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पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- छठा दिन (खाती-सूपी-बागेश्वर-अल्मोडा)

6 अक्टूबर 2011, आज हमें खाती से वापस चल देना था। जो कार्यक्रम दिल्ली से चलते समय बनाया था, हम ठीक उसी के अनुसार चल रहे थे। आज हमें खाती में ही होना चाहिये था और हम खाती में थे। यहां से वापस जाने के लिये परम्परागत रास्ता तो धाकुडी, लोहारखेत से होकर जाता है। एक रास्ता पिण्डर नदी के साथ साथ भी जाता है। नदी के साथ साथ चलते जाओ, कम से कम सौ किलोमीटर चलने के बाद हम गढवाल की सीमा पर बसे ग्वालदम कस्बे में पहुंच जायेंगे। एक तीसरा रास्ता भी है जो सूपी होकर जाता है। सूपी से सौंग जाना पडेगा, जहां से बागेश्वर की गाडियां मिल जाती हैं।



नवम्बर की खूबसूरती





पीछे वाला बंगाली है और आगे उसका गाइड देवा। देवा हमारे भी बहुत काम आया। लेकिन देवा का इरादा परम्परागत रास्ते धाकुडी से जाने का था |



परसों जब हम पिण्डारी जा रहे थे, तभी से मौसम खराब होने लगा था, आज भी मौसम ठीक नहीं हुआ है।


मुझे पहले से ही सूपी वाले रास्ते की जानकारी थी। असल में यात्रा पर निकलने से पहले मैंने इस इलाके का गूगल अर्थ की सहायता से गहन अध्ययन किया था। पता चला कि सरयू नदी और पिण्डर नदी के बीच में एक काफी ऊंची पर्वतमाला निकलकर चली जाती है। यह सरयू अयोध्या वाली सरयू नहीं है। सौंग सरयू नदी के किनारे बसा है जबकि खाती पिण्डर किनारे। सौंग से जब खाती जायेंगे तो हर हाल में इस पर्वतमाला को पार करना ही पडेगा। धाकुडी में इसकी ऊंचाई सबसे कम है तो परम्परागत रास्ता धाकुडी से ही बन गया है। साथ ही यह भी देखा कि सौंग से आगे सरयू किनारे एक गांव और है- सूपी। सूपी और खाती बिल्कुल पास-पास ही हैं। फरक इस बात से पड जाता है कि दोनों के बीच में दस हजार फीट ऊंची वही पर्वतमाला है। यही से मैंने अन्दाजा लगा लिया था कि खाती से सूपी जाने के लिये जरूर कोई ना कोई पगडण्डी तो होगी ही। और इसी आधार पर तय भी कर लिया था कि खाती से धाकुडी-लोहारखेत जाने की बजाय सूपी से निकलेंगे।



खाती से सूपी के रास्ते पर



पिछले चार दिनों से मैं इसी खाती-सूपी वाले रास्ते की जानकारी जुटाने में लगा था और अपेक्षा से ज्यादा सफलता भी मिल रही थी। सफलता मिल रही हो तो इंसान आगे क्यों ना बढे। सुबह खा-पीकर हमने भी सूपी वाला रास्ता पकड लिया। हालांकि मैं और अतुल तो एक ही पलडे के बाट थे, जबकि हल्दीराम का झुकाव दूसरे पलडे यानी बंगाली की ओर था। बंगाली एक गाइड देवा के साथ था। देवा ने इस सूपी वाले रास्ते से जाने से मना कर दिया। देवा की मनाही और हमारे जबरदस्त समर्थन के कारण हल्दीराम बीच में फंस गया कि जाट के साथ चले या बंगाली के। आखिरकार बंगाली भी हमारी ओर ही आ गया जब उसने कहा कि इस बार कुछ नया हो जाये। धाकुडी वाले पुराने रास्ते के मुकाबले सूपी वाला रास्ता नया ही कहा जायेगा। देवा को मानना पडा।



खाती से सूपी। हालांकि आधा रास्ता चढाई भरा है लेकिन जंगल की खूबसूरती से होकर जाता है।


अब यह बताने की तो जरुरत ही नहीं है कि खाती से निकलते ही सीधी चढाई शुरू हो गई। चोटी तक कंक्रीट की पक्की बढिया पगडण्डी बनी हुई है। पूरा रास्ता जंगल से होकर है। चोटी पर एक छोटा सा मन्दिर बना हुआ है। अब सामने बहुत दूर नीचे सरयू नदी दिख रही थी और पीछे पिण्डर नदी। वही नजारा था जो चार दिन पहले हमने धाकुडी में देखा था। अब देवा हमारे काम आया। देवा ना होता तो हम इसी कंक्रीट की पगडण्डी से उतरते जाते जोकि काफी टाइम बाद हमें सूपी पहुंचाती। यहां देवा ने एक शॉर्टकट बताया जिससे हम बडी जल्दी नीचे उतरकर सूपी जा पहुंचे।


खाती से सूपी टॉप तक कंक्रीट की पतली पगडण्डी है, इसलिये रास्ता नहीं भटक सकते।



सूपी टॉप से नीचे उतरना भी कम रोमांचक नहीं है। यह नीचे उतरते समय पीछे मुडकर खींचा गया फोटो है।

खाती से सूपी टॉप तक कंक्रीट की पतली पगडण्डी है, इसलिये रास्ता नहीं भटक सकते। हालांकि पहाडों पर पगडण्डियां ही खुद शॉर्टकट होती हैं और अगर पगडण्डी का भी शॉर्टकट बनाया जाये तो सोचो कि कैसा रास्ता होगा। कभी कभी तो लगता कि अगर जरा सा पैर फिसल गया तो हजारों फीट तक बेधडक गिरते चले जायेंगे, ऊपर से आने वालों को कहीं कपाल मिलेगा, तो कहीं लीवर। मैं तो सोच रहा हूं कि जो कोई इस रास्ते से ऊपर जाते हैं, उन पर क्या बीतती होगी।



यहां पहुंचकर लगने लगता है कि सूपी टॉप नजदीक ही है, इसके बाद सूपी गांव तक नीचे ही उतरना है।



सूपी गांव सरयू नदी की घाटी में बसा है। यहां से सरयू बडी खूबसूरत दिखती है। हालांकि इस फोटू में नहीं दिखाई दे रही है।



सूपी गांव

सूपी पहुंचे। यहां से तीन किलोमीटर आगे एक गांव और है, नाम ध्यान से उतर गया है, वहां तक जीपें आती हैं। जब उतरते उतरते सडक पर पहुंच गये, तब ध्यान आया कि हां इस दुनिया में गाडियां भी चलती हैं। फिर तो एक जीप पकडकर सौंग, भराडी और बागेश्वर तक पहुंचना बडा आसान काम था। एक बात और रह गई कि भराडी में जब हम जीपों की अदला बदली कर रहे थे, तो एक जीप में चार सवारियों की सीटें खाली थी और हम थे भी चार। अतुल को सबसे आगे की सीट मिल गई, मुझे सबसे पीछे की। हालांकि मैं जीप में पीछे वाली सीटों पर बैठना पसन्द नहीं करता लेकिन फिर भी बैठ गया। हल्दीराम और उसका पॉर्टर प्रताप भी बैठ सकते थे लेकिन हल्दीराम यही पर घुमक्कडी का एक जरूरी सबक भूल गया। बोला कि जब मैं पूरे पैसे दूंगा तो अपनी पसन्द की सीट पर बैठकर जाऊंगा ना कि पीछे वाली पर। और हल्दीराम को यही पर अलविदा कहकर हम चल पडे।



अगर कहीं हिमालय में रास्ता गांवों से गुजरता है तो ऐसी पगडण्डियां मिलती ही रहती हैं |



दाहिने वाला गाइड देवा और बायें उसका भी गाइड जाटराम। बागेश्वर जाने के लिये जीप के इंतजार में।

बागेश्वर पहुंचे। आज दशहरा था। बागेश्वर के बागनाथ मन्दिर में मेला लगा था। हमें आज पांच दिन हो गये थे नहाये हुए। चेहरे धूल और मैल से बिगड गये थे। हम मेले में नहीं गये। अल्मोडा की एक जीप खडी थी, जा बैठे। जीप में बैठने वाली हम पहली सवारी थे तो पक्का था कि तब तक शायद हल्दीराम भी आ जाये। और जीप भरने तक वो आ भी गया। फिर से तीनों साथ हो गये।

नौ बजे के करीब अल्मोडा पहुंचे। अल्मोडा का दशहरा भी प्रसिद्ध है। पूरा शहर जगा हुआ था। एक कमरा लेकर उसमें सामान पटककर, खाना खाकर मैं और अतुल मेला देखने स्टेडियम चले गये जबकि हल्दी नहीं गया। थोडी देर मेले का आनन्द लिया और वापस आ गये।



ऊपरी सरयू घाटी



सूपी में चावल के खेत की मेंड पर बैठा अतुल

आज हमारी पिण्डारी यात्रा का कथित रूप से समापन हो गया। छह दिन में यात्रा पूरी हो गई। अगले दिन हल्दीराम वापस हल्द्वानी चला गया। हालांकि हमने दो दिन और लगाये इधर-उधर घूमने में।

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- छठा दिन (खाती-सूपी-बागेश्वर-अल्मोडा) was last modified: June 18th, 2024 by Neeraj Jat
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