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उदयपुर में पहला दिन और यादगार डिनर

बागौर हवेली का प्रवेश द्वार

हम सहारनपुर से गाज़ियाबाद, गाज़ियाबाद से नई दिल्ली एयरपोर्ट और फिर एक नन्हें से जहाज में उदयपुर पहुंच कर होटल तक कैसे पहुंचे – यह विवरण आप पढ़ ही चुके होंगे। अब आगे !

हमारे होटल की टैरेस से लेक पैलेस

शाम के छः बज रहे थे और हमारा महिलावर्ग ’सोलह सिंगार’ करके उदयपुर भ्रमण के लिये पूरी तरह तैयार था। रिसेप्शन से इंटरकॉम पर संदेश आया कि ड्राइवर महोदय आ गये हैं और हम नीचे आ जायें। हम सब अपनी इंडिका टैक्सी में लद कर घूमने चल पड़े! टैक्सी से स्थानीय भ्रमण में मुझे एक दिक्कत अनुभव होती है और वह ये कि हम जिस शहर में घूम रहे होते हैं, उसके भूगोल से काफी कुछ अपरिचित ही रह जाते हैं। किसी शहर को ठीक से समझना हो तो स्टीयरिंग आपके हाथ में होना चाहिये तब आपको किसी स्थान का भूगोल समझ में आता है। अगर कहीं से मोटरसाइकिल या स्कूटर किराये पर मिल सके तो घूमने का सबसे बढ़िया और मजेदार तरीका वही है। परन्तु हमने तो पांच दिनों के लिये टैक्सी कर ली थी और मेरी पत्नी सहित सभी सहयात्रियों की प्राथमिकता सुविधापूर्ण यात्रा थी जिसमें कार के शीशे बन्द करके वातानुकूलित हवा खाना सबसे महत्वपूर्ण था। ऐसे में मैने तो हल ये निकाला था कि जहां भी मौका लगे, अकेले ही पैदल घूमने निकल पड़ो! घरवाले अगर होटल में आराम फरमाना चाहते हैं तो उनको होटल में ही रहने दो, अकेले ही घूमो मगर घूमो अवश्य । अस्तु!

पता नहीं, किधर – किधर को घुमाते फिराते हुए, और उदयपुर की शान में कसीदे पढ़ते हुए हमारे टैक्सी चालक हसीन महोदय ने जब टैक्सी रोकी तो पता चला कि हम सहेलियों की बाड़ी पर आ पहुंचे हैं। हसीन ने अपने यात्रियों के लिये गाइड के रूप में सेवायें प्रदान करना अपना पावन कर्तव्य मान लिया था अतः सहेलियों की बाड़ी के बारे में हमें बताया कि ये फतेह सागर लेक के किनारे पर स्थित एक आमोद गृह है जहां महारानी अपनी 48 सखियों के साथ जल विहार और किल्लोल किया करती थीं । आज कल जैसे पति लोग अपनी पत्नी को एक मीडिया फोन लाकर दे दिया करते हैं ताकि वह वीडियो गेम खेलती रहे और पति भी सुकून और शांति भरे कुछ पल घर में गुज़ार सके, कुछ-कुछ ऐसे ही 18 वीं शताब्दी में उदयपुर के महाराणा संग्राम सिंह ने अपने घर को संग्राम से बचाने के लिये अपनी महारानी और उनके साथ दहेज में आई हुई 48 युवा परिचारिकाओं के मनोरंजन के लिये सहेलियों की बाड़ी बनवा कर दे दी थी। यह एक विशाल बाग है जिसमें खूबसूरत फव्वारे लगे हुए हैं । फतेह सागर लेक इसकी जलापूर्ति करती है। हम जब यहां पर पहुंचे तो सूर्यास्त हो चुका था। बाग में कृत्रिम प्रकाश में हमें सहेलियों की बाड़ी का बहुत विस्तार से अध्ययन करने का मौका तो नहीं मिला पर कुछ बड़े खूबसूरत से फव्वारे वहां चल रहे थे जिनके बारे में विश्वस्त सूत्रों से यानि विकीपीडिया से ज्ञात हुआ है कि ये फव्वारे rain dance का आभास देने के लिये बाद में महाराणा भोपाल सिंह ने इंग्लैंड से मंगवाये और यहां पर लगवाये थे।

सहेलियों की बाड़ी में इंग्लैंड से मंगा कर लगवाये गये फव्वारे !

मैं तो यही सोच कर परेशान हूं कि घर में एक अदद पत्नी आती है तो कितना हल्ला-गुल्ला मचने लगता है। जिस महारानी के साथ 48 परिचारिकायें भी आई हों, उस महल में कितना शोर – शराबा होता होगा! अगर आपकी जेब में जनता की जेब से उगाहा हुआ भरपूर पैसा हो तो ऐसी बाड़ियां बना देना शोरगुल को कम करने का अति सुन्दर उपाय है। पर उन 48 परिचारिकाओं के जीवन का क्या? न उनके बलिदान का इतिहास में कहीं कोई ज़िक्र है, न ही उनका कोई नाम है। शायद गरीबी ही उनके माता-पिता का एकमात्र दोष रहा होगा जो वह सब युवतियां जीवन भर एक गुमनाम सेविका के रूप में रहने के लिये अभिशप्त हो गईं जिनका कोई भविष्य हो ही नहीं सकता था। ऐसे ही राजमहलों में राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र फलते फूलते हैं।

सहेलियों की बाड़ी में चूंकि हम सूर्यास्त के बाद पहुंचे थे अतः उसको बहुत अच्छे से नहीं देख पाये। विशेषकर फतेह सागर झील वाली दिशा में तो हम संभवतः गये ही नहीं थे। बस, फव्वारे और उद्यान देख कर लौट आये। सुबह सहारनपुर से गाज़ियाबाद, गाज़ियाबाद से नई दिल्ली, नई दिल्ली से उदयपुर तक आते – आते हम थके हुए भी थे अतः बहुत ज्यादा पैदल चलने में हमारी महिलायें असमर्थता व्यक्त करने लगीं तो हम पुनः गाड़ी में आ बैठे और हसीन महोदय से कहा कि भाई, अब तो खाना खाने चलना है और बस फिर होटल में आराम करेंगे। हसीन ने कहा “आज की आपकी शाम को यादगार बना देने की जिम्मेदारी मेरी है।“ चलिये, मेरे साथ! वापस वंडर व्यू पैलेस पहुंचे पर वहां रुके नहीं। दो ही कदम आगे अम्बराई रेस्टोरेंट पर ले जा कर हसीन ने टैक्सी रोक दी और कहा कि आप यहां पर डिनर ले लीजिये और मुझे बताइये कि सुबह का क्या प्रोग्राम है। हमने यह तय किया था कि अगले दिन सुबह हम माउंट आबू के लिये प्रस्थान करेंगे और एक या दो रात वहीं पर रुकेंगे और फिर वापस उदयपुर ही आ जायेंगे। टैक्सी सुबह ठीक 7 बजे होटल के दरवाज़े पर खड़ी मिलेगी, यह वायदा कर हसीन हमें अंबराई में डायनिंग एरिया तक छोड़ कर चला गया। अंबराई से हमारे होटल तक का रास्ता मुश्किल से 20-30 कदम का ही था अतः पैदल आने में कोई समस्या थी ही नहीं !

आमेट हवेली अंबराई रेस्टोरेंट से सिटी पैलेस का मनमोहक दृश्य

अंबराई रेस्टोरेंट में परंपरागत शैली में संगीत शोर नहीं मचाता, रूमानी वातावरण की सृष्टि करता है।

 

जिस संकरी सड़क पर हमारा होटल था, वह सड़क पिछोला झील पर आकर समाप्त हो जाती थी और उस सड़क पर अंतिम बिल्डिंग यह अंबराई रेस्टोरेंट ही था। आप सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि वहां से झील का नज़ारा कितना दिलकश होगा। अंबराई में हम जहां भोजन हेतु पहुंचे, वह वास्तव में एक लॉन था (या हो सकता है कि वह कोई टैरेस रही हो और उसके नीचे भी कुछ कमरे हों! धीमा – धीमा प्रकाश, संगीत की मधुर स्वर लहरी वातावरण को बड़ा रूमानी बनाये हुए थी। संगीत के लिये भी डी.जे. नहीं, बल्कि दो कलाकार फर्श पर बैठे थे जिनमें से एक के पास सारंगी या वायलिन जैसा यंत्र था और दूसरे के पास संगत करने के लिये तबला ! कोई माइक या लाउड स्पीकर भी नहीं था। एक खाली मेज़ पर हम चारों प्राणियों ने आसन जमाया और मंत्रमुग्ध से आस-पास का नज़ारा देखने लगे! हम दो मिनट में ही यह भूल गये कि हम कहां पर हैं, कौन सा साल और कौन सा महीना चल रहा है। देश – काल – समय की सीमाओं से परे मंत्रमुग्ध कर रहे उस वातावरण में मेरे ठीक सामने लेक पिछोला थी जिसमें सिटी पैलेस की और उदयपुर शहर के भवनों की परछाइयां झिलमिला रही थीं, मधुर कर्णप्रिय संगीत कानों में रस घोल रहा था। हमारी तंद्रा तब टूटी जब एक वेटर ने बड़े अदब से सामने आकर हमसे जानना चाहा कि हम क्या भोजन पसन्द करेंगे। न तो उसने तूफान मेल की गति से सब्ज़ियों के नाम गिनाये और न ही हमारे सामने मैन्यू कार्ड पटका। उसने हमें हमारा मैन्यू तय करने में हमारी सहायता की। एक और बहुत महत्वपूर्ण बात ये कि उसने यह भी पूछा कि हम मिर्च- मसाला हल्का पसंद करेंगे या तेज़। अंबराई में जितने भारतीय मेहमान थे, उससे भी अधिक अंग्रेज़ नज़र आरहे थे। अंग्रेज़ों के बारे में सुना है कि वह मिर्च नहीं झेल पाते हैं। ऐसे में उनका खाना उबला हुआ जैसा ही होता है जो हम भारतीयों को मरीज़ों का खाना प्रतीत होता है। ऑर्डर लेकर, दो कदम पीछे हट कर सिर नवा कर, वेटर महोदय वहां से रुखसत हो गये। उस वातावरण में हम इतने तल्लीन हो गये थे कि हमें भोजन की कोई जल्दी नहीं थी। काफी दूर दूर पर मेज़ सजाई गई थीं ताकि हमें अन्य लोग दिखाई तो देते रहें पर न तो उनकी बातचीत हमारी बातचीत में व्यवधान उत्पन्न करे और न ही हमारी बातचीत उनको खले ! एक दूसरे ने क्या-क्या आर्डर किया है, यह भी पता नहीं चल पा रहा था। वहां जितने भारतीय परिवार थे, उससे कहीं ज्यादा विदेशी युगल नज़र आ रहे थे।

पता नहीं उस मनमोहक वातावरण का प्रभाव था या खाना वास्तव में ही बहुत स्वादिष्ट था। खाना खा कर, हम अपने हसीन ड्राइवर के गुण गाते हुए और खुद को नवाब जैसा महसूस करते हुए सड़क के धीमे – धीमे प्रकाश में पैदल चल कर अपने होटल में आ पहुंचे। मेरा तो सोने का मन कर ही नहीं रहा था, घंटों अपना कैमरा लिये पहले बाहर बरामदे में और फिर कमरे में बनाई गई स्पेशल बालकनी में बैठा रहा। बेग़म को बालकनी में आने के लिये आमंत्रित किया पर उनको मेरे इरादे कुछ खतरनाक से लगे सो मुझे भी शांति से सो जाने का निर्देश देकर वह मुंह फेर कर सो गईं। मैं झील में झिलमिलाते उदयपुर को देखता रहा। उदयपुर को City of Lakes कहा जाता है। बहुत लोग इसे Venice of the East भी कहते हैं।

शायद ये उदयपुर का उत्साह ही रहा होगा कि देर से सोने के बावजूद सुबह सूर्योदय होने से पहले ही आंख खुल गई तो मैं अपना कैमरा लेकर फिर आहिस्ता से बाहर निकल आया। कमरे से बाहर बरामदे में आते ही मेरी निगाह पड़ी एक अंग्रेज़ युवती पर जो हमारे कमरे के बाहर, मेरी ही तरह पौ फटने से पहले उदयपुर की खूबसूरती अपने कैमरे में सहेज रही थी। हम दोनों में अन्तर था तो सिर्फ इतना कि वह सूर्योदय से पूर्व की फोटो खींचने के अति – उत्साह में बहुत संक्षिप्त वस्त्रों में ही अपने कमरे से बाहर निकल आई थी। उसे शायद ऐसी आशा नहीं रही होगी कि इतनी सुबह-सुबह बरामदे में और कोई भी आ जायेगा। मुझे देख कर वह सिटपिटा सी गई और एक फोटो झील की और खींच कर तुरंत अपने कमरे में चली गई! उसके जाने के बाद मेरे लिये मैदान साफ था अतः झील की कुछ फोटो मैने भी लीं! आकाश में सूर्य देवता का आगमन अभी भी नहीं हुआ था। मुझे लगा कि होटल की टैरेस पर जाकर भी देखना चाहिये कि वहां से उदयपुर का कौन – कौन सा हिस्सा दिखाई देता है। ऊपर गया तो बिल्कुल सामने ही लेक पैलेस देख कर धक्क से रह गया। सिटी पैलेस के लिये तो लेक पिछोला के उस पार जाने की जरूरत थी पर लेक पैलेस तो लेक के मध्य में ही उपस्थित था। जैसा कि मैने विकीपीडिया में पढ़ा था, लेक पैलेस का वास्तविक नाम जग-निवास है जिसका निर्माण 1743 – 1746 के दौरान महाराणा जगत सिंह के आदेश पर हुआ था। पिछोला झील में लगभग चार एकड़ यानि, 16,000 वर्ग मीटर आकार के प्राकृतिक द्वीप पर निर्मित इस बेपनाह खूबसूरत महल को अब पांच सितारा होटल के रूप में विश्व भर में ख्याति प्राप्त है और इसे most romantic hotel in India के रूप में चयनित किया गया है। महाराणा जगत सिंह मेवाड़ के राज घराने के 62वें वंशज थे और उन्होंने 1628 से लेकर 1654 के दौरान राज्य किया था। विकी पीडिया यह भी बताता है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेज़ परिवारों को यहां के तत्कालीन महाराणा ने लेक पैलेस में शरण दी थी और झील में मौजूद सभी नावों को जला दिया गया था ताकि कोई जग-निवास तक न पहुंच सके। लेक पैलेस को हम लोग केवल दूर – दूर से ही देख कर संतुष्ट हो लिये क्योंकि मेरे अतिरिक्त बाकी तीनों प्राणियों का विचार था कि इसे देखने के लिये जो टिकट रखा गया है, वह बहुत महंगा है।

होटल की छत पर सूर्योदय के समय सूर्य नमस्कार !

खैर ! होटल की छत पर मैं इधर – उधर घूमता फिरता रहा । मेरे एक ओर लेक पिछोला थी जिसके तट पर सिटी पैलेस, जगदीश मंदिर और उदयपुर के सैंकड़ों अन्य भवन दिखाई दे रहे थे तो दूसरी ओर काफी दूरी पर एक और झील नज़र आ रही थी जो शायद फतेहसागर झील थी। सिटी पैलेस के आगे पहाड़ियों पर भी एक मंदिर जैसा कुछ नज़र आ रहा था।

हमारे होटल की छत से दिखाई दे रहा एक अन्य पांच सितारा होटल – “उदय कोठी”

लेक पिछोला के ऊपर बना एक पुल – ब्रह्मपुरी पोल जिस पर से होकर पैदल बागौर हवेली, जगदीश मंदिर आदि जा सकते हैं।

आकाश में सूर्य देवता का आगमन हो गया तो १३ सूर्य नमस्कार करके मैं साढ़े छः बजे नीचे कमरे में आ गया। मुझे लगा कि अभी तो इन लोगों को तैयार होने में कम से कम एक घंटा और लगेगा अतः मैं कैमरा उठा कर होटल से बाहर आ गया और पैदल ही, लेक पर देखाई दे रहे गोलाकार पुल की ओर चल पड़ा जो मुझे होटल के कमरे और छत से दिखाई दे रहा था। किसी भी शहर को, वहां के निवासियों के जीवन को समझने के लिये पैदल घूमना अत्यन्त आवश्यक होता है। गोलाकार पुल पार करके देखा कि दाईं ओर, झील के तट पर स्नान घाट बना हुआ है जहां पर पचास साठ महिलाएं कपड़े धो रही थीं। ढेर सारे कबूतर वहां घाट पर विचरण कर रहे थे क्योंकि लोग सुबह – सुबह उनके लिये दाने बिखेर जाते हैं। लेक के इस तट पर आकर अपने होटल को पहचानने की कोशिश की । मुझे न सिर्फ अपनी बालकनी दिखाई दी, बल्कि हमारे होटल के बगल में स्थित लेक पिछोला होटल और अंबराई रेस्टोरेंट, जग मंदिर, जग निवास आदि सभी कुछ सुबह सुबह की गुनगुनी धूप में बड़े प्यारे से लग रहे थे। अगर जयपुर पिंक सिटी है, जोधपुर ब्लू सिटी है तो उदयपुर निस्संदेह व्हाइट सिटी है।

सुबह सबेरे घुमक्कड़ी

बागौर हवेली के पास स्थित घाट से दिखाई दे रहा हमारा होटल व अन्य होटल

ब्रह्मपुरी घाट पर स्थित मंदिर

और आगे बढ़ा तो दायें हाथ पर एक भीम काय दरवाज़ा और उसके भीतर सामने एक और हवेली दिखाई दी। यह बागौर हवेली थी। एक हल्की सी निगाह मार कर आगे बढ़ा तो जगदीश मंदिर आ पहुंचा।
अब मुझे चिंता होने लगी थी कि होटल में मेरी प्रतीक्षा हो रही होगी और ये तीनों ही मुंह फुलाये बैठे होंगे कि मैं न जाने कहां – कहां आवारागर्दी करता घूम रहा हूं ! तेज कदमों से वापस लौटा! एक दुकान पर गर्मागर्म पोहा बन रहा था तो खुद खाया और अपने परिवार वालों के लिये भी पैक कराया। जलेबी भी ले लीं। होटल में पहुंचा तो उसी ऐतिहासिक बरामदे में ये तीनों बैठे हुए चाय और परांठे पेल रहे थे। मैने जलेबी और पोहा भी उनके सामने रख दिये। श्रीमती जी बोलीं, “आप फटाफट दस मिनट में तैयार हो जाइये। हसीन का फोन आ गया है, वह पन्द्रह मिनट में आ रहा है।“ फिर निकलते हैं। साढ़े सात बजे तक हम सब इस स्थिति में आ गये कि माउंट आबू की यात्रा पर निकल सकें!

उदयपुर में पहला दिन और यादगार डिनर was last modified: December 20th, 2024 by Sushant Singhal
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