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पंचवटी की यात्रा – भाग २

“है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ, पावन पंचवटी तेहि नाऊँ, दंडक बन पुनीत प्रभु करहु, उग्र साप मुनिबर कर हरहु”,

तुलसीदास द्वारा लिखे अरण्यकाण्ड में लिखे इस दोहे का मर्म यह है कि हे प्रभु, एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पंचवटी है. हे प्रभु, आप दंडक वन को (जहाँ पंचवटी है) पवित्र कीजिये और श्रेष्ठ मुनि गौतम जी के कठोर शाप को हर लीजिये. २५ मार्च २०१६ के दिन श्री कपालेश्वर मंदिर का दर्शन करने के पश्चात हम लोग वहां जाना चाहते थे, जहाँ पंचवटी थी. संध्या काल के ६ बज चुके थे. पश्चिमी भारत में दिन का आलोक थोड़ी देर ज्यादा तक बना रहता है, इसीलिए अभी यात्रा संभव थी. पंचवटी वहां से थोड़ी दूर पर था, जिसके कारण हमलोगों को पुनः कार में बैठ कर जाना पड़ा.

कालेराम मंदिर का प्रवेश स्थल

इस बार फिर हमलोगों की गाड़ी हमें “काले राम मंदिर” के पास तक ले आई. मंदिर के सामने बड़ी भीड़ रहती है. एक छोटा-सा पूजन-सामग्री वाला बाज़ार भी वहां लगा रहता है. अतः गाड़ी से उतर कर पंचवटी की पैदल यात्रा शुरू कर दी गयी और गाड़ी को उचित स्थान पर पार्किंग करने के लिए भेज दिया गया. १७८८ ईस्वी के आस-पास बना काले राम का मंदिर एक विशाल परकोटे के अन्दर है. मंदिर की बनावट में काले पत्थरों का बहुत इस्तेमाल हुआ है. लोकोक्ति है कि लगभग २३० वर्षों पूर्व सरदार रंगाराव ओढ़कर को स्वपन में भगवन श्रीराम ने दर्शन दिया. स्वपन में ही उन्हें पता चला की श्री-राम की एक काले रंग की प्रतिमा गोदावरी नदी में पड़ी हुई है. उसी प्रतिमा को बाद में निकला गया और इसी मंदिर में स्थापित किया गया. मंदिर का सभा मंडप और श्री-राम जानकी का विग्रह दोनों बेहद खूबसूरत हैं. मंदिर के बाहर श्वेत रंग के फूल मिल रहे थे, जिसका अभी नाम मुझे स्मरण नहीं. उन्ही फूलों से इनका पूजन किया जाता है. पर उनकी फोटोग्राफी निषेध होने ही वजह से हमलोग चित्र नहीं निकाल सके. परन्तु पूजन के पश्चात जब हमलोग परकोटे के अन्दर परिक्रमा कर रहे थे तो वहां हमने एक फोटो अपनी यादगारी के लिए ले ली.

कालेराम मंदिर के परिसर में

रामनवमी को इस मंदिर में विशेष आयोजन होता है, जिसमें देश-विदेश से आये लोग हिस्सा लेते है. मंदिर के बाहर एक रथ भी दिखा. शायद रामनवमी इत्यादि शुभ अवसर पर निकला जाता हो. भारत में हरिजनों के उत्थान के लिए जब बाबा साहेब अम्बेडकर कार्य कर रहे थे, तब भी श्री काले राम का यह मंदिर चर्चा में रहा था. १९३० ईस्वी के आसपास इस मंदिर में हरिजनों का प्रवेश वर्जित था, जिस प्रथा को तोड़ने के लिए उन्होंने यहाँ सत्याग्रह-धरना-प्रदर्शन इत्यादि किया था. आजकल तो कोई भी यहाँ प्रवेश कर सकता है और पूजन कर सकता है. काले राम मंदिर के पास ही एक गोरे राम का मंदिर है. पर काले-गोरे के चक्कर में हम नहीं पड़े और अपनी अगले गंतव्य को चले, जो वहीँ पास में ही था.

कालेराम मंदिर का रथ

काले-राम मंदिर से कुछ दूर पैदल चलते ही हमें “पंचवटी” का दर्शन हुआ. पंचवटी का शाब्दिक अर्थ है, “पांच बड़/बरगद के वृक्षों से बना कुञ्ज”. अब हम उस स्थान में प्रवेश कर रहे थे, जहाँ रामायण काल में श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी ने निवास किया था. पर्णकुटी तो इतने दिनों तक अब शेष नहीं रह सकती. पर पांच वृक्षों से घिरा वह कुञ्ज आज भी शेष दिखाया जा रहा है. सभी पांच वृक्षों पर नंबर लगा दिए गए थे, ताकि लोग उन्हें देख कर गिन सकें. वर्तमान में उन पांच वृक्षों के कुंज के बीच से ही पक्का रास्ता भी बना हुआ था, जिस पर एक ऑटो-स्टैंड भी मौजूद था और साधारण यातायात चालू था. बरगद के वे वृक्ष काफी ऊँचे हो गए थे. श्रधालुओं ने उन वृक्षों की पूजन स्वरूप उनपर कच्चे धागे भी लपेटे थे. हमलोगों ने पहली बार पंचवटी से साक्षात्कार किया. पांचों वृक्षों को घूम-घूम कर देखा और उनकी तस्वीरें लीं.

पंचवटी के बरगद संख्या २ और ३

उसी पंचवटी के बिलकुल समीप “सीता-गुफा” थी, जिसमें सीता जी शिवपूजा किया करतीं थी. कहतें हैं कि इसी स्थान से सीता जी का रावण ने अपहरण किया था. सीता गुफा देखने के लिए लोगों की लम्बी कतार लगी हुई थी. गुफा के बाहर सर्पाकार लाइन लगी हुई थी. चप्पल-जूते बाहर ही रखने थे, क्योंकि गुफा में उसे ले कर नहीं जा सकते. हमलोग भी उसी कतार में खड़े हो गए. वर्तमान युग में सीता गुफा के मुहाने पर एक मंदिर का निर्माण हुआ है, जिसमें श्री-राम-लक्ष्मण-सीता का विग्रह है. इस मंदिर के बरामदे छत काफी नीची है और उसके बीम लकड़ियों से बने हैं. गुफा में जाने के दूसरा मार्ग नहीं है.

सीता गुफा के बाहर लोगों की भीड़

लोगों की कतार धीरे-धीरे सरक रही थी, क्योंकि गुफा का मुहाना काफ़ी छोटा और संकरा है. जब हमलोग उस मुहाने पर आये तो चकित हो गए. कोई बहुत भारी-भरकम व्यक्ति तो उस मुहाने में घुस ही नहीं सकता था. हमारे ठीक आगे एक नवयुवती अपने परिवार के साथ चल रही थी, उसके डील-डौल भी तगड़े थे. लाइन में चलने के दौरान उस परिवार के सदस्यों में यही चर्चा छिड़ी थी कि कैसे वह उस गुफा में घुसेगी. पर वह भी गज़ब की निकली, उसनें मुहाने पर अपने शरीर को थोड़ा सिकोड़ा और गुफा में प्रवेश कर गयी. कई स्थान पर तो जमीन के लगभग समानांतर हो कर रेंगना पड़ता है. सीताजी द्वारा पूजित शिव-लिंग स्थल वर्तमान के जमीनी-स्तर से नीचे है. अतएव गुफा में आजकल पतली-संकरी सीढियां बना दी गयीं हैं, जिनमें बैठ-सरक-रेंग कर आप शिव-लिंग तक जाते हैं. पर वहां भी जगह कम है और एक व्यक्ति बैठ कर लोगों के प्रवाह को नियंत्रित कर रहा था. फोटोग्राफी वर्जित थी. और गुफा के अन्दर हवा की भी कमी होती है, अतः गर्मी भी बहुत थी. इस प्रकार हमलोगों ने सीता-गुफा देखा और बाहर आ गए. मैं अपने मन में यही सोच रहा था कि सीताजी को पूजन हेतु इतनी संकरी गुफा में जाने की क्या आवश्यकता थी? शायद दंडक वन के पशुओं का प्रकोप हो, जो पूजन में लिप्त व्यक्ति के लिए खतरा उत्पन्न करतें हों.

सीता-गुफा के अन्दर का विग्रह

पर बाहर अच्छी हवा चल रही थी. मन तो प्रसन्न था ही. कुछ ही समय तन भी आराम पा कर अगले पड़ाव के लिए तैयार हो गया. कुछ कलाकारों ने सीता-गुफा के ठीक सामने “सीताहरण-मारीचवध प्रदर्शनी” लगाया था. हमलोग भी उस प्रदर्शनी को देखना चाहते थे. वहाँ कुछ तो चित्र लगे थे और कुछ आदमकद रंग-बिरंगी प्रतिमाओं के प्रदर्शन से सीता-हरण और मारीचवध की कथा दिखाने की चेष्टा की गयी थी. प्रशंसनीय प्रयास था और कई लोग उसे देख रहे थे. पर वहां भी फोटोग्राफी निषेध थी. पंचवटी, सीता गुफा और प्रदर्शनी देखने के उपरान्त हमलोगों को तपोवन जाना था. पुरातन काल में तपोवन दंडक वन का वो हिस्सा था, जिसमें ऋषि-मुनि तपस्या करते थे. परन्तु वर्तमान में वहां जंगल नहीं था.

प्रदर्शनी का प्रवेश स्थल

तपोवन जाने के लिए हमें अपनी कार की सहायता लेनी पड़ी, क्योंकि वह पंचवटी से थोड़ी दूर गोदावरी नदी के किसी दूसरे मोड़ पर था. वर्तमान के तपोवन में सुन्दर-सुन्दर रिहायसी मकान बने हुए थे. साथ ही कुम्भ-स्नान में आने वाले श्रधालुओं के लिए शिविर भी यहीं लगे थे. चाहे जो भी ही, यहाँ वातावरण खुला हुआ था और वृक्ष भी ज्यादा लगे हुए थे. इसकी खुली नीरव सड़कों पर कार ड्राइव करना एक खुशनुमा अनुभव था. इस बार हमारी कार ने हमें श्री-लक्ष्मणजी के मंदिर-परिसर के सामने छोड़ा और उपयुक्त पार्किंग स्थल पर चला गया. इधर हमलोग श्रीलक्ष्मणजी मंदिर-परिसर के गेट में प्रवेश किये.

लक्ष्मण-मंदिर-परिसर का प्रवेश-द्वार

नूतन परिसर एक विस्तृत पैमाने पर विकसित किया जा रहा था. आने वाले कुछ वर्षों में श्रद्धालु यात्री-गण यहाँ भी बड़ी संख्या में पधारेंगे. इस परिसर में रामायण के अरण्य-काण्ड में वर्णित श्री लक्ष्मणजी की कथाओं से सम्बंधित स्थल हैं. रामायण की एक खलनायक, रावण-पुत्र मेघनाद के बारे में सब जानते हैं. उस मेघनाद को यह वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु उसी व्यक्ति के हाथों से होगी, जिसने १२ वर्षों तक ब्रहचर्य में रह कर लगातार तपस्या की हो. माना जाता है कि मेघनाद-विंध्वंसक श्री लक्ष्मण जी ने इसी तपोवन स्थल पर वह भीषण तपस्या की थी. वर्तमान में “श्रीलक्ष्मण की तपोभूमि स्थल” को इंगित करने के लिए एक वृक्ष-कुञ्ज है, जिसके सामने लक्ष्मण की भीषण तपस्या से संबधित सूचना अंकित है.

श्रीलक्ष्मण की तपोभूमि स्थल

वहाँ पहुँचने वाले सभी भक्त-श्रद्धालु-जन इस वृक्ष-कुञ्ज के परिक्रमा करते है, जो परिक्रमा हमलोगों ने भी पूरी की. परिक्रमा के पश्चात हम वहां पधारे, जिस स्थल पर श्री-लक्ष्मणजी द्वारा शूर्पणखा नाम से प्रसिद्ध राक्षसी के नाक-कान कटे गए थे. रामायण में वर्णित इस कथा की मुख्य नायिका शूर्पणखा थी, जिसने श्रीराम पर मोहित हो कर उनसे विवाह का प्रस्ताव किया. अपनी बात न चलती देख कर जब उसने अपने मूल-राक्षसी रूप धारण कर बल प्रदर्शन करना चाहा तो श्री लक्ष्मणजी द्वारा उसके नाक और कान काट लिए गए ताकि वह जा कर अपने भाइयों और उनकी सेना को शिकायत करे. कटी हुई नाक को उन्होंने गोदावरी नदी के दूसरी तरफ फ़ेंक दिया था, जिसकी वजह से उस स्थान का नाम “नाशिक” प्रसिद्ध हुआ, जो आज भी चल रहा है. बाद में उस सेना का भी इन दोनों भाइयों द्वारा दलन किया गया. नाक-कान काटने की घटना को प्रदर्शित करने के लिए वहां एक “शूर्पणखा मंदिर” की स्थापना की गयी है, जिसमें शीशे की दीवाल से झांक कर लोग शूर्पणखा-प्रसंग देख सकते हैं.

शूर्पणखा मंदिर का दृश्य

यह सारा परिसर श्री लक्ष्मणजी को समर्पित है. अतः वहाँ एक बड़े सभा-मंडप से सुसज्जित एक “श्री-लक्ष्मण मंदिर” भी बना है. मात्र लक्ष्मणजी को समर्पित शायद यह एकमात्र मंदिर होगा. माना जाता है कि श्रीलक्ष्मण जी, धरती को अपने फनों पर धारण करने वाले शेषनाग, के अवतार थे. इसीलिए यहाँ मंदिर में उनका विग्रह शेषनाग रुपी है. जाब हम वहां गए तो संध्या-आरती का समय हो चुका था. हमलोगों की खुशनसीबी थी कि हम अचानक गए और आरती देखने का मौका मिला.

श्री लक्ष्मण विग्रह

उस वक़्त मंदिर-परिसर में विकास का कार्य चल ही रहा था. मंदिर संस्था के लोग जगह-जगह दान की रसीद लिए लोगों से विकास के लिए दान का आग्रह कर रहे थे. परिसर में कई दुकानें भी थीं, जहाँ पूजन सामग्री और धार्मिक पुस्तकें इत्यादि मिल रहे थे. इधर सारे दिन घुमक्कड़ी करते-करते अब-तक हमारे पैरों में थकान और दर्द शुरू हो चुका था. तभी हमें एक ग्रामीण दिखा, जिसके हाथों में स्टील के बने कुछ कंटेनर थे. मुझे आश्चर्य और कौतुहल हुआ. जब मैंने उसे रोक कर पूछा तो पता चला कि उन “कंटेनरों में कुल्फियां” थीं. हम सब थके-मांदे तो थे ही, हमने बड़े शौक से कुल्फियां खरीदीं और खाते-खाते परिसर के बाहर जाने लगे.

कंटेनरों में कुल्फियां

बाहर आ कर मैंने पूछा कि गोदावरी नदी का तट कहाँ है, क्योंकि शूर्पणखा का नाक गोदावरी के पार फेंका जो गया था. तो पता चला कि नदी का तट तो वहीँ से कुछ दूर की पैदल दूरी पर था. कुल्फी खाने से जो थोड़ी थकन मिटी थी, उसी के उत्साह से हमलोग गोदावरी-तट पर जा पहुंचे. किनारे पर एक बड़ा द्वार बना हुआ था. एक छोटा सा बाज़ार भी लगा था. घाट पक्की सीढ़ियों वाले थे, जिनकी चौड़ाई पर कुछ उद्यमी लोगों ने बैटरी से चलने वाली बच्चों की कारें रखीं थीं, ताकि बच्चे उनमें बैठ कर कार चलाने का आनंद ले सकें. पता चला कि वो “गोदावरी-कपिला संगम-स्थल” है, जहाँ गोदावरी नदी से कपिला नदी मिलती है.

गोदावरी-कपिला संगम स्थल

संगम-स्थल तक जाने के लिए पुल बने हुए थे, जिस पर चल कर हमलोग वहां गए. देख कर बहुत दुःख हुआ की नदियों में पानी नहीं था और सूखी नदियों के पाट में केवल बड़ी-छोटी चट्टानें दीख रहीं थीं. वैसे बाहरी वातावरण बड़ी खुशनुमा था, नदी के दोनों किनारों के बीच खड़े होने में एक आनंद का अनुभव भी हो रहा था. सिर्फ जल का न होना, मन को कचोटता था. कुछ देर वही खड़े रह कर हमलोग कपिला नदी के किनारे गए, जिसमें अभी थोड़ा पानी था. वह किनारा थोड़ा खड़ा था, इसीलिए वहाँ जाने के लिए पैरों को दबा कर चलना पड़ा.

कपिल तीर्थ पर शूर्पणखा-प्रसंग की मूर्ति

उस स्थान पर एक पर्णकुटी बनी थी, जहाँ एक व्यक्ति बैठ कर आगंतुकों को वहां की महत्ता बता रहा था. लोकोक्ति है कि उसी स्थल पर कपिल मुनि का आश्रम था, इसीलिए उस स्थान को “कपिल-तीर्थ” भी कहा जाता है. कपिल-तीर्थ में कुछ मूर्तियाँ भी थीं, जिनमें प्रमुख थी वह मूर्ति जिसमें लक्षमण द्वारा शूर्पणखा के नाक काटा जाना अंकित था. उसी मूर्ति के सामने तीन छोटे-छोटे कुण्ड थे, जिन्हें ब्रह्मतीर्थ, विष्णुतीर्थ और शिवतीर्थ कहा जाता है. यह तीनों तीर्थ जमीन के अन्दर-ही-अन्दर मिले हुए हैं. और उनसे जल एक अन्य कुण्ड में जाता है जिसका नाम अग्नि-कुण्ड है. इस अग्नि-कुण्ड की मान्यता है कि श्रीराम ने स्वर्णमृग का शिकार पर जाने से पहले असली सीताजी को यहीं छिपा दिया था. जिस सीता की रावण द्वारा हरण किया गया वोह तो एक माया रूप था.

कपिल तीर्थ के कुण्ड

निसंदेह कपिल मुनि और कपिला नदी की भी अपनी कोई कहानी होगी, जो मुझे ज्ञात नहीं. पर कपिल तीर्थ में कुछ देर बिताने के बाद हमलोग संगम-स्थल से बाहर आ गये. अब तक शाम भी काफ़ी ढल चुकी थी. अतः गाड़ी में बैठ कर नाशिक शहर का मुआयना करते हुए हमलोग गेस्ट हाउस आ गए. ऐसे में आधुनिक नाशिक शहर आगरा-मुंबई उच्च पथ के दोनों किनारे पर बसा प्रतीत होता था. सभी पुराने शहरों के जैसा इस शहर के भी दो रूप हैं. आधुनिक नाशिक, जिसमें मल्टीस्टोरी बिल्डिंग्स तथा माल्स इत्यादि की रंगीनियाँ थीं, वाइन-यार्ड के चर्चे थे. साथ ही था गोदावरी-नदी की तट पर बसा पुराना नाशिक जिसमें रामायण-काल से चले आ रहे धार्मिक स्थल थे, जिससे रूबरू हो कर हम उस दिन वापस आये थे.

पंचवटी की यात्रा – भाग २ was last modified: May 1st, 2022 by Uday Baxi
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