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भाग2 – ऋषिकेश – चोपता – तुंगनाथ

हम रात को सोए नहीं थे क्यूँकि ऑफिस की शिफ्ट की आदत पड़ी हुई थी। रात भर हम चेक पोस्ट वाले से आगे निकलने के लिए निवेदन करते रहे पर उसने एक ना मानी। उसके मुताबिक अगर वो हमे आगे जाने भी देता तो अगली चेक पोस्ट हमे रुकना ही पड़ता। सिगरेट और चाय पीते-पीते सुबह के 04:30 बजे बैरियर खुल गए। यहाँ से राहुल ने गाड़ी की कमान संभाल ली। हुज़ेफा को पहाड़ों मे चलाने का अनुभव नहीं था। गौरव और मैं पिछली सीट पर थे। हम दोनों मस्ती से सो गए। राहुल ने गाड़ी हिला-डुला बहुत कोशिश की पर हम नहीं उठे। हमारी ऑफिस की शिफ्ट ही कुछ ऐसी थी की घर पर भी होते तो सुबह ही जाकर सोते थे। हमे सोता देख राहुल को इर्षा हो रही थी। पर गाड़ी चलाना उसकी मजबूरी थी।

नॉएडा से मे हाफ बाजु की टी-शर्ट मे चला था लेकिन पहाड़ो पर पहुँचते ही क्या हाल हो गया था। नीचे लगी फोटो मे खुद ही देख लीजिए।

इतनी गहरी नींद की RayBan उतारने का भी टाइम नहीं मिला।


मैं सारे रास्ते सोता ही रहा। बाकी लोगों ने मुझे जगाया की नाश्ता करना है उठ जा। उठने पर पता चला की हम रुद्रप्रयाग पहुँच गए थे। यहीं से केदारनाथ और बद्रीनाथ जाने का रास्ता अलग हो जाता है। फोटो मे लाल संकेत से दिखाई हुई दुकान मे हम लोगों से नाश्ता किया। मैंने एक आलू का परांठा और दो हाफ फ्राई अंडे निपटा डाले। बिना फ्रेश हुए इतना पेल जाना भी बहुत था।

रुद्रप्रयाग के मेन बाज़ार बाज़ार मे लगा साइन बोर्ड।

यहाँ से हम लोग केदारनाथ वाली सड़क पर आगे निकल पड़े। इसी सड़क पर हमे उखीमठ से दाएँ ओर चोपता के लिए जाना था। हमने रुद्रप्रयाग पर बनी सुरंग पार करी और उखीमठ की ओर निकल पड़े। एक-आद जगह पर सड़क ख़राब थी इसके अलावा रास्ता पूरा साफ़ था।

रुद्रपरयाग मे छोटी सी सुरंग।


उखीमठ से चोपता करीब 40km है। इस सड़क पर ट्रैफिक कम ही मिलता है। रास्ते मे बहुत से गाँव आते है। चोपता जाते वक़्त सड़क संकरी हो जाती है लेकिन प्राकर्तिक खूबसूरती बढ़ जाती है।

सीडी नुमा खेत।

चोपता की ओर बढ़ते हुए। पतली सड़क और घने जंगल।

सुबह 11 बजे हम लोग चोपता पहुँच गए थे। यहाँ पर 2-3 खाने-पीने की दुकाने हैं और रात गुजारने के लिए कमरे बने हुए हैं। यहीं पर एक द्वार है जो की तुंगनाथ जाने का रास्ता है। यहीं एक दुकान मे जाकर हमने एक कमरा ले लिया उसके अंदर एक डबल-बेड और एक सिंगल-बेड लगा हुआ था जो की हम चार लोगों के सोने के लिए अति-उत्तम था। हमने कमरा ले लिया और दुकान वाले से आठ आलू के पराँठे भी बनवा लिए। मैंने टी-शर्ट उतारकर फुल बाजू की शर्ट पहन ली और ऊपर से जैकेट भी डाल ली। मैंने अपना कंबल भी ले लिया। क्यूँकि हम शाम तक ही लौटने वाले थे। आपस मे सलाह-मशौरा करने के बाद राहुल और मैं फिर से दुकान वाले के पास गए और रात को चिकन बनाने की पेशकश की। दुकान वाले ने कहा यहाँ तो नहीं मिलेगा आप उखीमठ से ले आओ। हमने कहा नीचे कौन जाएगा छोड़ो अंडा करी ही बना देना। कुछ सेकंड रुकने के बाद वो बोला कि आप पैसे दे दो, मैं फ़ोन करके पता करता हूँ अगर कोई गाड़ी ऊपर आ रही होगी तो मैं मँगवा लूँगा बाकि आपकी किस्मत।

हमने दुकान वाले को पैसे दिए, आठ आलू के पराँठे  और तुंगनाथ की ओर निकल पड़े। धुप अच्छी निकली हुई थी और अभी ठंड का एहसास रत्ती भर भी नहीं हो रहा था।

फोटो मे जो नीला गेट दिख रहा है वहीँ से तुंगनाथ की पैदल यात्रा शुरू होती है।

हुज़ेफा बैग सँभालते हुए और मैं हाँफते हुए।

हमे चले हुए आधा घंटा हो गया था। हमारे सामने बहुत बड़ा खाली मैदान था इसे बुग्याल कहते हैं। इस जगह से प्राकर्तिक सोन्दर्य देखते ही बनता था।

बुग्याल।

बुग्याल।

तभी राहुल को एक शरारत सूझी और अपने हिसाब से हमे लाइन मे बिठा कर फोटो लेने लगा। जब हम लोग वापस आए तो उसने नीचे लगी फोटो को फेसबुक पर अपलोड किया और उसपर कमेंट किया “Different Stages of Hair Fall”, logically उसका ये कमेंट बिलकुल सही था। नीचे लगी फोटो मे आप लोग भी देख लीजिए।

Different Stages of Hair Fall.


अब हम फिर से ट्रेक करते हुए तुंगनाथ की और चल दिए। 10-15 मिनट बाद आगे का नज़ारा ही बदला हुआ था। आगे पूरे रास्ते मे बर्फ की चादर सी बिछी हुई थी। हुज़ेफा और गौरव बहुत उत्साहित हो गए थे। ये दोनों पत्थर के बने ट्रेक को छोड़ पहाड़ के रास्ते चलने लगे ताकि बर्फ का भी मज़ा ले सके। राहुल और मैंने ऐसा नहीं किया क्यूँकि ऐसा करने से ज्यादा एनर्जी लगती है जिससे जल्दी थकान हो जाती है। सही कहूँ तो मैं तो थकने लगा था नहीं तो मैं भी उनके साथ मज़ा करता। एक बार मैंने जाना भी चाहा लेकिन राहुल बोला कि जरूरत नहीं है आगे और ज्यादा पड़ी होगी। वहीँ पर मस्ती कर लेना। राहुल की बात बिलकुल सही थी हमे अँधेरा होने से पहले ही वापस आना था इसलिए रास्ते मे ज्यादा टाइम बर्बाद करने मे कोई समझदारी नहीं थी। ऊपर से ये इलाका जंगलात संरक्षित छेत्र मे आता है। रात होने पर जंगली जानवर का भी डर था। मैं आपको वही बता रहा हूँ जैसा हमे दुकानदार ने बताया था।

हुज़ेफा और गौरव सीधा रास्ता छोड़ कर टेढ़े रास्ते पर।

थक गए बेचारे।

शौक पूरा होने पर या कह सकते हैं कि थक जाने के बाद ये लोग भी सीधे रास्ते चलने लगे।जैसे जैसे हम लोग आगे बढ़ते रहे बर्फ की चादर और मोटी होने लगी थी। अब ट्रेक करने वाले रास्ते मे भी संभल के चलना पड़ रहा था। एक जगह पर तो ट्रेक का रास्ता पूरी तरह से ढेह गया था। रास्ते मे पत्थर से बनी 2-3 झोपड़ी दिखीं, झोपड़ी के आस-पास और अंदर झाँकने से प्रतीत हो रहा था की ये दुकाने थी। सीजन का टाइम नहीं था इसलिए ये लोग अब वापस उखीमठ चले गए थे। चोपता पर भी दुकानदारों का यही कहना था कि वे लोग भी 10-15 दिन के बाद बर्फ गिरने की वजह से नीचे उखीमठ या फिर अपने-अपने गाँव वापस चले जाएँगे। कहने का मतलब ये था की बर्फ गिरने के बाद यहाँ कोई नहीं आएगा और ये सब भी अपना सामान समेट अपने घर को चल देंगे।

देखिए ट्रेक ही हालत।

नीचे लगी फोटो मे झोपड़ी के दरवाजे पर “जय तुंगनाथ” लिखा हुआ था तो एक फोटो खिचवा लिया। सोच के टेंशन भी हो रहा था कि यह तुंगनाथ का मंदिर है क्या? इसी को देखने के लिए यहाँ तक आये थे? ऊपर से तुंगनाथ के कपाट सर्दियों मे बंद हो जाते हैं और इस झोपड़ी का दरवाज़ा भी बंद था।

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मैं: अबे ये है क्या?

राहुल: हाँ यही तो है, देख नहीं रहा कपाट बंद हैं।

मैं: 2-3 अच्छी गाली देने के बाद। इसीलिए यहाँ तक आए थे। दम निकल गया चलते-चलते। अभी नीचे भी जाना है।

राहुल: हँसते हुए। 1 अच्छी सी गाली देने के बाद। अभी और आगे जाना है, उसके बाद चंद्रशिला भी जाना है अभी तो तेरी ____ जाएगी।

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मैंने फुल गियर पहन कर फोटो खिचाई थी।

जब राहुल ट्रिप बनाता है तो मे कभी टेंशन नहीं करता क्यूँकि वो पहले से ही पूरी रिसर्च करके रखता है। अपना काम होता है बैग मे कपड़े ठूसना और ट्रिप के लिए पैसे रख लेना। मुझे तुंगनाथ के बारे मे मालूम तो था पर इसका फोटो कभी नहीं देखा था, इसी वजह से उस झोपड़ी को देख कर निराश हो गया था।

राहुल एक शेल्टर की खिड़की पर। इस शेल्टर के अंदर भी लोगों ने अपने प्यार का इज़हार दीवारों पर गोद के लिखा हुआ था। मुझे कभी तो लगता है हिंदुस्तानी लोगों को दीवारों से प्यार है या फिर नाराज़गी है। कुछ लोग तो दीवारों पर अपने प्यार का इकरार लिख के करते है तो कुछ लोग लघुशंका करके अपनी नाराज़गी दिखाते है। ऐसा मान लो जैसे कि ये दिवार नहीं सिक्के के दो पहलू हो।

जिस खिड़की पर राहुल बैठा है वहाँ भी लिखा हुआ था “बलवंत लव-सो-एंड सो”|

हमे 2 घंटे से ज्यादा समय हो चला था। अभी तक हम लोग तुंगनाथ तक नहीं पहुँच पाए थे। एक तो ट्रेक पर बर्फ गिरी हुई थी और ऊपर से सब अपना फोटो सेशन करने मे लगे हुए थे। तभी गौरव को एक खुराफात सूझी। उसने मेरे सिर पर कंबल लपेट दिया और बोल की पूरा मॉडर्न साधू वाला लुक आ रहा है। इस लुक मे भी इन लोगों ने मेरी फोटो खींच डाली। Sometimes I felt that everyone experimented with my look in this trip. मैं भी तैयार हो गया। अगर ऐसा करने से सबको ख़ुशी मिल रही है और मेरा भी कुछ नुकसान नहीं है तो क्या फर्क पड़ता है।

अब हमारे पास टाइम कम था बहुत मस्ती कर ली थी, हमे तो तुंगनाथ से भी आगे चंद्रशिला तक जाना था। अब हम चारों ने कैमरे बंद किए और ताबड़-तोड़ आगे बढ़ने लगे। तभी मौसम ने पलटी मारी। धुप एका-एक गायब हो गई और धीरे-धीरे धुंध छाने लगी। उड़ती हुई धुंध जब चेहरे को छूती थी तो अपने अंदर की ठंडक का एहसास दिलाती थी।

धुंध

तुंगनाथ का मंदिर नज़र आने लगा था। मंदिर से पहले यहाँ पर बहुत से मकान बने हुए थे। हो सकता है सीजन के समय यहाँ फूल, प्रसाद की दुकाने लगती होंगी और रुकने की भी व्यवस्था होगी। नवम्बर मे सीजन नहीं होता इसीलिए यहाँ पर सब बंद था। हमे तो ऐसा ही अच्छा लगता है न कोई भीड़-भाड़, ना ही शोर शराबा, सिर्फ हम ही हम, आराम से घूमो जितना मान चाहे।

पहले दर्शन।

मकान, दुकान सब बंद।

प्रवेश द्वार।

सबने बार-बार द्वार पर लगा हुआ घंटा बजाय। यहाँ पर हम चारों के अलावा कोई नहीं था इसलिए जितना मन किया उतनी बार बजाते रहे। ऊपर से एक दम शांत माहौल था घंटे का शोर चारों तरफ गूँज उठता था। सब छोटे बच्चों की तरह हरकत कर रहे थे। बड़ी मुश्किल से सबको अंदर की और धकेला।

यहाँ पहुँच कर बहुत ही अच्छा लग रहा था। हमारे अलावा यहाँ पर कोई भी नहीं था। ऐसा मनो की तुंगनाथ पर हमारा ही कब्ज़ा था। प्रमुख मंदिर के अलावा यहाँ पार्वती, गणेश आदि। मंदिर के कपाट बंद थे, लेकिन सबने भगवान शिव का आशीर्वाद लिया और इस जगह की सुन्दरता का आनंद लेने लगे।

जय तुंगनाथ।

पाँच छोटे से मंदिर। शायद पांडव भाईयों को संभोदित करते हों।

मंदिर के आँगन मे। मैं, राहुल और हुज़ेफा।

दोपहर के 3:30 बज गए थे और भूख भी अपनी चरण सीमा पर पहुँच चुकी थी। काफी फ़ोटोग्राफी करने के बाद हम लोग मंदिर के आँगन मे बने एक शेल्टर के अंदर चले गए।

मंदिर के आँगन मे शेल्टर।

बैग खोल कर आलू के पराँठों का पार्सल बाहर निकाल लिया। पार्सल खोलते-खोलते ही मुह में पानी भर आया। साथ मे मिक्स अचार और काले चने की सब्जी थी। कुल मिला कर आठ पराँठे थे सबके हिस्से के दो-दो। हम सब पराँठों पर टूट पड़े। कुछ ही क्षण मे वहाँ बहुत से कौए आ धमके। ना जाने कहाँ दुपक कर बैठे हुए थे। इन सबको पराँठों की खुशबू खींच लाई थी। काँव-काँव का शोर मचा कर इन्होंने जीना हराम कर दिया था। एक कौआ तो मेरे पैरों के पास आ गया। वो  छीना-झपटी करने की ताक मे था। इससे पहले की वो कोशिश करता मैंने पराँठे के कुछ टुकड़े उसको डाल दिए। ऐसा करने मे ही मेरी भलाई थी।

मेरी इस हरकत की वजह से वहाँ बाकी के कौए भी आ गए और उनके बीच मे घमासान युद्ध होने लगा। इनको शांत करने के लिए हम लोगों को अपने हिस्से के पराँठों का बलिदान देना पड़ा। सब कौओं को हिस्सा मिला तब जाकर वो शांत हुए और फिर से गायब हो गए।

दूसरा कौआ पीछे से हमला करते हुए।

भोजन समाप्त होते-होते चारों तरफ भयंकर कोहरा हो गया था और  बादल घड़घड़ाने लगे थे। इतना ज्यादा कोहरा था कि मंदिर और आँगन के अलावा कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। तभी एका-एक स्नो फॉल होने लगा। शुरू मे तो हमने बहुत मस्ती की पर थोड़ी देर के बाद हम सब शेल्टर के अंदर चले गए और स्नो फॉल रुकने का इंतज़ार करने लगे। बहुत ही ज़ोरों से गिर रहा था बर्फ़। मेरा हाल तो इस कहावत की तरह था “सिर मुंडाते ओले पड़ना”।

Due to fog one can see nothing in the background. It seems like a photo in the studio with white background.

एक और फोटो।

ज़बरदस्त स्नो फॉल।

Fantastic Four (Myself, Gaurav, Huzefa & Rahul).

मस्ती-बाज़ी करते हुए।


सलाह करने पर यह निश्चित किया की ऐसे मौसम मे चंद्रशिला जाना ठीक नहीं है। स्नो फॉल कम थम जाने के बाद हम लोग चोपता की और वापस निकल पड़े। दोपहर के चार बज गए थे हम आराम से नीचे उतरने लगे। हमे अब कोई जल्दी नहीं थी। हमने बड़े से मैदान मे (इसे बुग्याल कहते हैं) कुछ देर आराम किया। ये जगह स्विट्ज़रलैंड की याद दिलाती थी।

एकांत मे बनी एक कुटिया देखते ही बनती थी।

Bugyal.

अब शाम हो चली थी। सूर्यास्त होने मे अब ज्यादा वक़्त नहीं बचा था। हम लोगों ने अपनी गति बढ़ा ली थी क्यूँकि जंगलात वाले इलाके मे अँधेरा होने पर कब किसी जंगली जानवर से पाला पड़ जाए कुछ पता नहीं होता। एक बार गोपेश्वर जाते वक़्त सुबह के 05:30 बजे हम लोग देवप्रयाग पहुँचने ही वाले थे।  तभी मेरा और राहुल का सामना एक तेंदुए(Leopard) से हुआ। उसने हमारी ओर देखा हमने भी उसकी ओर घूरा। ये आमने-सामने की टक्कर करीब 2-3 सेकंड की रही होगी और आखिर मे जीत हमारी हुई। सच बोलूँ तो हमारे रोंगटे खड़े हो गए थे। एक मोड़ काटने के बाद वो राहुल की i10 के सामने खड़ा था, कुछ क्षण हमारी ओर देखने के बाद वो खाई और दौड़ा पर ऐसा लगा की उसको खाई मे उतरने के लिए ठीक जगह नहीं मिली थी। करीब 3-4 सेकंड तक वो हमारी गाड़ी के आगे दौड़ा और फिर खाई मे नीचे उतर गया। आज भी वो नज़ारा और उस वक़्त हुई बातचीत मुझे अच्छी तरह याद है। मैं सही मायने मे अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझता हूँ की ये घटना मेरे साथ हुई। Leopard के साक्षात् दर्शन।

अरे मैं तो गोपेश्वर जाने लगा वापस चोपता की ओर चलते हैं। शाम के पाँच बज गए थे और सूरज भी अब बादलों के पीछे से आँख-मिचोली खेलने लगा था। सूर्य अस्त का नज़ारा देखते ही बनता था। ये क्षण हमने अपने कैमरे मे कैद कर लिए थे।

कुछ देर फोटोग्राफी करने के बाद हम लोग चोपता की और निकल पड़े। आराम से चलते-चलते करीब एक घंटे बाद हम नीचे पहुँच गए। सीधे जाकर दुकान मे घुसे और चाय का ऑर्डर दिया और दुकानदार को बोल दिया कि हमारे फ्रेश होने के लिए गर्म पानी भी कर देना। इस समय यहाँ पर एक जीप कुछ सवारियों के साथ रुकी हुई थी। लगभग अँधेरा होने ही वाला था एक अजीब सा सन्नाटा था। देख कर ही समझ मे आ रहा था की ये सवारियों की आखरी जीप होगी इसके बाद यहाँ कोई नहीं आएगा। सामान वाला बैग रखने के बाद हम लोग रूम के बाहर आ गए।

हुज़ेफा चाय का मज़ा लेते हुए।

हमारा रूम पीछे की तरफ था इसका दरवाज़ा सड़क की तरफ नहीं था बल्कि जंगल की और था। अब तक घुप अँधेरा हो गया था। अपने आसपास ही कुछ दूरी तक नज़र आ रहा था शायद 2-3 मीटर तक। मुंडी ऊपर घुमाते ही आसमान के तारे रोशनी करते हुए जगमगा रहे थे। तभी रूम मे एकाएक बत्ती भी गुल हो गई। सब लोग अपने मोबाइल की रोशनी के सहारे रूम के अंदर चले गए क्या पता कौन सा जानवर घात लगाकर बैठा हो। इस वक़्त हम दुकान वाले को कोसने लगे की यही रूम मिला था हमको देने के लिए। यहाँ पर इस समय सरकारी बिजले नहीं थी। हमारे रूम मे बैटरी वाली लाइट थी। शायद बैटरी का चार्ज ख़त्म हो गया था और दुकान वाले का मोबाइल नंबर भी हमारे पास नहीं था। अब क्या करें वैसे तो दुकान से कोई ना कोई तो आने वाला था हमने गर्म पानी जो मँगवाया हुआ था। लेकिन फिर भी अँधेरे मे कब तक बैठते। मैं और राहुल दुकान की ओर चल दिए। राहुल ने अपने मोबाइल से रोशनी की और मैंने अपने मोबाइल पर फुल साउंड मे गाने चला दिए और जोरजोर से बाते करते हुए दुकान की और चल दिए। मैंने राहुल को पीछे से पकड़ा हुआ था लेकिन मैं जल्दी पहुँचना चाहता था तो अंजाने मे उसे धक्का दे देता था। वो मुझे गली दे देता “***** के ****” धक्का क्यूँ दे रहा है मैं गिर जाऊँगा। मैं भी उसको सम्मान देते हुए बोलता “DK BOSS” धक्का नहीं दे रहा हूँ रास्ता ही एसा है। ऐसे मस्ती-मजाक करते हुए हम दुकान तक पहुँच गए। दूसरी बैटरी लगा दी गई और गर्म पानी भी पहुँच गया। हमने बन्दे को बोला की भोजन तैयार कर दो हम लोग फ्रेश होते ही आपकी दुकान मे आ जाएँगे।

फ्रेश होने के बाद हमने अपने बैग से “Old Monk” निकली और दुकान की और चल दिए। खाना भी तैयार था। रोटी गर्मा-गर्म ही बनानी थी। “Old Monk” के चक्कर मे हमने अभी रोटी बनाने के लिए मना कर दिया। हमने सलाद और अंडा भुर्जी मँगवाई। सलाद मे उसने सिलबट्टे पर पीसी हुई चटनी और अचार का मसाला मिलाया हुआ था। सलाद चखते ही मज़ा आ गया। ऐसा लगा की दुकानदार ने specially तैयार किया था। मैंने ये बात बाकि लोगों को बताई तो वो बोले की नहीं सबको ऐसे ही बनाकर देता होगा। थोड़ी देर के बाद जब वो अपना खाली गिलास लेकर हमारे पास आया तब जाकर सबको यकीन हुआ की सलाद specially तैयार किया गया था। अपना कार्यकर्म समाप्त करने के बाद हम लोगों ने जमकर भोजन किया। कुछ देर तक तंदूर के पास बैठ कर गर्मी ले और अपने रूम की और चल दिए।

मेरा चाँद मुझे आया है नज़र ऐ रात ज़रा थम-थम के गुज़र।


रात के 9 बज गए थे हम लोग सोने चल दिए क्यूँकि अगली सुबह 5 बजे उठाना था। सबसे पहले गौरव बिस्तर के अंदर घुसा था और चिल्ला पड़ा। कहता की बिस्तर गिला सा लग रहा है हमने बोल गिला नहीं भाई ठंडा हो रखा है तू अंदर ही घुसा रह गर्म हो जाएगा। रूम मे एक डबल-बेड और एक सिंगल-बेड था। एक टीन के कनस्तर मे कोयला भी जल रहा था। हुज़ेफा ने सिंगल-बेड पर कब्ज़ा कर लिया। थोड़ी देर बाद राहुल भी गौरव के साथ डबल-बेड मे घुस गया। मैंने कुछ देर कोयले की आँच मे हाथ सेके और फिर कनस्तर को रूम के बहार रख कर दरवाज़ा बंद कर दिया।

डबल-बेड के अंदर घुसपैठिये। (L-R Gaurav, Rahul)


बिस्तर मे घुसपैठ करने की अब मेरी बारी थी तभी मुझे दीवार पर एक मकड़ी नज़र आई। काफी बड़ी मकड़ी थी। मैंने नज़र घुमाई तो दो और मकड़ी नज़र आई। अब सब चौकन्ने हो गए क्यूँकि रूम की हर दीवार पर मकड़ियाँ थी।

हम सब काम मे लग गए थे एक-एक करके सारी मकड़ियों को दीवार से झाड़ कर रूम से बहार सरका दिया था। तब जाकर कहीं चैन की नींद आ पाई थी।

भाग2 – ऋषिकेश – चोपता – तुंगनाथ was last modified: April 1st, 2025 by Anoop Gusain
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