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केदारताल यात्रा- वापस दिल्ली के लिए

भाग 4

जिस जगह पर हमने अपने टेंट लगाए थे वहां से केदारताल लगभग तीन सौ मीटर की दूरी पर था और अब साफ़ दिखाई देने लगा था। जब तक हमने खिचड़ी तैयार की तब तक मौसम पूरी तरह साफ़ हो चूका था और धूप निकल आई थी। हमारे बिलकुल सामने थलियासागर और भृगुपंथ अपने पूरे वैभव के साथ खड़े दिखाई देने लगे थे। हमारी दाईं तरफ जोगिन श्रंखला ऐसी लग रही थी की मनो इन पहाड़ों को हम अपने हाथों से छु सकते हों। मैं नीचे उतर के ताल के पास पहुंचा और  पानी को छुआ  तो ताज्जुब हुआ की पानी का तापमान आसपास के तापमान से काफी अधिक था, मनो गुनगुना सा हो। मौसम एक बार फिर करवट लेने लगा और देखते ही देखते फिर से सारी चोटियां बादलों से ढक गई। हमे पहाड़ी चोटिओं की कुछ अच्छी तस्वीरें लेने का मौका ही नहीं मिल पाया।

हम कुछ देर ताल के आस पास चहलकर्मी करने के बाद वापस अपने टेंटों के पास आ गए। टाइम लगभग शाम के चार बज चुके थे और मैं आराम करने अपने टेंट के अंदर चला गया और अपने स्लीपिंग बैग में घुस गया गया। कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। नींद वापस तब खुली जब बहादुर चाय लेकर मेरे टेंट में आया। चाय पीने के बाद जब मैं टेंट से बहार निकला तो करीब शाम के छै बज चुके थे और मौसम एकबार फिर से साफ़ हो चुका था लेकिन चोटियां अभी भी बादलों से ढकी हुई थी। ताल के विपरीत दिशा में देखा तो मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। ढलते हुए सूरज की रौशनी जो बादलों और पहाड़ियों की चोटियों पर पड़ रही थी उसे देख कर ऐसा लग रहा था की आसमान में आग लगी हुई हो या कोई ज्वालामुखी आग उगल रहा हो। ऐसा नज़ारा मैंने जीवन में पहले कभी नहीं देखा था। उसकी विपरीत दिशा में थलिया सागर और भृगुपंथ बादलों से ढके हुए थे लेकिन जोगिन श्रंखला कुछ कुछ नज़र आ रही थी।

चारों तरफ ऐसे नज़ारे थे की मनो हम किसी दूसरी ही दुनियां में पहुँच गए हों। रौशनी धीरे धीरे अब अँधेरे में बदलती जा रही थी और कपिल और बहादुर रात के खाने के इंतज़ाम लगे हुए थे। रात को हमने मैगी खाई और सोने के लिए फिर से अपने अपने टेंटों में  घुस गए। रात को ठण्ड के मारे बीच बीच में कई बार मेरी नींद खुल जाती। एक बार लघु शंका के लिए  टेंट से बहार आया तो फिर से मैं सन्न रह गया। आसमान में देखा तो मानो आसमान ही नहीं था, अनगिनत तारों से पूरा आसमान जगमगा रहा था मनो किसी ने हीरे जवाहरात आसमान में जड़ दिए हों। खैर जैसे तैसे रात कटी और सुबह छै बजे हम सब अपने टेंटों से बहार आ चुके थे। चरों तरफ शानदार नज़ारे थे। आज हमे वापस चलना था और प्लान के मुताबिक आज रात हमे फिर से भोज खड़क में कैंप करना था। हमने चाय के साथ कुछ रस्क और बस्कुट खाये और ठीक आठ बजे भोज खड़क की और चल दिए।

 

Thaliyasagar in the evening

At Kedartal

Kedartal

Kedartal

Jogin group

Jogin group

वापसी में ढलान होने के कारण हमारी स्पीट काफी तेज़ थी और दो घंटे में हम लोग केदार खड़क पहुंच गए। इस समय वहां कोई नहीं था। हमने वहां बैठ कर कुछ देर  आराम किया और फिर भोज खड़क खड़क की ओर बाद चले। रस्ते में हम एक बार फिर उसी जगह पहुँच गए जहाँ भूस्खलन से रास्ता टूट गया था और एक बार फिर से हमे केदार गंगा के ठन्डे पानी में उतर कर आगे बढ़ना था। जाते समय तो हम बिना किसी अप्रिय घटना के वहां से निकल गए थे लेकिन इस बार ऊपर से गिरते हुए पत्थरों  में से एक छोटा सा पत्थर प्रशांत के अगूंठे में लगा जिससे उसे काफी दर्द होने लगा। हम फिर भी शुक्र मना रहे थे बिना किसी बड़ी दुर्घटना के हम उस जगह को पार कर गए। वापसी  में तो मनो हमारे पैरों को पंख लग गए थे।

 हम काफी तेज़ी से आगे बढ़ते जा रहे थे और करीब बारह बजे हम भोज खड़क पहुँच गये। ढलान में तेज़  चलने का अंजाम क्या होता है इस बात से मैं अच्छी तरह वाकिफ़ था लेकिन इस समय अंजाम की चिंता किसे थी। अपनी चाल और समय को देखने के बाद होने फैसला किया की आज भोज खड़क में कैंप ना करके सीधे गंगोत्री ही चला जाये और हम फिर चल पड़े। घुटनों में अब दर्द होना शुरू हो गया था इसलिए चाल भी कुछ धीमी होने लगी थी फिर भी जैसे तैसे हम दोपहर दो बजे गंगोत्री पहुँच ही गए। गंगोत्री पहुँचने के  मुलाक़ात फिर से उन दो बंगाली लड़कियों से हो गई। वो उत्तरकाशी जाने के लिए गाडी का इंतज़ार कर रहे थे। अरे हाँ एक बात तो मैं बताना भूल ही गया। केदारताल से गंगोत्री तक पूरे रास्ते हमने कहीं अन्न का एक दाना भी नहीं खाया था। सुबह जो चाय बिस्कुट खाये थे उन्हें के दम पर हमने पूरा रास्ता तय किया था। इसलिए गंगोत्री पहुँचने के बाद हमने सबसे पहला काम लंच करने का किया।

खाना खाने के बाद हमने अपना गार्बेज से भरा बैग वन अधिकारी की मौजूदगी में फारेस्ट ऑफिस के कूड़ेदान में खाली किया और अपना रिफंड लिया। जब हम टैक्सी स्टैंड पहुंचे तो पता चला की आज उत्तरकाशी के लिए गाडी मिलने की कोई सम्भावना नहीं है। होने कपिल से कुछ जुगाड़ लगाने को कहा तो उसने अपने जानने वाले गाडी मालिक से फ़ोन पे बात की, उसका गांव गंगोत्री के पास ही था और वो हमे बुकिंग पे उत्तरकाशी ले जाने को तैयार हो गया।  हमने बंगाली लड़कियों से बात की और  वो हमारे साथ किराया शेयर करने को को राज़ी हो गई। हम वापस उत्तरकाशी की ओर चल दिए और हर्सिल से होते हुए शाम को साढ़े छै बजे के करीब उत्तरकाशी पहुँच गए। वहां गाइड का हिसाब किताब करने और बंगाली लड़कियों से अलविदा लेके हमने एक होटल में कमरा ले लिया। कमरे में पहुंच कर मैंने तसल्ली से गरम पानी से स्नान किया और कुछ देर बाद खाना खा के बिस्तर पर ऐसे गिर गए जैसे गिरे हुए पेड़ का तना  होता है। कब नींद आ गई याद नहीं।

अगली सुबह हमारे कहने के मुताबिक होटल स्टाफ ने हमे पाँच बजे उठा दिया। नहा धो कर हम अपना सामन लेकर टैक्सी स्टैंड स्टैंड पहुँच गए। वहां ऋषिकेश के लिए जीप लगी हुई थिस लेकिन हम ही पहली सवारी थे। जब तक सवारी पूरी न हो जाये मतलब ही नहीं बनता की जीप चले। वहीँ एक टेम्पो ट्रवेलेर भी खड़ा था जो देहरादून जा रहा था।  उसमे कई सवारियां बैठी हुई थी और उम्मीद थी की वो पहले चलेगा। ड्राइवर से बात की तो पता चला की पहले भी चलेगा और जितनी देर हमे ऋषिकेश पहुँचने में लगेगी उससे डेड घंटे पहले ही वो हमे देहरादून पंहुचा देगा। फिर सोचना  क्या था, हम टेम्पो ट्रवेलेर में सवार हो गए और गाडी फुल होते ही  देहरादून के ओर चल पड़े जहाँ से मुझे वापस दिल्ली की गाड़ी पकड़नी थी। केदारताल यात्रा लगभग समाप्त हो चुकी थी और ये मेरी सबसे यादगार यात्राओं में से एक रही…

At Kedartal

Prashant

Kedartal as seen from our camp

Evening view

Evening View

Evening View

Bhrigupanth on the left & Thaliyasagar on the Right

Bhrigupanth Peak

Bhrigupanth on the left, Thaliyasagar at the center and Jogin group on the Right

केदारताल यात्रा- वापस दिल्ली के लिए was last modified: August 30th, 2022 by Harish Bhatt
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