हिंदà¥à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤¨ के मशहूर शायर मिरà¥à¥›à¤¾ ग़ालिब का नाम किसी तारीफ़ का मोहताज़ नहीं है. किसी à¤à¥€ शखà¥à¤¶ ने गर शायरी का नाम सà¥à¤¨à¤¾ है तो मिरà¥à¥›à¤¾ ग़ालिब का नाम à¤à¥€ ज़रूर ही सà¥à¤¨à¤¾ होगा, जिनको उनके चाहने वाले उनको उनके तखलà¥à¤²à¥à¤¸ (pen-name) ‘ग़ालिब’ कहकर à¤à¥€ याद करते हैं. ग़ालिब का असल नाम “मिरà¥à¥›à¤¾ असदà¥à¤²à¥à¤²à¤¾à¤¹ बेग खान” है. ग़ालिब को शादी-शà¥à¤¦à¤¾ ज़िनà¥à¤¦à¤—ी से खास सà¥à¤•ून नहीं मिला, उनके बचà¥à¤šà¥‡ à¤à¥€ छोटी उमà¥à¤° में ही उनकी ज़िनà¥à¤¦à¤—ी से रà¥à¤–सत हो गà¤. अपनी ज़िनà¥à¤¦à¤—ी के रंज-ओ-ग़म को सीने में समेटे इस शायर ने अपने सà¥à¤¨à¤¨à¥‡ वालों के दिलों में सà¥à¤•ून ज़रूर à¤à¤° दिया. इस उदासी और मायूसी को उनकी कà¥à¤› शायरी में महसूस किया जा सकता है.
मरते हैं आरज़ू में मरने की, मौत आती है पर नहीं आती.
बà¥à¤°à¤¿à¤Ÿà¤¿à¤¶ हà¥à¤•ूमत के हिंदà¥à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤¨ में इस मशहूर शायर ने उरà¥à¤¦à¥‚ और पारसी ज़à¥à¤¬à¤¾à¤¨ में अनगिनत शेर और ग़ज़लों का तोहफा अपने चाहने वालों को दिया है. ग़ालिब के ज़िनà¥à¤¦à¤—ी से रू-ब-रू कराती बहà¥à¤¤ सी फ़िलà¥à¤®à¥‡à¤‚ और नाटक हिंदी, उरà¥à¤¦à¥‚ और पारसी में बने है. उनकी ग़ज़लों को आज-तक लोग अपने अपने अंदाज़ में तरह-तरह से बयां करते हैं. इस बात में कोई दो-राय नहीं है की ग़ालिब अपने वक़à¥à¤¤ के चà¥à¤¨à¤¿à¤‚दा उमà¥à¤¦à¤¾ शायरों में से à¤à¤• थे और उनका अंदाज़-à¤-बयां कà¥à¤› और ही था.
हैं और à¤à¥€ दà¥à¤¨à¤¿à¤¯à¤¾ में सà¥à¥™à¤¨à¤µà¤° (poet) बोहोत अचà¥à¤›à¥‡, कहते हैं की ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-à¤-बयां और.
हिंदà¥à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤¨ में मà¥à¥šà¤² सलà¥à¤¤à¤¨à¤¤ के आखिरी महान शायर ग़ालिब का जनà¥à¤® उतà¥à¤¤à¤° पà¥à¤°à¤¦à¥‡à¤¶ के आगरा में 27 दिसंबर, 1797 को हà¥à¤†. अपनी शादी के बाद ग़ालिब आगरा से दिलà¥à¤²à¥€ चले आये. दिलà¥à¤²à¥€ में अनेक ठिकानों पर बसर करने के बाद ग़ालिब ने जिस हवेली को लमà¥à¤¬à¥‡ अरसे के लिठअपना आशियाठबनाया वो आज ग़ालिब की हवेली के नाम से मशहूर है. इस हवेली में रहते हà¥à¤ उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने शेरो-शायरी के अनगिनत नायाब नगीने शायरी की चादर में जड़े. अपनी ज़िनà¥à¤¦à¤—ी के आखिरी लमà¥à¤¹à¥‡ ग़ालिब ने इसी हवेली में बिताये. अपनी ज़िनà¥à¤¦à¤—ी के साथ ही अपने ग़मों से निजात पाते हà¥à¤ 15 फरवरी, 1869 को उनका इंतकाल इसी हवेली में हà¥à¤†.
“क़ैद-à¤-हयात ओ बंद-à¤-ग़म असल में दोनों à¤à¤• हैं मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये कà¥à¤¯à¥‹à¤‚.”
“हà¥à¤ˆ मà¥à¤¦à¥à¤¦à¤¤ के ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है वो हर à¤à¤• बात पे कहना के यूं होता तो कà¥à¤¯à¤¾ होता.”
गूगल पर काफी मशकà¥à¤•त के बाद हवेली के बारे में जो मालूमात हासिल हà¥à¤ उनके मà¥à¤¤à¤¾à¤¬à¤¿à¥˜, 1869 में ग़ालिब के इंतकाल के बाद हवेली के मालिक हाकिम शरीफ, जिनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने ग़ालिब को यह हवेली रहने के लिठदी थी, ग़ालिब की मौत से उदास और मायूस होकर रोज़ शाम को यहाठबैठकर घंटों बिताया करते थे. उनका रोज़ यहाठआने का मकसद ये à¤à¥€ था की कोई ग़ालिब की यादों से जà¥à¥œà¥‡ इस नायाब दर-ओ-दीवार पर कबà¥à¥›à¤¾ न जमा ले. उसके बाद से इस हवेली ने बहà¥à¤¤ से नाजायज़ कबà¥à¤œà¥‹à¤‚ से अपने असल वज़ूद को खो दिया. और असल मालिकाना हक़ किसी के पास न होने से इसके हालात बद-से-बदतर होते चले गये. और अपने ज़माने के मशहूर शायर का ये पता गà¥à¤®à¤¨à¤¾à¤®à¥€ के दलदल में धंसता चला गया. ये हवेली अपने हालात पर यूठही चà¥à¤ª-चाप मन मसोस कर ज़माने की बेरà¥à¤–ी को à¤à¥‡à¤²à¤¤à¥€ रही. कà¥à¤› कहे à¤à¥€ तो किस से और कौन है जो सà¥à¤¨à¥‡à¤—ा!
मà¥à¤¦à¥à¤¦à¤¤à¥‡à¤‚ हो गयी चà¥à¤ª रहते-रहते.. कोई सà¥à¤¨à¤¤à¤¾ तो हम à¤à¥€ कà¥à¤› कहते…..!
ग़ालिब के रहते इस हवेली की असल पैमाइश तकरीबन 400 सà¥à¤•à¥à¤µà¤¾à¤¯à¤° यारà¥à¤¡à¥à¤¸ (square yards) थी. नाजायज कबà¥à¤œà¥‹à¤‚ की वजह से इस हवेली के अंदर और चारों ओर दà¥à¤•ानों और दूसरे कारोबारी इसà¥à¤¤à¥‡à¤®à¤¾à¤² के चलते हवेली ने अपना वज़ूद लगà¤à¤— खो-सा दिया. साल 1999 में दिलà¥à¤²à¥€ सरकार ने इस हवेली के कà¥à¤› हिसà¥à¤¸à¥‡ को नाज़ायज़ कबà¥à¤œà¥‹à¤‚ से छà¥à¥œà¤¾à¤•र इसे फिर से पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥‡ रंग-रूप में लाने की कोशिश की. और इस तरह ग़ालिब की हवेली “ग़ालिब सà¥à¤®à¤¾à¤°à¤•” के तौर पर वज़ूद में आयी.
पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥€ दिलà¥à¤²à¥€ के मशहूर चांदनी चौक की पेचीदा गलियों से गà¥à¥›à¤°à¤¤à¥‡ हà¥à¤ बलà¥à¤²à¥€à¤®à¤¾à¤°à¤¾à¤¨ के कोने में बसी है ‘गली क़ासिम जान’ जो की ग़ालिब की हवेली का पता है. आज के नये ज़माने की पीछे à¤à¤¾à¤—ती चकाचौंध दिलà¥à¤²à¥€ की इस गली में घà¥à¤¸à¤¤à¥‡ ही पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥€ दिलà¥à¤²à¥€ की कà¥à¤› यादें दिलो-दिमाग में उछल-कूद करने लगती हैं. मशहूर शायर “गà¥à¤²à¥›à¤¾à¤°” ने ग़ालिब के इस घर का पता कà¥à¤› इस अंदाज़ में बयां किया है:
बलà¥à¤²à¥€à¤®à¤¾à¤°à¤¾à¤¨ के मोहलà¥à¤²à¥‡ की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां
सामने टाल के नà¥à¤•à¥à¤•ड़ पर बटेरों के कसीदे
गà¥à¤¡à¤¼à¤—à¥à¤¡à¤¼à¤¾à¤¤à¥€ हà¥à¤ˆ पान की पीकों में वो दाद , वो वाह वाह
चंद दरवाज़ों पर लटके हà¥à¤ बोशीदा से कà¥à¤› टाट के परदेÂ
à¤à¤• बकरी के मिमयाने की आवाज़
और धà¥à¤‚धलाई हà¥à¤ˆ शाम के बेनूर अà¤à¤§à¥‡à¤°à¥‡ à¤à¤¸à¥‡ दीवारों से मà¥à¤¹à¤ जोड़ के चलते हैं यहाà¤Â
चूड़ीवालां के कटड़े की बड़ी बी जैसे अपनी बà¥à¤à¤¤à¥€ हà¥à¤ˆ आà¤à¤–ों से दरवाज़े टटोलेÂ
इसी बेनूर अà¤à¤§à¥‡à¤°à¥€ सी गली कासिम से à¤à¤• तरतीब चरागों की शà¥à¤°à¥‚ होती है
à¤à¤• कà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥‡ सà¥à¤–न का सफा खà¥à¤²à¤¤à¤¾ हैÂ
असदलà¥à¤²à¤¾ खां ग़ालिब का पता मिलता है |
नाजायज कबà¥à¤œà¥‹à¤‚ को हटा कर हवेली का जितने हिसà¥à¤¸à¥‡ पर सरकार ने कबà¥à¥›à¤¾ किया उसे मà¥à¥šà¤²à¤•ालीन पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥‡ रंग-ढंग में लाने के लिठमरमà¥à¤®à¤¤ का काम शà¥à¤°à¥‚ किया गया. खास पहचान देने के लिठहवेली को सà¤à¤µà¤¾à¤°à¤¨à¥‡ में मà¥à¥šà¤² लखोरी बà¥à¤°à¤¿à¤•à¥à¤¸, सैंडसà¥à¤Ÿà¥‹à¤¨ और बड़े लकड़ी के दरवाज़े का इसà¥à¤¤à¥‡à¤®à¤¾à¤² किया गया जिससे 19वीं सदी की इमारत की à¤à¤²à¤• मिल सके.
à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ पà¥à¤°à¤¾à¤¤à¤¤à¥à¤¤à¥à¤µ सरà¥à¤µà¥‡à¤•à¥à¤·à¤£ विà¤à¤¾à¤— (Archaeological Survey of India) ने इस हवेली की अचà¥à¤›à¥‡ से देखà¤à¤¾à¤² के लिठइस ईमारत का à¤à¤²à¤¾à¤¨ विरासत के तौर पर किया है.
लकड़ी के बड़े दरवाजे से अंदर घà¥à¤¸à¤¨à¥‡ के बाद सीधे हाथ के और बने कमरे में ग़ालिब के संगेमरमर के बà¥à¤¤ को उनकी किताबों के साथ बड़े करीने से रखा गया है.
कमरे की दीवारों पर ग़ालिब और उनकी बेगम के कपड़ों को शीशे के फà¥à¤°à¥‡à¤® में लगा के रखा गया है. साथ ही कà¥à¤› लफà¥à¤œà¥‹à¤‚ में उनका ज़िंदगीनाम लिखा हà¥à¤† है.
इस कमरे से बाहर आकर छोटे गलियारे से होते हà¥à¤ हवेली के बरामदे में जाने पर दीवार पर देखने वालों को अपने और खीचने वाली ग़ालिब की आदमकद पेंटिंग है जिसमे ग़ालिब हाथ में हà¥à¤•à¥à¤•े की नाली पकड़े हà¥à¤ फà¥à¤°à¥à¤¸à¤¤ के लमà¥à¤¹à¥‹à¤‚ में आराम फरमा रहे है.
ग़ालिब की ज़िनà¥à¤¦à¤—ी से जà¥à¤¡à¥€ और à¤à¥€ बहà¥à¤¤-सी चीजों को संजों कर यहाठरखा गया है. जिसमें ग़ालिब के हाथों लिखी कà¥à¤› ग़ज़लें और चà¥à¤¨à¤¿à¤‚दा शायरी को à¤à¥€ शà¥à¤®à¤¾à¤° किया गया है. कà¥à¤› पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥€ फोटो और उस वक़à¥à¤¤ में इसà¥à¤¤à¥‡à¤®à¤¾à¤² होने वाले बरà¥à¤¤à¤¨à¥‹à¤‚ को यहाठरखा गया है. उस वक़à¥à¤¤ में खेले जाने वाले खेल चौसर, शतरंज वगैरह को सहेज कर रखा गया है.
27 दिसंबर को हर साल ग़ालिब के जनà¥à¤®à¤¦à¤¿à¤¨ के मौके पर इस शायर की याद में हवेली को खास रूप से सजाया जाता है. रोशन शमाओं के साथ मà¥à¤¶à¤¾à¤¯à¤°à¥‡ में दूर-दराज़ के शायरों और शायरी के शौकीनों का जमावड़ा लगता है. हवेली की रंगीनियत का लà¥à¤¤à¥à¥ž लेने व शायर को अपनी यादों में ज़िंदा रखने के लिठकाफी तादात में लोग इस दिन यहाठजमा होते है.
हवेली सà¥à¤¬à¤¹ 11 बजे से शाम 6 बजे तक सà¤à¥€ के लिठखà¥à¤²à¥€ हà¥à¤ˆ है. सोमवार और दूसरे सरकारी छà¥à¤Ÿà¥à¤Ÿà¥€ के दिन हवेली बंद रहती है. हवेली देखने और फोटोगà¥à¤°à¤¾à¤«à¥€ के लिठकोई टिकट नहीं है. हवेली से सबसे नजदीकी मेटà¥à¤°à¥‹ सà¥à¤Ÿà¥‡à¤¶à¤¨ चावड़ी बाज़ार है जहाठसे 10 -15 मिनट पैदल चलकर हवेली तक पहà¥à¤‚चा जा सकता है. कà¥à¤² आधे से à¤à¤• घंटे में हवेली को अचà¥à¤›à¥‡ से देखा जा सकता है.
शायर, शायरी में दिलचसà¥à¤ªà¥€ रखने वालों को दिलà¥à¤²à¥€ के पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥‡ वजूद की महक पाने के लिठà¤à¤• बार ज़रूर इस हवेली को देखने के लिठवक़à¥à¤¤ निकालना चाहिà¤.