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घुमक्कड़ की दिल्ली : हवेली मिर्ज़ा ग़ालिब

हिंदुस्तान के मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम किसी तारीफ़ का मोहताज़ नहीं है. किसी भी शख्श ने गर शायरी का नाम सुना है तो मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम भी ज़रूर ही सुना होगा, जिनको उनके चाहने वाले उनको उनके तखल्लुस (pen-name) ‘ग़ालिब’ कहकर भी याद करते हैं. ग़ालिब का असल नाम “मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान” है. ग़ालिब को शादी-शुदा ज़िन्दगी से खास सुकून नहीं मिला, उनके बच्चे भी छोटी उम्र में ही उनकी ज़िन्दगी से रुखसत हो गए. अपनी ज़िन्दगी के रंज-ओ-ग़म को सीने में समेटे इस शायर ने अपने सुनने वालों के दिलों में सुकून ज़रूर भर दिया. इस उदासी और मायूसी को उनकी कुछ शायरी में महसूस किया जा सकता है.

मरते हैं आरज़ू में मरने की, मौत आती है पर नहीं आती.

ब्रिटिश हुकूमत के हिंदुस्तान में इस मशहूर शायर ने उर्दू और पारसी ज़ुबान में अनगिनत शेर और ग़ज़लों का तोहफा अपने चाहने वालों को दिया है. ग़ालिब के ज़िन्दगी से रू-ब-रू कराती बहुत सी फ़िल्में और नाटक हिंदी, उर्दू और पारसी में बने है. उनकी ग़ज़लों को आज-तक लोग अपने अपने अंदाज़ में तरह-तरह से बयां करते हैं. इस बात में कोई दो-राय नहीं है की ग़ालिब अपने वक़्त के चुनिंदा उम्दा शायरों में से एक थे और उनका अंदाज़-ए-बयां कुछ और ही था.

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर (poet) बोहोत अच्छे, कहते हैं की ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयां और.

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हिंदुस्तान में मुग़ल सल्तनत के आखिरी महान शायर ग़ालिब का जन्म उत्तर प्रदेश के आगरा में 27 दिसंबर, 1797 को हुआ. अपनी शादी के बाद ग़ालिब आगरा से दिल्ली चले आये. दिल्ली में अनेक ठिकानों पर बसर करने के बाद ग़ालिब ने जिस हवेली को लम्बे अरसे के लिए अपना आशियाँ बनाया वो आज ग़ालिब की हवेली के नाम से मशहूर है. इस हवेली में रहते हुए उन्होंने शेरो-शायरी के अनगिनत नायाब नगीने शायरी की चादर में जड़े. अपनी ज़िन्दगी के आखिरी लम्हे ग़ालिब ने इसी हवेली में बिताये. अपनी ज़िन्दगी के साथ ही अपने ग़मों से निजात पाते हुए 15 फरवरी, 1869 को उनका इंतकाल इसी हवेली में हुआ.

“क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म असल में दोनों एक हैं मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों.”

“हुई मुद्दत के ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है वो हर एक बात पे कहना के यूं होता तो क्या होता.”

गूगल पर काफी मशक्कत के बाद हवेली के बारे में जो मालूमात हासिल हुए उनके मुताबिक़, 1869 में ग़ालिब के इंतकाल के बाद हवेली के मालिक हाकिम शरीफ, जिन्होंने ग़ालिब को यह हवेली रहने के लिए दी थी, ग़ालिब की मौत से उदास और मायूस होकर रोज़ शाम को यहाँ बैठकर घंटों बिताया करते थे. उनका रोज़ यहाँ आने का मकसद ये भी था की कोई ग़ालिब की यादों से जुड़े इस नायाब दर-ओ-दीवार पर कब्ज़ा न जमा ले. उसके बाद से इस हवेली ने बहुत से नाजायज़ कब्जों से अपने असल वज़ूद को खो दिया. और असल मालिकाना हक़ किसी के पास न होने से इसके हालात बद-से-बदतर होते चले गये. और अपने ज़माने के मशहूर शायर का ये पता गुमनामी के दलदल में धंसता चला गया. ये हवेली अपने हालात पर यूँ ही चुप-चाप मन मसोस कर ज़माने की बेरुखी को झेलती रही. कुछ कहे भी तो किस से और कौन है जो सुनेगा!

मुद्दतें हो गयी चुप रहते-रहते.. कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते…..!

ग़ालिब के रहते इस हवेली की असल पैमाइश तकरीबन 400 स्क्वायर यार्ड्स (square yards) थी. नाजायज कब्जों की वजह से इस हवेली के अंदर और चारों ओर दुकानों और दूसरे कारोबारी इस्तेमाल के चलते हवेली ने अपना वज़ूद लगभग खो-सा दिया. साल 1999 में दिल्ली सरकार ने इस हवेली के कुछ हिस्से को नाज़ायज़ कब्जों से छुड़ाकर इसे फिर से पुराने रंग-रूप में लाने की कोशिश की. और इस तरह ग़ालिब की हवेली “ग़ालिब स्मारक” के तौर पर वज़ूद में आयी.

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पुरानी दिल्ली के मशहूर चांदनी चौक की पेचीदा गलियों से गुज़रते हुए बल्लीमारान के कोने में बसी है ‘गली क़ासिम जान’ जो की ग़ालिब की हवेली का पता है. आज के नये ज़माने की पीछे भागती चकाचौंध दिल्ली की इस गली में घुसते ही पुरानी दिल्ली की कुछ यादें दिलो-दिमाग में उछल-कूद करने लगती हैं. मशहूर शायर “गुलज़ार” ने ग़ालिब के इस घर का पता कुछ इस अंदाज़ में बयां किया है:

बल्लीमारान के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां
सामने टाल के नुक्कड़ पर बटेरों के कसीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद , वो वाह वाह
चंद दरवाज़ों पर लटके हुए बोशीदा से कुछ टाट के परदे 
एक बकरी के मिमयाने की आवाज़
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे ऐसे दीवारों से मुहँ जोड़ के चलते हैं यहाँ 
चूड़ीवालां के कटड़े की बड़ी बी जैसे अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले 
इसी बेनूर अँधेरी सी गली कासिम से एक तरतीब चरागों की शुरू होती है
एक कुराने सुखन का सफा खुलता है 
असदल्ला खां ग़ालिब का पता मिलता है |

नाजायज कब्जों को हटा कर हवेली का जितने हिस्से पर सरकार ने कब्ज़ा किया उसे मुग़लकालीन पुराने रंग-ढंग में लाने के लिए मरम्मत का काम शुरू किया गया. खास पहचान देने के लिए हवेली को सँवारने में मुग़ल लखोरी ब्रिक्स, सैंडस्टोन और बड़े लकड़ी के दरवाज़े का इस्तेमाल किया गया जिससे 19वीं सदी की इमारत की झलक मिल सके.

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भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग (Archaeological Survey of India) ने इस हवेली की अच्छे से देखभाल के लिए इस ईमारत का ऐलान विरासत के तौर पर किया है.

लकड़ी के बड़े दरवाजे से अंदर घुसने के बाद सीधे हाथ के और बने कमरे में ग़ालिब के संगेमरमर के बुत को उनकी किताबों के साथ बड़े करीने से रखा गया है.

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कमरे की दीवारों पर ग़ालिब और उनकी बेगम के कपड़ों को शीशे के फ्रेम में लगा के रखा गया है. साथ ही कुछ लफ्जों में उनका ज़िंदगीनाम लिखा हुआ है.

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इस कमरे से बाहर आकर छोटे गलियारे से होते हुए हवेली के बरामदे में जाने पर दीवार पर देखने वालों को अपने और खीचने वाली ग़ालिब की आदमकद पेंटिंग है जिसमे ग़ालिब हाथ में हुक्के की नाली पकड़े हुए फुर्सत के लम्हों में आराम फरमा रहे है.

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ग़ालिब की ज़िन्दगी से जुडी और भी बहुत-सी चीजों को संजों कर यहाँ रखा गया है. जिसमें ग़ालिब के हाथों लिखी कुछ ग़ज़लें और चुनिंदा शायरी को भी शुमार किया गया है. कुछ पुरानी फोटो और उस वक़्त में इस्तेमाल होने वाले बर्तनों को यहाँ रखा गया है. उस वक़्त में खेले जाने वाले खेल चौसर, शतरंज वगैरह को सहेज कर रखा गया है.

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27 दिसंबर को हर साल ग़ालिब के जन्मदिन के मौके पर इस शायर की याद में हवेली को खास रूप से सजाया जाता है. रोशन शमाओं के साथ मुशायरे में दूर-दराज़ के शायरों और शायरी के शौकीनों का जमावड़ा लगता है. हवेली की रंगीनियत का लुत्फ़ लेने व शायर को अपनी यादों में ज़िंदा रखने के लिए काफी तादात में लोग इस दिन यहाँ जमा होते है.

हवेली सुबह 11 बजे से शाम 6 बजे तक सभी के लिए खुली हुई है. सोमवार और दूसरे सरकारी छुट्टी के दिन हवेली बंद रहती है. हवेली देखने और फोटोग्राफी के लिए कोई टिकट नहीं है. हवेली से सबसे नजदीकी मेट्रो स्टेशन चावड़ी बाज़ार है जहाँ से 10 -15 मिनट पैदल चलकर हवेली तक पहुंचा जा सकता है. कुल आधे से एक घंटे में हवेली को अच्छे से देखा जा सकता है.

शायर, शायरी में दिलचस्पी रखने वालों को दिल्ली के पुराने वजूद की महक पाने के लिए एक बार ज़रूर इस हवेली को देखने के लिए वक़्त निकालना चाहिए.

घुमक्कड़ की दिल्ली : हवेली मिर्ज़ा ग़ालिब was last modified: January 18th, 2022 by MUNESH MISHRA
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