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अज़मेर : अकथ कहानी प्रेम की…

बात 12वी सदी की शुरुआत की है, अरब़ से निकलकर इस्लाम हिन्दुस्तान में अपनी जड़े जमाने का प्रयास कर रहा था, मुगल राजायों की सल्तनत आगरा, दिल्ली से लेकर राजपूताना होते हुए पूरे उत्तर भारत में अपनी पैठ बनाने के प्रयास के साथ-साथ मध्य और दक्षिण भारत की तरफ भी बढ़ना चाहती थी | इंसानी सभ्यता का तकाजा रहा है कि जीते हुये हुक्मरान का मज़हब ही पूरी रियाया1 का मज़हब2 हो जाता है, लेकिन यह भी सत्य है कि अक्सर ऐसे परिवर्तन इतनी आसानी से नही हो पाते, और यदि कोई देश हिन्दुस्तान जैसा पारम्परिक और जड़ों से जुड़ा हुया हो, तो फिर सदियों से चली आ रही रवायतों3 और अकीदों4 को पल भर में नही बदला जा सकता | अरब़ में तो इस्लाम तेज़ी से फैल गया क्यूंकि वहाँ उसका कोई प्रतिद्वंदी नही था, पर यहाँ की धरती तो पहले से ही अनेकों मतों, सम्प्रदायों, विभिन्न पूजा-पद्धतियों, संस्कृतियों और विश्वासों को समेटे हुए थी | हाँ, इतना ज्ररूर था कि जाति-गत बँटवारा समाज की प्रगति में एक बहुत बड़ा रोड़ा था, पर फिर भी एक निहायत ही विदेशी धर्म को अपनाना इतना आसान भी नही था | ये काम तलवार के ज़ोर का नही था अपितु धीरे-धीरे उनका विश्वास जीतकर ही उन्हें अपनी तरफ़ मोढ़ना था | तलवार के दम पर राज्य जीतना तो आसान है, पर विश्वास और ईमान जीतना मुश्किल ! अत: अकारण नही कि उस दौर में ऐसे अनेक सूफी संतों और कलंदरों का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुया जो इस्लाम के पैरोकार तो थे मगर उनके तौर-तरीकों में वो मजहबी कट्टरता नही थी, उन सब ने अपने-अपने प्रकार से धीरे-धीरे उस युग में प्रचलित धर्मों को साथ जोड़ते हुए इस्लाम के प्रचार और प्रसार में अपना योगदान दिया | ये सू़फी़ दरवेश अपने पूर्ववर्ती मुल्ला-मौलवियो की तरह कट्टरपंथी नही थे अत: उनका विरोध भी नही हुआ और सभी धर्मों के मानने वालों के दिलों में वो जगह बनाते चले गये |

“धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होये

माली सींचे सौ घड़ा, रुत आये फल देय ||”

ख्वाज़ा गरीबनिवाज की दरगाह का बाहरी गेट

उसी गेट की एक और झलक



ऐसे ही एक सूफी दरवेश हुए हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती, जिनका जन्म 12वीं सदी का माना जाता है. वो पूर्वी ईरान से अजमेर में आकर बसे | अज़मेर, जयपुर से करीब 135 किमी दूर, एक पुराने इतिहास का शहर… ऐसा माना जाता है कि राजा अजयमेरु ने 7वीं शताब्दी में इस शहर का निर्माण करवाया था, अरावली की पर्वत माला में स्थित ये शहर सदियों से अपनी संस्कृति के लिए जाना जाता रहा, और 12वीं शताब्दी तक आते-आते इसका नाम अजमेरू से होता हुया अजमेर हो गया | इस्लाम की सूफी शाखा जिसका सम्बन्ध सूफी-ए-कुल अर्थात सब के लिये शांति से माना जाता है, हिन्दुस्तानी दर्शन के लिये कुछ ऐसा अन्जान सा भी नही था | एक ईश्वरवाद का सिद्धांत तो यहाँ की परम्परा में भी पहले से ही था | अभी आई एक हालिया फ़िल्म ‘रॉक स्टार’ में एक गाने के जो बोल हैं ना, “ कुन फाया कुन “, यह एक अरबी शब्द है और इसका अर्थ है, अल्लाह ने हुक्म दिया ब्रहमाण्ड के निर्माण का (कुन) और हो गया (फाया कुन), Allaha commands the universe ‘to be’ and it is ! अब आपको ऐसा महसूस होगा अरे यही या ऐसा ही कुछ तो हमारे ग्रँथ भी कहते हैं | ऋग वेद के भाग 10 का मन्त्र 129 इस ब्रहमांड की उत्पत्ति की व्याख्या कुछ इस प्रकार से करता है –

“नासदासींनॊसदासीत्तदानीं नासीद्रजॊ नॊ व्यॊमापरॊ यत् ।
किमावरीव: कुहकस्यशर्मन्नभ: किमासीद्गहनं गभीरम् ॥१॥“5

तो बाबा नानक भी इस ब्रहमाण्ड की रचना शून्य में से हुयी प्रतिपादित करते हैं, ॐकार, कम्पन से उपजी ध्वनि है, और फिर इस से आगे के जगत का विस्तार हुआ | अब इसे कुन कहा जाये या ॐकार, जो आर्यन सभ्यता के आने पर ॐ बन गया, बताता है कि शब्द इस ब्रह्माण्ड की रचना का आधार है, और विज्ञान भी मानता है कि ध्वनि ऊर्जा का एक रूप है जो विभिन्न आकार ले सकती है | हिदू और सिख धर्म, दोनों इस बात पर एकमत हैं कि इस ब्रह्माण्ड की रचना शब्द से हुई और साथ ही ये पूरी कायनात ही एक माया है और ईश्वर इस माया से परे, इसलिए हम उसे ना देख सकते हैं और ना ही उसका अनुभव कर सकते हैं | हिरण्यगर्भ सूक्त है-

“हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकासीत ।
स दाधार पृथ्वीं ध्यामुतेमां कस्मै देवायहविषा विधेम ॥“6

यहाँ ये जानना भी दिलचस्प है कि विज्ञान जिस ‘बिग-बैंग’ थ्योरी की बात करता है, हिन्दुस्तानी दर्शन उससे पूरे तौर पर सहमत नही | विज्ञान कहता है ब्रहमाण्ड का निर्माण एक दुर्घटना थी, और इसका निर्माण रिक्तता या निर्वात यानी emptiness या nothingness(vacumme), अर्थात असत् से हुया, मगर दर्शन कहता है कि कुछ भी अकारण नही, और ना ही असत् सबसे पुरातन, ईश्वर ने स्वयं सत् से अपना निर्माण करके, और फिर शून्य से इस ब्रह्माण्ड की रचना की, ध्यान रहे शून्य, emptiness का पर्याय नही, क्यूंकि शून्य का अपना परिमाण है | दर्शन के सिद्धांत को और बल मिलता है जब इस इक्कीसवीं सदी में विज्ञान God Particle अर्थात Higgs-Boson को ढूँढने का दावा करता है, जो पदार्थ की रचना का आधार माना जा रहा है | बाबा नानक कहते है –

“अरबद नरबद धुंधूकारा ॥“7 (अंग 1035)

इसी में और आगे वो कहते हैं-

“आपे आपि उपाइ विगसै आपे कीमति पाइदा ||”8 (अंग 1035)

सृष्टि के निर्माण के बाद जब बात उस कर्ता की बन्दगी की आती है, तो यहाँ भी सूफीज्म आपके निकट है, क्यूंकि सूफी का भी अपने इष्ट से सम्बन्ध प्रेम का है, वो उसको अपना आराध्य तो मानता है पर किसी डर से नही बल्कि वो उसका सखा, सहेली या प्रिय है | एक सूफी की उसे पाने की चाह एक भक्त की सी ना होकर एक प्रेयसी की है वो उस से नाराज़ भी हो सकता है और उस पर तंज़ भी कस लेता है, वो उस से मिलने की तड़प में इस शरीर से बाहर आकर आत्मा-परमात्मा के मिलन की बाट जोहता है, ecstasy की जो अवस्था है ना, अपने शरीर से ही रिहा होकर बाहर आ जाना, यदि आप हिन्दू दर्शन की गहराई में जाएँ तो ऋषियों और मनीषियों ने इस अवस्था को ‘समाधि’ कहा है, और ऐसी अनेकों किवंद्तियाँ हैं जब ऐसे ऋषि जीवित होते हुये भी अपनी आत्मा को शरीर से बाहर ले जाते थे… कबीर यदि कहते हैं कि-

“नैनो की क़ारी कोठरी, पुतली पलंग बिछाय |

पलकों की चिक ढारिके, पिया लियो रिझाय ||”

तो बुल्ले शाह कहते हैं –

“तेरे इश्क नचाया करके थैया-थैया”

और फिर कौन ऐसा है जिसने ख़ुसरो का कलाम छाप तिलक सब छीनी मोसे नैना लगाईके नही सुना !

यहाँ ये उल्लेखनीय है कि इस्लाम में संगीत और नृत्य की कोई जगह नही, पर सूफी तो उसे पाने के लिये किसी भी हद तक चला जाता है, जोधा-अकबर का ख्वाज़ा मेरे ख्वाज़ा वाला सूफी कलाम और उसका नृत्य तो इतना मशहूर हुये कि उसके बाद से ही फिल्मों और टीवी पर सूफीज़्म दिखाने के लिए उसे ही copy cat किया जा रहा है | सूफी पर तो प्यार का रंग कुछ ऐसा खुसरो ने समझाया है-

“खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार |

जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार ||”

सो ऐसे ही कुछ साँझे विचारों को ले कर सूफ़ी दरवेश आम जनता में अपनी पहचान बनाते गये | ख्वाज़ा, अल्लाह वाले तो थे ही, जल्द ही उनके नाम के साथ अनेकों चमत्कार भी जुड़ते चले गये, लोग उन्हें बाबा से लेकर गरीब नवाज़ तक के नाम से जानने लगे और उनकी पहचान आस-पास के क्षेत्रों से लेकर दिल्ली आगरा तक हो गयी, मुरीदों की संख्या में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होने लगी | और जब अकबर अपने वारिस की चाह में आगरा से पैदल ही चलकर इस दरवेश के दर पर आया तो क्या हिन्दू और क्या मुसलमान सबके मन में ये बात घर कर गयी कि बाबा के दर पे की गयी दुआ आगे भी कबूल है, जिसकी वजह से यहाँ मूहँ माँगी मुरादें पूरी हो जाती है | गरीबनिवाज का जलवा तो कुछ ऐसा रहा कि 15वीं सदी में खुद बाबा नानक ने आकर उनके शागिर्दों के साथ गोष्ठी की, और उनके ठहरने की जगह पर पुष्कर में एक शानदार गुरुद्वारा सुशोभित है |

यदि आप ने इतना पढ़ लिया है तो जरुर ये सोच रहें होंगे कि एक यात्रा-वृतांत में ये सब क्यों और फिर इसकी आवश्यकता ही क्या? पर क्या है ना कि रहस्यवाद में कबीर का मुकाबला नही और वो कहते हैं-

“लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल |

लाली देखण मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ||“

तो ऐसी ही जगहों पर आप कुछ ऐसा महसूस कर जाते हो, जो आपको उन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने में मदद करता है जो आपके खुद के अस्तित्व से जुड़ीं हैं और जिनकी तलाश में इंसान सदियों से भटकता आया है, यूँ यायावरी भी तो उस भटकन की तलाश का एक प्रतिरूप ही तो है, बैठे-बिठाये, कई काम बीच में ही छोड़कर, घर पे ताला डाल चले जाना, इस सबमे कुछ तो ऐसा होता है जो आपको अपने घर की सुविधायों को छोड़कर बाहर निकलने को प्रेरित करता है |

ख्वाज़ा की दरगाह में जाने से पहले

यहाँ आस्था है, वहाँ मुरीद हैं और यहाँ मुरीद हैं वहाँ मक़बूलियत ! तो बस फिर क्या है ना कि अपना देश जरा धार्मिक कुछ ज्यादा ही है सो हम भी इसी ताब में खिंचे जयपुर से अजमेर शरीफ में बाबा की दरगाह में अपना सज़दा करने चले आये | जयपुर भले ही परम्परा और आधुनिकता के बीच झूलता सा शहर हो, मगर अजमेर आज भी पुराने दौर में ही है, बड़े-बड़े नेतायों से लेकर फ़िल्मी सितारों तक अपनी किस्मत को चमकवाने के लिए यहाँ जियारत करने के लिए आते हैं, पर आप सड़कों से लेकर अन्य किसी तरह की सुविधा की अपेक्षा नही कर सकते | शायद हमारी सरकारों की सोच हो, यहाँ आध्यात्मिकता है, वहाँ भौतिक सुख-सुविधायों की क्या आवश्यकता ?, जैसे मथुरा कान्हा के नाम से जाना जाता है ठीक वैसे ही अजमेर बाबा की दरगाह के लिये… यानी कि इस शहर के वाशिंदों के लिये रोज़ी-रोटी का मुख्य जरिया ये दरगाह ही है, जिसके लिए देश-विदेश से हर साल लाखों लोग(ज़ायरीन) यहाँ आते हैं, और जब इस दरगाह का मुख्य पर्व ‘उर्स’ मनाया जाता है तो उस समय में ये संख्या कई गुणा और बढ़ जाती है | दरगाह तक पहुंचने के लिये, लगभग एक किमी पहले ही आपको अपनी कार किसी पार्किंग में छोढ़नी पडती है और आगे का रास्ता पैदल ही पार करना पड़ता है | संकरी सड़क के दोनों तरफ हर तरह की दुकाने हैं, जिसमे छोटे-मोटे ढाबों से लेकर इत्र-फुलेल और भिन्न-भिन्न प्रकार के सामान मिल जाते हैं, जैसा आप किसी भी अन्य धार्मिक स्थल के निकट पा सकते हैं | दरगाह के करीब पहुंचते ही गुलाब के फूलों और चादरों की दुकाने शुरू हो जाती हैं, ख्वाज़ा की दरगाह पर चादर के साथ गुलाब ही चढ़ाया जाता है और इसी की पत्तियों का प्रशाद ही दिया जाता है जिसे आप अपने पास संभाल कर भी रख लेते हो और खा भी लेते हो, इसी के साथ रंगीन धागा जिसे मौली के नाम से भी जाना जाता है वो दरगाह के पास किसी भी जाली पर या जन्नती दरवाजे पर, आप अपनी किसी मन्नत के तौर पर बाँध सकते हैं | ऐसी ही दुकाने, जिनसे आप चादर और गुलाब के फूलों की टोकरी लेते हैं, आपके सामान तथा जूतों को भी रख लेते हैं, हर दुकान के आगे जूते रखने का रैक और हाथ धोने का पानी आपको मिल जाता है | साथ ही कोई ना कोई ऐसा भला इंसान भी जो आपको पूरी दरगाह घुमा लाता है बिना किसी लालच के ! वाकई अज़मेर के लोग बाबा को भी मानते हैं और आप के आने के जज्बे को भी पूरी इज्जत बक्शते हुये उसका एहतेराम भी करते हैं, जो वाकई काबिले-तारीफ़ है |

मश्क बीते जमाने को अपने में समेटे हुये

वज़ू करने वालों के लिये बना पानी का तालाब

आंतक के इस दौर में ये दरगाह भी कुछ नापाक लोगों की कारस्तानियों से बच नही सकी और इसका खामियाजा आपको भुगतना पड़ता है जब अंदर घुसते ही सबसे पहले आपकी अच्छी तरह से जामा-तलाशी ली जाती है और फिर आपको साफ़ मना कर दिया जाता है कि कैमरे की इजाजत नही है | तब फिर आपको वापिस उसी दूकान पर अपना कैमरा भी छोढ़ना पड़ता है, जहाँ से आपने सामान लिया था | इतना शुक्र है कि मोबाइल पर रोक नही है, मगर दोनों से खींची गई फ़ोटो के स्तर में तो अंतर होता ही है, खैर इसी दूकान पर हमे बाबा के एक ख़ादिम भी मिल गये जिन्होंने हमे इस मुक्कदस जगह पर घुमाने की जिम्मेदारी ले ली दरगाह के मुख्य दरवाज़े से अंदर जाते ही कुछ दूर तक आपको पैदल चलना पड़ता है, यहाँ आपको मश्क़ से पानी पिलाने वाले भी मिल जायेंगे, यहीं जिन्होंने नमाज़ पढ़नी होती है, उनके मुँह-हाथ धोने यानी वजू करने के लिये पानी का एक छोटा सा तालाब सा भी है, और मश्क़ वाले भी यहाँ से पानी लेते हैं | सदियों से मश्क वालों की परम्परा रही है, जो अब तो लुप्तप्राय है, पर यहाँ इसके दीदार हो जाते हैं | दरगाह के करीब आते ही जायरीनों की भीड़ शुरू हो जाती है और आपको भी इसका हिस्सा बनना पड़ता है, ऐसे में हिंदुस्तान के बाकी धार्मिक स्थानों की तरह आपको अपनी जेब तथा अन्य सामान का खुद ही ख्याल रखना पड़ता है और भीड़ के धक्कों को भी झेलना पड़ता है ऐसे ही कुछ देर के संघर्ष के बाद आप बाबा की दरगाह पर अपनी मन्नतों की अर्जी लिये हाज़री भरते हो | मज़ार के साथ-साथ भीड़ में अपनी जगह बनाते-बनाते दरगाह का खादिम कुछ आपकी मदद कर देते हैं तो आप कुछ आराम से गरीबनिवाज की कब्र तक पहुंच जाते हो, कई बार अपने पक्ष में हुया कोई काम अच्छा लगता है और फिर, यहाँ की रिवायत के अनुसार आपकी लाई चादर और फूलों की टोकरी ख्वाज़ा की मज़ार पर चड़ा दी जाती है |

इसके बाद के पल, गूंगे के मिठाई खाने वाले अनुभव की तरह है जब वो खादिम पल भर के लिए आपको नीचे झुका कर मज़ार पर पड़ी चादर के अंदर आपका सर कर देता है और मोरपंख के झाड़ू से मारते हुये, आपके सर पर कुछ आयते सी पड़ता है, ये पल रूहानी है, पर इस क्षण के अनुभव को मैं चाह कर भी आपसे सांझा नही कर सकता | यदि मैं अपने आप से भी उस अनुभव को बाँटना चाहूँ तो भी नही बाँट सकता ! इसीलिए मैंने ऊपर गूंगे द्वारा खायी मिठाई का ज़िक्र किया था वो चाह कर भी आपको उसका स्वाद नही समझा सकता और मैं भी …

यही सूफीज्म है जिसके पीछे दुनिया खिंची चली आती है उस एक पल के अनुभव के लिये, और फिर जैसे ही आपके सर से चादर हटती है आप इसी दुनिया में वापिस आ जाते हैं | गुलाब की कुछ पत्तियां आपको दी जाती हैं, जिनमे से कुछ आप खा लेते हो और कुछ सम्भाल कर अपने रुमाल में बांध लेते हो अपने घर के लिए ..

दरगाह के मुख्य गुम्बंद

उसी गुम्बंद कि एक अन्य तस्वीर

गरीबनिवाज के दर की एक और झलक

जन्नती दरवाज़ा

मज़ार से बाहर निकलते ही आपके साथ आया भला इंसान आपको एक और कब्र दिखता है, जो बाबा की बेटी की है यहाँ भी वैसा ही सब कुछ किया जाता है मगर इसमें वो रूहानियत नही, जिसका अनुभव चंद पल पहले ही आप कर चुके हो | बाहर बड़े से सेहन में स्थानीय कव्वाल ख्वाज़ा के दरबार में अपनी-अपनी अर्जियां लगा रहे है, दरगाह के दीदार के बाद के ये पल बेहतरीन हैं और उन्हें सुनना अच्छा लगता है | आप चाहें तो कुछ देर वहाँ बैठकर उन रूहानी क्षणों का आन्नद उठा सकते हो, ऐसे में अपने कैमरे की कमी कुछ और भी ज्यादा खलती है, मोबाइल का कैमरा एक विकल्प तो है पर उसकी काली स्क्रीन धूप में कुछ दिखा नही पाती और आपको अंदाज़ से ही कुछ फ़ोटो खींचने पड़ते है और इधर साथ आया खादिम आपको बाबा के किये कुछ चमत्कारों वगैरह के बारे में बताता जाता है जो कि ख्वाज़ा गरीब नवाज़ के नाम के साथ जुड़े हुये हैं पर अक्सर ही ऐसे किस्से हर जगह पर जुड़ जाते हैं और इनमे कुछ खास नयापन नही होता | वैसे इस दरगाह में मज़ार के बाद कुछ पल कव्वालों की संगत में बैठना एक और यादगार अनुभव है |

महफ़िल-ए-कव्वाली, ख्वाज़ा के सज़दे में

कव्वाली, सूफीवाद का दिया अनमोल नज़राना

सूफीज्म इस्लाम की एक उदार शाखा है जो बना है ‘सूफ़’ शब्द से, जिसका अर्थ है ‘ऊन’, भेड़ की ऊंन से बना वो थोड़ा सा खुरदरा कम्बल, या एक मोटे कपड़े की तरह के बने दुशाले को पैगैम्बर मोहम्मद तथा उनके अन्य साथी औढ़ते थे, सूफी इस्लाम की उस कट्टर विचारधारा से अलग है जिसके साथ इस्लाम को अक्सर ही जोड़ कर देखा जाता है, इसी लचीलेपन की वजह से ख्वाज़ा के साथ-साथ हजरत निजामुदीन औलिया, बाबा बुल्लेशाह, शेख फरीद आदि के कलाम हिन्दुस्तानी जन-मानस में अपनी जगह बना गये | बाबा नानक और कबीर भी इसी परम्परा के वाहक रहे है क्यूंकि उनके कलामों में भी आप उस निराकार रब की कशिश पाते हैं जिसके लिये सूफीज्म जाना जाता है | ओशो का रहस्यवाद भी बुद्ध से लेकर सूफीवाद तक की बात करता है | नुसरत फतेह अली खान से लेकर कैलाश खैर हों या रब्बी, इन सब की पहचान इनके गाये सूफी कलामों की वजह से ही है और सूफीज्म को आम आदमी, और खास तौर पर आज की युवा पीढ़ी तक पहुँचाने में इन सबका योगदान सराहनीय है |

कव्वालों की संगत से उठकर आप दरगाह के कुछ दूसरे हिस्सों को भी देख सकते हैं, जिनमे से एक है जन्नती दरवाज़ा, नाम से ही स्पष्ट होता है कि इसकी जियारत करने वाले को जन्नत नसीब होती है, मगर यह साल में कुछेक मौकों पर ही खोला जाता है | और, फिर आप देख सकते है चार यार, उन दोस्तों की कब्रे जो अफगानिस्तान से बाबा को मिलने आये थे | बाहर की खुली जगह में एक विशाल चूल्हे पर लगी हुयी है, बादशाह अकबर की दी गयी वह देग, जो अकबर ने चित्तोडगढ की विजय पश्चात भेंट की थी, ये भी जायरीनों के आकर्षण का केंद्र है जिसमे कहते है एक बार में उर्स पर 120 मन यानि 4800 किलो चावल पकता है और फिर गरीबों में उसे बांटा जाता है | देग वाकई विशाल है, और इसे बड़ी देग के नाम से जाना जाता है, इसी के साथ ही एक दूसरी देग भी है जो जहांगीर की दी हुई है और इसमें 60 मन यानी 2400 किलो तक चावल पकता है, और जियारीन अपने-अपने अकीदे, जेब और किसी मन्नत के हिसाब से इन देगों में अपना योगदान देते है |

दरगाह से बाहर, सबसे बायीं तरफ हमारे वो गाइड

अकबरी देग

अकबरी देग, ख्वाज़ा की तरह इसकी भी एक कशिश है

जहांगीर की दी गयी देग

दरगाह से बाहर निकल आप थोड़ा-बहुत इधर-उधर घूम सकते हैं, मगर ऐसी कोई ख़ास दर्शनीय चीज़ नज़र नही आती, हाँ बाज़ार पुराने मिज़ाज़ का है तो आप कुछ ऐसी वस्तुयों को ढून्ढ सकते है जो ‘माल-कल्चर’ और बड़े-बड़े ब्रांड्स की भीड़ में दुर्लभ हो गयी हैं, सो त्यागी जी के साथ घंटा दो घंटे का समय ऐसी कुछ नायाब चीज़ों को दूंदने में निकलता है, जिनमे हींग, लुबान, और गुग्गुल से लेकर कुछ बेहतरीन इत्र तथा क्व्वाल्लियों की कुछ ऐसी CDs इकटठा करने में, जो आज भी कार में स्टीरियो पर चलते ही दोबारा से गरीब नवाज़ के दर तक पहुंचा देती हैं |

दरगाह से बाहर, शायद कुर्बानी का बकरा

भीड़-भाड़ भरा नज़ारा होता है, दरगाह के बाहर

बस, ऐसे ही कुछ पलों को अपनी यादों में समेट, इस बात का सकूं भी महसूस कर सकते हो कि भले ही चिश्ती परम्परा में इससे पहले और बाद में भी कई और नामचीन औलिया हुये, पर सूफीज्म की असल रूह तो आज भी ख्वाज़ा को ही माना जाता है, इन्ही कुछेक ख्यालातों के साथ आप ख्वाज़ा से रुखसत लेते हो और शुक्रिया अदा करते हो इस सूफी दरवेश गरीब निवाज का, जिसकी रहमत के सदके, आज भी अजमेर और इसके आसपास का इलाका अपने धर्म-निरपेक्ष और सद्धावी चरित्र को बचा कर रखे हुये है | सूरज की तपिश धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन रुकने का समय नही, क्योंकि सदियों पुराना एक मायावी शहर अपने भीतर मिथ और सत्य का तिलिस्म समेटे हुये हमे पुकार रहा है, और हम भीड़-भाड़ भरी संकरी सड़को से जगह बनाते हुये, राजस्थान की इस सांस्कृतिक राजधानी को पीछे छोड़ते हुये पुष्कर के रास्ते पर अपनी कार बढ़ा देते हैं…

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1. प्रजा, the common natives of the state

2. धर्म, religion

3. विश्वास, faith

4. प्रथायें, customs,traditiions

5. सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्व नहीं था. सत भी नही था, स्वर्ग, नर्क और पाताल भी नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था, और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात कुछ बी नही था |

6. वो था हिरण्य गर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान
वही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान
जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर

7.कई युगों तक केवल घना अन्धकार ही स्थापित रहा, dark age

8. उसने(ईश्वर) स्वयम ही जन्म लिया, प्रसन्न हुया और सबसे पहले अपने आप को स्थापित किया

अज़मेर : अकथ कहानी प्रेम की… was last modified: May 25th, 2025 by Avtar Singh
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