अब तक इस श्रृंखला में आपने पढ़ा कि कैसी रही हमारी हटिया से नागपुर की रेल और फिर नागपुर से पचमढ़ी तक की सड़क यात्रा और कैसे बिताया हमने पचमढ़ी में अपना पहला दिन महादेव की खोज में। अब आगे पढ़ें…
पचमढ़ी पर अभी तक गुजराती पर्यटकों ने धावा नहीं बोला था । पर सारे रेस्तरॉं उनके आने की तैयारी में जी जान से जुटे थे। कहीं होटल की पूरी साज सज्जा ही बदली जा रही थी तो कहीं रंगाई-पुताई चल रही थी ।वैसे भी दीपावली पास थी और उसी के बाद ही भीड़ उमड़ने वाली थी । पर अभी तो हालात ये थे कि जहाँ भी खाने जाओ लगता था कि पचमढ़ी में हम ही हम हैं ।
पचमढ़ी में दूसरे दिन का सफर हमें अपनी गाड़ी छोड़ कर, खुली जिप्सी में करना था । स्थानीय संग्रहालय को देखने के बाद हमें सीधे राह पकड़नी थी डचेश फॉल की । और डचेश फॉल के उन बेहद कठिन घुमावदार रास्तों को कोई फोर व्हील ड्राईव वाली गाड़ी ही तय कर सकती थी ।
जिप्सी मंजिल से करीब करीब १.५ किमी पहले ही रुक जाती है । जो पर्यटक दो दिन के लिये पचमढ़ी आते हैं वो डचेश फॉल को देख नहीं पाते। वेसे भी ये पचमढ़ी का सबसे दुर्गम पर्यटन स्थल है । पहले 700 मीटर जंगल के बीचों – बीच से गुजरते हुये हम उस मील के पत्थर के पास रुके जहाँ से असली यात्रा शुरु होती है ।
यहाँ से 800 मीटर का रास्ता सीधी ढलान का है और इसके 10 % हिस्से को छोड़कर कहीं सीढ़ी नहीं है । पहाड़ पर तेज ढलान पर नीचे उतरना कितना मुश्किल है ये पहले 200 मीटर उतर कर ही हम समझ चुके थे । नीचे उतरने में चढ़ने की अपेक्षा ताकत तो कम लगती है पर आपका एक कदम फिसला कि आप गए काम से । जब – जब हमें लगता था कि जूते की पकड़ पूरी नहीं बन रही हम रेंगते हुये नीचे उतरते थे ।
एक चौथाई सफर तय करते करते हम पसीने से नहा गए थे ।
अगर लगे रहो मुन्नाभाई …. में संजय दत्त को जब तब गाँधीजी दिखाई देते थे तो यहाँ आलम ये था कि घने जंगलो के बीच फिसलते लड़खड़ाते और फिर सँभलते हम सभी के कानों के पास भवानी प्रसाद मिश्र जी आकर गुनगुना जाते थे…
अटपटी उलझी लताएँ
डालियो को खींच खाएँ
पेरों को पकड़ें अचानक
प्राण को कस लें कपाएँ
साँप सी काली लताएँ
लताओं के बने जंगल
नींद में डूबे हुए से
डूबते अनमने जंगल
स्कूल में जब मिश्र जी की कविता पढ़ी थी तो लगता था क्या बकवास लिखा है घास पागल…काश पागल..लता पागल..पात पागल पढ़कर लगता था कि अरे और कोई नहीं पर ये कवि जरूर पागल रहा होगा। कितने मूढ़ और नासमझ थे उस वक्त हम ये अब समझ आ रहा था । आज उन्हीं जंगलों में विचरते उनकी कविता कितनी सार्थक प्रतीत हो रही थी ।
सतपुड़ा के हरे भरे जंगलों में एक अजीब सी गहन निस्तब्धता है। ना तो हवा में कोई सरसराहट, ना ही पंछियों की कोई कलरव ध्वनि। सब कुछ अलसाया सा, अनमना सा। पत्थरों का रास्ता काटती पतली लताएँ जगह जगह हमें अवलम्ब देने के लिये हमेशा तत्पर दिखती थीं। पेड़ कहीं आसमान को छूते दिखाई देते थे तो कहीं आड़े तिरछे बेतरतीबी से फैल कर पगडंडियों के बिलकुल करीब आ बैठते थे।
हमारी थकान बढ़ती जा रही थी। और हम जल्दी जल्दी विराम ले रहे थे। पर मजिल दिख नहीं रही थी । साथ में ये चिंता भी दिमाग में घर कर रही थी कि इसी रास्ते से ऊपर भी जाना है। हमारे हौसलों को पस्त होता देख मिश्र जी फिर आ गए हमारी टोली में आशा का संचार करने
धँसों इनमें डर नहीं है
मौत का ये घर नहीं है
उतरकर बहते अनेकों
कल कथा कहते अनेकों
नदी, निर्झर और नाले
इन वनों ने गोद पाले
सतपुड़ा के घने जंगल
लताओं के बने जंगल
इधर मिश्र जी ने निर्झर का नाम लिया और उधर जंगलों की शून्यता तोड़ती हुई बहते जल की मधुर थाप हमारे कानों में गूँज उठी। बस फिर क्या था बची – खुची शक्ति के साथ हमारे कदमों की चाप फिर से तेज हो गई । कुछ ही क्षणों में हम डचेश फॉल के सामने थे। पेड़ों के बीच से छन कर आती रोशनी और बगल में गिरते प्रपात का दृश्य आखों को तृप्त कर रहा था । शरीर की थकान को दूर करने का एकमात्र तरीका था झरने में नहाने का । सो हम गिरते पानी के ठीक नीचे पहुँच गए । जहाँ शीतल जल ने तन की थकावट को हर लिया वहीं पानी की मोटी धार की तड़तड़ाहट ने सारे शरीर को झिंझोड़ के रख दिया । वैसे डचेस फॉल तक ही ये ट्रेक खत्म नहीं हो जाता। प्रपात की धारा के साथ साथ चलकर आप ‘भारत नीर’ तक पहुँच सकते हैं।
पौन घंटे के करीब फॉल के पास बिता कर हमारी चढ़ाई शुरु हुई । हमारा गाइड तो पहाड़ पर यूँ चढ़ रहा था जैसे सीधी सपाट सड़क पर चल रहा हो। उसके पीछे मेरे सुपुत्र और जीजा श्री थे । चढ़ते चढ़ते अचानक लगा कि रास्ता कुछ संकरा हो गया है । लताएँ मुँह को छूने लगीं और झाड़ियाँ कपड़ों में फँसने लगीं। अचानक जीजी श्री की आवाज आई कि अरे यहाँ से ऊपर चढ़ना तो बेहद कठिन है । हम जहाँ थे वहीं रुक गए ओर गाइड को आवाजें लगाने लगे । गाइड ने जब हमारी स्थिति देखी तो दूर से ही चिल्लाया कि अरे ! आप लोग तो गलत रास्ते पर चले गए हैं । अब नीचे मुड़ने के लिए जैसे ही मेरे भांजे ने कदम बढ़ाए दो तीन पत्थर ढलक कर मेरे बगल से निकल गए । मैंने उसे तो वहीं रुकने को कहा पर अपना पैर नीचे की ओर बढ़ाया तो तीन चार छोटे बड़े पत्थर मेरे पीछे नीचे की ओर पिताजी की ओर जाने लगे । मेरे नीचे की ओर समूह के सारे सदस्य जोर से चिल्लाये मनीष ये क्या कर रहे हो ? मैं जहाँ था वहीं किसी तरह बैठ गया और नीचे वाले सब लोगों को गिरते पत्थरों के रास्ते से हटने को कहा । फिर एक बार में एक – एक व्यक्ति रेंगता जब पुराने रास्ते तक पहुँचा तो सबकी जान में जान आई।
वापस लौटने के पहले हम लोग कुछ देर के लिये इको प्वाइंट पर गए । सबने अपने गले का खूब सदुपयोग किया और अपने चिर – परिचित नामों को पहाड़ों से टकराकर गूँजता पाया ।
डचेश फॉल तक पहुँचने की जद्दोजहद ने हमें बुरी तरह थका दिया था । भोजन के बाद कुछ देर का आराम लाजिमी था । सवा चार बजे हम पचमढ़ी झील की ओर चल पड़े । यहाँ की झील प्राकृतिक नहीं है । जल के किसी स्रोत पर चेक डैम बनाकर ये झील अपने वजूद में आयी है । पर झील कै फैलाव और उसके चारों ओर की हरियाली को देखकर ऐसा अनुमान लगा पाना काफी कठिन है ।
दिन की चढ़ाई के बाद कोई पैडल बोट को चलाने में रुचि नहीं ले रहा था । पर धूपगढ़ जाने के पहले कुछ समय भी बिताना था। सो एक नाव की सवारी कर ली गई। झील के मध्य में पहुँचे तो दो ऊँचे वृक्षों के बीच इस छोटे से घर की छवि मन में रम गई। भांजे को तुरत तसवीर खींचने को कहा ! नतीजन वो दृश्य आपके सामने है।
झील में सैर करते-करते पाँच बज गए । अब आज तो सूर्यास्त किसी भी हालत में छूटने नहीं देना था जैसा कि पहले दिन राजेंद्र गिरि में हुआ था। इस यात्रा वृत्तांत के अंतिम भाग में देखिएगा धूपगढ़ का सूर्यास्त और पचमढ़ी का सबसे सुंदर प्रपात।