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भाग4: पैंग – ताग्लंगला ला – उप्शी – कारू– लेह……………12-सितम्बर

अभी अँधेरा ही था। बाकी गाड़ियाँ भी निकलने को तैयार हो रही थी। हम लोग फटाफट गाड़ी मे बैठे और पैंग से लेह की ओर निकल पड़े। अब जाकर राहत की सांस आने वाली थी। मेरा इरादा तो गाड़ी मे घुसते ही सोने का था। अंकल को रात बीती कहानी सुनाई गई। अंकल ने कहा “मुझे तो गाड़ी मई अच्छी नींद आई और कोई दिक्कत भी नहीं हुई”, मैंने मन-ही-मन बोल की बताने की ज़रूरत नहीं है सब लोगों को पता है। पैंग से निकलते ही चढ़ाई शुरू हो गयी थी। अब सबसे पीछे वाली सीट पर कोई नहीं बैठा था। ठंड होने की वजह से राहुल आगे और हम तीनों (मैं, हरी,मनोज) बीच वाली सीट पर बैठे हुए थे। किसी को भी अब स्वतंत्र होकर पिछली वाली सीट पर बैठने या लेटने की इच्छा नहीं हो रही थी। हल्का उजाला सा होने लगा था। फिर थोड़ी देर के बाद सूरज की किरणों ने पहाड़ों में लालिमा बिखेरी। चारों ओर मानों सोने के पहाड़ हों। नज़ारा देखने लायक था।

अब हम लोग सुस्ताने लगे, हमे सुस्ताने का पूरा हक था, पूरी रात बिना सोए हुए जो गुजारी थी। पता नहीं कब आँख लग गई। तभी ऐसा लगा की कोई बोल रहा है। आँख खोल कर देखा तो अंकल ने गाड़ी को एक बहुत बड़े से मैदान मे खड़ा कर दिया था। मेरा दिमाग ख़राब हो गया मैंने पुछा ” क्या हुआ अंकल गाड़ी ख़राब हो गयी है क्या?” अंकल बोले “नहीं यार आगे रास्ता नज़र नहीं आ रहा है” जाना कहाँ है। सब लोग उठ गए थे। राहुल बोला की यह जगह “मोरे प्लेन्स (more plains) है। यह जगह बहुत बड़े मैदान जैसी थी। इतनी ऊंचाई पर इतना बड़ा मैदान हो सकता है कभी सपनों मे भी कोई कल्पना नहीं कर सकता। इस समतल मैदान को इंग्लिश मे palteau कहते हैं। यहाँ पर सब नीचे उतर गए। कोई और गाड़ी भी नज़र नहीं आ रही थी। ये भी समझ मे नहीं आ रहा था की गाड़ी सड़क पर है या सड़क से हटकर, क्यूंकि वहाँ कोई सड़क ही नहीं थी। इतने बड़े मैदान पर जहाँ देखो हर जगह गाड़ियों के टायर्स के निशान दिख रहे थे। हम दो बड़े पहाड़ो के बीच मे थे। ये तो पक्का था की सीधे आगे ही जाना है पर इतने चौड़े मैदान मे किस ओर से आगे बढ़ना है ये पता नहीं था। हम ये सॊच रहे थे की रास्ता भटकने पर कहीं गलत पहाड़ पर ना चढ़ जाए। तभी दूर कुछ धूल उड़ती नज़र आई। कुछ इंतज़ार करने पर पता चला की वो “टाटा सूमो” है। गाड़ी को रोक कर पूछा तो ड्राईवर बोल सीधे चलते जाओ रास्ता अपने आप मिल जाएगा। उसकी मान का कर हम लोग आगे चल दिए। जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए रास्ता अपने आप मिलता गया। अब सामने वाले पहाड़ पर सांप की तरह टेढ़ा-मेढ़ा चलता हुआ रास्ता नज़र आने लगा। हम रस्ते पर चड़ते चले गए और जा पहुंचे “ताग्लंगला ला” दर्रे पर। यहाँ तक पहुँचने का सारा रास्ता कच्चा ही था।

अब हम “ताग्लंगला ला” दर्रे पर पहुँच गए थे। यह दर्रा ऊंचाई के मामले मे दुनिया में No.2 पर आता है। यहाँ पर गाड़ी रोक कर कुछ फ़ोटो लिए।

राहुल “ताग्लंगला ला” पर।


ठंड होने की वजह से पहले तो मैं गाड़ी से नहीं उतरा। लेकिन फिर राहुल ने कहा कि अब यहाँ बार-बार थोड़ी आना है, इसलिए मैंने 2-3 फ़ोटो खिचवा ही लिए। उसका कहना भी बिलकुल सही था। कुछ ही लोगों को ऐसा मौका मिलता है और बाकि लोगों की इच्छा उनके साथ ही इस दुनिया से चली जाती है। ये सॊच कर मैं तैयार हो गया था। यहाँ से हम अब नीचे उतरने लगे। अब तो हम सब घोड़े बेच कर सो गए। कई बार बीच-बीच मे नींद खुलती और फिर से प्रकृति के सौन्दर्य का आनंद लेकर हम सो जाते। मैं ड्राईवर सीट के पीछे बैठा हुआ था और मेरी दाएं ओर “Indus” नदी बह रही थी। इस नदी का स्रोत स्थान तिब्बत मे है। तिब्बत से होते हुए ये लद्दाख मे घुसती है और आगे पाकिस्तान से चलकर “अरब सागर” मे मिल जाती है। यहाँ पर पहाड़ की कटाई का काम चल रहा था। मज़दूर कच्चे पहाड़ो को तोड़ने मे लगे हुए थे। कहीं-कहीं तो पहाड़ मे छेद करके उनमे बारूद भी डाला जा रहा था। साथ मे “JCB” भी लगातार टूटे हुए पत्थरों को ट्रक मे लोड कर रहीं थी। एक जगह तो हमें 30 मिनट इंतज़ार करना पड़ा। आगे ब्लास्ट होने की वजह से सड़क की सफाई का काम चल रहा था। ऐसा लग रहा था की सड़क की मरम्मत चल रही है और जल्दी ही चारकोल डाल कर इसे नया रूप दे दिया जाएगा। एक बात बतादूं मनाली से लेह तक बुलडोज़र, JCB, रोड-रोलर, चारकोल के ड्रम सड़क के किनारे पर दिखना एक आम बात है। जैसे-तैसे ये उबड़-खाबड़ रास्ता पार करके हम आगे बढ़े। नदी पार करने से पहले ही हमारी गाड़ी को रुकवा दिया गया। पता चला की हम “उप्शी” पहुँच गए हैं। यहाँ पर “कस्टम और एक्साइज टैक्स” की चेक पोस्ट है। राहुल को परमिट के साथ अंदर भेजा गया। इस चेक पोस्ट मे भी कुछ लिखा-पढ़ी करने के बाद हमे आगे जाने का संकेत मिल गया। “उप्शी” गाँव को पार करके हम आगे बढ़ चले। उप्शी मे सड़क से हटकर एक “Helipad” भी है। उप्शी से कारू होते हुए अब हम लेह की ओर आगे बढ़ने लगे। कारू से लेह की ओर बढ़ते हुए एहसास होने लगता है की आप “military zone” मे पहुँच चुके हो।

कारू से लेह के बीच का एक फ़ोटो। इस फोटो मे दाएँ ओर हरी रंग की “military huts”


कारू से लेह की ओर जाते हुए सड़क के दोनों तरफ Army का ही राज है। Army के जवान, ट्रक्स, गाड़ियाँ, गोदाम दिखना एक आम बात सी है। रास्ते मे हमें दूर दो “monastery” भी दिखाई दी। हमने सोचा की टाइम मिलेगा तो इनको भी देखा लिया जाएगा। क्यूँकि हम वापसी मे लेह से कारगिल के रास्ते जम्मू-कश्मीर होते हुए नॉएडा वापस आने वाले थे। लो जी आ गया लेह का मुख्य दरवाजा।

गाड़ी के अंदर से लेह का पहला फ़ोटो।

आज हम पैंग से 185km का सफ़र तेय करके लेह पहुँच गए। लेह पहुँच कर बिना समय ख़राब किए हमारा सबसे पहला काम था “DC” ऑफिस जाना। वहाँ जाकर हमे “नुब्रा वेली” (nubra valley) और “पेंगोंग सो” (pangong so) जाने के लिए “Inner-Line Permit” लेना था। “DC” ऑफिस मे ज्यादा भीड़ तो नहीं थी पर ऑफिस बंद ना हो जाए इस बात का भय सता रहा था। ऊपर से सरकारी ऑफिसर कब अपनी सीट छोड़ कर चला जाए क्या भरोसा। सीमित छुटियाँ होने की वजह से हम एक दिन की देरी भी नहीं झेल सकते थे। हरी और मनोज ने तो दिल्ली से हेदराबाद का हवाई टिकेट भी करा दिया था। अगर देरी होती तो इन दोनों को मोटी चपत लगने वाली थी। परमिट का काम राहुल को सौंप दिया गया। मैं, हरी और मनोज “DC” ऑफिस के बाहर फ़ोटो लेने लगे।

हरी के पीछे लेह का पोलो ग्राउंड है। यहाँ पर अक्सर पोलो, क्रिकेट, फुटबॉल के खेल का आयोजन होता रहता है।

DC ऑफिस के बाहर धूप मे सुस्ताते हुए।


15-20 मिनट के बाद राहुल “Inner-Line Permit” लेकर बाहर आ गया। सबके चेहरे पर सुकून से भरी एक मुस्कुराहट थी। ऐसा मानो की आधी जंग जीत ली गई हो। हमे बता दिया गया था की परमिट की 4 कॉपी करनी हैं। लेह से आगे जाने पर ये कॉपी अलग-अलग चेक पोस्ट मे जमा करनी होती हैं। अब हम “DC” ऑफिस से लौट कर लेह के बाज़ार को पार करके चंग्स्पा (Changspa) रोड की तरफ चल दिए। वैसे तो यहाँ पर रुकने के लिए बहुत से होटल हैं, पर हम लोग एक सस्ती सी जगह तलाश रहे थे। क्यूँकि हम यहाँ आराम करने नहीं आये थे। हमे तो सामान रखने और रात को सोने की जगह चाहिए थी। चंग्स्पा (Changspa) वाली सड़क पर ही शांति स्तूप (Shanti Stupa) है। इससे पहले ही खाने-पीने की कुछ दुकाने देख कर हम रुक गए। वहीँ बगल मे एक गेस्ट हाउस नज़र आया। हमने वहां पुछा तो हमारी किस्मत से वहाँ 2 कमरे खली थे। 1 कमरे का किराया मात्र Rs 200 प्रतिदिन था। हम लोगों ने दोनों कमरे ले लिए। सामान कमरों मे पटक कर एक-एक करके फ्रेश हुए। इस बार अंकल ने भी गाड़ी छोड़ अपना बैग हमारे कमरे मे रख दिया था।

“हाए रे अंकल के बैग की फूटी किस्मत जो 4 दिन से लगातार गाड़ी मे पड़ा हुआ अपनी कमर तुड़वा चूका था अब लेह में आकर चैन की सांस ले पाया था।”

सबसे पहला काम था नाह-धो कर दो दिन पुराने कपड़े बदल कर फ्रेश होना। सब एक-एक करके निपट गए। हमने अंकल को भोजन करने के लिए कुछ पैसे दे दिए। वो हमारे साथ घूमने के लिए इच्छुक नहीं थे। उनकी तबीयत कुछ ढीली सी लग रही थी। हरी ने उनको एक गोली दी और आराम करने की सलाह दी। हम चारों तेयार होकर वापस लेह के मुख्य बाज़ार की ओर चल दिए। दोपहर के 2 बज रहे होंगे, भूख भी लगी हुई थी। मनाली से लेह तक ठीक सा कुछ खाने को भी नहीं मिला था।

लंच के लिए बाज़ार जाते वक़्त। फोटो मे पहाड़ी पर “शांति स्तूप” दिखाई देता हुआ।

बाज़ार मे लोग सब्जी बेचते हुए।

बाज़ार जाकर मन चाहा खाया गया। पेट-पूजा करने के बाद हम चारों ने भी शाम 5 बजे तक आराम करने का निश्चय किया। बेड पर लेटते ही ज़बरदस्त नींद आ गई। मैंने मोबाइल मे अलार्म लगा दिया था क्यूँकि आज बिना अलार्म के कोई भी उठने वाला नहीं था। शाम को हम लोग चंग्स्पा(Changspa) रोड पर आगे बढ़ते हुए शांति स्तूप(Shanti Stupa) की ओर चल दिए। वैसे तो यहाँ तक जाने के लिए मोटर रोड भी है लेकिन हमने पैदल ही जाना चाहा। यहाँ सड़क के दोनों ओर दुकाने हैं, कुछ फ़ास्ट फ़ूड की, कुछ साइबर कैफ़े और ट्रेवल एजेंट की, कुछ एंटीक पीस की। मतलब सड़क पर माहोल बना रहता है। हम लोगों की नज़रें बस एक ही दुकान को ढूँढ रही थी पर वो कहीं भी नज़र नहीं आई। शांति स्तूप एक पहाड़ के ऊपर बना हुआ था, वहां तक जाने का रास्ता हमारे सामने था। तभी हरी ने कहा “ओ माई गॉड वी हैवे टु क्लाइंब 500 स्टैर्स”, ये सुनते ही मेरी भी लग गई, मैंने पुछा कहाँ पर लिखा हुआ है मेरे भाई। वहीँ पास मे लगी हुई शिला की तरफ उसने इशारा किया। मेरे बुलंद हौसले एका-एक पस्त हो गए। लेकिन फिर से राहुल ने पंप मार कर हमे तैयार कर दिया।

शांति स्तूप की ओर जाती सीड़ियाँ। अभी तो ये शरुवात है।

अब मरता क्या ना करता चढ़ते-चढ़ते दम फुल गया। सही बोलूँ तो चढ़ाते हुए नहीं बल्कि बैठते-बैठते, जैसे-तैसे हम लोग शांति स्तूप तक पहुँच गए।

मनोज और राहुल आराम करते हुए।

यहाँ चढ़ते हुए हमने दो फिरंगियों को देखा वे दोनों सीडियों के दोनों तरफ पड़ी हुई गंदगी को उठा कर इकठ्ठा कर रहे थे। ये देख कर हम लोगों को बहुत शर्म आई। हम चारों भी इस काम मे उनकी मदद करने लगे। ऐसा करके मन को बड़ा अच्छा सा अनुभव हुआ। ये गंदगी भी भारतीयों ने ही फैलाई हुई थी और इसके विपिरीत फिरंगी इसको साफ़ करने मे लगे हुए थे। फिरंगी यही संदेश लेकर अपने देश लौटते हैं।

सफाई अभियान चालू था।

शांति स्तूप मे दो तल हैं। प्रथम तल मे बुद्धा (Buddha) के कुछ अवशेष रखे हुए है। जो कि मेरी समझ से दूर है। पर हाँ वहाँ शांति थी और एक सकारात्मक ताकत की मौजूदगी का एहसास था। दूसरे तल मे बुद्धा (Buddha) के अलग-अलग रूप दर्शाए हुए थे जैसे की जन्म लेते हुए, राक्षसों को मारते हुए, ध्यान मे बैठे हुए। शांति स्तूप मे शाम के वक़्त ही जाना उचित है क्यूँकि सूरज ढलने के बाद यहाँ से लेह बहुत ही सुंदर लगता है।

शांति स्तूप पहुँचने पर शाम हो गई।

पहली बार चारों एक साथ। L-R राहुल, मैं, हरी और मनोज।

ध्यान की मुद्रा मे बुद्धा (Buddha)

शाम होने के बाद चमकता हुआ लेह।

अँधेरा हो चूका था हम लोग वहां से वापस अपने कमरों की तरफ चल पड़े। जाकर सीधा बिस्तर पकड़ लिया। लेकिन सबको बोल दिया गया की बिना भोजन किए कोई नहीं सोएगा। जिस दुकान को हम सब लोग ढूंढ रहे थे पूछने पर पता चला की वो तो नीचे जाकर लेह के मेन बाज़ार मे ही मिलेगी। सबको दावा-दारू की ज़रुरत महसूस हो रही थी। जिसको नहीं हो रही थी उसे महसूस करवा दी गई। हम चारों की हाँ थी पर अब बाज़ार तक जाने की हिम्मत नहीं थी। अंकल बोले गाड़ी लेकर चले जाओ टेंशन किस बात की है। गाड़ी आराम से गेस्ट हाउस के अंदर सुरक्षित खड़ी थी। हमारे जगह पर कोई और गाड़ी लगा दे और फिर हमे बाहर गाड़ी खड़ी करनी पड़े ये अपने को मंज़ूर नहीं था। दावा-दारू के प्रोग्राम को रद्द कर दिया गया। ठीक से याद नहीं है तभी किसी ने कहा कि शायद हमारे पास दावा की एक बोतल बची हुई है। फिर क्या था मज़ा आ गया। अंकल बोले मैं खाना खा कर आता हूँ तुम लोग एन्जॉय करो। अब थकान का कोई नामो-निशान न था। रात के 10 बजे तक प्रोग्राम निपटा लिया गया। पास के एक रेस्तरां मे जाकर दाल,मिक्स वेज और कड़ाई पनीर का डिनर किया और अपने-अपने बिस्तर की ओर चल पड़े। तबीयत थोड़ी ढीली होने की वजह से अंकल ने एक और बिस्तर हमारे कमरे मे लगवा दिया था। अभी तक के सफ़र मे अंकल आज पहली बार कमरे के अंदर सोए। तो ऐसा बीता लेह मे हमारा पहला दिन। लेह से आगे का सफ़र अगले पोस्ट मे……………………………………..

भाग4: पैंग – ताग्लंगला ला – उप्शी – कारू– लेह……………12-सितम्बर was last modified: February 19th, 2025 by Anoop Gusain
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