आता है |
आगे बढ़ते बच्चे जैसे ही अपनी मंजिल पा लेते हैं, वहीं से चिल्ला-चिल्ला कर अपने पहुंचने की सूचना देते हैं, चार किमी का ये ढलान का रास्ता लगभग 30 मिनट में पूरी करके हम भी अब दिनेश के घर पहुंच पाये हैं | पहले 10 मिनट तो साँसे काबू में लाने में लग जाते हैं, पानी पीकर थोडा आराम मिलता है, फिर उसके घर को दायें-बाएं, आगे-पीछे से घूम-घूम कर देखते हैं, घर के आगे-पीछे की कच्ची जगह पर, मिर्च, टमाटर, बैंगन, तुलसी के पौधे हैं, कुछ पेड़ और उनके सहारे यहाँ-तहाँ लिपटी तुरई, लौकी और काशीफल इत्यादि की बेलें भी हैं | एक केले का पेड़ भी दिख रहा है, हर सम्भव जगह का पूरी समझदारी से उपयोग किया गया है | दैनिक उपभोग की हर चीज़ का स्वयम ही उत्पादन और उसका रखरखाव इनकी जिंदगी का अहम हिस्सा है, क्यूंकि वक्त जरूरत के समय बाज़ार से लाने का तो सवाल ही नही ! यहाँ के लोग प्रकृति के साथ पूरी तारतम्यता के साथ समायोजित हैं, ये उनके लिए कोई लूट-खसोट की चीज़ नही है, ये तो इनके जीवन का एक अभिन्न अंग है, इसी की वजह से इनका जीवन सम्भव है | ये बस इतनी सी बात है जो हम मैदानी लोग आज तक ना तो समझ पाए है और ना ही अपनी स्वार्थपरता वा अज्ञानतावश समझना चाहते हैं, कीमत चुकाने को तैयार हैं पर समझने को नही … इसे कहते है शहरी मानसिकता की विडम्बना…! हमारा ज्ञान किताबी है और इनका अनुभव जन्य, पारिस्थितिक और नैसर्गिक ! हम और ये, नदी के दो छोरों की तरह हैं, जिनके बीच कोई सेतु नही… क्यूंकि हम ऐसा चाहते ही नही …
दिनेश और उसके भाइयों का यह पुश्तैनी घर है, मर्द तो रात रिसोर्ट में ही रुक जाते हैं, अत: पूरे घर की व्यवस्था औरतें ही सम्भालती है, घर-ग्रहस्थी के तमाम कामों के अलावा जानवरों को सम्भालना, उनका चारा लेकर आना और जिन दिनों रिसोर्ट में कस्टमर नही होते तो घर से ही खाना बना कर भेजना.. और सबसे बढ़कर पानी लाना, जो यहाँ एक दुवस्व्प्न की तरह है क्यूंकि मीठे पानी के स्रोत दूर होते है अत: औरतों को ही सिर पर गागर या मटका रख कर पानी लाना पड़ता है |
पहाड़ की जिंदगी का एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष ये भी है कि आज भी यहाँ का समाज पूरी तरह से पितृसत्तात्मक भी है और जाति मूलक भी | घर भर के अधिकाँश कार्यों की जिम्मेवारी औरतों पर ही है, आदमी या तो बाहर काम करते हैं या फिर पूरा समय मौजमस्ती | सेना और पुलिस में भर्ती हो जाना आज भी यहाँ रोज़गार का एक बड़ा ज़रिया है | उत्तर-भारत के मैदानी भागों में बसे दूसरे गाँवों की ही तरह यहाँ भी आप हर गाँव के दक्षिण की तरफ़ में छोटी जातियों के घर देखेंगे, छुआ-छूत का रोग यहाँ के सामाजिक जीवन का एक नासूर है, जो अभी भी प्रचलित है, ऊंची जातियों का वर्चस्व यहाँ के समाज में साफ़-साफ़ परिलक्षित होता है, उनके व्यवहार में भी और काम के बंटवारे में भी… सच कहा है किसी ने कि,
“जाति मर के भी नही जाती !”
बहरहाल, एकदम साफ़ सुथरा घर है, वहीं पाये जाने वाले पत्थरों को जोडकर फर्श बना है, एक जगह फर्श में ही एक छोटी सी ओखली बनी है, जो मसाला पीसने के काम आती है, त्यागी जी ने इसका खूबसूरत चित्र लिया है, पास ही जानवरों का चारा काटने की मशीन है, साधारण से कमरे, केवल बुनियादी सुविधाएँ ही नजर आती है, कमरों के सामने ही रसोई है, ढलान पर होने की वजह से छोटा सा दरवाजा आश्चर्यचकित करता है, उनकी इजाजत लेकर मैंने रसोई का फोटो भी ले लिया, रसोई के बगल में ही गौशाला है जिसकी छत वास्तव में रसोई का फर्श ही है, छोटा सा दरवाजा इनके लिए तो बिलकुल उपयुक्त है, ये पहाड़ों पर पायी जाने वाली गायें इतनी बौनी क्यूँ होती हैं ?, शायद चढाई के कारण, या किसी और वजह से… बहुत देर तक यह विषय हमारे हास-परिहास और विनोद का कारण बना रहा, पत्थरों को तरकीब से लगाकर बनाई गयी सीढ़ीयां और छत पर लगा दूरदर्शन का एंटीना 70-80 के दशक की याद दिला गया, त्यागी जी से खास फरमाईश की गयी कि ये एंटीना फ्रेम में जरूर आना चाहिये, छत पर ही एक कनस्तर में उगाया गया कैक्टस हवा में इतनी आद्रता(नमी) के कारण पत्तियां भी निकाल सकता है, ये यहीं देखा, अदभुत !!!
बच्चों के मतलब का यहाँ कोई सामान नही सो वो अपनी योजना बनाते है कि गाँव में और नीचे की तरफ जाया जाये, रावी और तुषार का तो ठीक है, पर पारस को उसके मम्मी-पापा के द्वारा छोटा होने के कारण मना कर दिया जाता है कि थक जायेगा, पर पारस का जवाब सुनिए, “ क्या है… चल तो लेता हूँ मैं, मैं तो थका भी नही , आप लोग ही बुड्डों की तरह कर रहे थे … जाने दो थोडा पतला हो जाऊँगा…” वाह रे लड्डू गोपाल…! उसकी जिद पर उसे इजाजत मिलती है कि रिसोर्ट वाले अंकल का हाथ पकड़ कर ही जायेगा और जिद नही करेगा ! सच में, हम कई दफ़ा बच्चों की क्षमतायों को कितना कम करके आँकने की भूल कर बैठते हैं !
खैर, इधर हम लोग अपनी टाँगे सीधी कर रहे है, और साथ ही ये विमर्श भी कि यहाँ यदि किसी को अपने घर में सत्य-नारायण की कथा का न्योता भी देना हो तो वो भी दिन भर का प्रोजेक्ट है, गाय के दूध से बनी एक-एक कप चाय हमारे अंदर उस जरूरी ऊर्जा का संचार करती है जिसकी जरूरत हमे जाते हुए पड़ेगी, क्यूंकि अब ज्यादा चढ़ाई है | सबको चिंता है आ तो गये अब वापिस कैसे जायेंगे, मैं अपना अनुभव उनसे बांटते हुए उन्हें तसल्ली देता हूँ की चिंता मत कीजिये, पहाड़ पर उतरना मुश्किल होता है पर चढ़ना आसान | थोड़ी ही देर में बच्चों के वापिस आते ही, हम घरवालों से विदा लेकर अपने वापिसी के सफर पर निकल पड़ते हैं | एक बहुत समझदारी का काम ये हो गया है कि मैंने और त्यागी जी ने एक-एक डंडी ले ली है | बच्चे हम से आगे-आगे हैं और हम धीरे-धीरे पीछे छूटते जा रहे हैं, चढ़ना तो आसान है, क्यूंकि गिरने का वो डर नही जो ढलान पर उतरते हुये होता है, पर इन फूलती साँसों का क्या करें? कुछ कदम आगे बढ़ाते ही फिर साँसे उखड़ जाती है, मेरा और त्यागी जी का हाल कमोवेश एक सा ही है और हमारी श्रीमतियाँ आराम से बढ़ती जा रही हैं, वो ऊपर पहुंच कर जो हंसती हैं और हमारी हालत पर जो कम्मेंट करती हैं और फिर जो खिलखिलाकर हँसती हैं तो एक बार हम लोग फिर अपना पूरा दम और ताकत संजो कर आगे बढ़ जाते हैं पर आख़िर कितनी दूर तक ? फिर वहीं किसी पत्थर पर बैठ अपनी उखड़ती सांसो को काबू में लाने की जदो-जहद शुरू हो जाती है | रास्ते में घास काट कर लाती औरतें भी हमारी हौसला-अफजाई करती हैं, कुछ पल उनके साथ बातें कर के अच्छा लगता है, पहाड़ों पर वाकई औरत का जीवन जीना करुणामय भी है और एक त्रासदी भी, कई मील दूर से वो घास काट कर ला रही हैं. पर घास तो यहाँ पास में भी है तो फिर इतनी दूर से क्यूँ? क्यूंकि पास की घास सर्दियों के लिए बचा कर रखनी है जब मौसम विषम हो जायेगा तो यहाँ पास से घास लेना ही सुविधाजनक रहेगा… सलाम उनकी मेहनत और जज्बे को..,!
इधर हमारा संघर्ष खुद से ही जारी है, कुछ चलना, कुछ रुकना, फिर चलना… महसूस होने लगा है कि चालीस पार करते ही हमारी मांसपेशियों में वो दम-खम नही रहा, उम्र अब हावी होती जा रही है. जिस प्रकृति का सानिध्य पाने की कामना रहती है वही अब मुहँ चिढ़ाती सी प्रतीत होती है … पर ये औरते क्यूँ नही थकती ? अपने रोजमर्रा के काम तो बहुत जल्दी इन्हें थका देते है पर यहाँ तो इतनी चढाई के बाद भी एकदम ताज़ा दम ! बहरहाल, कुछ देर का आराम फिर हमे चलने लायक बना देता है और हम लोग बढ़ चलते है आगे के सफ़र पर, दिक्कत ये है कि आप ज्यादा देर रुक भी नही सकते, अगर आपका शरीर एक बार ठंडा हो जाये तो आपको नये सिरे से मेहनत करनी पड़ेगी, बीच कहीं से तुषार लौट कर आता है, “ अरे! आप लोग अभी यहीं हो, हम तो पहुंचने ही वाले थे, मैं तो कैमरा लेने आ गया” मैं उसे दार्शनिक भाव से समझाता हूँ तुम तो जल्दी-जल्दी शोर करते भाग गये, तुमने सुना ये प्रकृति तुमसे बातें करती है यहाँ बैठकर पेड़ों को देखना कितना सुकून देता है, इसी के लिए तो हम यहाँ आये हैं !”, कुछ वो समझा कुछ नही और कुछ उलझे से भावों के साथ कैमरा लेकर रावी और पारस की दिशा में ओझल हो जाता है |
“हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा”, त्यागी जी अपने मोबाइल में राज कपूर की फिल्मों के गाने लगा देते हैं और एक बार फिर हम चारों लोग अपनी मंजिल की और रवाना हो जाते हैं, ऐसे ही चलते, रुकते और फिर चलते थोडा-थोडा सा ही, रास्ता कटता जाता है | थोडा सा और आगे जाकर, रिसोर्ट की जब इमारत दिखने लगती है तो एक नये जोश और नई उमंग के साथ हम लोग बिना रुके आगे बदने लगते हैं, सही है जब तक लक्ष्य सामने न हो इंसान के प्रयत्नों में कमी रह ही जाती है पर एक बार लक्ष्य दिख जाने पर उसकी सारी चेष्टायें और सभी बौद्धिक और शारीरिक शक्तियां मिलकर उसे उसकी मंजिल तक पहुंचा ही देती हैं | अपने चार किमी के इस सफ़र के आखिरी 200 मीटर हम सबने बहुत मजे के साथ, हंसते-हंसते तय किये | जाते हुए जहाँ हमने ये चार किमी पूरे आधे घंटे में नाप दिए थे, आते हुये हमे कम से कम एक घंटे से भी ऊपर लग गया, मगर समय से महत्वपूर्ण तो इस सफ़र को कामयाबी से पूरा करने की ख़ुशी थी, और इस बात का इत्मीनान कि जो हमारा आज का अनुभव है, वो शायद बहुत कम शहरी लोगों के नसीब में ही हो सकता है. रिसोर्ट के प्राँगण में बच्चों की टोली कैरम-बोर्ड खेल रही थी और हमे देखते ही उनके कटाक्षों के बाण जैसे ही हम पर चलें, हमने प्रकृति, सुन्दरता, शानदार अनुभव और बीच राह में मिलने वाले लोगों की जो बातें शुरू की तो उन्होंने हम से उलझना छोड़ अपना कैरम खेलना ही बेहतर समझा और यही हम भी चाहते थे !
अब समय था कुछ देर रुक कर, दोपहर का खाना खाया जाये और फिर एक बार आराम करके नहा-धो कर शाम का प्रोग्राम नियत किया जाये, आखिर एक पर्यटक की यही तो नियति है, खाना, घूमना, आराम करना और फिर खाना, घूमना, आराम करना….. जब तक घर वापिसी का समय ना हो जाये, ये अंतहीन चक्र यूँही चलता रहता है,,,