शायद ही सिक्किम जाने वाला कोई व्यक्ति ऐसा मिले जिसने गंगटोक ना देखा हो। हमने भी सिक्किम की अपनी पहली रात गंगटोक में ही गुजारी थी लेकिन तड़के कंचनजंघा के दर्शन करने के बाद हम सीधे उत्तरी सिक्किम की ओर बढ़ चले थे। फंडा वही था कि जो सबसे सुंदर हो, उसे सबसे पहले देखो। गंगटोक के मुख्य शहर को देखने का समय हमें अपने प्रवास के आखिरी दिन ही मिला। गंगटोक की मुख्य सड़क का नाम महात्मा गाँधी मार्ग है। शहर के अधिकांश होटल और रेस्ट्राँ इसी रोड की दोनों तरफ हैं। सिक्किम का पर्यटन कार्यालय भी इसी रोड पर हें जहाँ जाते ही आपको सिक्किम का टूरिस्ट गाइड मुफ्त में दिया जाता है। ये पुस्तिका सिक्किम की यात्रा की योजना बनाने के लिए बेहद उपयोगी है।
उत्तरी सिक्किम में बिताई सारी रातें तो हमने चावल और फूल गोभी की सब्जी खाकर गुजारी थीं। लाचेन व लाचुँग जैसी जगहों में और कुछ मिलता भी नहीं। पर गंगटोक में बिताए उस आखिरी दिन की शुरुआत हमने गर्मागरम आलू के पराठों से की। हमने अपने ट्रैवेल एजेंट को छान्गू झील से लौटने के बाद ही छोड़ दिया था। इसलिए यात्रा के इस आखिरी दिन हमें पैदल ही घूमना था। अब पैदल तो सारा शहर घूमा नहीं जा सकता तो हमारे समूह ने सोचा कि क्यूँ ना रोपवे से ही पूरे शहर का अवलोकन किया जाए।
सो फूलों की प्रदर्शनी देखने के बाद हम चल पड़े सिक्किम रोपवे की तरफ। गंगटोक का रोपवे बेहतरीन है। तीस रुपये के टिकट पर आप सात मिनट में एक किमी. की यात्रा करते हैं। रोपवे का रखरखाव भी शानदार है और जो अलौकिक दृश्य ऊपर से दिखते हैं उसके लिए तो टिकट का दाम अगर इससे दुगना हो, तो भी जाया जा सकता है।
ऊँचाई से दिखते गंगटोक की खूबसूरती और बढ़ गई थी। हरे भरे पहाड़, सीढ़ीनुमा खेत, सर्पाकार सड़कें और उन पर चलती चौकोर पीले डिब्बों जैसी दिखती टैक्सियाँ मन को अभिभूत कर रहे थे।।
पूरी यात्रा में कुल तीन स्टेशन आते हैं।
सिक्किम विधानसभा के बाहर का आहाता ऊपर से बेहद खूबसूरत दिखता है।
देवराली से शुरु हुआ हमारा सफर ताशीलिंग में खत्म हो गया। ताशिलिंग स्टेशन से नीचे उतर कर सचिवालय की ओर जाने के लिए थोड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है।
सचिवालय तक पहुँचने के बाद पता चला कि पास में थोड़ा और ऊपर एक स्तूप है। स्तूप तक की चढ़ाई-चढ़ते चढ़ते हम पसीने से नहा गए। यहाँ की भाषा में स्तूप को Do-Drul-Chorten कहते हैं। स्तूप के अंदर अपने पारंपरिक वस्त्रों में बौद्ध लामा घूम रहे थे। एक ओर पूजा के लिए ढेर सारे पीतल के दीये जल रहे थे।
इस स्तूप के चारों ओर 108 पूजा चक्र हैं जिन्हे बौद्ध भक्त मंत्रोच्चार के साथ घुमाते हैं।
बौद्ध स्तूप की चढ़ाई के बाद हम थक चुके थे। धूप भी बढ़ गई थी इसीलिए हम वापस विश्राम के लिए अपने होटल की ओर सुस्त कदमों से निकल पड़े। वापसी का सफर 3 की बजाय 4 बजे शुरू हुआ। गंगटोक से सिलीगुड़ी का सफर चार घंटे मे पूरा होता है। इस बार हमारा ड्राइवर बातूनी ज्यादा था और घाघ भी। टाटा सूमो में सिक्किम में 10 से ज्यादा लोगों को बैठाने की इजाजत नहीं है पर ये जनाब 12-14 लोगों को उस में बैठाने पर आमादा थे। खैर हमारे सतत विरोध की वजह से ये संख्या 12 से ज्यादा नहीं बढ़ पाई । सिक्किम में कायदा कानून चलता है और लोग बनाए गए नियमों का सम्मान करते हैं पर जैसे ही सिक्किम की सीमा खत्म होती है कायदे-कानून धरे के धरे रह जाते हैं।
बंगाल आते ही ड्राइवर की खुशी देखते ही बनती थी। पहले तो सवारियों की संख्या 10 से 12 की और फिर एक जगह रोक कर सूमो के ऊपर लोगों को बैठाने लगा। पर इस बार सब यात्रियों ने मिलकर ऐसी झाड़ पिलायी की वो मन मार के चुप हो गया।
उत्तरी बंगाल में घुसते ही चाँद निकल आया था। पहाड़ियों के बीच से छन छन कर आती उसकी रोशनी तीस्ता नदी को प्रकाशमान कर रही थी। वैसे भी रात में होने वाली बारिश की वजह से चाँद हमसे लाचेन और लाचुंग दोनों जगह नजरों से ओझल ही रहा था, जिसका मुझे बेहद मलाल था। शायद यही वजह थी कि चाँदनी रात की इस खूबसूरती को देख मन में ऍतबार साजिद की ये पंक्तियाँ याद आ रही थीं
वहाँ घर में कौन है मुन्तजिर कि हो फिक्र दर सवार की
बड़ी मुख्तसर सी ये रात है, इसे चाँदनी में गुजार दो
कोई बात करनी है चाँद से, किसी शाखसार की ओट में
मुझे रास्ते में यहीं कहीं किसी कुन्ज-ए -गुल में उतार दो
पर यहाँ उतरने की कौन कहे स्टेशन समय पर पहुँचने की समस्या थी। गंगटोक के बाहर सड़क बनने की वजह से हमें 1 घंटे रुकना पड़ा था। अब हमारे पास मार्जिन के नाम पर आधे घंटे ही थे। यानि 9.30 बजे की ट्रेन के पहले अपनी क्षुधा शांत करने की योजना हम ठंडे बस्ते में डाल चुके थे। घाटी पार करते ही चालक ने हमारी परेशानी देखते हुये टाटा सूमो की गति 75 किमी/ घंटे कर दी थी । पर भगवन हमारी वापसी की यात्रा को और रोमांचक बनाने पर तुले थे। सो सिलिगुड़ी के ठीक 25 किमी पूर्व ही सूमो का एक टॉयर जवाब दे गया। 20 मिनट टाँयर बदली में गये । सबके चेहरे पर तनाव स्पष्ट था। पर चालक की मेहरबानी से गाड़ी आने के ठीक 5 मिनट पूर्व हम भागते दौड़ते प्लेटफार्म पर पहुँचे।
इससे पहले कि इस यात्रा वृत्तांत का पटाक्षेप करूँ कुछ जरूरी बातें सिक्किम जाने वालों के लिए…
सिक्किम की इस पाँच दिनों की या्त्रा में हमने दो रातें गंगटोक और एक एक लाचेन और लाचुँग में गुजारी। समय आभाव की वजह से हम रूमटेक के बौद्ध विहार में नहीं जा सके। वैसे इसके आलावा गंगटोक से तीन चार दिनों का एक कार्यक्रम पीलिंग के लिए भी बनाया जाता है जो पश्चिमी सिक्किम में स्थित है। सिक्किम जाने के पहले ही हम लोगों ने ‘सिक्किम टूरिस्ट गाइड’ की मदद से वहाँ के ट्रैवेल एजेंट्स से संपर्क करना शुरु कर दिया था। बिना किसी अग्रिम भुगतान के मेल और फोन पर हुई बातचीत से ही गंगटोक आते ही हमारा एजेंट हमसे मिलने आ गया और उसके बाद की सारी जिम्मेवारी उसकी थी। सिक्किम में हर बजट के होटल उपलब्ध हैं। सामान्यतः पाँच सौ रुपये से शुरु होकर पन्द्रह सौ तक में आसानी से कमरे मिल जाते हैं। स्थानीय निवासी धड़ल्ले से हिंदी बोलते हैं।
सिक्किम के इस सफ़र में आप सब साथ साथ रहे इसके लिए तहे दिल से शुक्रिया !