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इन्दौर – सैंट्रल म्यूज़ियम और ज़ू दर्शन

परमप्रिय मित्रों,

आज इन्दौर प्रवास का मेरा अंतिम दिन था।  14 फरवरी को सहारनपुर से प्रस्थान किया था और आज 19 फरवरी हो चुकी थी ।  इस बीच में बैंक की ड्यूटी निभाने के बावजूद बहुत कुछ देख डाला था और बहुत कुछ देखना बाकी था।   खास तौर पर उज्जैन, महेश्वर आदि तीर्थों के दर्शन  यह सोच कर टाल दिये थे कि अगली बार सपरिवार आऊंगा तो ज्योतिर्लिंगों के दर्शन का पूरा पुण्य मिल सकेगा।   सुबह नहा-धोकर तैयार हुआ, होटल के रिसेप्शन काउंटर पर आया और वहां पर खड़ी हुई स्वागतोत्सुक बालिका से कहा कि आज चेक आउट करना है।   वह बोली, इतनी जल्दी?   अभी चार – पांच दिन पहले तो आप आये ही हैं, और कुछ दिन रुकिये ना? “  मैने कहा,  फटाफट बिल बनाओ, टैम नहीं है!”   ठीक है, मैं आपका बिल बनाती हूं  पर तब तक प्लीज़ आप ब्रेकफास्ट तो ले लीजिये।  उसने अन्दर डायनिंग हॉल की ओर इशारा किया तो मुझे लगा कि बेकार में तीन-चार सौ रुपये का ब्रेकफास्ट का बिल और जोड़ देगी ।  पर वह पीछे ही पड़ गई कि नाश्ता तो आप करके ही जायें ।   उसका यह आग्रह करना मुझे अच्छा तो नहीं लगा पर बिना कुछ कहे मैं डायनिंग हॉल में चला गया।   वहां पर नाश्ते के सामान का लंबा चौड़ा काउंटर लगा हुआ था और सेल्फ – सर्विस थी।   मैने प्लेट उठाई और जो-जो कुछ अच्छा लगा, प्रेमभाव से खाता रहा।  एक बेयरा आया और मुझसे कमरा नंबर पूछा तो मैने बता दिया।   अब मेरे ज्ञानचक्षु खुले ।   इस होटल में ठहरे हुए सभी अतिथियों के लिये सुबह  का नाश्ता complimentary है और बहुत स्वादपूर्ण भी ।   इसके बाद देखा कि कॉफी बनाने का भी जुगाड़ रखा हुआ है,  फटाफट काफी भी बनाई और सुड़क ली !    अब मुझे यह अफसोस हुआ कि मैने 15 तारीख से यहां नाश्ता क्यों नहीं किया।  पर चलो, जो हुआ सो हुआ, अब  आगे के लिये सीख मिल गई।

मैने नाश्ते के लिये धन्यवाद दिया और बिल का भुगतान करने के बाद उस बालिका से कहा कि मेरी अटैची और बैग यहीं कहीं रख लें क्योंकि दोपहर में मेरी ट्रेन है।   उन्होंने मेरे नाम का टैग लगाकर मेरा सामान रिसेप्शन के पास ही रख लिया।   अब मैं कैमरे का बैग कंधे पर लटका कर बैंक की ओर चल पड़ा।   जब ऑटो बैंक पर पहुंचा तो देखा कि अभी तो नौ ही बज रहे हैं और बैंक खुला नहीं है।   गूगल नक्शे के आधार पर मुझे यह आभास था कि हमारी बैंक शाखा आगरा-मुंबई हाइवे के बहुत ही नज़दीक है।  मैने आटो से कहा कि इस कालोनी में से हाइवे के लिये रास्ता निकल आयेगा क्या?   वह बोला, बिल्कुल निकलेगा, बताइये कहां जायेंगे ?  मैने कहा कि म्यूज़ियम आस-पास ही है, वहीं छोड़ दो !  जब तक बैंक खुले, म्यूज़ियम में ही सही ।   मेरी इच्छानुसार मुझे इन्दौर के केन्द्रीय संग्रहालय के बाहर छोड़ दिया गया।

इन्दौर केन्द्रीय संग्रहालय

संग्रहालय के मुख्य द्वार से अन्दर घुसा तो देखा कि टिकट खिड़की बन्द है।    मुख्य भवन के बाहर भी नाना प्रकार की सैंकड़ों मूर्तियां वहां पर सुसज्जित देख कर मैने कैमरा निकाला और बकौल नन्दन झा, न्रीक्षण-प्रीक्षण   शुरु हो गया।   एक सज्जन मेरे पास आकर बोले,  कैमरे का टिकट ले लीजियेगा, अपना भी।   अभी थोड़ी ही देर में टिकट काउंटर खुल जायेगा।   मैने पूछा कि तब तक मैं क्या करूं?  इंतज़ार करना पड़ेगा?   वह बोला, “नहीं, नहीं, आराम से देखिये,  जहां भी चाहें, फोटो खींचिये।  मेन बिल्डिंग में भी बहुत कुछ है।  रास्ता इधर से है।” धन्यवाद कह कर मैं बेधड़क इधर-उधर घूमता फिरता रहा और एक डेढ़ घंटे में पूरा संग्रहालय उलट-पुलट कर देख डाला।

 

इस संग्रहालय में वैसे तो छः वीथिकायें हैं पर मुझे हिंगलाज़गढ़ की परमार कालीन प्रतिमाओं वाली वीथिका सबसे अच्छी लगी।  उससे भी बढ़ कर, आठ दस प्रतिमायें इटैलियन थीं  जो इन्दौर के राज परिवार की ओर से इस संग्रहालय को भेंट मिली हैं।   इन इटैलियन और भारतीय कलाकारों द्वारा निर्मित मूर्तियों में मूल अन्तर ये है कि भारतीय कलाकारों द्वारा निर्मित मूर्तियों में शरीर रचना लगभग एक जैसी सी लगती है।   चेहरे में भी बहुत अन्तर नहीं आता।  अलंकरण से पता चलता है कि यह किस देवी – देवता – यक्ष – यक्षिणी की प्रतिमा है।   नारी व पुरुष के अंग – प्रत्यंग की संरचना बहुत कलात्मक तो है पर काफी कुछ एक जैसी अनुभव होने लगती है।   इनको देखते देखते जब थक जाओ और अचानक ग्रीक या इटैलियन प्रतिमाएं सामने आ जायें तो ताज़ा हवा का झोंका आ गया प्रतीत होता है।   अर्वाचीन युग के अत्यन्त कलात्मक द्वार ऐसे के ऐसे उठा कर यहां प्रदर्शन हेतु रखे गये हैं  जो इस संग्रहालय का बहुमूल्य हिस्सा हैं।   दर्शकों एवं पर्यटकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए प्लास्टर कास्ट (plaster cast) की प्रतिकृतियां भी यहां तैयार की जाती हैं और विक्रय हेतु उपलब्ध हैं।

उसके अलावा मध्यप्रदेश में हुए उत्खनन से मिली वस्तुएं वहां प्रदर्शित हैं।  एक वीथिका (gallery)  सिक्कों की भी थी, उसे देख कर भी अच्छा लगा।   साढ़े दस बजे के करीब टिकट काउंटर वाले महोदय आये, मुझे टिकट दिये और चूंकि मैं उस समय तक लगभग पूरा संग्रहालय देख चुका था, मैने वहां से प्रस्थान किया।

चिड़ियाघर

बाहर निकल कर मैं  बैंक की ओर वापिस जाने के लिये सड़क के उस पार जाना चाहता था पर  road divider  पर कट कुछ दूर था।  पैदल ही आगे बढ़ना शुरु किया तो अपनी ही साइड में  zoo का बोर्ड लगा मिला।  सोचा, इसे भी क्यों नाराज़ किया जाये – चलो अन्दर चलते हैं।  टिकट लेकर भीतर प्रवेश किया तो लगा कि यहां तो कितने भी घंटे घूमता रह सकता हूं।   शेर, चीते, भेड़िये, नील गाय, मगरमच्छ, हाथी, हिरण, बारहसिंघे,  मोर की अनेक प्रजातियां, नाना प्रकार की बतखें और उनकी प्रजाति के अन्य पक्षी वहां काफी अच्छे ढंग से रखे गये हैं।   खास बात यह है कि उनको घूमने फिरने के लिये पर्याप्त स्थान उपलब्ध कराया गया है – बिल्कुल पिंजरे में बन्द तोते जैसी स्थिति नहीं है।     यहां का वर्णन इतना मनोरंजक नहीं हो सकता जितने यहां खींचे गये चित्र अतः ज्यादा कुछ न लिख कर कुछ चित्र लगा रहा हूं।

यहां से बाहर निकलते – निकलते बारह बज चुके थे, थकान भी अनुभव होने लगी थी अतः बाहर आकर आटो पकड़ कर सीधे बैंक आया।  दो-एक घंटे वहां रुक कर, आवश्यक निर्देश देकर साढ़े तीन बजे रेलवे स्टेशन के लिये प्रस्थान किया।  आज फिर खाने के नाम पर वही खस्ता कचौरी और गुलाब जामुन !   ऊफ!    एक बैग भी खरीदा  क्योंकि मेरे वाला पिल्ला उसी में एडजस्ट होना था।  रास्ते में होटल से अपना सामान उठवा कर आटो में रखवाया, स्टेशन पर पहुंचा।  गाड़ी आने में अभी भी पौन घंटा था।   वातानुकूलित क्लास के लिये प्रतीक्षालय में घुसा तो देखा कि यह वेटिंग रूम में अत्यन्त मनोहारी है।  वातानुकूलित भी था और साफ-सुथरा भी।   लोहे की बैंच ही नहीं, आरामदायक सोफे भी वहां मौजूद थे ।  रेलवे वालों को हृदय से आशीष देकर एक सोफे पर विराजमान हो गया।  बाहर ही attendant मेरे मोबाइल में मेरी ईमेल देख कर पुष्टि कर चुका था कि मैं इस प्रतीक्षालय में प्रवेश हेतु उपयुक्त पात्र हूं भी या नहीं !

ट्रेन आकर खड़ी हुई,  सौभाग्य से इस बार मेरा आरक्षण 3-tier A.C. में था वरना वही मोहनजोदड़ो की खुदाई में निकला हुआ कोच पल्ले पड़ता।    वैसे तो वापसी यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न हो गई परन्तु दो युवक और उनके साथ की दो युवतियों के बेशर्मी पूर्ण व्यवहार ने मुझे बहुत खिन्न किया।  हमारे वाले ही कक्ष में उन चारों की बर्थ थीं परन्तु  उन्होंने पूरी यात्रा के दौरान दो बर्थ खाली ही रखीं और दोनों युवतियां अपने – अपने पुरुष मित्रों के साथ ही हमबिस्तर रहीं।  ये चारों गाज़ियाबाद में किसी इंजीनियरिंग या एम.बी.ए. कालेज के छात्र-छात्राएं थीं !   उनके जैसा व्यवहार तो रेलगाड़ी में नव-विवाहित पति-पत्नी भी करते दिखाई नहीं देते, सभी गरिमापूर्ण व्यवहार करते हैं।   परन्तु इन चारों को अपने सहयात्रियों की उपस्थिति की कतई कोई परवाह थी ही नहीं !  न कोई शर्म न लिहाज  !     हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है, यह वास्तव में मुझे गहरी सोच में धकेल गया।   खैर !

इस प्रकार अपनी ये वाली घुमक्कड़ी भी सफलतापूर्वक संपन्न हुई ।   आपको अगर ये यात्रा अच्छी लगी हो तो आशीर्वाद दीजियेगा |

इन्दौर – सैंट्रल म्यूज़ियम और ज़ू दर्शन was last modified: April 8th, 2025 by Sushant Singhal
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