Site icon Ghumakkar – Inspiring travel experiences.

अयोध्या नगरी – प्रथम भाग

“अयोध्या” के नाम से भला कौन परिचित नहीं होगा. वर्तमान उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित यह नगर प्रसिद्द ग्रन्थ “रामायण” में उल्लिखित है. ऐसी मान्यता है कि भगवान् श्री राम का जन्म यहीं हुआ था और इसी वजह से इस नगर की महत्ता एवं प्रसिद्धि की वृद्धि होती है. भारत की अधिकांश जनमानस के मन में छाए हुए इस नगर से मेरे माता-पिता का पूर्व-काल से जुड़ाव रहा है. तथापि ईश्वरीय प्रेरणा से सितम्बर २०१८ में अपनी माता के साथ इस नगर की यात्रा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ.

उस समय वर्षाकाल समाप्ति की ओर था. हाल ही हुई वर्षा के कारण प्रकृति अपनी हरी आभा से भूमंडल को ओतप्रोत कर रही थी. ऐसे में जब हमारी ट्रेन भारत के मैदानी इलाकों से गुजरने लगी तब रेल-पटरी के दोनों ओर स्थित हरे भरे लहलहाते खेत नज़र आने लगे. मेरा ऐसा मानना है कि दूर-दूर तक फैले हुए, धान की फसलों से पटे हुए, गंगा और उसकी सहायक नदियों से बने हुए तथा छोटे-छोटे गाँवों से बटे हुए भारत के खेत और खलियान शायद प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ सँरचनाओं में से एक हैं. वैसे भी दिन में की जाने वाली रेल यात्रा किसी पिकनिक से कम नहीं होती. इस पिकनिक में ट्रेन प्रकृति से लुकाछिपि खेलती है और यात्रीगण कभी पटरी के बायीं तो कभी दायीं ओर झाँकते हैं.

ऐसे में यदि आपके साथ घर से बना कोई भोज्य पदार्थ हो, तो सोने में सुहागा ही है. माताजी तो इस विषय में निपुण थीं. भोजन व्यवस्था के मामले में उनकी वृद्धावस्था भी कोई स्थान नहीं रखती. इस यात्रा में भी उसका बड़ा आनंद आया. बस खाते-पीते, फोटोग्राफी करते तथा अयोध्या-दर्शन के बारे में चर्चा करते एक रेल-यात्रा सम्पन्न हुई तथा ट्रेन अयोध्या के प्लेटफार्म पर जा लगी. उस समय रात्रि के लगभग ११.१५ बज चुके थे. समय-सारणी के अनुसार तो संध्या के ०७.३० बजे ही अयोध्या पहुँचना था. तथापि आगे जाने वाली उस ट्रेन से केवल २-३ परिवार ही उस दिन अयोध्या के स्टेशन पर उतरे थे. निर्जन प्लेटफार्म पर उतरते ही संकोचजन्य एक भय सताने लगा कि इतनी रात गए न जाने किसे जगाना पड़े. किन्तु, धन्य री अयोध्या नगरी! सहसा कहीं से एक कुली प्रकट हुआ. रात्रि के उस प्रहर में उसका वहाँ आना एक प्राकट्य वर्णन से कम नहीं था. उसकी सहायता से माता जी ने दो प्लातफोर्मों को जोड़ने वाली रेल-पुल को, दिन भर की रेल यात्रा के बाद भी, पार कर लिया. तत्पश्चात स्टेशन के बाहर खड़े एकमात्र बैटरी-चालित रिक्शे से हम गंतव्य तक पहुँच कर विश्राम करने लगे.

मंदिरनुमा अयोध्या रेलवे स्टेशन

रात्रि विश्राम के बाद अयोध्या दर्शन का हमारा प्रथम दिवस श्री वेदान्ती स्थान, जानकी घाट से शुरू हुआ. प्रातः काल में उस मठ में रहने वाले कुछ विद्यार्थी अपने गुरु की देख रेख में संस्कृत का विद्याभ्यास कर रहे थे. हालाँकि मैं उस प्रकार की शिक्षा प्रणाली से विशेष अवगत नहीं था और ना ही उनके पाठ्यक्रम के बारे में कोई जानकारी थी. किन्तु मंदिर प्रांगन में संस्कृत विद्याभ्यास में लगे विद्यार्थियों का दृश्य एक यात्री की दृष्टि से मनोरम लगा. कुछ देर के पश्चात वहाँ प्रातःकालीन आरती होने लगी. घंट-घरियालों की ध्वनि के साथ, “भय प्रकट कृपाला दीन दयाला” के धुनों पर आरती हो रही थी कि सहसा राजस्थान से आये श्रद्धालुओं का एक जत्था मंदिर प्रांगन में प्रवेश कर गया. वे सभी स्त्री-पुरुष अपनी पारंपरिक वेश-भूषा में थे, जिनसे उनकी पहचान संभव हुई. कुछ देर तक श्रद्धालुओं ने आरती में भाग लिया और फ़िर अगले दर्शन-स्थल के लिए चल पड़े. उनके जाते ही सूने पड़े प्रांगन में सहसा पुनः हलचल हुई. इस बार आँध्रप्रदेश के ग्रामीण इलाकों से अयोध्या आये श्रद्धालुओं की टोली से प्रांगन भर गया. उनके जाने के बाद पंजाब-हरयाणा के ग्रामीण श्रद्धालु आये और आरती में भाग लिया. इस प्रकार विभिन्न राज्यों से ग्रामीण टोलियाँ आती थीं और आरती में कुछ देर ठहर कर फिर आगे बढ़ जातीं. इन सबके बीच मेरी माता जी तो शायद भगवान् को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करने में मगन थीं, पर मेरा यात्री ह्रदय भगवान् की आरती में कम और भगवान् के बनाये मनुष्यों की टोलियों के वेश-भूषा, परिधान और हाव-भाव देखने में तल्लीन रहा.

वेदांती स्थान में प्रातः कालीन आरती का एक दृश्य

आरती ख़त्म होने के पश्चात हमलोग अयोध्या के अन्य स्थलों के लिए तत्पर हुए. विडम्बना थी कि अयोध्या में तो जिधर देखो उधर एक मंदिर है. वहाँ हर घर में एक मंदिर ही बना दिखाई देता है. यह संभव ही नहीं कि हजारों की संख्या में स्थित सभी मंदिरों और मठों को कोई भी यात्री दो दिनों में देख सके. इसीलिए समय का विशेष ध्यान रखते हुए सबसे पहले हमलोग जानकी घाट एरिया में स्थित मंदिरों के अवलोकन को चले. वैसे तो इस इलाके में भी सैकड़ों मंदिर होंगे. किन्तु उनमें से मुख्यतः मणिराम की छावनी, इचाक मंदिर, चारधाम मंदिर वाल्मीकि रामायण मंदिर इत्यादि हैं.
उन दिनों इचाक मंदिर का पुनर्निर्माण का कार्य चल रहा था. साथ ही एक भव्य एवं वृहत “रामार्चा भवन” का निर्माण कार्य भी चल रहा था. शायद अगले एक-दो वर्षों में ये निर्माण कार्य पूरे कर लिए जाएँ. “मणिराम की छावनी” का परिसर विशाल था. परकोटे के दालान लोहे के सींकचों से घिरी हुईं थीं. प्रत्येक दालान में कई प्रकार के साधुओं के टहरने की व्यवस्था थी. लोहे की सींकचे शायद बंदरों के उत्पात से बचने के लिए लगाई गईं थीं. यह मंदिर प्रातः ०६.३० बजे से मध्यान्ह तक और दोपहर ०४.०० बजे से रात्रि ९.०० बजे तक खुलता है. यहाँ श्री राम दरबार का विग्रह स्थापित है. कई शालिग्राम और बालरूप में भगवान् भी स्थापित हैं. सफ़ेद-काले चौकोर टाइल्स लगे बरामदे में उस समय वहाँ के कुछ पुजारिओं के बीच कोई छोटी-सी मंत्रणा चल रही थी, जिसमें सभी व्यस्त मालूम पड़ते थे. सारा परिसर प्रशासन के द्वारा एक विशेष सुरक्षा-प्रबंध के अंतर्गत था. हमलोग थोड़ी देर वहाँ ठहरे, प्रसाद लिया और फिर अगले पड़ाव के लिए चल पड़े.

मणि राम की छावनी का एक दृश्य

हमारा अगला पड़ाव मणिराम की छावनी के ठीक सामने स्थित “वाल्मीकीय रामायण भवन” था. इसका शुभारम्भ सन १९६५ में मणिराम राम की छावनी के तत्कालीन महंत नृत्यगोपाल दास जी के द्वारा किया गया था. संगमरमर की बाहरी दीवारों से बनी यह ईमारत भव्य है. इसका सभा मंडप विशाल है. सभा मंडप के अंतिम छोर पर लव-कुश की प्रतिमा है, जो अपने गुरु वाल्मीकिजी के साथ विराजमान हैं. इस सभामंडप की भीतरी दीवारें ही इस भवन के नामकरण का कारण हैं. इन भीतरी दीवारों पर संस्कृत में सम्पूर्ण वाल्मीकि रामायण लिखी हुई है. इसे देख कर मन में थोड़ा आश्चर्य जरूर होता है. संभवतः इस सभामंडप का उपयोग विशेष उपलक्षों पर श्रद्धालुओं के बैठने के लिए किया जाता हो. वाल्मीकि रामायण मंदिर के परिसर के भीतर एक अष्टकोणीय हनुमान मंदिर भी है. यह मंदिर बिंदु सरोवर नामक एक जलकुण्ड के ऊपर निर्मित है.

वाल्मीकीय रामायण भवन का एक दृश्य

तत्पश्चात जानकी घाट स्थित इन मुख्य मंदिरों को देखने के बाद हमारी माताजी की इच्छा “हनुमान वाटिका” नामक मंदिर पर जाने की हुई. यहाँ हनुमान जी अपने मुकुट-धारी रूप से विराजमान हैं. तब जानकीघाट से एक बैटरी-चालित रिक्शा पर सवार हो कर हमलोग हनुमान वाटिका आ गए. अयोध्या में नागरीय यातायात के लिए रिक्शा एक सुगम अवं सुलभ साधन है. १० रुपये प्रत्येक सवारी के मद से चलने वाले बैटरी-रिक्शे बहुतायत से उपयोग में लाये जा रहे थे. वैसे हनुमान वाटिका पर ज्यादा समय नहीं लगा. इस इलाके में अवस्थित कुछ अन्य मंदिरों का दर्शन करने के बाद भी दिन का बड़ा समय शेष था और हमलोग अयोध्या के कुछ अन्य स्थान भी जा सकते थे.

हनुमान वाटिका का एक दृश्य

मेरी माता जी तो अयोध्या पहले भी गयीं थीं, पर अबतक उन्हें “मणि पर्वत” का दर्शन नहीं हुआ था. वे पर्वत के नाम से घबराती थीं, मन में ऊँचाईयों से भय भी घर कर चुका था. उनके मन में यह शंका थी कि वृद्धावस्था में पर्वत पर कैसे चढ़ेंगी. इधर मेरी सोच बिलकुल भिन्न थी. इसीलिए एक ऑटोरिक्शा से पूरे रास्ते उनकी हिम्मत बढ़ाते हुए उन्हें मणि पर्वत के तलहटी पर ले गया. वहाँ देख कर पता चला कि वह पर्वत तो बिलकुल छोटा-सा (नन्हा-सा) है. फिर क्या था? माताजी को तो पर्वत की ऊँचाई के बारे में कुछ नहीं कहा. किन्तु तलहटी पर बैठे एक विक्रेता से मैंने कुछ प्रसाद ख़रीदे और माताजी को ले कर नन्हे-से मणि पर्वत के रास्ते चल पड़ा. बहुत-ही धीरे-धीरे संयत क़दमों से पग-पग कर चलते हुए आखिरकार माता जी मणि-पर्वत पर चढ़ गईं.

मणि पर्वत की तलहटी

शायद उस नन्हे से टीले को वे कोई बड़ा पर्वत ही समझ रहीं थीं और बड़ी खुश हुईं. टीले के ऊपर भी एक मंदिर है, जिसमें सीता-राम का नयनाभिराम विग्रह है. मणि पर्वत के बारे में जनश्रुति है कि हिमालय से संजीवनी बूटी ले कर लंका जाते हुए हनुमान जी ने पर्वत-खंड को रख कर यहाँ विश्राम किया था. अन्य लोकोक्ति यह कहती है कि राम विवाह में राजा जनक जी ने इतने आभूषण इत्यादि दिए थे कि अयोध्या लाने पर उनका एक पर्वत बन गया, जिसे मणि पर्वत कहते हैं. मणि पर्वत से नीचे उतर कर मैंने महसूस किया कि माताजी के मन में पर्वत चढ़ने से थोड़ी थकान छाई हुई है. शायद जिसे मैं नन्हा-सा टीला समझ रहा था, वह उनके लिए किसी पर्वत से कम नहीं था. वैसे बात भी सही थी. अगर वह टीला होता तो उसका नाम मणि टीला रखा जाता. वह सचमुच का पर्वत प्रतीत होता था, तभी तो उसका नाम मणि पर्वत पड़ा था. ऐसा मान कर मैं उन्हें वापस उनके कमरे में ले आया, जिसके वातानुकूलित वातावरण में एक पर्वत-फ़तह कर पाने की सुख-निद्रा में वह सो गयीं. तत्पश्चात दोपहर ढलने के बाद, अयोध्या दर्शन का कार्य हनुमान गढ़ी से पुनः शुरू हुआ.

मणि पर्वत का विग्रह

“हनुमान गढ़ी” अयोध्या के प्रमुख मंदिरों में से एक है. अयोध्या नगरी में आने वाला कोई भी यात्री उन मंदिरों या स्थलों की यात्रा करे अथवा ना करे , जिनका जिक्र मैंने अबतक के संस्मरण में किया है. परन्तु, विरला ही कोई अलबेला यात्री होगा, जिसने अयोध्या पधार कर भी हनुमान गढ़ी की यात्रा ना की हो. यह मंदिर अयोध्या नगर के मुख्य भाग मे स्थित है. जैसे-जैसे आप इस मंदिर के नजदीक आते जाते हैं, वैसे –वैसे बेसन के लड्डुओं की दुकानें बढ़तीं जातीं हैं. ऐसी मान्यता है कि बेसन के लड्डू श्री हनुमान जी का प्रिय नैवेद्य है. इस मंदिर की बनावट किलेनुमा है. मंदिर भी ऊँचाई पर बना है. मंदिर में प्रवेश करने के लिए सीढ़ियों के मार्ग से जाना पड़ता है. मंदिर की दीवारें थोड़ी कलात्मक है. कंगूरें और दरवाज़े भी नक्काशीदार हैं. इस मंदिर का शिखर अयोध्या – नगर के आकाश में उन्नत-सा प्रतीत होता है.

हनुमान गढ़ी का एक दृश्य

हमारे वहाँ पहुँचने पर मंदिर के नीचे ही वहाँ के स्थानीय कई छोटे-छोटे लड़के सहसा ही हमसे मिलने आ गए. उन्होंने मात्र १० रुपये की फ़ीस पर अयोध्या दर्शन कराने का आग्रह प्रस्तुत किया. अब इस बात में पड़ना क्यों है कि इस प्रथा पर नियंत्रण लगना चाहिए अथवा नहीं? परन्तु उत्सुकतावश हमने एक लड़के का आग्रह स्वीकार कर लिया. जैसा अक्सर होता है कि विक्रेता के विचार और सर्विस देने वाले के विचार एक से नहीं होते. उसी प्रकार जब विक्रेता और सर्विस देनेवाला एक ही व्यक्ति हो, तो आर्डर मिलने के बाद होने वाला विचार परिवर्तन स्वाभाविक था. खैर, जबतक हमलोग हनुमान गढ़ी के दर्शन करके वापस आये तब तक वह लड़का तो नीचे ही खड़ा रहा. इधर एक-एक सीढ़ी धीरे-धीरे चढ़ कर माता जी के साथ हनुमान गढ़ी मंदिर पहुँचा. संध्या में वैसे बहुत भीड़ रहती है. परन्तु उस दिन हमलोगों को अनुपम दर्शन हुआ.

श्री राम जी की राजगद्दी का एक दृश्य

दर्शन करके लौटने पर उस लड़के के साथ अपने अगले पड़ाव “श्री राम जी की राजगद्दी” तक पहुँचे. वहाँ “सीताजी की रसोई” भी थी. उस स्थान के पुजारियों ने ऐसा बताया कि यदि कभी अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण होगा तो उसमें स्थापित होने वाला विग्रह वहीँ से जायेगा. इस स्थान हमलोग कुछ देर तक बैठ गए. अचानक एक पुजारी ने मेरा हाथ देखना शुरू कर दिया. अब उनकी भविष्यवानियाँ तो स्मरण नहीं. पर उस दिन हाथ देखने के एवज में कुछ दान-पुण्य जरूर करना पड़ा था. खैर, जिसकी राशि उसी को मुबारक. राजगद्दी के बाद उस लड़के ने “कनक भवन” ले जाने का वादा किया था, जो उसने बीच में ही छोड़ दिया. शायद वह हमलोगों में अपनी दिलचस्पी खो चुका था.

अब “कनक भवन” से आगे की कहानी अगले भाग में……

अयोध्या नगरी – प्रथम भाग was last modified: October 26th, 2022 by Uday Baxi
Exit mobile version